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________________ नैषधीयचरिते इसके साथ 'सह'-शब्द वाच्य सहोक्ति है। प्रमज०-न घोड़े ने शिक्षक बनना है न वायु ने शिष्य, इसलिए यह लाक्षणिक प्रयोग है जिसका अभिप्राय यह है कि घोड़ा वायु से भी तेज दौड़ने वाला था। 'क्षणा' क्षणे' में छेकानुप्रास है। 'पुरो' 'पुरु' 'पौरु' में व्यजनों की आवृत्ति एक से अधिक बार होने से यहां छेक न होकर वृत्त्यनुपास ही है। 'दृष्टि' 'वृष्टि' में 'ऋष्टि'-'ऋष्ट' की तुक बनने से पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास है // 67 // ततः प्रतीच्छ प्रहरेतिमाषिणी परस्परोल्लासितशल्यपल्लवैः / मृषामृधं सादिबले कुतूहलानलस्य नासीरगते वितेनतुः // 18 // अन्धयः-ततः 'प्रतोच्छ, प्रहर' इति भाषिणो परस्पर वैः नासीर-गते नलस्य सादि-बले कुतू. हलात् मृषा मृधम् वितेनतुः। - टीका-ततः = तत्पश्चात् 'प्रतीछ=गृहाण, प्रहर=प्रहारं कुरु' इति भाषिणी = वदन्ती परस्परम् = अन्योन्यम् यथा स्यात्तथा उस्लासितानि = उत्थापितानि शल्यपल्लवानि तोमराग्राणि (कर्मधा० ) शल्यानाम् पल्लवानि (प० तत्पु० ) याभ्यां तथाभूते ( ब० वी० ) नासीरम् = सेनामुखम् गते- प्राप्त ( 'सेनामुखं तु नासीरम्' इत्यमरः) सादिनाम् = अश्वारोहिणाम् बले- सेना. द्वयम् (10 तत्पु० ) कुतूहखान-कौतुकात् मृषा= मिथ्या मृधम् = युद्धम् ('मृधमास्कन्दनं संख्यम्' इत्यमरः ) वितेनतुः चक्रतुः / अश्वारोहिणां सेनाद्वयं परस्परं कृत्रिम युद्धमकरोदिति मावः // 68 // ___व्याकरण-प्रतीच्छ = प्रति+Vs+लोट (मध्य० पु. ) भाषिणी-भाषेते इति /माष् पिन कतीर, ध्यान रहे कि माषिणी शब्द यहाँ नपुंसक प्रथमा द्विवचन है। परस्परम् परं परम् इति कस्कादि होने से सकार हो गया है उल्लासित= उत् +/लस्+पिच्+क्तः कर्मणि / वितेनतुः= वि+/तन+लिट् (प्र० पु० दि०)। हिन्दी-तदनन्तर-'लो ग्रहण करो' 'प्रहार करो'- इस तरह कहती हुई और परस्पर (प्रहार करने हेतु ) मालों के किनारों को उठाये, सेना के अग्र-माग में स्थित नरू की दो घुड़सवार सेनायें कौतूहल-वश नकली लड़ाई लड़ने लगीं / / 68 / / टिप्पणी-विद्याधर ने यहाँ अतुपासोपमालंकार लिखा है। अनुप्रास तो 'पर' 'परो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है ही किन्तु उपमा किस स्थल में है-यह हमारी समझ में नहीं आ रहा है। प्रयातुमस्माकमियं कियत्पदं धरा तदम्मोधिरपि स्थलायताम् / इतीव वाहैर्निजवेगदर्पितैः पयोधिरोधक्षममुद्धतं रजः // 69 // अन्वयः-इयम् धरा अस्माकम् प्रयातुम् कियत् पदम् ? तत् अम्भोधिः अपि स्थलायताम् इति श्व निज-वेग-दर्पितैः वाहै: पयोधि-रोध क्षमम् रज: उद्धतम् / टीका-इयम् धरा= पृथिवी अस्माकम् प्रयातुम् = गन्तुम् कियत् पदम् = पाद-विक्षेपः ? न किमरीति काकुः न पर्याप्तमिति भावः पद शब्दोऽत्र जातावेकवचनम् द्वित्राणि पदान्येवभविष्यन्ति तत् तस्मात् कारणात् आभोधेिः समुद्रः अपि स्थलायताम् = स्थानम् इव आचरतु गमनार्थ स्थली.
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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