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________________ [ 21 ] अमिव्यन्जनावाद नहीं, तो और क्या है ? नाममात्र का अन्तर है। वक्रोक्ति-कुन्तक के ही शब्दों में-"प्रसिदामिधानव्यतिरेकिणी विचित्रैवामिधा"-अर्थात् वर्ण्य का असाधारण प्रकार से वैचित्र्य अथवा सौन्दर्य-भरा अभिधान (Expression) या चित्रण। श्रीहर्ष ने अपने सरस्वती-प्रदत्त, स्वयं-प्रकाश्य बोध के आधार पर ही तो कल्पना-शक्ति द्वारा अपने बण्यों के सोन्दर्य-चित्र खीचे हैं मले हो वे वर्ण्य उतने सुन्दर हों, न हो। प्रसिद्ध पाश्रात्त्य कवि शैली के शब्दों में : "Poetry turns all things to Loveliness, it exalts the beauty of that Which is most beautiful, and it adds beauty to that which is most deformed" [ A Defence of poetry] ___ अर्थात् “कविता सभी वस्तुओं को सुन्दरता में परिपत कर देती है, यह सुन्दरतम को सुन्दरता को और ऊपर उठा देती है और यह मद्दे से मी मद्दे पर सुन्दरता मढ़ देती है" / श्रीहर्ष के कला-वैशिष्टय की दूसरी बात है उनमें अन्य कलावादी कवियों की तरह अपने पाण्डित्य-प्रदर्शन का अभिनिवेश / विद्याभिमानी वे थे ही। क्यों चुप रहते 1 मारवि और माय ने जहाँ प्रारम्भिक सों में राजनीति-शास्त्र की गुत्थियों सुलझाई, वहाँ श्रीहर्ष ने ऐसी कौन-सी विद्या अथवा शास्त्र है, जिसे अपने काव्य फलक पर न उतारा हो। शिक्षा-शास्त्र ही ले लीजिए, जिसका वेदाङ्गों में सबसे पहला स्थान है और उनके व्यवस्थित उच्चारणों से सम्बन्ध रखता है। नल की राजधानी में हजार शाखाओं वाले वेदों का पाठ करने में लगे हुए लोगों में प्रपवोच्चारपपूर्वक मन्त्रों के उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों एवं क्रम-पाठ को क्या मजाल कि कलि कोई गलती निकाल सके। वेदांगों में दूसरा स्थान कल्प का है, जो यश तथा यश-विधिविधान-परक होता है। नगर में कहीं सोमयाग3, तो कहीं सामयाग; कही सर्वस्वार५ यश, तो कहीं महाव्रत यश; कहीं सर्वमेध, तो कहीं अश्वमेध–इत्यादि कई यश देखकर कलि दंग रह जाता है। पाठकों का भी पता चल जाता है कि कवि को वैदिक यशों तथा उनके विधि-विधानों का कितना गहरा शान है। ___ अब हम व्याकरण लेते हैं! इस विषय में तो कवि ने खूब रुचि दिखाई है। कहीं तो भाषा ही उसकी वैयाकरणो बनी हुई है, जैसे-'गमिकर्मीकृतनैकनीवृता' (2040) / 'अलम्' और 'खलु' अव्यय क्त्वा' प्रत्यय के साथ निषेधार्थक बन जाते हैं, इसके उदाहरण एक ही श्लोक में देथिरभलं विलय कृत्वापि"वाम्यम्'खल स्खलिखा "खेला' (3 / 04) / इसी तरह किसी वस्तु के दूसरे के अधीन कर देने में पाणिनि' के 'का' और 'सा' के उदाहरण हमें 'विबुधवजन्ना कृत्वा "श्रितश्रोत्रियसास्कृतश्री' ( 3 / 24 ) इस एक ही श्लोक में मिल जाते 4-17.194 / 8-17204 / 1-16 / 10 / 2-14164 / 3-17 / 196 / 5-17 / 202 / 6-17 / 203 / 7-17186 / 8-'अलं-खल्वोः प्रतिषेधयोः प्राची स्वा' ( 3 / 4 / 18) १०-'देये च त्राच' (5 / 4 / 55) / 'तदधोनवचने' (5 / 4 / 54 ) /
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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