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________________ 16 नैषधीयचरिते समूह के अधीन नहीं कर पाया ( और ) दान ( के संकल्प ) में जल छोड़कर समुद्र को ( खाली करके ) मरुस्थल नहीं बना पाया"-इस कारण उस ( नल ) ने दो भागों ( पट्टियों ) में बँधे बाल सिर पर स्थित अपने दो अपयश समझे // 16 // टिप्पणी-निजायशोयुगम् -संस्कृत में लोकोक्ति है-'अकौतिः शिरसि स्थिता' अर्थात् कलंक सिर पर लगता है। अपयश कलंक ही होता है जिसका कविजगत में काला रूप माना जाता है-'मालिन्यं व्योम्नि पापे / नल के सिर के बाल काले और दो मागों में विभक्त थे। नल समझ रहा था मानो मेरे सिर पर ये दो कलंक हैं। हम पीछे बता आए हैं कि 'मन्ये, ध्रुवम्' आदि शब्द उत्प्रेक्षा-वाचक होते हैं, अतः यहाँ उत्प्रेक्षा है, साथ ही निन्दा के व्याज से यहाँ नल की स्तुति हो रही है कि वह बड़ा मारी दानी था, अतः व्याज-स्तुति का उत्प्रेक्षा के साथ संकर है। किन्तु विद्याधर का कहना है कि यहाँ द्विफाल-बद्ध-केशों का प्रतिषेध करके उनपर अयशोयुगत्व की स्थापना से अपह्न ति है जबकि मल्लिनाथ ने केशों पर कार्य-साम्य से अयश का आरोप होने के कारण रूपक माना है // 16 / / . अजस्रमभ्यासमुपेयुषा समं मुदैव देवः कविना बुधेन च / दधौ पटीयान् समयं नयायं दिनेश्वरश्रीरुदयं दिने दिने // 17 // अन्वयः-पटीयान् दिनेश्वर-श्रीः अयम् देवः अजस्रम् अभ्यासम् उपेयुषा कविना बुधेन च समम् मुदा एव समयम् नयन् दिने दिने उदयं दधौ। टीका-पटी०-प्रतिशयेन पटुः= निपुणः कवित्वाद्यभ्यासवान् इत्यर्थः, अन्यत्र अन्धकारनिवारणसमर्थः तेजस्वीत्यर्थः / दिने-दिनस्य ईश्वरः (10 तत्पुः ) सूर्यः तस्य या श्रोः= कान्तिः तेज इति यावत् तद्वत् श्रोः यस्य तथाभूतः (ब० ब्रो० ) अयम् देवः राजा नल इत्यर्थः अन्यत्र देवः= भगवान् अजस्रम् =निरन्तरम् अभ्यासम् = काव्य:निर्माण-व्यसनम् शास्त्रमननव्यसनञ्च अन्यत्र सान्निध्यम् ( अभ्यासो व्यसनेऽन्तिके इत्यमरः) उपेयुषा=प्राप्तवता, कविनाकाव्यकर्ता, अन्यत्र शुकेण, बुधेन विदुषा अन्यत्र चन्द्रपुत्रेण ग्रहविशेषेणेति यावत् समम् = सह मुदा एव = प्रसन्नतया एव समयम् = कालम् नयन् -पापयन् अन्यत्र कुर्वन् दिने दिने= प्रति. दिनम् उदयम् = अभ्युदयम् अन्यत्र गगने उद्गमनम् दधौ = धारयामास // 17 // ब्याकरण-पटीयान्-अतिशय अर्थ में पटु शब्द से ईयसुन् प्रत्यय है। उपयुवा-उप+ Vण से उपेयिवाननाश्वाननूचानञ्च' (पा० 3.2.109 ) सत्र द्वारा भूतकाल के अर्थ में उपेयिवान् निपात-गनियमित रूप--से बनता है। उसका यह तृतीयान्त रूप है। मुद्/मुद्+ क्विप् ( भावे ) / हिन्दी-जिस तरह अतिपटु (तेजस्वी ) सूर्यदेव निरन्तर ( अपने ) समीप में रह रहे कवि (शुक / ओर बुध ( ग्रह-विशेष ) के साथ प्रसन्नता पूर्वक समय का निर्माण करते हुए प्रतिदिन उदय होते हैं, उसी तरह सूर्य की सी कान्तिवाला ( काव्यादि में ) भति पटु यह राजा नल भी निरन्तर ( काव्य और शास्त्र के ) अभ्यास में लगे हुए कवियों ( काव्यकारों ) तथा बुधों ( विद्वानों ) के साथ प्रसन्नता-पूर्वक समय काटता हुआ प्रतिदिन उदय ( अभ्युदय ) रख रहा था // 17 //
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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