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________________ नैषधीयचरिते हिन्दी-कामदेव के वैसे ( अतिमृदु ) फूलों के बाण भी जो इस ( नल ) के धैर्य-रूपी कवच का मेटन कर गये, तो ( यह ) इस ( नल) के साथ दमयन्ती का सम्बन्ध जोड़ना चाहने वाले विधाता की कमी विफल न जाने वाली इच्छा का (ही) काम है // 46 // टिप्पणी-यहाँ धैर्य पर कञ्चकत्वारोप होने से रूपकालंकार है, उसके साथ साथ कचक के पौष्प बाणों द्वारा भेदन में विरोध है जिसका परिहार विधि वेलास' से हो जाता है अर्थात् विधाता चाहे लोहा ही क्या पुष्पों से वज्र का भी मेदन सम्मव हो जाता है।' जैसे कालिदास ने भी कहा है'विषमप्यमृतं भवेत् क्वचित् अमृतं वा विषमीश्वरेच्छया।' इस तरह रूपक और विरोधाभास का अङ्गाङ्गि भाव-संकर है। यहाँ अनङ्ग शब्द भी कवि का साभिप्राय है अर्थात् पहले तो बाण ही फूलों के है और वे भी जिसके हैं वह देखो तो अनङ्ग-बिना शरीर का अमूर्त है। इस तरह विशेष्य साभिप्राय होने से कुवलयानन्दानुसार परिकरांकुर अलंकार है // 46 // अनझमागणैः-अनङ्ग के धनुष और बाष फूल होते हैं। उसके पाँच प्रसिद्ध बाण ये हैं"अरविन्दमशोकञ्च चूतच नवमल्लिका। नीलोत्पलश्च पश्चैते पञ्चबाणस्य सायकाः' / मतलब यह है कि विशेषतः इन फूलों के रूप और सौरम से काम-वासना भड़क उठती है। यह काव्य-जगत् की मान्यता है / / 46 / / किमन्यदद्यापि यदस्तापितः पितामहो वारिजमाश्रयस्यहो। स्मरं तनुच्छायतया तमात्मनः शशाक शङ्के स न लयितुं नलः // 47 // अन्वयः-अन्यत् किम् , यदस्त्र-तापितः पितामहः अद्य अपि वारिजम् आश्रयति ( इति ) अहो ! तम् स्मरम् सः नलः आत्मनः तनु-च्छायतया लङ्घितुम् न शशाक ( इति ) शङ्के। ____टोका-अन्यतकिम् अन्यत् कामस्य किं वर्णनम् , अन्यस्य वातव केति यावत् यस्य ( कामस्य अस्त्रैः पौष्पैः वाणरित्यर्थः ( प० तत्पु० ) तापितः तापं प्रापितः ( तृ० तत्पु० ) पितामहः पितुः पिता ब्रह्मेत्यर्थः अद्य अपि अधुना अपि वारिजम्-कमलम् आश्रयति मजति (व ) अहो ! आश्चर्यम् अर्थात् कामानल-दग्धो महावृद्धो ब्रह्मा अपि तापनिवारणाय शीतलं वारिजम् अधितिष्ठति, कामानल-दग्धस्य अन्यस्य तु वातव का, तम् स्मरम् कामदेवम् स नलः श्रात्मनः स्वस्य तन्वी कृशा म्लानेत्यर्थः छाया कान्तिः ( शरीरस्येति शेषः ) ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) तनुच्छायः तस्य भावः तत्ता तया कामसन्तापकारणात् नलस्य सौन्दर्य-च्छटा म्लानिंगता तस्मात् इति भावः लङ्घयितुं पराजेतुम् न शशाक पारयामास, शङ्क-मन्ये / कामेन नलो विजित इति भावः / / 4 / / ___व्याकरण-तापितः तप् +पिच् +क्त कर्मणि। पितामहः पितुः पितेति पितृ+डामहच् . ( 'मातृ-पितृभ्यां पितरि ढामहच्' वा० ) वारिजम् वारिणि जायते इति वारि+/जन्+ड / लचितुं शशाक अत्र शक्-योगे तुमुन् / हिन्दी-और तो क्या, बाप रे / जिसके अस्त्रों से सन्तापित ( दादा, बूढ़ा ) ब्रह्मा आज तक भी ( मानो ) कमल का आश्रय ले रहा है, उस कामदेव को वह नल अपनी ( शारीरिक ) कान्ति खल्प ( फोकी) पड़ जाने के कारण जीत नहीं सका-ऐसा मैं मानता हूँ // 47 / /
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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