________________ हिन्दी-जो ( तडाग ) जल से आधा ढके हुए, तट के पास की भूमि को फोड़े ( फोड़कर ऊपर निकले ) मृणाल समूह के बहाने शेष नाग के पूंछ की-सी कान्तिवाले, पानी में छिपे ऐरावत :मूह के दाँतों को धारण कर रहा था / / 108 // टिप्पणी-पिछले श्लोक में तड़ाग-रूपी समुद्र में बहु-संख्यक रत्नों का उल्लेख आया है। यहाँ सबसे पहले बहुत से ऐरावत बताये गये हैं, जो पानी के भीतर छिपे हुये हैं किन्तु श्वेत मृणालदण्डों केबाज से जिनके आधे दाँत ही ऊपर दिखाई दे रहे हैं। इस तरह व्यतिरेकालंकार पूर्ववत् चला आ रहा है, किन्तु यहाँ 'मिष' शब्द वाच्य कैतवापत ति से उसका संकर हो रखा है। 'पुच्छ' 'उछ' घोर 'पाल' 'जाल' में तुक मिलने से पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 108 / / तटान्तविश्रान्ततुरङ्गमच्छटा-स्फुटानुबिम्बोदयचुम्बनेन यः। बभो बलद्वीचिकशान्तशावनैः सहस्त्रमुच्चैः श्रवसामिवाश्रयन् // 109 // अन्वयः—यः तटान्त "चुम्रनेन वाचिकशान्तशातनैः चलन् उच्चैःश्रवसाम् सहस्रम् अयन् हा बमो। .. टोका-यः = तडागः तटा०-सटस्य = तीरस्य अन्ते प्रान्तमागे ( स० तत्पु०) विश्रान्ताः . विभमं कुर्वाणा: स्थिताः इति यावत् (60 तत्पु०) ये तरंगमाः= अश्वा नलस्येति शेषः (कर्मधा०) रोषां छटा=णिरित्यर्थः तस्याः स्फुरः= स्पष्टः (10 तत्पु०) यः अनुबिम्बः= प्रतिविम्बः (कर्मधा० ) तस्य उदयः= आविर्भावः तस्य चुम्बनेन=सम्बन्धेन ( सर्वत्र प० तत्पु०) जलपतिताना तुरंगम-प्रतिबिम्बानां व्याजेनेत्यर्थः वीचयः=तरङ्गाः एव कशाः अश्वताडिन्यः ( 'अश्वादेस्ताडनी कशा' इत्यमरः ) ( कर्मधा० ) तासाम् अन्ता:=प्रान्ताः (प० तत्पु० ) तैः यानि शातनानि = चाइनानि ( तृ० तत्पु० ) तैः चलम् = चञ्चकम् उच्चैःश्रवसाम् = एतत्संशकानाम् अश्वानाम् सहस्रम् =दशशतीम् श्रयन् = प्राप्नुवन् श्व बभौशुशुमे। तीरप्रदेशस्थितानां नलाश्वानां प्रति. सिम्बनात् जले उच्चैः श्रवसा प्रतीतिर्मवति स्मेति भावः। एतेन नलाश्वानां उच्चैःश्रवोभिः साम्यं धन्यते / / 106 // व्याकरण- विश्रान्त गि/+श्रम् क्तः कर्तरि / तुरङ्गमः तुरं ( शीघ्रं ) गच्छतीति तुर+ Viम् +खच् मुम् / शातनम् शो+णिच् +त+ ल्युट् / हिन्दी-जो ( तड़ाग ) तट के पास विश्राम ले रहे घोड़ों को पंक्ति के स्पष्ट प्रतिबिम्ब पड़ने के सम्बन्ध के कारण, हिलती हुई तरंग रूपी चाबुकों की नोकों के प्रहारों से दौड़े जा रहे हजारों उच्चैः भवाओं को रखता हुआ जैसा लग रहा था / / 109 / / टिप्पणी-पिछले श्लोक में ऐरावतों की अधिकता बताई गई है / तरंगों के हिलने से प्रातिबिम्बों का हिलना स्वामाविक है, अत: घोड़ों की पानी में हिलती हुई परछाइयों ऐसी लग रही हैं मानों का के मोतर रहने वाले हज़ारों उच्चैः श्रवा चाबुक को मार खाकर दौड़े जा रहे हों / इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है जिसका व्यतिरेक और वीचि कशा' वाले रूपक के साथ संकर बना हुआ है। विद्याधर ने यहाँ अपहति मी मानी है किन्तु अपह्नति वाचक कैतव आदि शब्द यहाँ कोई नहीं है। यदि अपह्नव