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________________ 108 . नैषधीयचरिते निवसन्ति प्रापिनोऽत्रेति /क्षि+क्तिन् अधिकरणे / खगाः खे=आकाशे गच्छन्तीति ख+ गम् + ड। पारवैः आ+/+अप् मावे। :प्राचुकशुः आ+/कश् +लिट (प्र० पु० व०)। हिन्दी-"अरे, जिस ( वमुधा ) का मर्यादा भंग किये हुए तू पति है, ( वह ) यह वसुधा रहने योग्य नहीं"-इस तरह वसुधा को छोड़कर आकाश में गये हुए पक्षी कूजन-शब्द से मानो उस (नल ) को धिक्कार रहे थे // 1.8 // टिप्पणी-कोई स्थान यदि अच्छा भी क्यों न हो, किन्तु खतरे से भरा हो तो उसे छोड़ना हो पड़ता है-इस सार्वजनीन तथ्य पर कवि की कल्पना यह है कि मानो वसुधा के पति को मर्यादा विरुद्ध आचरण वाला देखकर हंसों को वसुधा-रत्नगर्मा-छोड़नी ही एड़ो और आकाश में जाकर दुष्ट राजा को चिल्ला-चिल्लाकर विक्कारना ही पड़ा। यहाँ उत्प्रेक्षा है, जो खलु शन्द द्वारा वाच्य है। वसुण शब्द के सामिप्राय होने से परिकरार हैं। 'वास' 'वसु' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। पहले वसुधा शब्द से उद्देश करके बाद को प्रतिनिर्देश भी कवि को वसुधा शब्द से ही करना चाहिए था न कि क्षिति शब्द से। उद्देश प्रतिनिदेशभाव-भंग साहित्य-दृष्टि से दोष ही माना जाता है।१२८॥ न जातरूपच्छदजातरूपता द्विजस्य दृष्टेयमिति स्तुवन्मुहुः / अवादि तेनाथ स मानसौकसा जनाधिनाथः करपारस्पृशा // 129 // अन्धयः-अथ 'इयम् जातरूपाच्छद-जात-रूपता द्विजस्य न दृष्टा' इति मुहुः स्तुवन् स जनाधिनाथः कर-पज्जर-स्पृशा तेन मानसौकसा अवादि। टोका-अथ = एतदनन्तरम् इयम् एषा जातरूपस्य = सुवर्णस्य ( 'चामीकरं जातरूपंमहार जत-काश्चने'=इत्यमरः ) यौ छदौ= पक्षी (10 तत्पु० ) ताभ्याम् जातम् उत्पन्नम् ( त. तत्पु० ) रूपम् = सौन्दर्यम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० बी० ) भावः = तत्ता सुवर्णपक्षकृतसौन्दर्यमित्यर्थः द्विजस्य = पक्षिणः हंसस्येति यावत् न-( मया ) दृष्टा= अवलोकिता' इति = हेतो मुहः पुनः पुनः स्तुवनू = तत्सौन्दर्य प्रशंसन्नित्यर्थः सः-प्रसिद्ध; जनानाम् अधिनाथः= अधि पतिः ( 10 तत्पु० ) राजा नल: करौ एव पारः ( कर्मधा० ) तम् सृशतीति तयोक्तेन ( उपपद तत्पु० ) करतल-गतेनेत्यर्थः तेन मानसोकसाहसेन (हंसास्तु-श्वेतगरुतश्चक्राङ्गा मानसौकस इत्यमरः ) प्रवादि = कथितः // 129 // व्याकरण-छदः छदतीति / छद्+अच् कर्तरि द्विजस्य इस शब्द के लिए पीछे श्लोक है। देखिए / मानसौकाः मानसम् एतत्सशकं सरः भोकः निवासस्थानं येषां ते (ब० वी०) प्रवादि Vवद्+लुङ् कर्मवाच्य / हिन्दी-तदनन्तर-"पक्षी ( हंस ) को सोने के पंखों से उत्पन्न हुई यह सुन्दरता (कमो नहीं देखो" इस तरह बार-बार प्रशंसा करते हुए इस नरेश की हाथ रूपी पिंजरे में बंधा वह हो बोला // 126 // टिप्पणी-यहाँ करों पर पजरत्वारोप में रूपक है। 'जातरूप' 'जातरूप' में यमकई अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। 'द्विज' और 'जातरूपच्छद' शब्दों में श्लेष है। 'द्विज' का दूसरा
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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