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________________ प्रथमः सर्गः देखा है, किन्तु वे इनकार कर बैठे / इस पर सीता ने उन समी माक्षियों को शाप दे दिया और केतक को फटकार कर कहा कि 'जा, तू हमेशा के लिए महादेव की पूजा से बहिष्कृत किया जाता है' / पद्मपुराण में भाद्रपद मास में केतकी-पुष्प द्वारा विष्णु की पूजा का भी निषेध है: "न माद्रे केतकी-पुष्पैः पूजितव्यो जनार्दनः। यतो माद्रपदे मासे केतकी स्यात् सुरा-समा।।" ___इस श्लोक में प्रस्तुत 'अलियों' का प्रतिषेध करके उन पर अप्रस्तुत अपयशत्व को स्थापना करने से अपह्नति अलंकार है। प्रस्तुताप्रस्तुत का समान धर्म यहाँ काला रंग है। कवि-जगत् में पश जहाँ श्वेत होता है वहाँ अपयश काला। 'वर्जनार्जितम्' और 'कौतुकी' 'केतकम्' में छेकानुप्रास, 'पत्रालि' 'गतालि' में आलि आलिका तुक मिल जाने से पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास तथा अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / 78 // वियोगभाजां हृदि कण्टकैः कटुर्निधीयसे कर्णिकारःस्मरेण यत् / / ततो दुराकर्षतया तदन्तकृद् विगीयसे मन्मथदेहदाहिना // 79 // अन्वयः यत् स्मरेण वियोगमाजाम् हृदि कण्टकैः कटुः ( त्वम् ) कणिशरः निधीयसे, ततः दुराकर्षतया तदन्तकृत् मन्मथ-देह-दाहिना विगीयसे / / टोका-यत् = यस्मात् कारणात् स्मरेण = कामेन वियोगम् - विरहम् मजन्तीति वियोगभाजः तेषाम् ( उपपद तत्पु०) हृदि हृदये कण्टकः कटुः क्रूरः ( त्वम् ) कई = शूलाग्रम् , शल्यनिति यावत् अस्यास्तीति ( कर्ण +इन् ) की कर्णयुक्तं शर:- बाणः ( कर्मधा० ) निधीबसे= निक्षिप्यसे, ततः तस्मादेव कारणात् दुःखेन आकष्टुं योग्य इति दुराकर्षः = तस्य भावः तत्ता क्या उद्धर्तुमशक्यतया तेषाम-वियोगमाजाम् अन्तं = मृत्यु (प० तत्पु० ) करोतीति तथोक्त: ( उपपद तत्पु० ) मन्मथः= कामदेवः तस्य देह =शरीरम् ( 10 तत्पु०) दहतीति दाहीः तेन (उपपद तत्पु०) महादेवेन विगीयसे-विनिन्धसे, वियोगिनां मारणाय स्वं कामदेवस्य सहयोग्यास पिक् स्वामिति भावः / अस्य श्लोकस्य 'इति तेन क्रुधाऽश्यत' इति तृतीयश्लोकेनान्वयः / / 73 // व्याकरण-स्मरः स्मरणं स्मर इति /स्मृ+अप मावे, स्मर अथवा काम एक मनोभाव ही तो है जो प्रिय और प्रेयसा का स्मृति-रूप है। वियोगमाजाम् वियोग+म+क्विप् कर्तरि प०। निधीयसे नि+Vधा+लट् मध्य० कर्मवाच्य / दुराकर्षः दुर्+भा/कृष् + हल् / सतहद तदन्त+/+क्विप् कर्तरि / मन्मथः मनः मथ्नातोति निपातनात् साधु / विगीयसे वि+/गै+ लट मध्य० कर्म वाच्य। हिन्दी-क्योंकि कामदेव द्वारा विरहियों के हृदय में काँटों से तीक्ष्य बना हुआ तू कैंट हे पाप के रूप में रखा जाता है इसी कारण निकालने में कठिन होने से उन (विरहियों ) का प्राण लेवा तू कामदेवका देह मस्म कर देने वाले ( महादेव ) की निन्दा का पात्र बना रहता है / / 76 टिप्पणी-यहाँ कॅटीले केतकी-पुष्प पर कामदेव के कोटेदार ( barbed ) वाण का आरोप किया गया है। इस बाण के अग्रमाग में कर्ण (काँटे ) अथवा उल्टे मुंह के शल्य लगे रहते है
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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