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________________ प्रथमः सर्गः अन्वयः-स चकच्छलेन नीराजनाम् जनयताम् निज-बान्धवानाम् प्राक: प्रवाहान् आनन्दाअमिः अनुस्रियमाणमार्गान् चक्रे / टीका-सः= हंसः चक्रेण सदृशम् चक्रनिमम् = ( तृ० तत्पु० ) चक्राकार मित्यर्थः यत् चक्रमणम् = पुनः पुनः भ्रमणम् (कर्मधा०) तस्य छलेन=मिषेण ( 10 तत्पु०) नीराजनाम्पारात्रिकम् जनयताम् = कुर्वताम् निजाः= स्वीयाः ये बान्धवाःबन्धु-मित्राणि ( कर्मधा०) तेषाम् प्राक-प्राक्=पूर्वम् नलकर्तृकस्वग्रहणसमये इत्यर्थः यः शोकः ( सुप्सुपेति समासः ) तेन निगमिता:-निर्गन्तुं प्रेरिताः साविता इत्यर्थः ये नेत्र-पयः-प्रवाहाः ( कर्मधा० ) नेत्राणां पयसः प्रवाहाः ( उभयत्र प. तत्पु० ) तान् अश्रु-पूरान् भानन्द-जानि = आनन्दात् जायन्ते इति तथोतानि ( उपपद तत्पु० ) हर्षोत्पन्नानि यानि अणि तैः ( कर्मधा० ) अनुत्रियमाणः = अनुगम्यमानः मागा- पन्थाः येषां तयाभूतान् ( ब० ग्री०) चक्रे अकरोत् / पूर्व नलेन गृहीते हसे ते शोकापि, मुक्ते च भानन्दाअणि प्रामुञ्चन् / बम्धनात् मुक्तं पक्षिणं तज्जातीया अन्यपक्षिणः परितो भ्रमन्नि शम्दा. यन्ते चेति पक्षिस्वभावः // 144 // व्याकरण-अनुस्त्रियमाण-अनु +/स+शानच् कर्मवाच्य / निर्गमित-निर्+/ गम् +णिच्+क्तः कर्मणि / चङ क्रमम् पुनः पुनः अतिशयेन वा इस अर्थ में किसी भी धातु से या प्रत्यय लगाकर धातु को द्वित्व किया जाता है और वह आत्मनेपद बनता है, जैसे-पुनः पुनः मवतोति/भू+यङ्बोभूयते, पुनः पुनः पश्यति /दृश् दरोदृश्यते। इसी तरह यहाँ भी कम्से चकम्यते बनाकर भाव में ल्युट् प्रत्यय से चक्रमणम् बनता है। हिन्दी-उस हंस ने चक्र की तरह बार-बार घूमते रहने के बहाने ( उसकी) आरती करते हुए अपने माई-बन्धुओं के ( नेत्रों के ) जिस मार्ग से पहले शोक के आँसू बहे थे, उससे ( अब ) हर्ष के आँसुओं के प्रवात बहवाये // 144 // टिप्पणी-नीराजना-इसके लिए पीछे का दसवा श्लोक देखिये। कारागार से छूटकर आये व्यक्ति का जिस तरह स्वागत और आरती की जाती है, उसी तरह राजा नल के बन्धन से छूट आये अपने भाई की अन्य हंस भारती उतारने लगे। वैसे देखा जाय, तो नीराजन अपने मूल रूप में पहले एक सैनिक विधि थी। आश्विन में जब राजे लोग युद्ध हेतु निकला करते थे, तो उनकी एवं घोड़े आदि की मांगलिक रूप में आरती उतारी जाती थी जिससे उन्हें विजय मिले। धोरे-धीरे यह प्रथा आन साधारण मंगलाचार के रूप में परिवर्तित हो गई है। जहाँ तक नीराजन शब्द की व्युत्पत्ति का प्रश्न है, हमारे विचार से यह निः+ राज्+पिच्+ल्युट से बना है, इसीलिए माघ ने 'क्षमापतीनिति निरराजयशिव (1716 ) प्रयोग किया है। प्रबोधचन्द्रोदय नाटक में मी 'नीराजयन्ति भूपालाः पादपीठान्तभूतलम्' प्रयोग मिलता है। इसमें कपूर अथवा बत्तियाँ वायकर व्यक्ति आदि का 'निः-निःशेषेण ( अच्छी तरह ) राजनम् +दीपनं क्रियते'। इस श्लोक में हंसों का इर्दगिर्द चक्कर काटने में यथावत् वस्तु-वर्णन से स्वभावोक्ति और चच्कर काटने का अपहन करके उसपर नीराजन की स्थापना करने से अपहृति है। 'चक्र' 'चक्र' में छेक, प्रथम और द्वितीय पाद के
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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