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________________ की सर्वथा सुख-दुःखादि रूप चैतन्य के अत्यन्ताभाव वाली अवस्था को मुक्ति का स्वरूप मानने वाले न्यायदर्शनकार गौतम को गोतम ( बड़ा भारी बैल) तक कहलवा दिया है। ये कवि की निजी उद्भावनायें हैं / इसी तरह एक दिन अपने प्रातःकालीन धर्म-कर्म में व्यस्त रहने के कारण देरी हो जाने से प्रणय-कुपित दमयन्ती को मनाते हुए नल को उसको अन्तरा सखी कला के साथ हुई पाते भी कितनी परिहास-पूर्ण है / इन सब में श्रीहर्ष का विनोदो व्यक्तित्व मुखरित हुआ पड़ा है। मोहर्ष संयतात्मा थे। प्रत्येक सर्ग के अन्त में ये बार-बार अपने को 'जितेन्द्रियचयम्' लिखते आये हैं / अन्य की परिसमाप्ति के अन्तिम श्लोक में 'यः साक्षात्कुरुते समाधिषु परब्रह्म प्रमो. दार्णवम्' लिखकर अपने को समाधि-अवस्था में ब्रह्मानन्द का साक्षात्कार करने वाला बता गये। हमारे विचार से ये गृहस्थाश्रम में क्या हो प्रविष्ट हुए होंगे। 'ब्रह्मप्रमोदार्णव' में स्नान करने से पवित्र हुई आत्मा भला क्षणभंगुर सांसारिक प्रमोद की ओर कमो आकृष्ट हो सकती है ! ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि कवि नैषध में फिर भुक्त-भोगी की तरह शृङ्गार-रस का इतना अच्छा सफल चित्रण कैसे कर गया ? भगवती की कृपा से उसे सब कुछ शान हो चुका था-इसके सिवा हमारे पास इसका कोई उत्तर नहीं। श्रीहर्ष की कृतियाँ हम पीछे देख आये हैं कि राजशेखर ने श्रीहर्ष के सम्बन्ध में लिख रखा है कि भगवती त्रिपुरा से वर-प्राप्ति के फल-स्वरूप इनमें अद्भुतशक्ति-विकास होने के बाद ये सैकड़ों ग्रन्थों का निर्माण कर बैठे, किन्तु वह 'खण्डनखण्डखाद्य' का ही उल्लेख करके सन्तोष कर गया, इनके अन्य सैकड़ों ग्रन्यों का परिगणन नहीं कर पाया। इन्होंने ही स्वयं नैषध के सों के अन्त में स्व-प्रणीत जिन नौ ग्रन्थों का नामोल्लेख किया है, वे हैं-१. नैषधीयचरित, 2. स्थैर्यविचारप्रकरण, 3. विजय-प्रशस्ति, 4. खण्डनखण्डखाच, 5. गौडो:शकुल-प्रशस्ति, 6. अर्णव. वर्णन, 7. छिन्दप्रशस्ति, 8. शिवशक्तिसिद्धि और नवसाहसांकचरित। किन्तु अपने खण्डनखण्डखाध ग्रन्थ में इन्होंने स्व-प्रणीत ईश्वरामिसन्धि नामक ग्रन्थ का मो उल्लेख किया है। इस तरह कुल मिलाकर इनके ग्रन्थों की संख्या दस तक पहुँच जाती है, लेकिन इनमें से इस समय नैषधीयचरित, खण्डनखण्डखाय ये दो ही ग्रन्य उपलब्ध होते हैं, शेष लुप्त हैं। जैसे कि इन अन्यों के नाम हैं, नैषध में नल राजा का चरित है और खण्डनखण्डखाद्य में न्याय-सिद्धान्त का खण्डन और वेदान्त-मत को स्थापना है। खण्डनखण्डखाद्य का अर्थ है खण्डन हो खाने योग्य खाँड अर्थात् खण्डन ही जिस ग्रन्थ का मोठा खाद्य ( विषय ) है। यह वेदान्त के प्रसिद्ध ग्रन्थों में गिना जाता है / इसका उल्लेख कवि ने नैषध में 'खण्डनखरतोऽपि सहजात्' इस रूप में किया है जिससे सहज हो अनुमान लगाया जा सकता है कि नेषध और खण्डनखण्डखाच-दोनों सहजात १–'तदत्यन्त-विमोक्षोऽपवर्गः'। २-मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् / __ गोतमं तमवेक्ष्यैव यथा वित्य तथैव सः // ( 1775 ) 3-6 / 113 /
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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