________________ प्रथमः सर्गः बालकम् ( प. तत्पु० ) येन तयाभूतम् (ब० वी०) प्रशोकम् =एतदाख्यवृक्षविशेषम् अर्थन मन्वितं = सम्बद्धम् नाम अभिधेयम् ( कर्मधा० ) यस्य तथा भूतस्य (ब० वी. ) भावः तत्ता तस्या प्राशया=(१० तत्पु०) शरण्यम् शरणे साधुन संरक्षणदायकमित्यर्थः ( 'शरणं रक्षणे गृहे' इति विश्वः ) गतान् = प्राप्तान् शरणागतानिति यावत् गृहान् =गृहिणीः पत्नीरित्यर्थः ( 'न गृहं गृहमित्याहुः गृहिणी गृहमुच्यते' इत्यमियुक्ताः 'गृहाः पत्न्यां गृहे स्मृताः' इहि विश्वञ्च ) शोचितुं = चिन्तयितुं शोलमेषां तथोक्तान् ( उपपद तत्पु० ) प्रियासु समुत्कण्ठितानित्यर्थः अध्वगान् =पान्थान् प्रवासिन इति यावत् अवन्तम् =रक्षन्तम् इव अमन्यत=अतर्कयत् / 'न शोकः यत्रेति अशोकः' इत्यशोकस्यान्वर्थतां हृदि निधाय पथिकास्तच्छरणमागताः, सोऽपि च 'शरणागत-रक्षणं महान् धर्मः' इति कृत्वा पुष्परूपान् काम-बाणान् स्वशिर उपरिगृहीत्वा शरणागत-पान्थान् रक्षतीवेति भावः॥१०१।। - व्याकरण-शरएवम् शरणे साधुः इति शरण+यत् ( 'तत्र साधुः' पा० 4 4 / 98) / शोचिनः शुच्+णिन् ताच्छील्ये। प्रतीष्ट प्रति+ इ +क्त कर्मवाच्य / अध्वगान् अधानं गच्छन्तीति अवन् + गम् +ङः / जालकम् जालमेवेति जाल+क ( स्वाथें ) / हिन्दी-उस ( नल ) ने पत्रों द्वारा कामदेव के नलते हुए अत्रों का समूह ( स्वयं) ग्रहण किये हुए अशोक को, अन्वर्थ नाम वाला होने की आशा से शरण में आए ( तथा ) पत्नियों की सोच में पड़े पथिकों को रक्षा हुआ-जैसा समझा / / 101 / / टिप्पणी-पथिकों पर कामदेव के बाण पड़ रहे थे वे प्रशोक की शरण चले गये यह सोचकर कि उसका नाम ही लोगों को शोक-रहित करना है। अशोक ने भी अपने नाम की लाज रख ली। उसने आगे खड़े हो काम के बाण अपने ऊपर पड़ने दिए और शरणागत पथिकों की रक्षा कर दी। यह अर्थ यहाँ हमें कुछ ठीक नहीं जॅच रहा है / कारण यह है कि-जैसा हम पोछे बता आए हैंअशोक तो स्वयं कामदेव के पाँच बाणों में से अन्यतम हैं। वह विरहित जनों का रक्षक नहीं, भक्षक है / नाम के भरोसे बटोही उसके पास गए / वह देखो तो उन पर उल्टा और मुसीबतें ढहाने लगा। 'नाम नयन-सुख और आँख का अन्धा' वाली बात हो गई / इसलिए / अव धातु को हम यहाँ रक्षार्थ में न लेकर हिंसार्थ में लेंगे जैसे भट्टोजी दीक्षित लिखते हैं-'अब रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति-तृप्यव. गमन-प्रवेश-श्रवण-स्वाम्यर्थयाचनक्रियेच्छा-दीप्ति व्याप्त्यालिङ्गन-हिंसा-दहन-माव-वृद्धिषु / नारायण ने वैकल्पिक-रूप में इस अर्थ को ओर संकेत किया है, किन्तु जिनराज और कृष्णकान्त ने सीधा हिसा अर्थ ही लिया है / रक्षार्थ में उत्प्रेक्षा-मात्र है, किन्तु हिंसार्थ में उत्प्रेक्षा के साथ साथ विषमा. लकार भी है / विषम वहाँ होता है, जहाँ कोई भलाई हेतु जावे किन्तु मलाई के स्थान में मुसीबत में फंस जाय' / बटोही गये थे शोक मिटाने, लेकिन उल्टा प्राप्त कर बैठे शोक। शब्दालंकार वृत्यनुपास है // 10 // विलासवापीतटवीचिवादनात् पिकालिगीतेः शिखिलास्यलाघवात् / वनेऽपि तौयंत्रिकमारराध तं क्व मोगमाप्नोति न माग्यमाग्जनः // 102 // अन्वयः-विलास...नात् , पिकालिगीतेः, शिखिलास्यलाघवात् तौर्यत्रिकम् बने अपि तम् आरराध / माग्यमाक् जनः क्व मोगम् न आप्नोति ?