SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 21 प्रथमः सर्गः व्याकरण-द्वयीद्वौ अवयवौ अत्रेति दि+अयच् +डीप् ) / जिस्वर-जयती+ति/जिक्वरप् (कर्तरि ) सुन्दरान्तरम् =न अन्यत् सुन्दरम् इति सुन्द० यह अस्वपद-विग्रही समास मयूरव्यंसकादयश्च (पा० 2 / 1 / 72 ) इस सूत्र से निपातित है। हिन्दी-अपने ही विलास के एक लघु अंश (भूत ) मन्दहास से चन्द्रमा को तिरस्कृत किये ( तथा ) अपने ही अंश (-रूप ) नयनों द्वारा कमलों के सौन्दर्य को नीचा दिखाये हुए उस ( नल) के मुख की बराबरी करनेवाला, उन दोनों ( चन्द्र और कमल) को जीतने वाले दूसरे सुन्दर (पदार्थ ) से रहित चराचरात्मक संसार मे ( कोई ) था ही नहीं / / 23 // टिप्पणी-साधारणतः कवि-जगत् में मुख का उपमान या तो चन्द्रमा बनता है या फिर कमल किन्तु नल के मुख के एक छोटे से अंश मुसकान ने चन्द्र को दुत्कार दिया तो दूसरे अंश नयन ने कमल को पछाड़ दिया, ऐसी स्थिति में सारे मुख की बराबरी का संसार में कोई रहा ही नहीं। यहाँ उपमान-भूत चन्द्र और कमल का तिरस्कार कर दिया गया है, इसलिर दो प्रतीपों की संसृष्टि है किन्तु मल्लिनाथ ने मुख के निरौपम्य का चन्द्र और कमल-विजय कारण बताने से यहाँ काव्यलिंग माना है / / 23 / / सरोरुहं तस्य दशैव निर्जितं जिताः स्मितेनैव विधोरपि श्रियः। कुतः परं भव्यमहो महीयसी तदाननस्योपमितौ दरिद्रता // 24 // अन्धयः-तस्य दृशा एव सरोरुहम् निर्जितम् ; ( तस्थ ) स्मितेन एव विधोः अपि श्रियः जिताः परं भव्यम् कुतः ? ( अतः) तदाननस्य उपमिती महती दरिद्रता-अहो / / 24 / / टीका-तस्य = नलस्य दशा=नयनेन एव सरोरुहम् = कमलं निर्जितम् =परास्तम , 'तर्जित पाठे धिक्कतम् , ( तस्य ) स्मितेन =म्मयेन एव विथोः= चन्द्रस्य अपि श्रियः= कान्तयः जिता, परम् = सरोरुह-विध्वतिरिक्तम् मव्यम् = सुन्दरम् ( वस्तु) कुतः= कुत्र न कुत्रापीत्यर्थः, ( अब एवं ) तस्य =नलस्य भाननस्थ- मुखस्य उपमिती-उपमाने तुलनायामिति यावत् महीयसीप्रतिमहती दरिद्रता = अमावः अत्यन्तामाव इत्यर्थः इति अहो आश्चर्यम् / / 24 / / ग्याकरण-सरोरुहम = सरसि रोहतोति सरस्+/रुह् +अच् ( कर्तरि / स्मितम् 1 स्मि+क्त ( भावे)। भव्यम् = भव्य-गेय. (पा० 3 / 4 / 68 ) से निपातित * अर्थात् अनियमित रूप। उपमितिः= उप+मा+क्तिन् (भावे)। हिन्दी-उस ( नल ) की आँख ने ही इन्दीवर को परास्त कर दिया; ( उसके ) स्मित ने ही चन्द्रमा की कान्ति जीत ली; (इन दोनों से ) परे सुन्दर कहाँ है ? ( अतः ) उस (नल ) के मुख की तुलना में बड़ी भारी दरिद्रता हो गई है-यह आश्चर्य है / / 24 // टिप्पणी-यहाँ कवि ने शब्दान्तर में यही बात कही जो पिछले श्लोक में आई हुई है। इसे हम स्पष्टतः पुनरुक्ति ही कहेंगे। अलंकार पहले-जैसे ही हैं // 24 // स्ववालमारस्य तदुत्तमाङ्गजैः समं चमर्येव तुलामिलाषिणः / अनागसे शंसति बालचापलं पुनः पुनः पुच्छविलोलनच्छनात् // 25 // १-तजितं /
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy