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________________ यह सुनकर श्रीहर्ष का क्रोध शान्त हो गया। राजा दोनों पण्डितों को महल के भीतर ले गये और उनका परस्पर आलिंगन कराके पुराना वैर समाप्त करा दिया। श्रीहर्ष को राजा ने एक लाख सुवर्ण-मुद्राएँ पुरस्कार में दीं। शान्त चित्त हुए श्रीहर्ष को एकबार राजा ने कहा-'वादोन्द्र, कोई काव्य रचो' / तदनुसार इन्होंने 'दिव्य रस वाला, महागूढ व्यङ्गयभरा' नैषधीय-चरित महाकाव्य रचा। उसे राजा को दिखाया, तो वे बहुत प्रसन्न हुए और बोले-'तुम्हारा यह कवि-कम बड़ा स्तुत्य है, किन्तु इसे लेकर काश्मीर जाओ और वहाँ के पण्डितों को दिखाकर उनके द्वारा काश्मीर-नरेश माधवदेव से यह प्रमाणपत्र लिखवाकर लाओ कि यह निर्दोष काव्य है।' काश्मीर उस समय वागीश्वरी का निवास-भूत प्रसिद्ध विद्या-केन्द्र था। सभी विद्याओं और विद्वानों की वहाँ परीक्षा हुआ करती थी। श्रीहर्ष अपना अभिनव काव्य लेकर काश्मीर पहुँचे। वहाँ के पंडितों से मिले, तो किसी ने उन्हें खार के कारण मुँह तक नहीं लगाया, काव्य देखने और उसके लिए राजा से प्रमाण-पत्र दिलाने की बात दूर रही। वहाँ रहते-रहते इन्हें बहुत महीने हो गये। पास का सारा द्रव्य मी खर्च हो गया / बेचारे बड़े परेशान थे कि अब क्या करें। संयोग-वश एक दिन वे नदी के समीप स्थित एक कुएँ के निकट रुद्र का जप कर रहे थे कि सामने क्या देखते हैं कि दो घरों को दा नौकरानियाँ कुएँ से पहले जल मरने के प्रश्न को लेकर आपस में झगड़ रही हैं और जोर-जोर से परस्पर कुछ बोल भी रही हैं / बात ही बात में नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि वे अपने कलशों से एक-दूसरी का सिर फोड़ बैठी। मामला फोजदारो का बन गया। निर्णय हेतु जब राजा के पास पहुँचा, तो साक्षा के रूप में नौकरानियों ने जा करते हुए इन पंडित जी को बताया। श्रीहर्ष न्यायालय में बुलाये गये / राजा द्वारा झगड़े के सम्बन्ध में पूछे जाने पर ये संस्कृत में बोले-'महाराज! मैं नो विदेशी हूँ / यहाँ की भाषा नहीं जानता। इन्होंने अपनी भाषा में एक दूसरो को क्या-क्या कहा-यह तो मैं कुछ नहीं समझ सका। किन्तु हाँ, इन्होंने आपस में जो-जा शब्द प्रयुक्त किर हैं उन्हें मैं अक्षरशः आनुपूर्वी के साथ दोहरा सकता हूँ। यह कहकर फिर इन्होंने वे सभी शब्द ज्यों के त्यां राजा के आगे दोहरा डाले। सुनकर काश्मीर-नरेश इनकी प्रज्ञा और वारणा-शक्त से बड़े चकित हो गये / नौकरानियों के लिए यथोचित दंड-व्यवस्था करके इन्हें पास बुलाया और पूछा-'शिरोमणि तुम कौन हो ?' इन्होंने काश्मीर आने से लेकर तब तक की अपनी सारी करुष्प कहानी राजा को सुना दी। वे इनके साथ अपने पण्डितों का दुर्व्यवहार सुनकर बहुत दुःखी हुए। उन्होंने अपने पण्डितों को बुलाया और इन्हें फटकारते हुए बोले-'मूखों, धिक्कार है तुम लोगों को, जो इस रत्न से स्नेह न करके द्वेष कर रहे हो! वरं प्रचलिते वहावहायानेहितं ( 1 ) वपुः / न पुनर्गुणसम्पन्ने कृतः स्वल्पोऽपि मत्सरः' / ___ जाओ, अपने घर ले जाकर इनका यथोचित आदर-सत्कार करो"। राजा की आज्ञा के अनुसार वे इन्हें अपने-अपने घर ले गये और इनका खूब प्रादर-सत्कार किया। इनका नेषध काव्य देखा,
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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