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________________ प्रथमः सर्गः ज्याकरण-चमाभूत-हमा पृथिवीं विमर्तीति मा+/भृ+ क्षिप् कर्तरि। पाक-शासनः पाकस्य = एतन्नाम्नो राक्षसविशेषस्य शासनः- शासिता पराजेवेत्यर्थः शास्त्रीति /स् + ल्यु वर्तरि / सिन्धुजम् - सिन्धु +/जन्+8 / प्राररोह आ+/रुह् + लिट् / / हिन्दी-सभो महीमृतों ( राजाओं) को जाते हुये एवं अनल्प (विशाल) आँखों वाला वह नल जो पृथिवी का समी महीभृतों ( पर्वतों) को नीते और अनल्प ( अनेक ) आँखों वाला इन्द्र था सिन्धु ( देश ) में उत्पन्न तथा चन्द्रमा के सहोदर ( समान ) उस घोड़े पर चढ़ गया जो सिन्धु (समुद्र ) में उत्पन्न तथा चन्द्रमा के सहोदर (माई) उच्चैःश्रवा की कान्ति चुरा रहा था। टिप्पणी-यहाँ नारायण ने नल के घोड़े और उच्चैःभवा के सादृश्य के मापार पर नल को 'पाकशासन इन्द्र इव' लिखकर इन्द्र का उपमेय बनाया है। किन्तु मल्लिनाथ 'क्षितिपाकशासन इत्यतिशयोक्तिः' कह रहे हैं। अतिशयोक्ति इसलिये नहीं हो सकती कि आरोप का विषय नल यहाँ 'सः' शब्द से अनिगोणं अर्थात् शब्दोपात्त हो है, भमेदाध्यवसाय नहीं होने पाया है। नारायण की उपमा भो नहीं हो सकती, क्योंकि औपम्य-वाचक शब्द यहाँ मूल में कोई नहीं है, इसलिये यह स्पष्टतः रूपक का विषय है, नल पर इन्द्रत्व का आरोप है। वह 'क्ष्माभृद्' और 'अनल्प' में शिकष्ट है। 'उच्चैः श्रवसः श्रियं हरन्तम्' में उपमा स्पष्ट है, क्योंकि दण्डी ने 'कान्ति चुराता है' 'टक्कर या लोहा लेता है' 'सामना करता है' 'एकसाथ तराजू पर बैठा है' 'उसका सहोदर है।' इत्यादि समी लाक्षणिक प्रयोगों का सादृश्य में ही पर्यवसान माना है, इसलिये इस अंश में उपमा है, जो 'सिन्धुज' और 'सहोदर' में श्लिष्ट है। ___ पुराणानुसार समुद्र-मन्थन से जो चौदह रत्न निकले उनमें चन्द्रमा और उच्चैःश्रवा भी है जिसे इन्द्र ने रख लिया था / इन्द्र के 'सहस्र लोवन' होने के सम्बन्ध में यह कथा आती है कि एक बार इन्द्र गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी अहल्या के साथ व्यभिचार कर बैठा। गौतम को पता चल गया / उन्होंने जहाँ अपनी पत्नी को शाप द्वारा पत्थर बना दिया वहाँ इन्द्र को मी शाप दिया-'सहस्र-भगों भव'। पीछे अनुनय-विनय करके इन्द्र ने ऋषि द्वारा 'भगों' को लोचनों में परिवर्तित करवा दिया // 64 // निजा मयूखा इव तीक्ष्ण'दीधिति स्फुटारविन्दाक्तिपाणिपङ्कजम् / __ तमश्ववारा जवनाश्वयायिनं प्रकाशरूपा मनुजेशमन्वयुः // 65 // अन्वय-निजाः प्रकाश-रूपा अश्ववारा स्फुटा...जम् जवनाश्वयायिनम् तम् मनुजेशम् ( निजाः प्रकाश-रूपाः ) मयूखाः ( स्फुटा...जम् नवनाश्व० ) तीक्ष्यदीधितिम् व अन्वयुः / टीका-निजाः= स्वकीया: प्रकाशम् = उज्ज्वलम् रूपम् = आकारो येषां ते (ब० वी०) परिहित-श्वेतवसना इत्यर्थः अश्वधारा:=अश्वारोहिणः स्फुटा०-स्फुटम् स्पष्टम् यथा स्यात्तया अरविन्दैः कमले: रेखारूपैरित्यर्थः अक्षितम् =चिह्नितम् ( तृ० तत्पु० ) पाखिः हस्तः ( कर्मधा०) पहजम् = इव ( उपमित तत्पु० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० प्रा० ) अर्थात् यस्य हस्ते पद्माना रेखा: चिह्नानि आसन् जवनः = अतिवेगवान् ( 'जवनस्तु जवाधिकः' इत्यमरः ) योऽश्वः हयः ( कमधा० ) 1. तिग्म /
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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