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________________ प्रथमः सर्गः समृदिसमेतं चम्पकं प्रति ययुन मिलिन्दाः / कामिनस्तु जगृहुस्तदशेषा ग्राहकादि गुणिनां कति न स्युः // किन्तु कवि ने इस ख्याति के विरुद्ध उन पर भ्रमर बिठाये हैं, इसलिए यहाँ कवि ख्याति-विरुद्धता दोष है / / 86 // अमन्यतासौ कुसुमेषु गर्भगं' परागमन्धङ्करणं वियोगिनाम् / स्मरेण मुक्तेषु पुरा पुरारये तदङ्ग भस्मेव शरेषु सङ्गतम् // 87 // - अन्वयः-असौ कुसुमेषु गर्भगम् वियोगिनाम् अन्धकरणम् परागम् परा स्मरेण पुरारये मुक्तेषु शरेषु सङ्गतम् तदङ्गमरम इव अमन्यत / टोका-प्रसौ- नलः कुसुमेषु पुष्पेषु गर्ने अभ्यन्तरे ( स 0 तत्पु० ) गच्छति इति गर्भगम् ( उपपद तत्पु० ) गर्भस्थमित्यर्थः वियोगिनश्च वियोगिन्यश्चेति वियो गनः ( एकशेष द्वन्द्व ) तेषाम् अन्धं करोतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) अन्धत्वापादकम् , नयनपतितेन भरमना अन्धत्वं जायते एव परागम् = पौष रजः पुरा=प्राचीन-काले स्मरेण = मदनेन पुरारये = महादेवाय महादेवं लक्ष्यीकृत्येत्यर्थः मुक्केषु प्रहृतषु शरेषु बाणेषु सङ्गतम् = लग्नम् तस५ = महादेवस्य अङ्गम् =शरोरम् (10 तत्पु० ) तस्मिन् भस्मविभूतिः ( स० तत्पु०) इव अमन्यत= अतर्कयत् अर्थात् मानबाणगत-परागः महादेव-शरीर-सम्पर्केण संक्रमितं मस्मेव प्रतीयते स्म / / 87 // म्याकरण--गभंगम् गर्म + गम् +ड / अन्धारणम् अनन्धम् अन्धं कुर्वन्त्यनेनेति प्राधान V+ख्युन् ( 'रि' के अर्थ में ) युको मन और मुम् का आगम / हिन्दी-उस ( नल ) ने फूलों के भीतर स्थित एवं विरहियों को अन्धा बना देने वाले पराग को प्राचीन काल में मदन द्वारा महादेव पर फेंके गये बापों में लगा हुआ उन ( महादेव ) के शरीर का भस्म जैसा समझा // 87 // टिप्पणी-इस श्लोक में फूलों के पराग पर कवि-कल्पना यह है कि वह मानों भस्म हो जो महादेव के शरीर पर लगो रहती है और मदन द्वारा उनपर बाण फेके जाने पर उनके शरीर के सम्पर्क से वापों में संक्रामित हुई पड़ी हो। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है, जिसको अमन्यत शब्द वाच्य बना रहा है। मिन् धातु के उत्प्रक्षा-वाचक होने के विषय में देखिये साहित्यदर्पण-'मन्ये, शङ्के ध्रुवम् प्राय उत्प्रेक्षा-वाचका इमे'। 'पुरा' 'पुरा' में यमक है / / 87 // पिकाद्वने शृण्वति भृङ्गकृतैर्दशामुदञ्चत्करुणे वियोगिनाम् / अनास्थया सूनकरप्रसारिणीं ददर्श दूनस्स्थलपमिनी नलः // 88 // अन्वयः-दूनः नलः उदञ्चत्करुणे बने पिकात् भृग हुङ्कृतैः वियोगिनाम् दशाम् शृण्वति (सति) अनास्थया सून-कर-प्रसारिणीम् स्थल-पभिनीम् ददर्श / टीका-दूनः संतसः नलः उदश्चन्तः= विकसन्तः करुणाः=करुपाख्यवृक्षविशेषाः (कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूते (20 बी० ) अथ च सदश्चन्ती लद्भवन्ती करुणा दया यस्मिन् 1. कुसुमेषुगर्भजम्। 2. उदचित्करुणे /
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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