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________________ [ 35 ] करन"। इसी तरह अन्य स्थलों में भी दोष देखकर मम्मट बोले-"तुमने यदि अपना यह काव्य मुझे पहले दिखा दिया होता, तो मुझे अपने 'काम्यप्रकाश' के दोष-उल्लास के लिए बाहर से दोष नहीं ढूँढ़ने पड़ते ? नैषध में ही सब मिल जाते"। कुछ ऐसे भी विद्वान् हैं, जो नैषध में कवि द्वारा अपने शृङ्गाररस के चित्रण को दूर तक खीचे और कहीं-कहीं कोकशास्त्र तक को मात किये हुए मानकर इसे अश्लील साहित्य करार दे देते हैं / कुछ और ऐसे मी हैं जो श्रीहर्ष की भाषा पर यह आक्षेप करते हैं कि वह सहज-सरल नहीं है; पाण्हित्य अथा मस्तिष्क की भाषा है, हृदय को नहीं, अंत: पाठकों के अन्तस् को नहीं छूती। इस कारण नैषध को दोष-दृष्टि से देखने वालों ने यह बात उड़ा रखी है-'दोषाकरो नैषधम्' अर्थात् नैषध दोषों की खान हैं। . राजशेखर द्वारा पीछे दिये हुए श्रीहर्ष की काश्मीर-यात्रा का विवरण पढ़कर आप इस दन्त-कथा पर कदापि विश्वास नहीं करेंगे कि मम्मट श्रीहर्ष के मामा थे। उनके मामा होते श्रीहर्ष को काश्मीरी पण्डित-समाज में वैसी दुगंति न होती। इसलिए यह कथा नैषध के दोषवादियों को बिलकुल मन-गढन्त है। किन्तु इससे हमारा यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि नैषध दोषों से निर्मुक्त है। हमने अपनी टीका में इनके तत्तत् श्लोकों में यत्र-तत्र आये हुए दोषों का स्वयं विवेचन कर रखा हैं। कवि ने भी ग्रन्थारम्भ में हो 'मगिरमाविलामपि' लिखकर यह बात स्वयं स्वीकार भी कर रखी है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या दोष काव्यत्व का हनन कर सकता है ? 'भदोषौ शब्दार्थों ' कहकर दोषामाव को काव्यनिर्मापक तत्व मानने वाले मम्मट की आलोचकों ने खूब अच्छी खबर ले रखी है / दर्पणकार ने भी 'सर्वथा निर्दोषस्यैकान्तमसम्भवात्' कहकर इसका खण्डन कर रखा है। गीताकार के शब्दों में 'सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः'। कालिदास की कृतियों में मी क्या कम दोष हैं ? एक पालोचक ने तो इस सम्बन्ध में 'कालिदास की निरंकुशता'ग्रन्थ तक तक लिख दिया है। जगद्-विख्यात कविवर शेक्सपिअर के प्रसिद्ध आलोचक डॉ० जोनसन ने उनके नाटकों को खूब धज्जियाँ उड़ा रखी हैं। इससे क्या शेक्सपिअर महाकवि बनने से रह गये ? हमारे विचार से हिमालय के सम्बन्ध में कालिदास को कही यह उक्ति-'एको हि दोषो गुण-सशिपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः' उपलक्षण है अरी व्यक्तिगत रूप से उनके अपने ही नहीं, प्रत्युत अन्य सभी काव्यकारों के कवि-कर्म पर भी लागू हो जाती है / जहाँ तक श्रीहर्ष द्वारा शृङ्गाररस के अनिमंत्रित चित्रण का प्रश्न है, हाँ वह तो निस्सन्देह है हो / इनके सारे काव्य में शृङ्गार का उद्दाम विलास हम प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं / अङ्गी रस जो ठहरा। किन्तु अश्लील करार देकर उसका अवमूल्यन हमें उचित नहीं लगता। यदि श्रोहर्ष शृङ्गार को काव्य का मुख्य रस बनाकर उसके सारे विभाव अनुभाव और व्यमिचारी भावों को पूरी अभिव्यक्ति नहीं देते तो उसका चित्रण अधूरा ही रह जाता, बहुत सारा सत्य छिपा ही रह जाता / कालिदास ने मी तो कुमारसम्मव में ऐसा ही नग्न छित्रण कर रखा है। इसीलिए कार्लाईल का कहना ठीक हो है कि "सत्य और काव्य दोनों एक ही वस्तु है। काव्य की जीवन-धारा सत्य है / जो कवि है, वही सच्चा शिक्षक है, जो कवि है वही वीर है।" कालाईल के हो स्वर में स्वर मिलाकर प्रसिद्ध साहित्य शास्त्री रुद्रट ने मी यह तथ्य स्वीकार किया है:
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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