Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती प्रकाशन : ११ : जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग लेखक डा. सागरमल जैन निदेशक पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वागणमो प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © लेखक प्रकाशक १. प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर (राजस्थान) प्राप्तिम्थान १. नगेन्द्रकुमार मागरमल मगफा, शाजापुर (म० प्र०) २ मोतीलाल बनारमीदाम, चौक वागणमी-१ ३. पाश्वनाथ विद्याश्रम शोध-मम्यान, आई० टी० आई० रोड, वाराणमी-५ ४. प्राकृत भारती मम्थान, यति श्यामलालजी का उपाश्रय, मोतीसिंह भोमियो का गस्ता, जयपुर-३०२००२ प्रकाशन वर्ष सन् १९८२ वीर निर्वाण स० २५०८ मूल्य : बीस रुपये मात्र मुद्रक बाबूलाल जैन फागुल्ल महावीर प्रेस, भेलूपुर, वाराणसी-५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म विक्रम समर्पण सयम सवा और साधना की प्रतिमनि पज्य साध्वी श्री पाजकुंवरजी म० साल चन् १९६२ mal पावन नरणा म मर्भात समर्पित दीक्षा विक्रम सम्वत् १६६४ Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर, ( राजस्थान ) के द्वारा 'जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग नामक पुस्तक प्रकाशित करते हुए हमे अतीव प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। आज के युग में जिम धार्मिक सहिष्णुता और मह-अस्तित्व को आवश्यकता है, उसके लिए धर्मों का समन्वयात्मक दृष्टि से निष्पक्ष तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है, ताकि धर्मों के बीच बढती हुई खाई को पाटा जा सके और प्रत्येक धर्म के वास्तविक स्वरूप का बोध हो सके । इस दृष्टि बिन्दु को लक्ष्य में रखकर पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के निदेशक एव भारतीय धर्म-दर्शन के प्रमुख विद्वान् डा० सागरमल जैन ने जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनो पर एक बृहद्काय शोध-प्रबन्ध आज से लगभग १५ वर्ष पूर्व लिखा था। उसी के साधना पक्ष से सम्बन्धित कुछ अध्यायो से प्रस्तुत ग्रन्थ को सामग्री का प्रणयन किया गया है । हमे आशा है कि शीघ्र ही उनका महाप्रबन्ध प्रकाश में आयेगा, किन्तु उसके पूर्व परिचय के रूप में यह लघु पुस्तक पाठको के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि वे उनके विद्वत्तापूर्ण प्रयास का कुछ आम्वाद ले सकें। प्राकृत भारती द्वाग इसके पूर्व भी भारतीय धर्म, आचारशास्त्र एवं प्राकृत भाषा के १० ग्रन्थो का प्रकाशन हो चुका है, उसी क्रम में यह उमका ११वां प्रकाशन है । इसके प्रकाशन में हमे लेखक का विविध रूपो में जो महयोग मिला है उसके लिए हम उनके आभारी है । महावीर प्रेस, भेलपर ने इसके मुद्रण कार्य को मुन्दर व कापूर्ण ढग में पूर्ण किया, एतदर्थ हम उनके भी आभारी है। देवेन्द्रराज मेहता विनयसागर मचिव संयुक्त सचिव प्राकृत भारती मस्थान जयपुर, (राजस्थान) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन भारतीय दर्शन का जीवन मे घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसमे विभिन्न दार्शनिक तत्त्वों के प्रतिपादन के माथ ही मानव जीवन के परम लक्ष्य एवं उसकी प्राप्ति के उपाय के मम्बन्ध में गम्भीर तथा व्यापक विचार हुआ है। विभिन्न दार्शनिक मम्प्रदायों तथा परम्पगी ने अपनी-अपनी दृष्टि से विशिष्ट माधना मार्गों की स्थापना की है। प्रस्तुत पम्नक में जैन दर्शन के ख्यातिलब्ध विद्वान् तथा पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान के निर्देशक डाक्टर मागरमल जैन ने जैन, बौद्ध और गीता के माधना मार्ग का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। यह अध्ययन विद्वत्तापूर्ण, गम्भीर एवं विचारोत्पादक है । इमी के माथ ही अन्यन्त गरल और सुबोध है । इमकी मबमे मुख्य विशेषता हमारी दृष्टि में यह है कि विद्वान लेखक ने उपगक्त माघना मार्गों के प्रतिपादन तथा मूल्यांकन में स्वय को किगी प्रकार के पूर्वाग्रह, पक्षपात तथा संकुचित दृष्टिकोण में पूर्णरूप में मुक्त रखा है। जैन दर्शन तथा परम्परा मे गम्भीर आस्था रखते हए. लेखक ने बौद्ध और भगवद्गीता के माधना मार्गों के प्रतिपादन में पूरी उदारता तथा निष्पक्ष दृष्टिकोण का परिचय दिया है। सुलनात्मक अध्ययन की इसी विधि को आधुनिक विद्वन् समाज न मर्वश्रेष्ठ स्वीकार किया है । तुलनात्मक अध्ययन के क्षेत्र में इस दृष्टि में लेखक का यह प्रयाम अत्यन्त स्तुत्य तथा अनुकरणीय है । भारतीय धर्म त पा मम्कृति अनेकता में एकता के मार्वभौम सिद्धान्त पर प्रतिष्ठित है। साधना मार्ग भी इसी गत्य का उद्घाटन करता है। प्रस्तुत ग्रन्थ मे यह स्पष्ट रूप से दिग्वाया गया है कि जैन, बौद्ध और गीता के साधना मार्ग स्वतन्त्र और भिन्न होते हुए भी मूलत एक है । ममन्व का प्राप्ति भारतीय नैतिक साधना अथवा योग का मुख्य लक्ष्य ह । राग-द्वेष आदि समस्त मानसिक विकारो तथा अन्तर्द्वद्वों में मुक्त होने पर ही मनुष्य को ममत्व की प्राप्ति होती है, उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है, यह भारतीय दर्शन की मान्यता है और चेतना के इसी उच्चतम धरातल को प्राप्त करन के लिये मुख्य म्प में विभिन्न साधना मार्गों अथवा योगों का प्रतिपादन किया गया है । मनष्य अपनी चेतना में आमूल परिवर्तन करने तथा देश और काल की सीमा से मुक्त चेतना के अविचल और अनन्त स्वरूप को प्राप्त करने मे मर्थ है, यह भारतीय आध्यात्मिक दर्शन का उद्घोप है । निवर्तक धर्म के अनुसरण से ही मनुष्य को समत्व की तथा मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। सम्यक् ज्ञान तथा सदाचरण से सम्पन्न व्यक्ति हो महान् निवर्तक धर्म मार्ग पर चलने में सक्षम होता है। इन सब मौलिक तथ्यों का लेखक ने पाण्डित्यपूर्ण विश्लेषण तथा प्रतिपादन किया है। प्रवर्तक धर्म तथा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५ निवर्तक धर्म मे मूलत कोई विरोध नही है यह भी लेखक ने स्पष्ट रूप मे दिखाया है । समाज एव व्यक्ति के कल्याण व उत्थान के लिये दोनो ही प्रकार के धर्म आवश्यक है। इन दोनो मार्गों के विषय में जैन, बौद्ध और गीता के दृष्टिकोण मे जो अन्तर है उसका भी विद्वान् लेखक ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है । प्रस्तुत पुस्तक स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियो, शोध छात्रो तथा अन्य समस्त विद्वानो और जिज्ञासुओ के लिये उपयोगी सिद्ध होगी जो भारताय दर्शन नथा साधना के गम्भीर