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________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-नारायण ने 'बुधाः' का अर्थ विद्वान् किया है ( बुध-वृद्धौ पण्डितेऽपि' इत्यमरः) अर्थात् विद्वान् लोग नल को कथा सुनकर यशादि द्वारा साध्य अमृत को मो उपेक्षा कर देते हैं, क्योंकि वह अमृत से भी अधिक स्वादिष्ट है। श्लोक में 'क्ष' क्ष, 'ध' ध आदि अक्षरों को आवृत्ति होने से अनुप्रास शब्दालंकार है; कथा को अमृत से भी अधिक मनोहर बताया गया है, अतः व्यतिरेक है, 'सुधाम् अपि' यहाँ अपि शब्द से कैमुतिक-न्याय द्वारा शर्करा आदि की तो बात ही क्या-यह अर्थ निकल जाता है,अतः अर्थापत्ति है, कीत्ति-मंडल पर सितच्छत्रत्वं ओर नल पर महा राशिव का आरोप होने से रूपक है। इन सभी अलंकारों के परस्पर निरपेक्ष भाव से तिल-तण्डुल न्याय द्वारा एक हो श्लोक में इकट्ठे हो जाने से 'संसृष्टि' है / इस सर्ग में 142 श्लोकों तक वंशस्थ वृत्त है, जिसका लक्षण 'जतौ तु वंशस्यमुदीरितं बरौ' है, अर्थात् इसके प्रत्येक पाद में 12-12 वर्ण इस तरह होते हैं-जगण ( ISI ), तगण (ss.) जगण (ISI ) और रगण (sis ) जैसे: ISIS SIIS ISIS नि-पी-य य-स्य क्षि.-ति-र-क्षि, ण:-क-यां। रसैः कथा यस्य सुधावधीरणी नलः स भूजानिरभूद् गुणाद्भुतः / सुवर्णदण्डैकसितातपत्रित-ज्वलत्प्रतापावलि-कीर्तिमण्डलः // // अन्वयः-यस्य कथा रसैः सुधावधोरिणी ( अस्ति ), सुवर्ण मण्डलः, सः भूजानिः नलः गुणाद्भुतः अभूत् / टीका-यस्य कथा रसैः-आस्वादैः ( 'रसो गन्धो रस: स्वादः' इति विश्वः ) सुधा०सुधाम् अमृतम् अवधीरयति=तिरस्करोतीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) अमृतादपि अधिकस्वादिष्टेत्यर्थः अस्तीति शेषः, सुवर्ण-सुवर्णस्य हेम्नः दण्डः= यष्टिः (10 तत्पु०) च एकं च तत् सितम् = श्वेतम् प्रातपत्रम् = छत्रञ्च इति सुवर्ण...पत्रे ( इन्द्र ), . पत्रे कृते इति सुवर्ण...पत्रिते प्रतापस्य आवलिः प्रसापावलिः (10 तत्पु० ) ज्वलन्ती चासौ प्रतापावलिः ( कर्मधा० ) कीत्तः मण्डलं कीर्तिमण्डलम् ( 10 तत्पु० ) चलत् प्रतापावलिश्च कीत्ति-मण्डलञ्च ज्वलत्-मण्डले ( द्वन्द्व ), सुवर्ण...पत्रिते जलत्...मण्डले येन तथाभूतः ( ब० बो० ) अर्थात् येन यशोमण्डलं श्वेतछत्रम् , उज्ज्वलः प्रतापश्च सुवर्णदण्डः कृतः स भूजानिः= भूपतिः नलः गुणः अद्भुतः ( तृ० तत्पु०) शौर्याद्यद्भुतगुणशालीत्यर्थः अभूत् = अमवत् // 2 // __व्याकरण-० धीरिणी- अवधीर +णिन् ( ताच्छील्ये )+ ङोप / सुवर्ण-यहाँ मो पिछले श्लोक की तरह 'आतपत्र' शब्द से करोतीति अर्थ में णिच् करके आतपत्रयति नामधातु बना. कर निष्ठा में क्त प्रत्यय से 'आतपत्रित' रूप सिद्ध होता है। ज्वलत्-ज्वल से शन्। प्रतापःप्र+त+घञ् ( भावे ) / भूनानिः भूः जाया यस्य सः इस ब० वी० में जाया शब्द को निड़ आदेश हो जाता हैं ( 'जायाया निङ' पा० 5 / 4,134 ) / अभूत-VS+लुङ् / हिन्दी-जिसकी कथा ( अपने ) स्व.द से अमृत को नीचा दिखा देने वाली ( है ), उज्ज्वल
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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