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________________ प्रथमः सर्गः मातंकित हुए उस (0) को यह शंका हुई कि वियोगी और वियोगिनियों के विनाश हेतु उदय हुबा यह पुच्छल तारा तो नहीं // 11 // -टिप्पणी-दीप-ज्वाला-सदृश पीली चम्पक कली के ऊपर भ्रमरपंक्ति बैठ जाने से वह ऊपर से काली हुई पड़ी थी। इस पर कवि ने उसपर धूमकेतु की कल्पना कर दी। धूमकेतु पुच्छल तारे को कहते हैं, जो धुओं सा छोड़ता दिखाई देता है / यहाँ भ्रमर-समूह धुंआ का स्थानापन्न है / जब कभी पुच्छल तारा दिखाई दे तो महाविनाशको शंका हो जाती है वन की चम्पक-कली मो विरहियों हेतु बड़ा खतरा बनी रहती है। यहाँ उत्प्रेक्षा है और उसका वाचक शङ्क धातु है, देखिये-'मन्थे, शके ध्र वं प्राय उत्प्रेक्षा-वाचका इमे' ) शब्दालंकार 'पीय' 'पेय' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। चम्पक कलियों पर भ्रमर-पंक्ति पिठाकर कवि फिर कविख्याति-विरुद्धता दोष ला गया है। हो सकता है कि उसे चम्पक-भ्रमर विषयव कवि ख्याति स्वीकार न हो // 11 // गलत्परागं भ्रमियङ्गिमिः पतत्प्रसक्तभृङ्गावलि नागकेसरम् / स मारनाराचनियर्षणस्वलज्ज्वलत्कणं शाणमिव व्यलोकयत् // 92 // अन्वय:-सः गलत्परााम् भ्रमि-मङ्गिमिः पतत्प्रसक्तभृङ्गावलि नागकेसरम् मारकणम् शापम् इव व्यलोकयत् // 92 // ___टोका-स नलः गन् - पतन् = परागः रजः ( कर्मधा० ) यस्मात् तथाभूतम् (ब० वी०) भ्रमिः= भ्रमणम् तस्याः मणिभिः = रचनाविशेषः प्रकारैरिति यावत् पतन्ती= वृक्षात् आगत्य उपरि 'भ्रमन्तीत्यर्थः च प्रसक्त = लग्ना च ( कर्मधा० ) भृङ्गावलिः भ्रमर-पंक्तिः (कर्मधा० ) यस्मिन् तथा मूतम् ( ब० वी० ) मावलिः भृङ्गाणाम् आवकिः (ष० तत्पु. ) नागकेसरम् = पृष्पविशेषम् मार०. मारः कामः तस्य नाराचाःबाणाः तेषां निघर्षयात् - तीक्ष्णीकरणादित्यर्थः (10 तत्पु०) स्खलन्तः श्यन्तः(पं० तत्पु०) च ज्वलन्तः= देदीप्यमानाश्च (कर्मधा०) कणाः = स्फुल्लिङ्गाः ( कर्मधा० ) यस्मा तथाभूतम् ( ब० वी०) शाणम् =निकषोपलम् ('शाणस्तु निकषः कषः' इत्यमरः) इव व्यतोकयत् अपश्यत् // 92 // व्याकरण-गलत गल्+शत / भ्रमिः भ्रम् +इमावे / प्रसक प्र+/सज्ज+क्त कर्तरि / निघषण नि+/पष् + ल्युट मावे / ज्वलन् /ज्वल् +शत् / हिन्दी-रस (नक ) ने नागकेसर-पुष्प को जिससे पराग झड़ रहा था और जिस पर मंडराने के ( नाना )कारों से भ्रमर-पंक्ति टूट पड़ रही थी तथा बेठी हुई थी, ऐसा देखा मानों वह शाप हो, जिससे तेज करने हेतु) कामदेव के वाणों के रगड़े जाने के कारण जलते अग्नि-कण निकल रहे // 12 // टिप्प-नागकेसर एक काफी बड़ा गोल-गोल फूल होता है जिसे हिन्दी में नाहोर कहते हैं / इसकी पंखुर्या श्वेत और केसर चमकीले पोले रङ्ग के होते हैं नल ने उस पर तरह-तरह से मण्डराती र बैठी भ्रमर पंक्ति देख ली। बस फिर क्या था, उस पर गोल-गोल शाण की कल्पना कर बैठा कालो भ्रमर-पंकि शाप पर तेज किये जा रहे कामदेव के बाप बोर मड़ते हुये पी.
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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