तथा तुलनात्मक अध्ययन मे रुचि रखत है । इस प्रकार के उच्चस्तरीय तथा प्रामाणिक ग्रन्थ का प्रणयन कर डाक्टर मागरमल जैन ने माधना मार्ग पर उपलब्ध साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इसके लिये महृदय तथा विचारशील दार्शनिक समाज उनका आभारी होगा। म. रामशंकर मिश्र प्रोफेसर एव अध्यक्ष दर्शनविभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणमी, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक मानव अस्तित्व हि-यामी एवं विरोधाभास पूर्ण है । वह स्वभावत. परस्पर विरोधी दो भिन्न केन्द्रो पर स्थित है । वह न केवल शरीर है और न केवल चेतना, अपितु दोनो की एक विलक्षण एकता है । यहो कारण है कि उसे दो भिन्न स्तरो पर जीवन जीना होता है। शारीरिक स्तर पर वह वामनाओं में चालित है और वहाँ उम पर यान्त्रिक नियमों का आधिपत्य है किन्तु चैत्तमिक स्तर पर वह विवेक से शासित है, यहाँ उसासानन्य है । शारीरिक स्तर पर वह बद्ध है, परतन्त्र है किन्तु चैनमिक स्तर पर स्वतन्त्र है मक्त है। मनोविज्ञान की भाषा मे जहाँ एक ओर वह वासनात्मक अह (Id) ने जनशामित है तो दूसरी ओर आर्दशात्मा ( Super Ego ) में प्रभावित भा | गगनात्मक अह ( Id) उसकी शारीरिक मागो की अभिव्यक्ति का प्रयास है तो आदर्शामा उसका आध्यात्मिक स्वभाव है, निर्द्वन्द्व एव निराकुल तन-गमत्व की अपेक्षा करता है। उसके लिए इन दोनों में मे किसी को भण उपक्षा असम्भव है । उनक जीवन की सफलता इन बीच एक मागसन्तुलन बनान में निहित है। उसके वर्तमान अस्तित्त्व के ये दो छोर है । उसकी जीवनधारा इन दोनो का स्पर्श करत हुए इनके बीच बहती हैं । उसका निज स्वरूप है । जो प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मो का मनोवैज्ञानिक विकास मानव जीवन मे शारीरिक विकास वासना को और चैतमिक विकास विवेक को जन्म देना ह । प्राप्त वामना अपनी सन्तुष्टि के लिए 'भोग' की अपेक्षा रखती है तो विशुद्ध-विवेक अपने अस्तित्व के लिए 'मयम' या विराग की अपेक्षा करता है । क्योकि सराग - विवेक सही निर्णय देने में अक्षम होता है । वामना भोगो पर जीती है और विवेक विराग पर । यही दो अलग-अलग जीवनदृष्टियो का निर्माण होता है । एक का आधार वासना और भोग होने है तो दूसरी का आधार विवेक और विराग । श्रमण परम्परा मे इनमे से पहली को मिथ्या दष्टि और दूसरी को सम्यक् दृष्टि के नाम मे अभिहित किया गया है । उपनिषद् में इन्हें क्रमश. प्रेय और श्रेय कहा गया है । कठोप Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निषद् में ऋषि कहता है कि प्रेय और श्रेय दोनों ही मनुष्य के सामने उपस्थित होते है। उसमे से मन्द-बुद्धि शारीरिक योग-क्षेम रूप प्रेय को और विवेकवान पुरुष श्रेय को चुनता है । वासना की तुष्टि के लिए भोग और भोगों के साधनों की उपलब्धि के लिए कर्म अपेक्षित है, इसी भोग-प्रधान जीवन दृष्टि से कर्म-निष्ठा का विकास हुआ है । दूसरी ओर विवेक के लिए विगग (संयम) और विराग के लिए आध्यात्मिक मूल्य-बोध (शरीर के ऊपर आत्मा की प्रधानता का बोध) अपेक्षित है, इसी आध्यात्मिक जीवन दृष्टि से तप-मार्ग का विकास हुआ। इनमे पहली धारा से प्रवर्तक धर्म का और मरी मे निवर्तक धर्म का उद्भव हुआ। प्रवर्तक धर्म का लक्ष्य भोग ही रहा अतः उमने अपनी माधना का लक्ष्य सुखसुविधाओं की उपलब्धि को ही बनाया । जहाँ ऐहिक जीवन में उमने धन-धान्य, पुत्र, सम्पत्ति आदि कामना की, वही पारलौकिक जीवन मे स्वर्ग (भौतिकमुष मुवि पाओ की उच्चतम अवस्था) की प्राप्ति को ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य घापित किया । आनुभविक जीवन में जब मनुष्य ने यह देखा कि अलातिक एवं प्राकृतिक शक्तियाँ उसके सुख-सुविधाओं के उपलब्धि के प्रयामो को मफल या विफल बना गकती है एवं उमकी सुख-सुविधाएं उसके अपने पुरुषार्थ पर ही नही अपितु इन शक्तियो की कृपा पर निर्भर है, तो इन्हे प्रमन्न करने के लिए वह एक ओर इनकी स्तुति और प्रार्थना करने लगा तो दूसरी ओर उन्हे बलि और यमो के माध्यम में मन्तुष्ट करने लगा। इस प्रकार प्रवर्तक धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ-(१) श्रद्धा प्रधान भक्ति-मार्ग और (२) यज्ञ-याग प्रधान कर्म-मार्ग । दूमगे ओर निष्पाप और स्वतन्त्र जीवन जीने की उमग मे निवर्तक धर्म ने निर्वाण या मोक्ष अर्थात् शारीरिक वामनाओं एव लौकिक एपणानो में पूर्ण मुक्ति को मानव जीवन का लक्ष्य माना आर इम हेतु ज्ञान और विगगका प्रधानता दी, किन्तु ज्ञान और विराग का यह जीवन मामाजिक एव पारिवारिक व्यस्तताओं के मध्य सम्भव नहीं था, अतः निवर्तक धर्म मानव को जीवन के कम-क्षेत्र से कही दूर निर्जन वनखण्डों और गिरि-कन्दगओं में ले गया, जहाँ एक और दैहिक मूल्यो एवं वामनाओं के निषेध पर बल दिया गया, जिसमें बैगग्यमूलक ना-मार्ग का विकास हा, दूमरी ओर उम एकान्तिक जीवन में चिन्तन और विमर्श के द्वार ग्बुले, जिज्ञामा का विकास हुआ, जिसमे चिन्तनप्रधान ज्ञान मार्ग का उद्भव हुआ । इस प्रकार निवर्तक धर्म भी दो मुख्य शाखाओं में विभक्त हो गया-(१) ज्ञान-मार्ग और (२) तप मार्ग। मानव प्रकृति के दैहिक और चैतमिक पक्षों के आधार पर प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों के विकास की इस प्रक्रिया को निम्न मारिणी के माध्यम में अधिक स्पष्ट किया जा सकता है Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य चेतना वामना विवेक भोग विराग अभ्युदय (प्रेय) निःश्रेयस् स्वर्ग मोक्ष (निर्वाण) कम संन्यास प्रवृत्ति प्रवर्तक धर्म निवृत्ति निवर्तक धर्म आत्मोपलब्धि अलौकिक शक्तियों की उपासना समर्पणमूलक यज्ञमूलक चिन्तन प्रधान देहदण्डनमूलक भक्ति-मार्ग कर्म-मार्ग ज्ञान-मार्ग तप-मार्ग निवर्तक एवं प्रवर्तक धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों का विकाम भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिक आधारों पर हुमा था, अतः यह स्वाभाविक था कि उनके दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय भिन्न-भिन्न हों। प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मो के इन प्रदेयों और उनके आधार पर उनमे रही हुई पारस्परिक भिन्नता को निम्न सारिणी से स्पष्टतया समझा जा सकता हैप्रवर्तक धर्म निवर्तक धर्म (दार्शनिक प्रदेय) (दार्शनिक प्रदेय) (१) जैविक मूल्यों को प्रधानता। (१) आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता । (२) विधायक जीवन दृष्टि । (२) निषेधक जीवन-दृष्टि । (३) समष्टिवादी। (३) व्यष्टिवादी। (४) व्यवहार में कर्म पर बल फिर भी (४) व्यवहार मे नैष्कर्म्यता का समर्थन भाग्यवाद एवं नियतिवाद का फिर भी दृष्टि पुरुषार्थवादी । समर्थन । