SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैषधीयचरिते 'नूनम्' उत्प्रेक्षा-वाचक है। इस सम्बन्ध में देखिये साहित्य-दर्पण-मन्ये शके ध्रुवं प्रायो नूनमिस्येवमादयः। उत्प्रेक्षा-व्यञ्जकाः शम्दा इव शब्दोऽपि तादृशः // ' 'मृगीदृशाम्' में लुप्तोपमा रानियों के दिन-रात रोते रहने के रूप में घुमा-फिराकर (भंग्यन्तरेण ) नल ने "राजाओं को मार दिवा"-यह गम्य बात कह दी गई है, अतः पर्यायोक्त ('गम्यस्यापि मङ्गयन्तरेणाख्यानं पर्यायोक्तम्') मी है। 'रिता' 'रोति 'दृशो दंशः' में छेकानुप्रास है / यह इन सबको संसृष्टि है // 11 // सितांशुवर्णैर्वयति स्म तद्गुणैर्महासिवेम्नः सहकृत्वरी बहुम् / दिगणनाङ्गावरणं रणाङ्गणे यशःपटं. तद्भटचातुरीतुरी // 12 // अन्वयः-महासि-वेम्नः सह-कृत्वरी तद्भटचातुरी-तुरी रपाङ्गये सितांशु-वण: तद्-गुणः दिगङ्गनाङ्गाऽऽवरणं बहु यशःपटं वयति स्म // टीका-महा.-महान् चासौ असिः खगः महासिः / कर्मधा० ) स एव वेमा वयनदण्डः ( 'पुंसि वेमा वाय-दण्डः' इत्यमरः) (कर्मधा० ) तस्य सहकृत्वरी= सहकारिणी तबट०तस्य = नलस्य भटाः = सैनिकाः तेषां चातुरीचतुरता युद्धनैपुण्यमित्यर्थः (प० तत्पु० ) एव तुरीनिष्पन्न वस्त्र-वेष्टन दण्डः रणः- युद्धम् एव प्राणम् = चत्वरम् ( कमेधा० ) तस्मिन् सिता. सिताः श्वेताः अंशषः=किरपाः (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः चन्द्र इत्यर्थः (ब० वी० ) तदव वर्णः ( उपमान तत्पु.) येषां तैः शुभैरित्यर्थः ( ब० बी० ) तस्य =नलस्य गुणैः= शौर्यादिमिः एव गुणः = तन्तुभिः दिग०-दिशः एष भङ्गनाः ( कर्मधा० ) तासाम् अङ्गानाम् = अवयवानाम् बावरणम् - आच्छादकम् (10 तत्पु०) बहु-विशालम् यशः कीतिः एव पट:वस्त्रम् (प. तरपु० ) वयतिस्मततान / नल-शौर्य विनैव तटैः शत्रुन् विजित्य तद्-यशश्चतुर्दिक्षु विस्तारितमिति मावः // 12 // व्याकरण-सहकृस्वरी-सह करोतीति सह+V+किनप् + ङोप् / चातुरी-चतुरस्य माव इति चतुर+अ - डीप / प्रावरणम्-आवृणोतीति आ+/a+ल्यु ( कर्तरि ) / हिन्दी-विशाल खहरूपी करघे की सहयोगिनी उस (नल ) के सैनिकों की चतुरतारूपी तुरी ( माकु, डरकी ) रणाङ्गण में चन्द्रमा जेसे ( श्वेत ) उस ( नक) के गुणों ( शौर्यादि ) रूपी गुपों (तन्तुओं ) से दिशा-रूपी अंगनाओं के अङ्गों को ढकने वाला विशाल यश-रूपी पट बुनती थी॥१२।। टिप्पणी नल के सैनिक हो इतने शूरवीर थे कि वे स्वयं ही शत्रुओं का नाश करके उसके यश पर चार चाँद लगा देते थे। कुछ टीकाकार यहाँ 'तद्-मट', में 'सः= नलश्चासौ भटः' यों (कर्मधा० ) विग्रह करके तत् शब्द से नल को ही लेते हैं, क्योंकि प्रकरण नल के शौर्य का चल रहा है, न कि उसके सैनिकों का अर्थात् स्वयं वह योधा नल अपने शौर्य कर्म से यश-अर्जन करता था। यहाँ, पर वेमा, चातुरी पर असितुरी, दिशाओं पर अङ्गनाओं, स्वगुणों पर गुणों (सूत्रों) और यश पर पट का आरोप है। उनमें मुख्य यश-पट है, शेष उसके अङ्ग हैं इसलिए यह साङ्ग-रूपक है, गुणशम्द में श्लेष है। 'तुरी' 'तुरी' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 12 / / प्रतीपभूपैरिव किं ततो मिया विरुद्धधमैरपि भेत्ततोज्झिता / अमित्रजिन्मित्रजिदोजसा स यद्विचारक्चारगप्यवर्तत // 16 //
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy