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________________ प्रथमः सर्गः की कान्ति का लेश भी कहाँ ? शरद् की पौर्णमासी का चाँद उस ( नल ) के मुख की दासता कामी अधिकारी नहीं था // 20 // टिप्पणी-यहाँ नल के पैर, हाथ और मुख के सामने क्रमशः पद्म, पल्ला एवं शरच्चन्द्र का तिरस्कार किया गया है, अतः प्रतीर है, किन्तु मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ अधेि आदि में या भादि का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध प्रतिपादित किया गया है, इसलिए यह असम्बन्धे सम्बयाति शयोक्ति है 'च्छय' 'चछय' 'दास्य' 'दास्ये' में छे कानुपास है // 20 / किमस्य लोम्नां कपटेन कोटिमिर्विधिन लेखामिरजीगणद् गुणान् / न रोमकपौघमिषाज्जगत्कृता कृताश्च किं दूषणशून्यबिन्दवः // 21 // अन्वयः-विधिः रोम्याम् कपटेन कोटिमिः रेखाभिः अस्य गुणान् न अजीगण किम् ? जगत्कृतां रोम' पात् दूषण 'वः ( च ) न कृताः किम् ? ____टीका-विधिः = ब्रह्मा रोग्णाम् =लोम्नाम् कपटेन=व्याजेन कोटिभिः = कोटि-संस्थानिक सार्धनिकोटिमिरित्यर्थः यथोक्तम्-'तिस्रः कोटयोऽर्धकोटी च यानि रोमाणि मानुषे'। रेखामिःलेखामिः अस्य = नलस्य गुणान् = शौयौदार्यादीन् न अजीगणत् = गपितवान् किम् अपितु गणितवान् एव / जगत्कृता=जगत्करोति = सन्जतीति तथोक्तः तेन (उपपद तत्पु०) ब्रह्मणेत्यर्थः रोम-= रोग्णाम् = लोम्नाम् ये कूपाः= विवराणि तेषां यः पोषः = समूहः तस्य मिषात् = व्याजात ( सर्वत्र 10 तत्पु०) दूषण-दूषखानाम् =दोषाणाम् यानि शून्यानि = अमावाः तेषां बिन्दवः तज्यापका वर्तुलरेखा इत्यर्थः न कृताः किम् अपि तु कता एव / नलः सर्वगुणसम्पन्नः सर्वदोषरहितश्चासीदिति भावः। व्याकरण-विधिः-विदधाति सनति इति वि+Vधा+कि (कर्तरि ) अजीगणवगिण (चरा० ) लुङ् जगत्कृता=जगत् F/+क्विप् ( कर्तरि ) / हिन्दी-ब्रह्मा ने रोमों के बहाने करोड़ों रेखाओं से इस ( नल ) के गुण नहीं गिने क्या! जगत् स्रष्टा रोम-कूपों के समूह के बहाने दोषों के अभाव-सूचक बिन्दु-गोल-रेखायें-नही बना गया क्या? टिप्पणी-इस श्लोक में कवि नल के रोमों और रोम-कूपों में उसके गुणों एवं दोषामान को गिनती की कल्पना कर बैठा है / उसमें करोड़ों गुण है और दोष सर्वथा शून्य है। “कम्' शरद कहाँ उत्प्रेक्षा का वाचक है साथ ही काकु वक्रोक्ति भी बना रहा है। उत्प्रेक्षायें दो हैं, काकु मी दो हैं। इनका एकवाचकानुपवेश-संकर कह सकते हैं। उसके साथ दो अपहुतियों की संसृष्टि भी है जो कपट और मिष शन्दों द्वारा अभिहित है। 'गण' 'गुणा' में छेक और 'कृता' 'कृता' में यमक भी है। अमुष्य दोामरिदुर्गलुण्ठने ध्रुवं गृहोतार्गलदीर्घपीनता / उरः श्रिया तत्र च गोपुरस्फुरस्कपाटदुर्धर्षतिःप्रसारिता // 22 // अन्वयः-अमुष्य दोाम् अरि-दुर्ग-लुण्ठने अर्गलदीर्घपीनता, तत्र उरःभिया च गोपुर...रिता गृहीता ध्रुवम् /
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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