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) ईश्वरवादी। (६) ईश्वरीय कृपा पर विश्वास । (७) माधना के बाह्य माधनो पर बल। (८) जीवन का लक्ष्य स्वर्ग एव ईश्वर के सान्निध्य की प्राप्ति । (५) अनीश्वरवादी। (६) वैयक्तिक प्रयासो पर विश्वास, कर्म मिद्धान्त का समर्थन । (७) आन्तरिक विशुद्धता पर बल । (८) जीवन का लक्ष्य मोक्ष एव निर्वाण की प्राप्ति । (सांस्कृतिक प्रदेय) (सांस्कृतिक प्रदेय) (९) वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद का (९) जातिवाद का विरोध, वण-व्यवस्था जन्मना आधार पर ममर्थन । का केवल कर्मणा आधार पर ममर्थन । (१०) गृहस्थ-जीवन की प्रधानता। (१०) मन्याम जीवन की प्रधानता । (११) सामाजिक जीवन शैली। (११) एकाकी जीवन शैली । (१२) राजतन्त्र का समर्थन (१२) जनतन्त्र का समर्थन । (१३) शक्तिशाली की पूजा। (१३) गदाचारी की पूजा। (१४) विधि-विधानो एव कर्मकाण्डो की (१४) ध्यान और तप को प्रधानता । प्रधानता। (१५) ब्राह्मण सम्था (पहित-वर्ग) का (१५) श्रमण मम्मा का विकाम । विकाम । (१६) उपामना-मूलक । (१६) गमाधि मूलक । प्रवर्तक धर्म में प्रारम्भ मे जैविक मूल्यो की प्रधानता रही, वेदो में जैविक आवश्यकताओ की पूर्ति मे सम्बन्धित प्रार्थनाओ के स्वर अधिक मुखर हुए है । उदाहरणार्थहम सौ वर्ष जीव, हमारी मन्तान बलिष्ठ होवे, हमारी गाये अधिक दूध देवे, वनस्पति प्रचुर मात्रा मे हो आदि। इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक निषेधात्मक रूप अपनाया, उन्होंने मामारिक जीवन को दुखमयता का राग अलापा । उनकी दृष्टि मे शरीर आत्मा का बन्धन है और ममार दुखो का मागर । उन्होने ससार और शरीर दोनो से ही मुक्ति को जीवन-लक्ष्य मामा । उनकी दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओ का निषेध, अनामक्ति, विराग और आत्म-मन्तोष ही सर्वोच्च जीवनमूल्य है। एक ओर जैविक मल्यो की प्रधानता का परिणाम यह हा कि प्रवर्तक धर्म में Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ तथा जीवन को मर्वतोभावेन वांछनीय और रक्षणीय माना गया, तो दूसरी ओर जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐमी निषेधात्मक दृष्टि का विकास हुआ जिसमे शारीरिक मागों का ठुकगना ही जीवन-लक्ष्य मान लिया गया और देह-दण्डन ही तप-त्याग और अध्यात्म के प्रतीक बन गये । प्रवर्तक धर्म जैविक मल्यो पर बल दत है अतः स्वाभाविक रूप में वे ममाजगामी बन क्योकि दैहिक आवश्या ना की पूर्ण सन्तुष्टि नो समाज जीवन मे ही मम्भव थी, किन्तु विगग और न्याग पर अधिक बल देने के कारण निवर्तक धर्म ममाज विमुख और वैयक्तिक बन गये । यद्यपि दैमृन्यो की उपलब्धि हेतु कर्म आवश्यक थे. किन्तु जब मनुष्य ने यह देना कि दैहिक आवश्यकताओं की मन्तुष्टि के लिए उमके वैयक्तिक प्रयामो के बावजूद भी उनकी पूर्ति या आपूनि किन्ही अलौकिक प्राकृतिक शक्तियो पर निर्भर है तो वह देववादी और ईश्वरवादी बन गया। विश्व-व्यवस्था और प्राकृतिक शक्तियों के नियन्त्रक तन्व के म्प में उसने ईश्वर की कल्पना की और उसकी कृपा की आकाक्षा करने लगा। दमक विपरीन निवर्तक धर्म व्यवहार मे नष्कर्म्यता के समर्थक होने हए भी कम मिद्धान्त के प्रति आस्था · कारण यह मानने लगा कि व्यक्ति का बन्धन और मक्ति म्वय उमके कारण है, अत निवर्तक धर्म पम्पार्थवाद और वैयक्ति प्रयामों पर आस्था रखने लगा। अनीश्वरवाद, पम्पाथवाद और कर्म सिद्धान्त उमके प्रमुख तत्त्व बन गय । माधना के क्षेत्र में जहाँ प्रवर्तक धर्म में अलोकिक दैवीय क्तियो की प्रमन्नता के निमित्त कम काण्ड और वाद्य विधि-विधानो (यज्ञ-याग) का विकाम हुआ; वही निवर्तक धर्मो ने चित्त-गद्धि और मदाचार पर अधिक बल दिया तथा कर्म-काण्ड के सम्पादन को अनावश्यक माना । सास्कृतिक प्रदेयो की दण्टि में प्रवर्तक धर्म वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मण मम्था (पुगेहिनवर्ग) के प्रमुख ममर्थक रहे । ब्राह्मण मनुष्य और ईश्वर के बीच एक मध्यस्थ का कार्य करने लगा तथा उमने अपनी आजीविका को सुरक्षित बनाये रखनो लिा एक ओर समाज जीवन में अपने वर्नम्व को स्थापित रखना चाहा, तो दूसरी ओर धर्म को कर्मकाण्ड और जटिल विधि-विधानो की औपचा रवता में उला दिया। परिणामस्वरूप ऊंच-नीच का भेद-भाव, जातिवाद और कर्मकाण्ड का विकास हुआ। किन्तु इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने मयम, शान और तप की एक मरल माधना पद्धति का विकास किया और वर्णव्यवस्था, जातिवाद और ब्राह्मण मस्था के वर्चस्व का विरोध किया । उसमे ब्राह्मण र स्था के स्थान पर श्रमण संघो का विकास हुआ-जिसमे सभी जाति और वर्ग के लोगो को समान स्थान मिला गज्य संस्था की दृष्टि से जहां प्रवतक धर्म राजतन्त्र और अन्याय के प्रतिकार की नीति के ममर्थक रहे, वहाँ निवर्तक बनतन्त्र और आत्मोत्सर्ग के समर्थक रहे । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११ - समन्वय की धारा यद्यपि उपरोक्त आधार पर हम प्रवर्तक धर्म अर्थात् वैदिक परम्परा और निवर्तक धर्म अर्थात् श्रमण परम्परा की मूलभूत विशेषताओं और उनक सास्कृतिक एवं दार्शनिक प्रदेय को समझ सकते है किन्तु यह मानना एक भ्रान्ति पूर्ण ही होगा कि आज वैदिक धारा और श्रमण धारा ने अपने इस मूल स्वरूप को बनाये रखा है । एक ही देश और परिवेश मे रहकर दोनों ही धाराओं के लिए यह असम्भव था कि वे एक दूसरे के प्रभाव से अछूती रहे । अतः जहाँ वैदिक धारा में श्रमण धारा (निवर्तक धर्म परम्परा) के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है, वहाँ श्रमण धारा में वैदिक धारा ( प्रवर्तक धर्म परम्परा) के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है । अतः आज के युग मे कोई धर्म परम्परा न तो एकान्त निवृत्ति मार्ग की पोषक है और न एकान्न प्रवृत्ति मार्ग की पोषक ह । वस्तुतः निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में एकान्तिक दृष्टिकोण न तो व्यवहारिक मानवीय आत्मा जब तक है और न मनोवैज्ञानिक । मनुष्य जब तक मनुष्य ह शरीर के माथ योजित होकर सामाजिक जीवन जीती है तब तक एकान्त प्रवृत्ति और एकान्त निवृत्ति की बात करना एक मृग मरीचिका में जीना है । वस्तुत आवश्यकता इस बात की है कि हम वास्तविकता को समझे और प्रवृति तथा निवत्ति के तत्त्वो मे समुचित समन्वय में एक ऐसी जीवन शैली खोजे, जो व्यक्ति और समाज दोनो के लिए कल्याणकारी हो और मानव को