________________ 6. नैषधीयचरिते कथं तहि "हरेयदक्रामि पदैककेन खम्" इति श्रीहर्षः 1 प्रमाद एवायम्" पा-Vत्रप+अङ् (मावे) +टाप् / ननित-नमतीति नम्+र: (कर्तरि ) नम्रः ननं करोतीति नम्र+पिच नम्रयति (नाम धातु बनाकर ) निष्ठा में त / न्यति-नि+ वृत+लुङ् [ कर्मवाच्य ] / हिन्दी-जिस आकाश को हरि (विष्णु ) का अकेला एक ही पैर लांघ गया था, उसे चार पैरों से लौंप देने पर भी हम हरियों ( घोड़ों, विष्णुओं) को लज्जा भा रही है यह सोचकर (मानो) मुँह नीचे किये और आधे आकाश में पैरे रखे वे ( घोड़े ) लोट पड़े // 70 // टिप्पखो-यहाँ हरि शब्द में श्लेष रखकर कवि बड़ी विच्छित्ति दिखा गया है। हरि विष्णु और घड़ा दोनों को कहते हैं [ यमानिलेन्द्र चन्द्रार्क-विष्णु-सिंहाशु-वाजिषु। शुकाहि-कपिअकेपु हरिनां कपिले त्रिषु / इत्यमरः ] / हरि ( विष्णु ) ने वामनावतार धारण करके मिखारी का वेश बनाकर राजा बलि से अपनी कुटिया बनाने हेतु तीन पैर नापकी धरती माँगी। बलि दानो तो थाही। उसने यह छोटी-सो प्रार्थना स्वीकार करलो, किन्तु बादको वामन ने तत्काल विशाल रूप अपना लिया और एक पग से सारी धरती और दूसरे पग से सारा आकाश माप लिया। तीसरे पग के लिये वे जब बलिको पूछने लगे कि कहाँ रखू , तो बलि ने अपना सिर पसार दिया। भगवान ने अपना पैर राक्षसरोज के सिर पर रखा और जोर से दबाकर उसे पाताल भेज दिया / हेतु रूपमें कल्पना करने से उत्प्रेक्षालंकार है वह वाचक पद न होने से गम्य है। 'कामि' 'क्रम' और 'क्रमैः' में अनेक व्यजनों की एक से अधिक बार भावृत्ति से बृत्यनुप्रास है / 'अक्रामि' में च्युतसंस्कृति दोष है / / / 70 // चमूचरास्तस्य नृपस्य सादिनो जिनोनिषु श्राद्धतयेव सैन्धवाः। विहारदेशं तमवाप्य मण्डलीमकारयन्भूरितुरङ्गमानपि / 71 / अन्वयः-तस्य नृपस्य चमूचराः सादिनः तम् विहार-देशम् अवाप्य जिनोतिषु प्राद्धतया सैन्धवाः इव भूरि तुरङ्गमान् अपि मण्डलीम् अकारयन् / टीका-तस्य नृपस्य =राशो नलस्य चमूचराः = सेनाचराः सादिनः= अश्ववाहा अश्वारोहिसैनिका इत्यर्थः तम् विहारस्य = वाधक्रीडायाः देशम् =स्थानम् [ 10 तत्पु० ] अथ च सुगतालयम् ['विहारो भ्रमणे स्कन्धे लीलायां सुगतालये' इति विश्वः ] अवाप्य प्राप्य जिनः बुद्धः [ 'सर्वशः श्रद्धालुस्वेन सैन्धवाः - सिन्धुदेशोद्भवाः पौद्धा इव भूरयश्च ते तुरङ्गमाः= अश्वाः तान् ( कर्म पा० ) अपि मण्डलीम् = मण्डलाकारेण गतिम् अथ च मण्डलाकारेण आसनम् प्रकारयन् - कारितवन्तः / यथा बौद्धा बौद्ध मठमागत्य मण्डलाकारेणावतिष्ठन्ते तथेतिमावः // 31 // व्याकरण-चमुचराः चमूषु चरन्तीति चमू+/चर+टः / श्राद्धतया-श्रद्धाऽस्यास्तीति श्रद्धा+ण: ( मतुबथें श्राद्धः तस्य भावः तत्ता तया। सैधन्वाः सिन्धुषु मवा इति सिन्धु+अण् / मण्डलीम् मण्डल+डोष् [ गौरादित्वात् ] अकारयन् /क+णिच् +ठङ् विकल्प से पिजन्त में द्विकर्मकता।