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________________ 1 नैवधीयचरिते अन्वयः-विधिः यदा यदा पदोमसः तद्-यमसः ( च ) स्थितो इमो च्या-इति चित्ते कुरुते, तदा ( तदा ) मानः विधोः अपि परिवेष-कैतकात कुण्डलनाम् तनोति / . टोका-विधिः- ब्रह्मा यदा-पदा- यस्मिन् यस्मिन् समये तस्य = नलस्य भोजसः-तेजसः (50 तत्पु० ) तस्य = नलस्य यशसः कोः (10 तत्पु०) (च) स्थिती-विद्यमानत्वे सत्तायामिति यावत् इमौसूर्य-चन्द्रो वृथा-म्पयौँ इति चिचे कुरुते-विचारयतीत्यर्थः तदा तदा तस्मिन् तस्मिन् समये मानोः सूर्यस्य विधोःचन्द्राय भपिच परि० परिवेषः परिधिः (परिवेषस्तु परिधिरुपसूर्यक-मण्डले' इत्यमरः ) एव कैतवम् = व्याजः तस्मात् (कर्मधा० ) 'कपटोsखो ब्याज-दम्भोपधयश्छद्म-कैतवे' इत्यमरः) कुरडलनाम् = वैयर्थ्य-सूचकं रेखा-मण्डलमित्यर्थः तनोति =करोति अर्थात् यत् कार्य सूर्य-चन्द्रौ कुरुतः तत् नलस्य तेजो यशश्चैत्र कुरुतः तस्मात् तौ ग्यवेव / नलस्य प्रतापः यशश्च सूर्य चन्द्रमपि च विजयेते इति मावः // 14 // व्याकरण-परिवेषः परि+/विष् +घञ् कैतवम्=कितवस्य भावः इति कितव = अण् / कुरा उलना= कुण्डलं करोतीति कुण्डल+णिच् कुण्डलयति ( नाम धा० ) बनाकर/कुण्डल+ युच ( मावे+टाप ) / हिन्दी-ब्रह्मा जब-जब यह सोचते हैं कि उस ( नल ) के तेज और यश के रहते-रहते सूर्य और चन्द्रमा बेकार हैं, तब-तब वह परिवेश के बहाने उनके इर्द गिर्द गोल घेरा बना देते हैं // 14 // टिप्पणी-परिवेष (१)-हम देखते हैं कि कमी-कमी सूर्य और चन्द्रमा के इर्द-गिर्द दीप्तिरेखा ( halo ) बनी रहती है, जो कि एक प्राकृतिक दृश्य ( Phenomenon ) होता है / इस पर कवि की कल्पना है कि मानो वह व्यर्थता-सूचक गोल रेखाचिह्न है, क्योंकि सूर्य का काम नल का तेज और चन्द्र का कार्य उसका यश ही कर देते हैं, फिर उनकी क्या आवश्यकता है। लिखते समय जब हम किसी अझर को दो बार लिख बैठते हैं, तो एक पर आज-कल तो कस (x)का चिह बना देते हैं, लेकिन अतीत में उसके इर्द-गिर्द गोल रेखा-चिह्न बनाने की प्रथा यो / इससे यह धनि निकली कि नल का तेज सूर्य की तरह उज्ज्वल और यश चन्द्रमा की तरह धवल है। यहाँ परिवेष पर कुण्डलना की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है जो वाचक पद के न होने के कारण गम्य है, वह मी परिवेष के अपहन करने से हुई है, इसलिए यह कैनवापहुन्युत्यापित उत्प्रेक्षा कहलाई। 'विधि:' 'विधोः' आदि में अनुपास है // 14 // अयं दरिद्रो भवितेति वैधसी लिपि ललाटेऽर्थिजनस्य जाग्रतीम् / मृषा न चक्रेऽल्पितकल्पपादपः प्रणीय दारिद्रयदरिद्रता नलः // 15 // अन्वयः-प्रल्पित-कल्पपादपः नृपः दारिद्रय-दरिद्रता प्रषीय 'अयम् दरिद्रः मविता'. इति अधिजनस्य ललाटे जाग्रतीम् वैषप्तीम् लिपिम् मृषा न चक्रे / टीका-अक्षिप०-अल्पितः= अल्पीकृतः अधःकृत इति यावत् चासौ करूप-पादपः कल्पवृक्षः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः (ब० बो०) नृपः - राजा नला दारिदयस्प-निर्धनतायाः दरिद्रताम् = अमावमित्यर्थः प्रणीय-कस्वा अर्थात् अथिंजनाय धनं. दवा वस्य धनामावं निराकृत्य'
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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