तृष्णाजनित मानसिक एवं सामाजिक मत्रास से मुक्ति दिला सकें । भारत में प्राचीन काल से ही ऐसे प्रयत्न हा 1 रहे है । प्रवर्तक बाग के प्रतिनिधि हिन्दू धर्म में ऐसे समन्वय के सबसे अच्छे उदाहरण ईशावास्यापनिषद् और भगवद्गीता हैं । भगवद्गीता मे प्रवृत्ति मार्ग और निवनि मार्ग के समन्वय का स्तुत्य प्रयास हुआ है। यद्यपि निवर्तक धारा का प्रतिनिधि जैनधर्म श्रमण परम्परा के मूल स्वरूप का रक्षण करता रहा है, फिर भी परवर्ती काल में उसकी साधना पद्धति में प्रवर्तक धर्म के तत्त्वों का प्रवेश हुआ ही है । श्रमण परम्परा को एक अन्य धारा के रूप मे विकसित बौद्धधर्म मे तो प्रवर्तक धाग के तत्वो का उतना अधिक प्रवेश हुआ कि महायान से तन्त्रयान की यात्रा तक वह अपने मूल स्वरूप में काफी दूर हो गया । किन्तु यदि हम कालक्रम में हुए इन परिवर्तनों का दृष्टि से ओझल कर द, तो इतना निश्चित है कि अपने मूल धारा के थोडे बहुत अन्तरी का छोटवर, जैन, बौद्ध और गीता की माधना पद्धतियाँ एक दूसरे के काफी निकट है । प्रस्तुत प्रयास में हमने इन तीनो की साधना पद्धतियों की निकटता को स्पष्ट करने का प्रयास किया है, जहाँ जो अन्तर दिखाई दिये, उनका भी यथास्थल मकत कर दिया है । इम तुलनात्मक अध्ययन में हमने यथा सम्भव तटस्थ दृष्टि से विचार किया है । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म को केन्द्र में रखकर जो तुलना की गयी है, उसका एक मात्र कारण उस धारा मे हमारा निकट परिचय ही है, अन्य कोई अभिनिवेश नही। जैन, बौद्ध और गीता की माधना का मूल केन्द्र चैत्तसिक समत्व या चेतना की निगकुल दशा है । अतः सर्वप्रथम ममन्त्र योग की चर्चा की गई है । इसके बाद त्रिविध साधना मार्ग और 5 विद्या (मिथ्यान्व) का विवेचन है । उसके पश्चात् सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) सभ्यग्ज्ञान (ज्ञानयोग) मम्यक् चारित्र (कर्म योग। और मम्यक् नप का ममत्व की सिद्धि के माधनों के रूप में विवेचन किया गया है। अन्त में प्रवत्ति और निवृत्ति की विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में चर्चा की गर ह रि यह दिखाया गया है कि नोनो बाग में उनका क्या और किम रूप में स्थान है। प्रस्तुत तुलनात्मक अध्ययन में हमे जिन ग्रन्थों और ग्रन्थकारो का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में महयोग मिला, उन सबके प्रति हम हृदय से आभारी है । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष एव भारतीय धर्म दर्शन के गम्भीर विद्वान हा० गमशकर जी मिश्र ने इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखने की कृपा की एतदर्थ हम उनके भी आभारी है। प्राकृत भारती मम्थान के सचिव श्री देवेन्द्रराज मेहता के भी हम अत्यन्त आभारी है, जिनके महयोग मे यह प्रकाशन सम्भव हो मका है। महावीर प्रेस ने जिस तत्परता और सुन्दरता गे यह कार्य मम्पन्न किया। उसके लिए उनके प्रति आभार व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है । अन्त मे हम पार्श्वनाथ विगाश्रम परिवार के डॉ० हरिहर सिंह, श्री मोहन लालजा, यी मगर प्रकाश मेहता तथा शोध छात्र श्री रविशंकर मिश्र, श्री अरुण कुमार सिंह, श्री भिखारो गम यादव और श्री विजयकुमार जैन के भी आभारी है, जिनसे विविधरूपो मे महायता प्राप्त होती रही है । वाराणसी, १५ अगस्त १९८२, सागरमल न Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अध्याय : १ समत्व योग १-२० नैतिक साधना का केन्द्रीयतत्व समत्व-योग (१); जैन-आचार दर्शन मे ममत्व-योग (३); जैन दर्शन में विषमता (दुख) का कारण (४), जैन धर्म मे समत्व-योग का महत्व (५), जैन 'गर्म ग ममत्व-गोग ा गर्थ (६), जैन आगमो मे ममत्व-योग का निर्देश (७), बोद्ध आचार-दगन में गम-व-गोग (७); गीता के आचार दर्शन मे ममत्व-योग (९); गीता में गमन्व सा अर्थ (१४); गीता में ममत्वयोग की शिक्षा (१४); समन्वयोग का व्यवहार पक्ष (१६); समत्वयोग का व्यवहार पक्ष और जैन :ष्टि (१९), ममत्वयोग के निष्ठासूर (१९); ममत्वयोग के क्रियान्वयन रे चार सत्र-वृत्ति में अनामक्ति (१९); विचार में अनाग्रह (२०); वैयक्तिक जी (न में नगग्र (२०); मामाजिक आचरण मे आँ'मा (०) । अध्याय : २ त्रिविध साधना-मार्ग २१-३६ विविध साधना-मार्ग ही क्यो ? १२१); बौद्ध दर्शन में विविध माधनामार्ग (२१); गीता का त्रिविध माधनामार्ग (२२), पाश्चात्य चिन्तन में विविध माधनापथ (२२), माधन-त्रय का परम्पर म बन्ध (२३), मम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का पर्वापर मम्बन्ध (२३); बौद्ध विचारणा म ज्ञान और श्रद्धा का सम्बन्ध । ५), गीता म श्रद्धा और ज्ञान का सम्बन्ध (२ ); सम्यग्दर्शन और मम्यकचारित्र का पूर्वापर सम्बन्ध (२७), बौद्धदर्शन और नीता का दृष्टिकोण (२८); सम्यग्जान और सम्यक्चारित्र की पूर्वापरता (२८); माधन-त्रय में ज्ञान का स्थान (२९), मम्यग्दगन, मम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र का पूर्वापर मम्बन्ध भी एकातिक नही (१०); ज्ञान और क्रिया के महयोग से मुक्ति (३१), वैदिक-परम्पग मे ज्ञान और क्रिया के ममन्वय मे मुक्ति (३३); बौद्ध-विचारणा में प्रज्ञा और गील का मम्बन्ध (३३); तुलनात्मक दृष्टि से विचार (३४); मानवीय प्रकृति और त्रिविध साधना-पथ (३५)। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४ - अध्याय : ३ अविद्या (मिथ्यात्व) ३७-४६ मिथ्यात्व का अर्थ (३८); जैन दर्शन मे मिथ्यात्व के प्रकार-एकान्त (३८); विपरीत (३९.); वनयिक (३९), मशय (३०); अज्ञान (४०); मिथ्यात्व के २५ भेद (४०), बौद्ध दर्शन मे मिथ्यात्व के प्रकार (४१); गीता मे अज्ञान (८१); पाश्चात्य दर्शन में मिथ्यात्व का प्रत्यय-जातिगत मिथ्या धारणा, व्यक्तिगत मिथ्या विश्वाम, बाजारू मिथ्या विश्वास, रंगमंच की भ्रान्ति (४२), जैन दर्शन में अविद्या का स्वरूप (४२); बौद्धदर्शन में अविद्या का स्वरूप (४३); बौद्ध दर्शन को अविद्या की समीक्षा (४४); गीता एवं वंशान्त में विद्या का म्वम्प (४.), वेदान्त की माया की समीक्षा (४६), उपमह र (४६) । अध्याय : ४ सम्यग्दर्शन ४७-६९ सम्यक्त्व का अर्थ (४५); दर्शन का अर्थ (४८), सम्यग्दर्शन के विभिन्न अर्थ (०८), जैन आचार दर्शन में मम्यग्दर्शन का स्थान (५१); बौद्ध दर्शन में मम्यग्दर्शन का स्थान (५२); वैदिक परम्पग एव गीता में सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) का स्थान (५३), जैनधर्म मे मम्यग्दर्शन का स्वरूप एवं सम्यग्दर्शन के दमभेद (५४-५५), मम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण(अ) कारक