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________________ प्रथमः सर्गः मरुल्लल पल्लवकण्टकैः क्षतं समुच्चनच्चन्दनसारसौरमम् / स वारनारीकुचसश्चितोपमं ददर्श मालूरफलं पचेलिमम् // 94 // अन्वयः-सः मरुल्ललत्पल्लव-कण्टकैः क्षतम् समुच्चरच्चन्दन-सार-सौरभम् वारनारी कुचसश्चितोपभम् पचेलिमम् मालूर-फलम् ददर्श / टीका-सः= नलः मरुत्-मरुता वायुना बलन्तः = चलन्तः कम्पमाना इति यावत् (तृ० तत्पु० ) ये पल्जवाः = किसलयाः ( कर्मधा० ) तेषां कपटकैः-तीक्ष्णाः अवयवैः (10 तत्पु० ) क्षतम् = पाहतम् अथ च मरुता=( लक्षणया ) मरुता इव वेगवता कामेन ललन्तः = विलसन्तः ये पल्लवाः = विटा भुजङ्गा इति यावत् तेषां कण्टकैः = कण्टकसदृशैः नखैः क्षतम् , समुच्च०-समुच्चरत् उद्गच्छत् अथवा प्रसरत् चन्दनवत् ( उपमान तत्पु० ) सारं= श्रेष्ठम् सौरभम् = परिभलः= ( कर्मधा 0 ) यस्मात् अथ च चन्दनस्य सारं (प० तत्पु० ) सौरभं वस्मात् तथाभूतम् (ब० वी०) वारनारी= वेश्या तस्याः कुचाभ्याम् = स्तनाभ्याम् (10 तत्पु०) सञ्चिता=अजिंता ( तृ० तत्पु०) उपमा सादृश्यम् ( कर्मधा० ) येन तथाभूतम् (ब० वी०) पचेलिमम् पक्वम् मालुर-फलम् = बिल्वफलम् ('विल्वे शाण्डिल्य शैलूषो मालूर-श्रीफलावपि' इत्यमरः) बदर्श = अवालोकयत् / / 64 / / . म्याकरण-बलत् लल्+शत् / क्षत/क्षण+क्त / सौरमम् सुरमेः भाव इति सुरमि+ अप / पचेलिमम/पच+केलिमर् ( 'कर्मकर्तरि केलिमर उपसंख्यानम् ) / . हिन्दी-उस ( नल ) ने मरुत ( काम-विकार ) के कारण विलास करते हुए पल्लवों (कामुकों) के कण्टको ( नखों)द्वारा क्षति-ग्रस्त हुए, ( तथा ) फैल रही चन्दन की अच्छी सुगन्धि वाले गणिका के कुचों का सादृश्य लिये मरुत ( वायु ) से हिल रहे पल्लवों ( पत्तों ) के कंटकों (काँटों) से पति-प्रस्त ( तथा ) चन्दन की-सी अच्छी सुगन्धि वाले पके हुए बिल्व-फल को देखा / / 94 / / टिप्पणी--यहाँ पके हुए गोल-गोल बेल की गणिका के कुचों से तुलना को गई है। विशेषण श्लिष्ट होने से दोनों में बराबर लग जाते हैं। लेकिन 'मरुत्' शब्द को कामुकों की तरफ कोई भी टोकाकार नहीं लगा सका है। हमारे विचार से 'कंटक' का जब सादृश्य-मूलक लाक्षणिक अर्थ नख किया जा रहा है तो 'मरुत्' का भी लाक्षणिक अर्थ 'काम' क्यों न लिया जाय / काम भी तो एक हवा है जो मनुष्य को विचलित कर देती है। और हवा की तरह ही वेग वाला काम भी है। पसलिए हमने भी यही लाक्षणिक अर्थ लिया है। कुचों पर चन्दन लेप करने की प्रथा बड़ो पुरानी है। बेल में चन्दन की-सी गन्ध आती ही है। इसलिर यहाँ श्लेषानुप्राणित उपमा है / चन्दनवारसार-सौरभम् में लुप्तोपमा है। 'सार' 'सौर' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास तथा प्रत्येक पाद के अन्त में अम्' 'अम्' को तुक मिलने से अन्त्यानुपास भी है / / 94 / / युवद्वयीचित्तनिमज्जनोचितप्रसूनशून्येतरगर्मगह्वरम् / स्मरेषुधोकृत्य धिया भयान्धया स पाटलायाः स्तबकं प्रकम्पितः // 95 // 1. ल्लसत् / 2. भियान्धया।
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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