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________________ प्रथमः सर्गः अन्वयः-यदम्नु-पूर-प्रतिविम्बितायतिः मरुत्तरङ्गः तरलः तट दुमः निमज्य सतः पक्षान् धुवतः मैनाक-महीभृतः सपक्षताम् तनान / ____टीका-यस्य तडागस्य अम्बु-जलम् तस्य यः पूरः= प्रवाहः ( उभयत्र 50 तत्पु० ) तस्मिन् प्रतिबिम्बिता= प्रतिफलिता ( स० तत्पु० / प्रायतिः= दैय॑म् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब०बी०) महता-वायुना चालिताः तरङ्गाः मरुत्तरङ्गाः (मध्यमपदलोपो स० ) तेः तरल:चल:, तटस्य = तीरस्य द्रुमः = वृक्षः (10 तत्पु० ) निमज्ज्य =जले निलीय सतः = विद्यमानस्व पवान् = मरुतः धुवतः= कम्पयतः मैनाकः = एतत्ससंशकश्चासौ महीभृत = पर्वतः ( कर्मधा० ) तस्य सपक्षताम् =सादृश्यम् अथ च पक्षप्तहितत्वम् ततान = विस्तारयामास / तडागतीरस्थितवृक्षो जळे प्रतिविम्बितः, चञ्चलतरङ्गकारणात् चञ्चलीभवन् जलान्तनिलीन-मैनाकपर्वत-समानो दृश्यले स्मेति भावः // 116 // व्याकरण-पूरः पूर्+घञ् वृद्धयभाव / प्रतिबिम्बित प्रतिबिम्बः संजातोऽस्येति प्रविबिम्ब+इतच् / धुवतः धू+शत+पसपक्षता पक्षः ( गरुद्भिः) सह वर्तमान इति सपना. अथ च समानः पक्षः ( स्थितिः ) यस्य स सपक्षः सह और समान को स आदेश, तस्यमावः तत्ता। हिन्दी-जिस ( तड़ाग ) के जल-पवाह में प्रतिबिम्बत हुई लम्बाई वाला, वायु से हिलाई गई तरंगों से चञ्चल बना हुआ तट का वृक्ष ( पानी में ) डूबे और पंखों को हिला रहे मैनाक पर्वत की सपमता (समानत; पक्षयुक्तता ) कर रहा था // 116 // टिप्पणी-समुद्र के भीतर मैनाक पर्वत रहता है। इस तालाब में किनारे की वृक्ष को हिलतो हुई लंबी पर छाई मैनाक के समान बनी हुई है अर्थात् यहाँ भी मैनाक पर्वत रह रहा है। मैनाक हिमालय का पुत्र, पार्वती का भाई है, जो इन्द्र द्वारा सभी पर्वतों के पंखों के काटे जाने के समय माग कर समुद्र में जा छिगा था और अब भी डर के मारे वहीं रह रहा है। यहाँ मैनाक की वृक्षप्रतिविम्ब के साथ समानता बताई जाने से उपमा है, जो सपक्षता शब्द में श्लिष्ट है। सखा आदि शब्दों की तरह सपक्ष शब्द सादृश्य अर्थ बताने में लाक्षणिक है ! प्रतिबिम्बित वृक्ष की लहराती टहनियों में हिलते हुए पंखों की समानता थी। 'तर' 'तर' और 'पक्षा' पक्ष' में छेक और अन्य वृत्त्यनुपास है / / 116 // पयोधिलक्ष्मीमुषि केलिपल्वले रिंसुहंसीकलनादसादरम् / स तत्र चित्रं विचरन्तमन्तिके हिरण्मयं हंसमबोधि नैषधः // 117 // प्रियासु बालासु रतिक्षमासु च द्विपत्रितं पल्लवितं च विभ्रतम् / स्मरार्जितं रागमहीरुहाङ्कुरं मिषेण चञ्च्चोश्चरणद्वयस्य च // 118 // अन्वयः-स नैषधः तत्र पयोधि-लक्ष्मी-मुषि केलि-पल्वले रिरंसु-हंसी-कल-नाद-मादरम् , अन्तिके विचरन्तम् , बालासु रति-क्षमासु च पियासु चञ्च्चोः चरण-द्वयस्य च मिषेष द्विपत्रितम् पल्कवितम् / स्मराजितम् राग-महोरुहाङ्करम् बिभ्रतम् , चित्रम् हिरण्मयम् हंसम् अबोधि // 117-198 // 1. चञ्चा:
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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