गम्यकत्व, गेचक मम्यक्त्व, दीपक सम्यक्त्व (५५); (ब) औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक मम्यक्त्व (५६); सम्यक्त्व का द्विविध वर्गीकरण-(अ) द्रव्य सम्यक्त्व और भाव सम्यक्त्व (५७), (घ) निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार मम्यक्त्व (५७), (म) निमर्गज सम्यक्त्व और अधिगमज सम्यक्त्व (५७), मम्यक्त्व के ५ अग-सम, सवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्तिक्य (५८), मम्यक्त्व के दूषण (अतिचार)-शका, आकाक्षा, विचिकित्मा, मिथ्या दृष्टियो की प्रामा, मिथ्या दृष्टियो का अति परिचय (५९), सम्यग्दर्शन के आठ दर्शनाचार-निश्शकता, निष्काक्षता, निविचिकित्सा, अमृढष्टि, उपवृहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य, प्रभावना, (६०-६४), सम्यग्दर्शन को साधना के छह स्थान (६४), बौद्ध दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्वरूप (६४); गीता मे श्रद्धा का स्वरूप एव वर्गीकरण (६६); उपमहार (६८)। अध्याय : ५ सम्यग्ज्ञान (ज्ञानयोग) ७०-८२ जैन नैतिक साधना में ज्ञान का स्थान (७०), बौद्ध-दर्शन में ज्ञान का स्थान (७१); गीता में ज्ञान का स्थान (७१); सम्यग्ज्ञान का स्वरूप (७१); ज्ञान Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १५ के स्तर (७२); बौद्धिक ज्ञान (७३); आध्यात्मिक ज्ञान (७४); नैतिक जीवन का लक्ष्य आत्मज्ञान (७५); आत्मज्ञान की ममम्या (७६); आत्मज्ञान की प्राथमिक विधि भेदविज्ञान (७७); जैन दर्शन मे भेद विज्ञान (७८); बौद्ध-दर्शन में भेदाभ्यास (७८); गीता मे आत्म-अनात्म विवेक (भेद-विज्ञान) (८०); निष्कर्ष (८२)। अध्याय : ६ सम्यक् चारित्र (शोल) ८३-९५ सम्यग्दर्शन मे सम्यक्चारित्र की ओर (८३); मम्यक्चारिय का स्वरूप (८४); चारित्र के दो रूप, (८५); निश्चय दृष्टि मे चारित्र (८५); व्यवहारचारित्र (८५); व्यवहारचारित्र के प्रकार (८६); चारित्र का चतुर्विध वर्गीकरण (८६); चारित्र का पंचविध वर्गीकरण-मामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीयचारित्र, परिहारविशुद्धि चारित्र, मूटममम्पगय चारित्र, यथाख्यात चारित्र (८७); चारित्र का विविध वर्गीकरण (८७); बौद्ध दर्शन और मम्य चारित्र (८७); शील का अर्थ (८८); शील के प्रकार--द्विविधवर्गीकरण (८८); त्रिविध वर्गीकरण (८९); शील का प्रत्युपस्थान (९०); शील का पदस्थान (९०); शोल के गुण (९०); अष्टाग माधनापथ और शील (९१); वैदिक परम्परा मे शील या मदाचार (९२); गील (१२); मामयाचारिक (९२); शिष्टाचार (९३): सदाचार (९३); उपमंहार (१.४) । अध्याय : ७ सम्यक तप तथा योग-मार्ग (९६-११०) नैतिक जीवन एवं तप (९६); जैन माधना-पद्धति मे तप का म्यान (९८); हिन्दू साधना-पद्धति में तप का स्थान (०.९.); बौद्ध मानना-पद्धति में तप का स्थान (९०); तप के स्वरूप का विकास (१०१); जैन-मानना में तप का प्रयोजन (१०२); वैदिक माधना में तप का प्रयाजन (१०३); बौद्ध माधना में तप का प्रयोजन (१०३); जैन साधना में तप का वर्गीकरण (१०४); शारीरिक या बाह्य तप के भेद-अनगन, ऊनोदरी, रम परित्याग, भिक्षाचर्या, कायक्लेश, संलीनता (१०४-१०५); आध्यान्तर तप के भेदप्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्मर्ग, ध्यान-धर्मध्यान, शुक्रध्यान, (१०५-१०८); गीता में तप का वर्गीकरण (१०९); बौद्ध माधना में तप का वर्गीकरण (११०); अष्टांग योग और जैनदर्शन (११२); तप का मामान्य स्वरूप : एक मूल्यांकन (११४) । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १६ - अध्याय : ८ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १२०-१४२ __ निवृनि मार्ग एवं प्रवृनि मार्ग का विकास (१२०); निवृत्ति-प्रवृत्ति के विभिन्न अर्थ-(१२०); प्रवृति और निवृत्ति मक्रियता एवं निष्क्रियता के अर्थ मे जैनदृष्टिकोण (१२१); बाद दृष्टिकोण (१२२); गीता का दृष्टिकोण (१२२); गृहस्थ धर्म बनाम मंन्याम धर्म-जैन और बौद्ध दृष्टिकोण (१२३); मंन्याम मार्ग पर अधिक बल (१२४); जैन और बौद्ध दर्शन मे संन्याम निगपद मार्ग (१२४), क्या मन्याम पलायन है ? (१२५); गृहस्थ और मंन्याम जीवन की श्रेष्ठना' (१२६); गोता का दृष्टिकाण, शकर का मंन्यागगार्गीय दृष्टि कोण (१२८); तिलक का कर्ममार्गीय दृष्टिकोण (१२८); गीता का दृष्टिकोण ममन्वयात्मक (१२९); निष्कर्ष (१३०); भोगवाद बनाम वैराग्यपाद (१३१);-जैन दृष्टिकोण (१३२); बौद्ध दृष्टिकोण (१३४); गीता का दृष्टिकोण (१३५); विधेयात्मक वनाम निषेधात्मक नैतिकता (१३५);जैन दृष्टिकोण (१३५ ; बौद्ध दृष्टिकोण (१३७); गीता का दृष्टिकोण (१३७); व्यक्तिपरक बनाम ममाजपरक नीतिशास्त्र (१३७); प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों आवश्यक (१:९); दोनो की सीमाएँ एवं क्षेत्र (१४०);-जैन दृष्टिकोण (१८०); बौद्ध दृष्टिकोण (१४१); गीता का दृष्टिकोण (१४१); उपसहार (१४१)। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समत्वयोग १. नैतिक साधना का केन्द्रीय तत्व समत्व-योग ममत्व की साधना ही सम्पूर्ण आचार-दर्शन का मार है। आचारगत सब विधिनिषेध और प्रयाम इसी के लिए है। जहाँ जहाँ जीवन है, चेतना है, वहां वहां ममत्व बनाए रखने के प्रयास दृष्टिगोचर होते है। चतगिक जीवन का मूल स्वभाव यह है कि वह बाह्य एवं आन्तरिक उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं मे उत्पन्न विक्षोभों को समाप्त कर साम्यावस्था बनाये रखने की कोशिश करता है । फ्रायड लिखते है कि चैतसिक जोवन और सम्भवतया स्नायविक जीवन की भी प्रमुख प्रवृत्ति है-आन्तरिक उद्दीपकों के तनाव को समाप्त करना एवं साम्यावस्था को बनाये रखने के लिये सदैव प्रयासशील रहना ।' एक लघु कोट भी अपने को वातावरण से ममायोजित करने का प्रयास करता है। चेतन की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह मदेव ममत्व केन्द्र की ओर बढ़ना चाहता है । समत्व के हेतु प्रयास करना ही जीवन का माग्तत्त्व है । सतत शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के अभ्यास के कारण चेतन बाह्य उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से प्रभावित होने की प्रवृनि विकमित कर लेता है । परिणाम स्वरूप चेतन जीवनोपयोगी अन्य पदार्थो मे ममत्व का आरोपण कर अपने महज ममत्वकेन्द्र का परित्याग करता है । सतत अभ्यास एव स्व-स्वरूप का अज्ञान ही उसे ममत्व के केन्द्र से च्युत करके बाह्य पदार्थों में आमक्त बना देता है। चेतन अपने शुद्ध द्रष्टाभाव या साक्षीपन को भूल कर बाह्य वातावरणजन्य परिवर्तनों से अपने को प्रभावित समझने लगता है । वह शरीर, परिवार एव ममार के अन्य पदार्थों के प्रति ममत्व रखता है और इन पर-पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति या मयोग-वियोग में अपने को सुखी या दुःखी मानता है। उसमे 'पर' के प्रति आकर्षण या विकर्षण का भाव उत्पन्न होता है। वह 'पर' के माथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है । इमी रागात्मक सम्बन्ध से वह बन्धन या दु ख को प्राप्त होता है । 