________________ 116 नैषधीयचरिते __ व्याकरण-यूथ्यः यूथे मव इति यूथ + यत् उदिता/द+क्त कर्मणि, वद् धातु हिकर्मक है / कर्मवाच्य में गौण कर्म 'लम्' में प्रथमा हो गई है और मुख्य कर्म 'वृत्तान्त' द्वितीयान्त ही रह हिन्दी-ओ चन्चल नयनों वाली, अपने दल के हंसों द्वारा वज्राघात-जैसा मेरा यह ( मृत्युविषयक ) बृत्तान्त कही जाती हुई ( तू ) निश्चय ही दसों दिशाओं के भुख सुना-सूना देखेगी-यह खेद की बात है / / 136 / / टिप्पणी-यहाँ वृत्तान्त की तुलना बज्र-क्षत से की गई है, इसलिये उपमा है। 'दिशा' 'दशा' में छेके और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है // 139 // ममैव शोकेन विदीर्णवक्षसा स्वया विचित्राङ्गि विपद्यते यदि / तदास्मि दैवेल हतोऽपि हा हतः स्फुटं यतस्ते शिशवः परासवः // 14 // अन्वय-हे विचित्राङ्गि, मम एष शोकेन विदीर्ण-वक्षसा खया यदि विपद्यते, तदा हा ! दैवेन हतः अपि ( पुनः ) हतः अस्मि, यतः ते शिशनः स्फुटम् परातवः ( भवेयुः ) / टीका-हे विचित्राणि चञ्चू चरणयोः रक्तवर्णत्वात् शरीरस्य च श्वेतस्वात् विधिधवर्णानि अङ्गानि =अवयवाः ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धौ हे विचित्राणि ( ब० वी० ) मम तव शोकेन मन्मृत्युजनित-दुःखेन विदीण = स्फुटितम् वक्षः हृदयम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतया (ब० वी०) त्वया यदि चेत् विद्यते म्रियते तदा-तहिं हा! खेदे अव्ययम् देवेन =भाग्येन हतः=मारितः अपि%=( पुनः ) हतः अस्मि यतः कारणमिदमस्ति ते शिशवः = बालकाः स्फुटम् निश्चितम् यथा स्यात्तथा परासवः पराः=परागताः प्रसवः प्राणाः येषां तथामूताः मृता इत्यर्थः (प्रादि ब० वी०) भवेयुरिति शेषः, मयि मृते त्वयि जीवितायां च शिशूनां जीवनं कथमपि सम्भाव्यते, किन्तु त्वयि अपि मृतायाम् शिशवोऽपि नूनं मरिष्यन्तीतिहा कष्टमितिमावः / / 140 / / व्याकरण-विदीर्ण वि+t+, (त को न और न कोण) विपद्यते वि/पद्+लट माववाच्य / हिन्दी-हे विचित्र अङ्गोंवाली, मेरे ही शोक के कारण विदीर्ण हुये हृदयवाली तू यदि मर जाती है, तो हाय ! दैव का मारा हुआ भी मैं (दो बारा ) मर गया क्योंकि तेरे बच्चे ( मी) निश्चय ही मर जाएँगे॥१४०।। टिप्पणी-माता यदि जीवित हो, तो पिता के बिना भी बच्चे भीवित रह जाते हैं, किन्तु दोनों के मर जाने पर बच्चे भी भरे समझ लीजिये / इस तरह हंस पत्नी की मृत्यु पर बच्चों की मृत्यु की मी कल्पना करके और भी अधिक दुःखित होरहा है कि भाग्य एक को मार कर कैसे सारे ही परिवार को मार रहा है / यहाँ पत्नी की मृत्यु पर बच्चों की भी मृत्यु बताने से समुच्चयालंकार है / समु. च्चय वहाँ होता है जहाँ एक कार्य के होने पर 'खले कपोत न्याय' से और भी कार्य हो जायें। 'हतो' 'हत' में छेकं तथा 'शसयोरमेदात्' बाले नियम से 'शवः' 'सव.' में यमक और अन्यत्र वृत्यानुप्रास है // 140 //