________________ प्रथमः सर्गः टोका-रुचिरेण-सुन्दरेण पतत्रिणा पक्षिणा हंसेनेत्यर्थः वशिसम -रहितम् तत् पश्यपम् =सरः प्रविहाय त्यत्रो प्रयाम्स्याः = गच्छन्त्याः श्रियः सोमायाः अब च लक्ष्म्याः चलत. पहे-चरणो अम्मोहे- कमले इवेति पदाम्मोर ( उपभित तत्पु० ) चलन्ती च ते पदाम्भोरुहे (वर्मपा० ) तयोः तत्र स्थितयोरित्यर्थः यौ नूपुरौ = मन्जोरे ( स० तत्पु.) ताभ्याम् उपमा=सादसम् ( तृ० तत्पु० ) यस्याः तयाभूता (ब० बो०) कलहंसानाम् = राजहंसानाम् मण्डल्लीसमूहः (प० तत्पु०) कूले = सरसः तटे चुकूज= शब्दयाञ्चक्र // 127 // ग्याकरण-पतत्री = पतत्रे गरुतौ अस्यास्तीति पतत्र+इन् ( मतुवर्थ ) / रुचिर-रोचते इति +किरच / चुकूजज् +लिट / हिन्दी-सुन्दर पक्षा से वञ्चित. उस सरोवर को छोड़कर जा रही श्री (शोमा, लक्ष्मी) के हिछ रहे कमल-जैसे चरणों के नुपूरो के समान राजहंसों को मण्डलो तोर पर शम्द करने मो॥ 127 // टिपली-यहाँ कवि ने श्री शब्द में श्लेष रखकर बड़ी अनोखी कल्पना की है। श्री शोभा और लक्ष्मी देवी को भी कहते हैं / उस स्वर्ण हंस के नल द्वारा पकड़े जाने पर क्रोडासर की सारी शोमा बाती रही। इस पर कवि कन्पना यह है कि मानो सरोवर के कमलों में रहने वालो (पद्मालया)छक्ष्मी देवी चली जा रही है और साथी के एकडे जाने पर तीर पर शन्द करते हुए हंस लक्ष्मीदेवी के बजते हुए नुपूर हों। वैसे मो कोई नायिका प्रियतम के चले जाने पर मिलन-स्थान को छोड़कर नुपूरों को झनझनाती हुई वापस चली जाती है। यहाँ दो विमिन्न श्रियों के अभेदाध्यवसाय से अतिशयोक्ति, कलहंस-मण्डी की नूपुरों से तुलना में उपमा, अपने साथी के पकड़े जाने पर अन्य हंसों के उड़कर कूजने में यथावत् पक्षि-स्वभाव के वर्णन से स्वभावोक्ति और कल्पना में गम्योत्प्रेक्षाइन समी का अङ्गाङ्गिभाव संकर है। कूले 'कल' में छंक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास शब्द लंकार है // 127 न वासयोग्या वसुधेयमीदृशस्त्वमङ्ग यस्याः पतिरुज्जितस्थितिः / इति प्रहाय क्षितिमाश्रिता नभः खगास्तमाचुक्रुशुरारकैः खलु // 128 // अन्वयः- “अङ्ग यस्या उज्झित-स्थितिः ईदृशः त्वम् पतिः ( असि ) ( सा ) इयम् वहुधा वास. गोबा म ( अस्ति ) / " इति क्षितिम् प्रहाय नमः आश्रिताः खगाः मारवैः तम् आचुक्रुशुः खलु // टीका-श्रङ्ग ! हे ! यस्याः वसुधायाः उमिता= त्यक्ता स्थितिः = मर्यादा येन तय भूतः (20 बो०) ईशः= एतादृशः निरपराधस्यास्माकं सह नरस्य ग्रहणे अधर्म कुर्वाण: स्वम् पतिः= पालक: बसीति शेषः, सा इयम् वसुधा पृथिवी वासस्य योग्या (प० तत्पु०) निवासान बस्तीति शेषः, इति क्षितिम् - वसुधाम् प्रहाय त्यक्त्वा नभः=आकाशम् प्राश्रिताप्राप्ता: खगाः पक्षिणः हंसा इत्यर्थः आरवैः शन्दः तम् = नलम् प्राचुकुशुः=निन्दितान्तः खलु स्युस्प्रेक्षायाम् // 128 // म्याकरण वसुधा वसूनि ( रत्नानि ) दधातीति वसु+Var+कः / क्षितिः क्षियन्ति =