'पर' में आत्म-बुद्धि से प्राणी में असंख्य इच्छाओं, वासनाओ, कामनाओ एवं उद्वेगो का जन्म होता ह । प्राणी इनके वशीभूत हो कर इनकी पूर्ति व तृप्ति के लिए सदैव आकुल बना रहता है। यह आकुलता १. Beyond the Pleasure Principle-s. Froud. उद्धृत-अध्यात्मयोग और चित्त-विकलन, पृ० २४६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेन, बोर और गीता का सामना मार्ग ही उसके दुःख का मूल कारण है। यद्यपि वह इच्छाओं की पूर्ति के द्वारा उन्हें शान्त करना चाहता है, परन्तु नयी-नयो कामनाओं के उत्पन्न होते रहने से वह सदैव ही आकुल या अशान्त बना रहता है और बाह्य जगत् में उनकी पूर्ति के लिए मारा-मारा फिरता है। यह आसक्ति या गग न केवल उसे ममत्व के स्वकेन्द्र से च्युत करता है, वरन् उसे बाह्य पदार्थों के आकर्षण क्षेत्र में ग्वींचकर उसमें एक तनाव भी उत्पन्न कर देता है और इससे चेतना दो केन्द्रों में बँट जाती है । आचारांगसूत्र में कहा है, यह मनुष्य अनेकचित्त है, अर्थात् अनेकानेक कामनाओं के कारण मनुष्य का मन बिखरा हुआ रहता है। वह अपनी कामनाओं की पूर्ति क्या करना चाहता है, एक तरह छलनी को जल से भरना चाहता है। इन दो स्तरों पर चेतना में दोहरा संघर्ष उत्पन्न हो जाता है१. चेतना के आदर्शात्मक और वासनात्मक पक्षों में (इसे मनोविज्ञान में 'ईड' और 'सुपर इगो' का संघर्ष कहा है) तथा २. हमारे वासनात्मक पक्ष का उस बाह्य परिवेश के साथ, जिसमें वह अपनी वासनाओं की पूर्ति चाहता है। इस विकेन्द्रीकरण और तज्जनित संघर्ष में आत्मा की सारी शक्तियां विखर जाती हैं, कुण्ठित हो जाती हैं । नैतिक साधना का कार्य इसी संघर्ष को समाप्त कर चेतन समत्व को यथावत् कर देना है, ताकि उस केन्द्रीकरण द्वारा वह अपनी ऊर्जाओं को जोड़कर आत्मशक्ति का यथार्थ प्रकटन कर सके। एक अन्य दृष्टि से विचार करे तो हम बाह्य जगत् में रस लेने के लिए जैसे ही उसमें अपना आरोपण करते हैं, वैसे ही एक प्रकार का द्वैत प्रकट हो जाता है, जिसमें हम अपनेपन का आरोपण करते हैं, आसक्ति रखते हैं, वह हमारे लिए 'स्व' बन जाता है और उससे भिन्न या विरोधी 'पर' बन जाता है । आत्मा की समत्व के केन्द्र से च्युति ही उसे इन 'स्व' और 'पर' के दो विभागों में बाँट देती है। नैतिक चिन्तन में इन्हें हम क्रमशः राग और द्वेष कहते हैं। राग आकर्षण का सिद्धान्त है और द्वेष विकर्षण का। अपना-पराया, राग-द्वेष अथवा आकर्षण-विकर्षण के कारण हमारी चेतना में सदैव ही तनाव, संघर्ष अथवा द्वन्द्व बना रहता है, यद्यपि चेतना या आत्मा अपनी स्वाभाविक शक्ति के द्वारा सदैव साम्यावस्था या संतुलन बनाने का प्रयास करती रहती है। लेकिन राग एवं द्वेष किसी भी स्थायी सन्तुलन की अवस्था को सम्भव नहों होने देते। यही कारण है कि भारतीय नैतिकता में राग-द्वेष से ऊपर उठना सम्यक जीवन की अनिवार्य शर्त मानी गई है। भारतीय नैतिक चिन्तन सदैव ही इस दृष्टि से जागरूक रहा है। जैन नैतिकता का वीतरागता या समत्वयोग (समभाव) का आदर्श और बौद्ध नैतिकता का सम्यक् समाधि या वीततृष्णता का आदर्श राग-नेष के इस द्वन्द्व से ऊपर उठकर समत्व १. आचारांग, १।३।२।११४ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समत्व-योग ( साम्यावस्था) में स्थायी अवस्थिति ही है । गीता का नैतिक आदर्श भी इस द्वन्द्वातीत साम्यावस्था की उपलब्धि है । क्योंकि वही अबन्धन की अवस्था है। गीता के अनुसार इच्छा (राग) एवं द्वेष से समुत्पन्न यह द्वन्द्व ही अज्ञान है, मोह है । इस द्वन्द्व से ऊपर उठकर ही परमात्मा की आराधना सम्भव होती है। जो इस द्वन्द्व से विमुक्त हो जाता जाता है । इस प्रकार राग-द्वेषातीत आचार- दर्शनों की नैतिक साधना का है वही परमपद मोक्ष या निर्वाण को प्राप्त हो समत्व - प्राप्ति की दिशा में प्रयत्न ही समालोच्य केन्द्रीय तत्त्व है । $ २. जैन - आचारदर्शन में समत्व-योग जैन- विचार में नैतिक एवं आध्यात्मिक साधना के मार्ग को समत्व-योग कह सकते हैं । इसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में सामायिक कहा जाता है । समग्र जैन नैतिक तथा आध्यात्मिक साधना को एक ही शब्द में समत्व की साधना कह सकते हैं । सामायिक शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक अय् धातु से बना है । अय् धातु के तीन अर्थ हैज्ञान, गमन और प्रापण । ज्ञान शब्द विवेक बुद्धि का, गमन शब्द आचरण या क्रिया का और प्रापण शब्द प्राप्ति या उपलब्धि का द्योतक है। सम् उपसर्ग उनको सम्यक् या उचितता का बोध कराता है । सम्यक् की प्राप्ति ही सम्यक्त्व या सम्यक्दर्शन है । कुछ विचारकों के अनुसार सम्यक् क्रिया विधि-पक्ष में सम्यक्चारित्र और भावपक्ष में सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) है । दूसरे कुछ विचारकों की दृष्टि में सम्यक् ज्ञान शब्द में दर्शन भी अन्तर्निहित है । सम् का एक अर्थ रागद्वेष से अतीत अवस्था भी है और अम् धातु का प्रापण या प्राप्तिपरक अर्थ लेने पर उसका अर्थ होगा राग-द्वेष से अतीत अवस्था की प्राप्ति, जो प्रकारान्तर से मुक्ति का सूचक है। इस प्रकार सामायिक ( समत्वयोग ) शब्द एक ओर सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप त्रिविध साधना-पथ को अपने में समाहित किये हुए है तो दूसरी ओर इस त्रिविध साधना पथ के साध्य (मुक्ति) से भी समन्वित है । 1 आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में सामायिक के तीन प्रकार बताये हैं: १. सम्यक्त्व - सामायिक, २. श्रुत-सामायिक और ३. चारित्र - सामायिक | चारित्र सामायिक के श्रमण और गृहस्थ साधकों के आचार के आधार पर दो भेद किये हैं । सम्यक्त्व सामायिक का अर्थ सम्यग्दर्शन, श्रुत-सामायिक का अर्थ सम्यग्ज्ञान और चारित्र सामायिक का अर्थ सम्यक्चारित्र है । इन्हे आधुनिक मनोवैज्ञानिक भाषा में चित्तवृत्ति का समत्व, बुद्धि का समत्व और आचरण का ममत्व कह सकते हैं। इस प्रकार जैनविचार का साधना पथ वस्तुत समत्वयोग की साधना ही है, जो मानव-चेतना के तीन १. गीता ४।१२ १५1५ ३. वही, २. वही, ७।