________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-जल-बाहुल्य के कारण तड़ाग पर समुद्र की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है, जो वाचक शब्द न होने से गम्य है। समुद्र के यहाँ आने का कारण यह हुआ कि पहले तो देवासुरों ने मिल कर उसका मन्थन करके उसके सभी चौदह रत्न निकाल लिये थे। मन्यन हुए बहुत समय बीत गया और इस बीच रत्न मी बढ़ कर संख्या में अब पहले की अपेक्षा कितने ही अधिक हो गये। फिर कहीं उसका मन्थन ही न कर बैठे और उसके रत्न न निकाल ले-इस हेतु डर के मारे वह इस वन में छिपकर रह रहा है / कवि की बड़ी अनूठी कस्पना है। पहले के समुद्र की अपेक्षा इस वर्तमान समुद्र में रत्न अधिक होने के कारण व्यतिरेक भी है। उत्प्रेक्षा वाचक शब्द के अभाव में विद्याधर ने यहाँ समासोक्त मानी है और यह अप्रस्तुत अर्थ गम्य कहा है कि जिस तरह कोई धनी अपना बहुत-सा संचित धन यह भय खाकर कि कहीं कोई राजा आदि न ले बैठे, लाकर कहीं जंगल में छिपा कर रहने लगता है, उसी तरह समुद्र ने भी किया है / किन्तु हमारे विचार से समुद्र तो यहाँ प्रस्तुत ही नहीं है प्रस्तुत तो तड़ाग है। अपस्तुत से अपस्तुत की गम्यता में समासोक्ति होती ही नहीं। अतः यहाँ गम्यत्प्रेक्षा हो मानना ठीक है। 'रत्न' 'रत्ना' और 'वने' 'sजनी' में छेक एवं अन्यत्र वृत्त्यनुपास है // 107 // पयोनिलीनाभ्रमुकामुकावल्लीरदाननन्तोरगपुच्छसुच्छवीन् / जनार्धरुद्धस्य तटान्तभूमिदो मृणालजालस्य निभात् बमार यः // 108 // अन्वयः—यः जलाधरुद्धस्य तटान्तभूमिदः मृणाल-जालस्य निमात् अनन्तोरगपुच्छसुच्छवीन् पयो रदान् बभार / / 108 / / टीका-यः= तडागः जलेन = अर्ध यथा स्यात्तथा रुखस्य = छन्नस्य अर्थात् अर्धतिरोहितस्य तटस्य =तीरस्य अन्तःप्रान्तमाग: (10 तत्पु०) तस्मिन् या भू-भूमिः ( स० तत्पु० ) ताम् भिनत्ति = मनक्ति इत्युक्तस्य तीर-समीपभूमिमुभिद्य निर्गतस्येत्यर्थः ( उपपद तत्पु०) मृणालानाम् = विसानाम् जालस्य = समूहस्य (10 तत्पु० ) निभात् = व्याजात् ('निमो व्याज-सदृक्षयोः इति विश्वः ) अनन्त अनन्तः = अनन्ताख्यः य उरगः = नागः शेष इत्यर्थः ( कर्मधा० ) तस्य यत् पुच्छम्लाङ्गलम् (10 तत्पु० ) तद्वत् ( उपमान तत्पु०) सुशोभना छविः क न्ति: ( प्राप्ति तत्पु० ) येषां तथाभूतान् (ब० बी०) पयो० पयसिजले निखीना: भग्नाः ये अभ्रमु कामुकाः ( कर्मधा० ) अभ्रमूखाम् दिग्गजानां करेणूनाम् ये कामुकाः = इच्छुका ऐरावता इत्यर्थः तेषां यां पावली=समूहः तस्या रदान् =दन्तान् ( सर्वत्र प० तत्पु०) बभार=दधौ / तट-पान्तोद्भिन्नमृणालसमूहः / जलतिरोहितैरावधिप्रकाशित आसन्निति तत्र बहव ऐरावतास्तिष्ठन्ति स्मेतिमावः // 10 // व्याकरण-कामुकः कामयते इति/कम् +उकञ्। यहाँ 'न लोकाव्यय०' (पा० 2 / 36) से षष्ठी का निषेध होकर 'अभ्रमूः कामुका' इति द्वितीया समासो भधुपिपासुवत' यह मल्लिनाथ पता नहीं क्यों लिखगये, क्योंकि ' कमेरनिपेषः यह वार्तिक 'काभुक' में षष्ठी के निषेध का निषेव मर्याद षष्ठी का विधान कर रहा है, देखिये मोनी-'लक्ष्म्याः कामुको हरिः' भूमिद भू+/मिद् + क्विप् कर्तरि / 1. सच्छवीन् 2. मिषात् / .