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________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-इस श्लोक में लता के सभी विशेषण ऐसे हैं, जो किसी नवोढा नायिका पर भी संगत हो जाते हैं / वह भी चूमो जाने पर पसीज जाती है, मुस्कराहट में कली-सी दंतड़ियो दिखला देती है, और साविक भाव में कांप-सी जाती है। इस तरह यहाँ विशेषण साम्य से प्रस्तुत नव उता पर अप्रस्तुत नवोढा का व्यवहार-समारोप होने से सभासोक्ति अलंकार है। 'दरा' 'दरा' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्र.स है / हो सकता है वायु द्वारा झकझोरी बातो हुई 'जुहू की कली' के चेतनीकृत शारीरिक चित्र हेतु प्रेरणा प्रसिद्ध छायावादा कवि निराला को यहीं से मिली हो / / 85 / / विचिन्वतीः पान्यपतङ्गहिंसनैरपुण्वकर्माण्यलिकज्जलच्छलात् / व्यलोकयच्चम्पककोरकावलोः स शम्बरारेवलिदीपिका इव // 86 // भन्धयः-सः पान्थ-पतङ्ग-हिंसनैः अलि-कन्जल-च्छलात् अपुण्य-कर्माणि विचिन्वतीः चम्पककोरकावलीः शम्बरारेः बलि-दीपिका एव व्यलोकयत् / . टीका-सः=नकः पान्थाः पथिकाः इव पतङ्गाः = शलभाः ( कर्मधा०) तेषां हिंसनैःमारणः (10 तत्पु० ) भलयः=भ्रमराः एव कालम् = अज्जनम् (कर्मधा० ) तस्य छलात्पिषात् न पुण्यम् अपुण्यम् पापम् ( न तत्पु० ) तस्य कर्माणि = कार्याणि (50 तत्प०) विचिक्तोः =अर्जयन्तीरित्यर्थः चमकानाम् पीतवर्ण-पष्पविशेषाणाम् यानि कोरकाणि = कुङमलानि (10 तत्पु० ) तेषाम् भावजीः पङ्क्तीः (10 तत्प) शम्परस्व = राक्षसविशेषस्य भरेः शत्रोः (10 तत्पु०) मारकस्येत्यर्थः कामदेवस्येति यावत् बजिःपूजा तस्यै दीपिकाः दीपान् ( च० तत्पु० ) व न्यलोकयत् = अपश्यत् / पीतवर्णचम्पक कलिकाः कामदेव-पूजायां दीपका इव प्रतीयन्ते स्मेति भावः // 66 // ___ व्याकरण-पान्यः पन्यानं गच्छति नित्यमिति पयिन् + पान्थादेशश्च ( 'पन्थो ण नित्यम्' पा०५।१.७५) / पतङ्गः पतन् ( उत्प्लवन् ) गच्छतीति पतत+ गम् +3 / हिंसनम् हस्+ ल्युट भावे / विचिन्वतीः वि+/चि+शत+डीप द्वि० न० / दीपिका-दीप एवेति दीप+कन् +टाप इत्वम् / हिन्दी-उस (नल ) ने परिक-रूपी शलमों को मार देने से भ्रमर-रूपी काजल के बहाने पाप-कर्मों को बटोरती हुई चम्पा को कलियों का समूह ऐसा देखा जैसा कि वे कामदेव की पूजा हेतु, दीये ( रख ) हो // 86 // टिप्पणी-चम्पाको कलिकायें कामोद्दीपक होने से विरहियों को मार ही देती है जैसे दीपको की लौ पतंगों को मारा करती है / दीपकों की लौ से जो काला कज्जल बनता है,वह मौरों के रूप में कलियों में जमा हो रहा पाप है इस तरह यहाँ पान्थों पर पतङ्गत्वारोप में रूपक, अलियों पर कज्जल. स्वारोप में भी रूपक, कज्जलका अपहन करके उस पर पाप को स्थापना में अपह ति और कलियों पर बलि-दीपिकायों को कल्पना में उत्प्रेक्षा होकर इन चारों अलंकारों का अंगागिमात्र संकर बना हुमा है। 'ण्य' 'oय' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास शब्दालंकार है। वैसे कविजगत में यह ख्याति चली आ रही है कि चम्पा के फूलों पर भ्रमर नहीं बैठा करते। इस सबन्ध में देखिए:-रूप-सौरम
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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