२७-२८ ४. आवश्यक निर्युक्ति ७९६ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग पक्ष भाव, ज्ञान और संकल्प के आधार पर त्रिविध बन गया है। भाव, ज्ञान और संकल्प को मम बनाने का प्रयास ही समत्व-योग की साधना है । जैन दर्शन में विषमता (दुःख) का कारण यदि हम यह कहे कि जैनधर्म के अनुसार जीवन का साध्य ममत्व का संस्थापन है. ममत्व-योग की साधना है, तो सबसे पहले हमें यह जान लेना है कि ममत्व से च्युति का कारण क्या है ? जैन दर्शन में मोहजनित आमक्ति हो आत्मा के अपने स्वकेन्द्र से च्युति का कारण है । आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि मोह-लोभ से रहित आत्मा की अवस्था सम है', अर्थात् मोह और क्षोभ से युक्त चेतना या आत्मा की अवस्था हो विषमता है। पंडित सुनलालजी का कथन है कि “शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के अभ्याग के कारण चेतन अपने महज समत्व केन्द्र का परित्याग करता है । वह जैसे-जैसे अन्य पदार्थों में रस लेता है, वैसे-वैम जीवनोपयोगी अन्य पदार्थों मे अपने अस्तित्व (ममत्व ) का आरोपण करने लगता है । यह उसका स्वयं अपने बारे मे मोह या अज्ञान है । यह अज्ञान ही उमे समत्व केन्द्र मे से च्युत करके इतर परिमित वस्तुओं मे रस लेने वाला बना देता है । यह रस (आमक्ति) ही राग द्वेष जैसे क्लेशों का प्रेरक तत्त्व है । इस तरह चित्त का वृत्तिचक्र अज्ञान एवं क्लेशो के आवरण से इतना अधिक आवृत्त एवं अवरुद्ध हो जाता है कि उसके कारण जीवन प्रवाहपतित ही बना रहता है— अज्ञान, अविद्या अथवा मोह, जिसे ज्ञेयावरण भी कहते है, चेतनगत समत्व - केन्द्र को ही आवृत्त करता है, जबकि उसमे पैदा होने वाला क्लेश चक्र, ( रागादि भाव ) बाह्य वस्तुओं में ही प्रवृत्त रहता है । सारी विषमताएँ कर्म-जनित है और कर्म राग-द्वेष जनित है । इस प्रकार आत्मा का राग-द्वेष से युक्त होना ही विषमता है, दुःख है, वेदना है और यही दुःख विषमता का कारण भी है । समत्व या राग-द्वेष से अतीत अवस्था आत्मा की स्वभाव-दशा है । राग-द्व ेष से युक्त होना विभाव-दशा है, परपरिणति है । इस प्रकार परपरिणति, विभाव या विषमभाव का कारण रागात्मकता या आसक्ति है । आमक्ति से प्राणी स्व से बाहर चेतना से भिन्न पदार्थों या परपदार्थों की प्राप्ति या अप्राप्ति मे मुख की कल्पना करने लगता है। इस प्रकार चेतन बाह्य कारणों से अपने भीतर विचलन उत्पन्न करता है, पदार्थों के संयोग-वियोग या लाभ-अलाभ मे सुख-दुःख की कल्पना करने लगता है । चित्तवृत्ति बहिर्मुख हो जाती है, सुख की खोज मे बाहर भटकती रहती है । यह बहिर्मुख चित्तवृत्ति चिन्ता, आकुलता, विक्षोभ आदि उत्पन्न करती है और चेतना या आत्मा का सन्तुलन भंग कर देती है । यही चित्त या आत्मा की विषमावस्था समग्र दोषों एवं अनैतिक आचरणों की जन्म भूमि है । विषम भाव या राग-द्व ेष होने से कामना, वासना. मूर्च्छा. अहंकार, पराश्रयता, आकुलता, निर्दयता, संकीर्णता, स्वार्थ १. प्रवचनसार, ११५ २, समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ८६ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्व-योग परता, सुख-लोलुपता आदि दोषो की वृद्धि होती रहती है जो व्यक्ति, परिवार, समाज एव विश्व के लिए विषमताओ का कारण बनती है । मकीगंता, स्वार्थपरता एव सुखलोलुपता के कारण व्यक्ति अन्य व्यक्ति से येन केन प्रकारेण अपना स्वार्थ साधना चाहता है । उसके इन कृत्यो एव प्रवृत्तियो से परिजन, ममाज दश व विश्व का अहित होता है । प्रतिक्रियास्वरूप दोहरा संघर्ष पदा होता । एक ओर उसकी वासनाओ के मध्य आन्तरिक संघर्ष चलता रहता है, तो दूसरी ओर उसका बाह्य वातावरण से अर्थात् समाज, देश और विश्व से संघर्ष चलता रहता ह । ० इसी मघर्ष की समाप्ति के लिए और विषमताओ स ऊपर उठन के लिए समत्वयोग की साधना आवश्यक है । समत्व-योग राग-द्वेष-जन्य चेतना की सभी विकृतियो दूर कर आत्मा को अपनी स्वभाव-दशा मे अथवा उसके अपन स्व-स्वरूप मे प्रतिष्ठित करता ह 1 जैनधर्म में समत्व योग का महत्व समत्व-योग के महत्त्व का प्रतिपादन करत हुए जैनागमो में कहा गया है कि व्यक्ति चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर, बोद्ध हो अथवा अन्य किसी मत का, जो भी समभाव मे स्थित होगा वह निस्संदेह मोक्ष प्राप्त करगा ।" एक जादगी प्रतिदिन लाख स्व | मुद्राओ का दान करता है ओर दूसरा समन्वयाग की साधना करता है, किन्तु वह स्तमुद्राजा का दानी व्यक्ति समत्व याग सालक का समानता नही कर सकता।" कराडो जन्म तक निरन्तर उग्र तपश्चरण करनवाला मावक जिन कर्मा || ना नहीं कर सकता, उनको समभाव का साधक मात्र आधे हा क्षण म नष्ट कर अना 1 न कोई कितना ही तीव्र तप त जप जप अथवा मुनिवेश वाणस्य काण्डरूप चारि। का पालन करें, परन्तु समताभाव के विना न किमान हुआ और न होगा ।" जी भी मानक अतीतकाल मे माझ गए हैं, वर्तमान में जा रहे है, और यम जायेंगे, यह सब ममत्वयोग का प्रभाव ह । " आचार्य हमचन्द्र समभाव की साधना को रागविजय का मार्ग बतान हुए कहत है कि तीव्र आनन्द का उत्पन्न करने वाले समभाव रूपी जल में अवगाहन करने वाले पुम्पा का राग-द्व ेष रूपी मल सहज नष्ट हो जाता है । समताभाव के अवलम्बन में अन्नमुहूर्त में मनु जिन कर्मा का नाश कर डालता है, वे तीव्र तपश्चर्या में करोडो जन्मो मे भी नही नष्ट हो सका । जैम आपस मे १. सेयम्बरो वा आमम्बरो वा बुद्धो वा तहव अन्नो वा । समभावभावियप्पा लहड् मुक्ख न सदहा ।। - हरिभद्र २ - ५. सामायिक सूत्र ( अमरमुनि ) पृ० ६३ पर उद्धृत । ६-७. योगशास्त्र, ४।५०-५३ । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और गीता का सामना मार्ग चिपकी हुई वस्तुएं बांस आदि की सलाई से पृथक् की जाती है, उसी प्रकार परस्पर बद्ध-कर्म और जीव को माधु समत्वभाव की शलाका से पृथक् कर देते है । समभाव रूप सूर्य के द्वारा राग-द्वेप और मोह का अंधकार नष्ट कर देने पर योगी अपनी आत्मा में परमात्मा का स्वरूप देखने लगते है । जैनधर्म में समत्वयोग का अर्थ समत्वयोग का प्रयोग हम जिस अर्थ में कर रहे है उसके प्राकृत पर्यायवाची शब्द है - सामाइय या ममाहि । जैन आचार्यों ने इन शब्दों की जो अनेक व्याख्याएं की हैं, उनके आधार पर ममत्व-योग का स्पष्ट अर्थ बोध हो मकता है । १. सम अर्थात् राग और द्वेष की वृत्तियों मे रहित मन स्थिति प्राप्त करना समत्वयोग ( सामायिक ) ह । २. शम (जिमका प्राकृत रूप भी मम है ) अर्थात् क्रोधादि कपायों को शमित ( शात) करना समत्वयोग I ३. सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखना समत्वयोग है । ४. सम का अर्थ एकीभाव है और अय