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________________ प्रयमः सर्ग: अन्वयः-प्रतीप-भूपैः इव विरुद्ध-धर्मः अपि यतः मिया मेत्तता उज्झिता किम् ? यत् सः बोजसा अमित्रजित ( अपि ) मित्रजित् , (अथ च ) विचार-दृक् अएि चार-दृक् अवर्तत / टीका-प्रतीपाः विरुद्धाश्च ते भूपाः नृपाः तः ( कर्मपा० ) व विरुद्धाच ते धर्माः = स्वमावाः तैः ( कर्मधा० ) अपि ततः तस्मात् ( नलात् ) भिया = मयेन भेत्तृता= मेदकत्वम् , उपजापः नल-प्रजासु अन्तभेद इति यावत् उज्मितात्यक्ता किमिति प्रश्ने उत्प्रेक्षायां वा, यदयतः सः=नलः श्रोजसा तेजसा भ्रमित्रान् = शत्रून् जयतीति तथोक्तः ( उप० तत्पु० ) अपि मित्रजित् = सुहृत्-जित् , यः खलु अमित्रजित् स कथ मित्रजित् इति विरोधः, तत्परिहारश्च ओजसा मित्रम् = सूर्य जयतीति तथोक्तः, अर्थात् नलः स्व-प्रतापेन शत्रनपि जयति स्म, सूर्यमपि च जयति स्म / विचार-विगताः चारा:=गुढ-पुरुषाः ( 'चारश्च गूढपुरुषः' इत्यमरः ) एव दृग् यस्य तथामूतः (ब० ब्रो० ) अपि चारदृग् यः खलु विचार-दृग् स कथं चारदृग् इति विरोधः तत्परिहारश्च विचार:= विवेकः शास्त्रमिति वा दृग् यस्य सः अर्थात् स शास्त्र-चक्षुषा, चार-चक्षुषा च पश्यति स्म, ययोक्तम्"वारैः पश्यन्ति राजानः"अवतंत= आसीत् / व्याकरण-ततःभिया-यहाँ भय हेतु में पञ्चमी है। भेत्तता=भिनत्तीति /भिद्+तृ+ तल +टाप् / उज्झिता-Vउज् झ् +क्त ( कर्मणि) अमित्रजित- जि+क्विप् ( कर्तरि) चारः चरतीति/ वर+अच् ( कर्तरि ) चर एवं चारः ( अण् स्वार्थे ) / हिन्दी-विरोधी राजाओं की तरह नल की डर से विरुद्ध धर्मों ने भी विरोधिता छोड़ दी है क्या ? क्योंकि वह ( नल ) तेज से अमित्र-विजेता ( शत्र-विजेता ) भी था और मित्र विजेता (1) मुहत्-विजेता (2) (सूर्य-विजेता) भी था) एव विचार-दृक् / (1) विना चारों-गुप्त चरों-के देखने वाला (2) विचार=विवेक-से देखने वाला) भी था, और चार-दृक् [चारों से देखने वाला ) भी था // 13 // टिप्पणो-यहाँ कवि ने अमित्र, मित्र एवं विचार, चार शब्दों में श्लेष र वकर विरोधाभास की अनोखी छटा दिखा रखी है। जो व्यक्ति अमित्र-शत्रु-को जीतता है, वह भला मित्र-मुहत्-को क्यों जीतेगा ? वह तो उसका स्नेह-प.त्र होता है। अतः यह बिलकुल विरुद्ध बात है, लेकिन मित्र शब्द का सूर्य अर्य करके विरोध-परिहार हो जाता है अर्थात् ना अपने तेज से सर्य को जीतने वाला था। इसी तरह विचार-दृक्-बिना-चारों-गुप्तचरों-के देखने वाला होता हुआ मी चार-दृक्चारों से देखने वाला था। यह भी विरुद्ध बात है। किन्तु विचार का अर्थ विवेक करके समाधान हो जाता है। इस बात की तुलना विरोधी राजाओं से की गई है, जिन्होंने नल से भय खाकर उसकी प्रजा में भेत्तृता-उसके विरुद्ध प्रजा में फूट डालना-छोड़ दिया था। यहाँ उपमा है जी 'किम्' शब्द द्वारा वाच्य उत्प्रेक्षा की भूमि बना रही है, उत्प्रेक्षा भी विरोधाभास का अङ्ग बनी हुई हैइस तरह यहाँ इन सभी का अङ्गाङ्गिभाव-संकर है। उसका भी 'मित्र' 'मित्र' 'चार' 'चार' से बने यमक के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर है // 13 // तदोजसस्तधशसः स्थिताविमौ वृथेति चित्ते कुरुते यदा यदा / तनोति मानोः परिवेषकैतवात्तदा विधिः कुण्डलनां विधोरपि // 14 //
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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