SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमः सर्गः 49 टीका-अथ-तत्पश्चात् अवटुः कृकाटिका गलनिम्नप्रदेश इति यावत् ( 'अवटुर्षाटा कृकाटिका' इत्यमरः ) तस्मात् गच्छत्तीति तथोक्तेन (उपपद तत्पु०) प्रान्तरेख-मध्यवत्तिना प्रध्वना मागंण निगालः गलप्रदेशः तत्र गच्छतीति तस्मात् ( उपपद तत्पु० ) गलस्थितादित्यर्थः देवमणिः कण्ठावर्तरोमभ्रमर इति यावत् एव देवमणिः कौस्तुभः समुद्रमन्थने समुद्रादुद्गतो मणिविशेषः ( यो विष्णुना धृतः ) ( देवमणिः शिवेऽश्वस्य कण्ठाबतें च कौस्तुमे इति विश्वः ) तस्मात् अस्थितैः उद्गतैः श्वेत्युस्प्रेक्षायाम् निशीथिनी निशा तस्याः नाथः पतिः चन्द्र इत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) तस्य यानि महांसि तेजांसि ( 'महस्तूत्सव-तेजसोः' इत्यमरः ) किरणा इत्यर्थः (प० तत्पु०) तेषां सहोदरः सदृशः (10 तत्पु० ) केसराः सटा एव केशा बालाः केसर-रूपकेशा इति यावत् एव रश्मयः किरणाः ( कर्मधा० ) तैः विराजितम् शोभितम् 'हयम्' स नल आरुरोहेति सप्तमश्लोकेन सम्बन्धः / 58 // व्याकरण-गामिन् गम् =इन् ( शीलाथें ) प्रान्तरेण अन्तरस्य मध्यभागस्येदमिति अन्तर+प्रण। सस्थितैः उत्+/स्था+क्त कर्तरि / ०सहोदरैः यहाँ ( 'पोपसर्जनस्य' पा० 6 / 6 / 82 ) विकल्प से सह को 'स' आदेश नहीं हुआ। हिन्दी-तत्पश्चात् (नल घोड़े पर चढ़ गया)-जो घुघु वी ( अवटु ) से लेकर ( ऊपर जाने वाले ) मीतरी मार्ग से गले पर के रोमावर्त रूपी कौस्तुभ माण से निकलो, चन्द्रमा की किरणों के समान केसर ( अयाल ) के बालों-रूपी किरणों से जैसे शोभित प्रतीत हो रहा था / / 58 // टिप्पणी-यहाँ तथ्य तो यह है कि घोड़े के गले के नीचे घुघुवी के पास रोमावर्त ( बालों का मौरा ) था ( यह एक बड़ा शुभ लक्षण माना जाता है) और गले के ऊपर केसर ( अयाल ) चमक रहे थे। इस पर कवि-कल्पना यह है कि रामावर्त रामावर्त नहीं बल्कि गले में धारण किया कौस्तुभ मणि है। इसी तरह कसर के बाल वाल नहीं बल्कि नीचे की कौस्तुभ मणि से फूट रही किरणे गले के भीतरी मार्ग से ऊपर आई हुई हैं। इस कल्पना में 'देवमणि' शब्द का बड़ा योग है, क्योंकि वह रामावर्त और कौस्तुभ-दोनों का वाचक है। इसलिए रोमावर्त पर कौस्तुमत्वारोप केसरों पर रश्मित्वारोप का कारण होकर यहाँ परम्परित रूपक बना रहा है और वह भी श्लिष्ट / श्व शन्द उत्प्रेक्षा का वाचक होने से उसका परम्परित रूपक के साथ अङ्गाङ्गिभाव संकर है। उसके साथ सहोदर-शब्द-वाच्य उपमा संसृष्ट हो रही है। सहोदर शब्द सादृश्य-वाचन में लाक्षणिक है। जैसे सहादर भाई परस्पर समान होते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और कौस्तुभ की श्वेत किरणें मी समान थीं। सहोदर शब्द को लाक्षणिक न मानकर यदि वाचक ही माने तो उपमा नहीं बनेगी, क्योंकि कौस्तुम को किरणे और चन्द्रमा की किरणें सहोदर ही हैं। चन्द्रपा और कौस्तुम दोनों मन्थन के समय समुद्र में से निकलने के कारण सहोदर भाई हैं हो। 'केसर' 'केशर' ( रश्मिभिः ) में यमक भोर अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास शब्दालंकार है। * इस श्लोक से लेकर सातवें श्लोक तक घोड़े के विशेषण चल पड़े हैं / जहाँ एक ही वाक्य पाँच से लेकर पन्द्रह तक चला जाता है उसे 'कुलक' कहा करते हैं // 58 / / /
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy