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________________ नहि कविना परदारा एष्टम्या नापि चोपदेष्टम्याः / कर्तव्यतयाऽन्येषां न च तदुपायो विधातव्यः / किन्तु तदीयं वृत्तं काव्याङ्गतया स केवलं वक्ति / आराधयितु विदुषस्तेन न दोषो कवेरत्र / / ___ अर्थात् शृङ्गार रस का चित्रण करते हुए कवि का यह अभिप्राय नहीं रहता कि वह दूसरों को स्त्रियों को चाहे या उन्हें सिखावे अथवा लोगों को कहता फिरे कि तुम पर-नारियों को इस तरह फाँसो। वह तो केवल काव्याङ्ग होने के नाते उनका वर्णन करता है जिससे कि विद्वानों का मनोरञ्जन हो जाय। इसमें कवि का मला क्या दोष है ? 'गाथा सप्तशती' 'अमरुक-शतक', 'आर्या-सप्तशती' और 'गीत-गोविन्द' में भी तो ऐसा ही चित्र हैं। अकेले श्रीहर्ष ही क्यों बदनाम हो ? अब रही बात कवि की अस्वाभाविक, कृत्रिम, क्लिष्ट और अलंकार-प्रवाह में आकण्ठ-मग्न भाषा को जो बहुत कुछ हद तक सही है। किन्तु इसका मूल्यांकन करते समय हमें यह न भूल जाना चाहिये कि हरेक कलाकार अपने युग का प्रतिनिधि हुआ करता है। जैसा हम पीछे देख पाये हैं, श्रीहर्ष का युग कला-सरणि का वह युग था जब काव्यकला अपना एक ऐसा नया आयाम, एक ऐसी नयी दिशा अपनाये हुए थी, जिसमें कृत्रिमता आ गई थी और मस्तिष्क काम कर रहा था। सरलता के आधुनिक मानदण्ड से श्रीहर्ष को भाषा और काव्य-कला का मूल्यांकन करना हमारे विचार से उनके प्रति बालोचकों का सरासर साहित्यिक अन्याय है। वास्तव में श्रीहर्ष काव्य की कलावादी सरपि के सुतराम् सर्वोच्च कलाकार हैं। आलोचकों द्वारा 'दोषाकर' कहा जाने वाला उनका नैषध काम्य इस अर्थ में अवश्य 'दोषाकर' ही हैं कि वह कलावादी-सरणि के अन्य काव्यों के लिए दोषाम् = रात्रिम् करोतीति अर्थात् उनके लिए रात कर देता है, उन्हें अँधेरे में डाल देता है अथवा दोषाकर = चन्द्रमा है, जिसकी ज्योत्स्ना से काव्यजगत् आलोकित है। 'मोहनदेव पन्त
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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