________________ प्रवमः सर्गः मेदे अमेदातिशयोक्ति खड़ी करके काम पर वृक्षत्वारोप से रूपक बनाता है, फिर उनसे चन्चु और चरणों का अपहव करके उनमें द्विपत्रित और पल्लवित अंकुर की स्थापना से अपह ति जोड़कर द्विपत्रित और पल्लवित अनुराग का क्रमशः बालाओं और रतिक्षमाओं से सम्बन्ध बताकर यथासंख्य भी दिखा रहा है / इसके बाद यह कल्पना करता है कि चोंच और चरणों का यह राग मानो बाहर प्रकट हुआ। हंस का भीतरी राग (प्रेम ) है। यह उत्प्रेक्षा है, जो गम्य है वाच्य नहीं / इस प्रकार यहाँ इन सभी का अङ्गाङ्गिभाव संकर है। ‘पयोधिलक्ष्मीमुषि' में उपमा है, क्योंकि हम पीछे बता आये है कि दण्डी ने 'सौन्दर्य चुराना' आदि लाक्षणिक मुहावरों का सादृश्य में हो पर्यवसान माना है। उपमा की यहाँ संकर से ससृष्टि हो मानी जाएगी। केलिपल्वले-एक ओर कवि सरोवर को 'पयोधि लचमीमुषि' बता रहा है. तो दूसरी ओर उसे 'केलिपल्वले' कह रहा है। पल्वल अल्प जल वाली तलैया को कहते हैं जिसमें मला इतनी शक्ति कहाँ कि वह ‘पयोधि-लचमी-मुट' बने / यह कवि का अनौचित्य ही समझिये। यहाँ केलिपरसि कहना ही उचित था / / 117-118 // महीमहेन्द्रस्तमवेक्ष्य स क्षणं शकुन्तमेकान्तमनोविनोदिनम् / प्रियावियोगाद्विधुरोऽपि निर्भरं कुतूहलाक्रान्तमना मनागभूत् // 119 // अन्वयः-स महीमहेन्द्रः एकान्त-मनोविनोदिनम् तम् शकुन्तम् क्षणम् अवेक्ष्य प्रिया-वियोगा निर्मरम् विधुरः अपि ( सन् ) मनाक् कुतूहलाक्रान्त-मनाः अभूत् / टोका-सःमधाः इन्द्रः महेन्द्रःपृथ्वीन्द्रः (10 तत्पु.) एकान्तम् नितान्तं यथा स्यात्तथा मनोविनोदयति रजथतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु०)। तम् शकुन्तम् पक्षिणम् हंसमित्यर्थः क्षणं मुहूर्तम् अवेच्य अवलोक्य प्रियायाः प्रणयिन्याः दमयन्त्या इति यावत् वियोगात् विरहार (प० तत्पु० ) निर्भरम् भृशं यथा स्यात्तथा विधुरः विह्वलः अपि ( सन् ) मनाक् ईषद् यथा स्यात्तथा कुतूहलेन-कौतुकेन आक्रान्तम् अधिष्ठितम् (तृ० तत्पु०) मनः चित्तम् ( कर्मधा.) यस्य तथाभूतः (20 बी०) प्रभूत् सनातः // 116 / / म्याकरण-समम् कालात्यन्त-संयोग में द्वि० / विनोदिनम् वि+नु+पिच्+पित् ताच्छील्याथें द्वि०। विधुरः विगता घूः-कार्य-मारो यस्मादिति ( प्रादि ब० वी० ) दुःखी। हिन्दी-वह पृथ्वी का इन्द्र ( नल ) अतिमनो-रजक उस पक्षी को अपमर देखकर प्रिया-वियोग के कारण अन्यन्त विह्वल होता हुआ मो मन में कुतूहल-पूर्ण हो उठा // 19 // टिप्पणी-'मही' 'महे' और 'कुन्त' 'कान्त' में छेक, 'मना' 'मना' में यमक और अन्यत्र वृत्यनुप्रास है / / 116 // अवश्यमव्येष्वनवग्रहग्रहा यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा / तृणेन वास्येव तयानुगम्यते जनस्य चित्तेन भृशावशास्मना // 120 // अन्वयः-प्रवश्य-मन्येषु अनवग्रह-अहा वेधसः स्पृहा यया दिशा, धावति, तया भृशावशात्मना बनस्य चित्तेन तृणेन वात्या इव ( वेधसः स्पृहा ) अनुगम्यते / टीका-अवश्यं यथा स्यातथा भव्येषु भवितव्येषु शुमाशुमायेंषु (सुप्-सुपेति समासः)