का अर्थ गमन है अर्थात् एकीभाव के द्वारा बहिर्मुखता ( परपरिणति ) का त्यागकर अन्तर्मुख होना । दूसरे शब्दों मे आत्मा का स्वस्वरूप में रमण करना या स्वभाव - दशा मे स्थित होना ही ममत्वयोग ह । ५. सभी प्राणियों के प्रति आत्मत्रत् दृष्टि रखना ममत्वयोग हं । ६. सम शब्द का अर्थ अच्छा ह और अयन शब्द का अर्थ आचरण है, अत अच्छा या शुभ आचरण भी समत्वयोग ( सामायिक ) है 13 नियमसार और अनुयोगद्वारसूत्र " मे आचार्यों ने इस समत्व की साधना के स्वरूप का बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया है। सर्व पापकर्मों मे निवृत्ति, समस्त इन्द्रियों का सुसमाहित होना, सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव एवं आत्मवत् दृष्टि, तप, संयम और नियमों के रूप मे सदैव ही आत्मा का सान्निध्य, समस्त राग और द्वेषजन्य विकृतियों का अभाव, आर्त एव रौद्र चिन्तन, हास्य, रति, अरति, शोक, घृणा, भय एवं कामवासना आदि मनोविकारों की अनुपस्थिति और प्रशस्त विचार ही आर्हत् दर्शन में समत्व का स्वरूप है । १-४. योगशास्त्र, ४।५०-५३ । ५. (अ) सामायिकसूत्र ( अमरमुनिजी ), पृ० २७-२८ । (ब) विशेषावश्यकभाष्य — ३४७७-३४८३ । ६. नियमसार, १२२-१३३ ७. अनुयोगद्वार, १२७-१२८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्या- योग जैन आगमों में समत्वयोग का निर्देश जैनागमों में समत्वयोग सम्बन्धी अनेक निर्देश यत्र-तत्र बिखरे हुए है, जिनमे से कुछ प्रस्तुत हैं । आर्य महापुरुषों ने समभाव मे धर्म कहा है ।" साधक न जीने की आकांक्षा करे और न मरने की कामना करे । वह जीवन और मरण दोनों मे किसी तरह की आसक्ति न रखे, समभाव से रहे । २ शरीर और इन्द्रियों के क्लान्त होने पर भी साधक समभाव रखे । इधर-उधर गति एवं हलचल करता हुआ भी साधक निद्य नही है, यदि वह अन्तरंग मे अविचल एवं समाहित है । अतः साधक मन को ऊँचानीचा ( डांवाडोल ) न करे । साधक को अन्दर और बाहर सभी ग्रन्थियो ( बन्धनरूप गाँठों) से मुक्त होकर जीवन-यात्रा पूरी करनी चाहिए ।" जो समस्त प्राणियो के प्रति समभाव रखता है, वही श्रमण है ।" समता से ही श्रमण कहलाता है । तृण और कनक ( स्वर्ण ) मे जब समान बुद्धि ( समभाव ) रहती है, तभी उसे प्रत्रज्या कहा जाता है । जो न राग करता है, न द्व ेष वही वस्तुतः मध्यस्थ ( गम ) है. शेप सब अमध्यस्थ है । अतः साधक सदैव विचार करे कि सब प्राणियों के प्रति मेरा समभाव है, किमी से मेरा वैर नही है । " क्योंकि चेतना (आत्मा) चाहे वह हाथी के शरीर मे हो, मनुष्यके शरीर हो या कुन्थुआ के शरीर में हो, चेतन तत्त्व की दृष्टि से समान ही है ।" इस प्रकार जैन आचार-दर्शन का निर्देश यही है कि आन्तरिक वृत्तियों मे तथा सुख-दुख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण आदि परिस्थितियों में सदैव समभाव रखना चाहिए और जगत् के सभी प्राणियों को आत्मवत् समझकर व्यवहार करना चाहिए। संक्षेप में विचारों के क्षेत्र में समभाव का अर्थ ह तृष्णा, आमक्ति तथा राग-द्वेष के प्रत्ययों से ऊपर उठना और आचरण के क्षेत्र में समभाव का अर्थ है जगत् के सभी प्राणियों को अपने समान मानकर उनके प्रति आत्मवत् व्यवहार करना; यही जैन नैतिकता की समत्वयोग की साधना है । ३. बौद्ध आचार-दर्शन में समत्व-योग का सम या सम्यक् होना आवश्यक है। बौद्ध दर्शन अनिवार्य अंग है । पालिभाषा का 'सम्मा' शब्द सम् बौद्ध आचार-दर्शन में साधना का जो अष्टांगिक मार्ग है उसमें प्रत्येक साधन-पक्ष मे समत्व प्रत्येक साधन-पक्ष का और सम्यक् दोनों अर्थों की अव १. आचारांग १ ८ ३ २ २ ४. वही, २।३।१ ५. ७. उत्तराध्ययन २५।३२ ८. १०. नियमसार, १०४ वही, ११८८२४ वही, १८८ ११ बोघपाहुड, ४७ ११. भगवती सूत्र, ७८ ३. वही, ११८।८।१४ ६. प्रश्नव्याकरणसूत्र, २४ आवश्यक निर्युषित, ८०४ ". Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन, बौड और गीता का सामना मागं धारणा करता है । यदि मम्यक् शब्द का अर्थ 'अच्छा' ग्रहण करते हैं तो प्रश्न यह होगा कि अच्छे से क्या तात्पर्य है ? वस्तुत. बौद्ध-दर्शन में इनके सम्यक् होने का तात्पर्य यही हो सकता है कि ये माधन व्यक्ति को राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठने की दिशा में कितने सहायक है । इनका सम्यक्त्व गग-द्वेप की वृत्तियों के कम करने में है अथवा सम्यक् होने का अर्थ है राग-द्वप और मोह से रहित होना। राग-द्वप का प्रहाण ही समन्व-योग की साधना का प्रयाम है । ___ बौद्ध अष्टांग आर्य मार्ग मे अन्तिम मम्यक् ममाधि है । यदि हम समाधि को व्यापक अर्थ मे ग्रहण करे तो निश्चित ही वह मात्र ध्यान की एक अवस्था न होकर चित्तवृत्ति का 'समत्व' है, चित्त का गग-द्वेग मे गन्य होना है और इम अर्थ में वह जैन-परम्पग को 'समाहि' ( ममाधि-मामापिक ) से भी अधिक दूर नहीं है । मूत्रकृतागचूणि में कहा गया है कि गग-द्वंप का परित्याग ममाधि है' । वस्तुतः जब तक चित्तवृत्तियाँ मम नही होती, तब तक मगधि-लाभ मभव नही। भगवान बुद्ध ने कहा है, जिन्होंने धर्मों को ठीक प्रकार से जान लिया है, जो किमी मत, पक्ष या वाद मे नही है, वे सम्बुद्ध है, समद्रष्टा है और विषम स्थिति में भी उनका आचरण मम रहता है । बुद्धि, दृष्टि और आचरण के माथ लगा हुआ गम् प्रत्यय बौद्ध-दर्शन मे समत्वयोग का प्रतीक है जो बद्धि, मन और आचरण तीनो को मम बनाने का निर्देश देता है । मंयुत्त निकाय मे कहा है, 'आर्यों का मार्ग सम , आर्य विपस्थिति मे भी सम का आचरण करते है । धम्मपद मे बुद्ध कहते है, जो गमत्य-बुद्धि से आचरण करता है तथा जिमकी वामनाएँ शान्त हो गयी है-'जो जितन्द्रिप है. मगम एवं ब्रह्मचर्य का पालन करता है, सभी प्राणियों के प्रति दण्ड का न्याग कर चका हे अर्थात् मभी के प्रति मैत्रीभाव रखता है. किमी को कष्ट नही देता है, ऐसा व्यक्ति चाहे वह आभूषणो को धारण करने वाला गृहस्थ हो क्यों न हो, वस्तुतः श्रमण है. भिक्षुक है। जैन-विचारणा में 'सम' का अर्थ कपायों का उपशम है । इस अर्थ में भी बौद्ध विचारणा समत्वयोग का समर्थन करती है। मज्झिमनिकाय मे कहा गया है-'राग-द्वंप एवं मोह का उपशम ही परम आर्य-उपशम है। बोर परम्परा में भी जैन परम्परा के समान ही यह स्वीकार किया गया है कि समता का आचरण करने वाला ही श्रमण है। समत्व का अर्थ आत्मवत् दृष्टि स्वीकार करने पर भी बौद्ध विचारणा में उसका स्थान निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। सुत्तनिपात में कहा गया है कि 'जैसा मै हूँ वैसे ही जगत् के सभी प्राणी है, इसलिए सभी प्राणियों को ३. वही, १।२।६ १. सूत्रकृतांगचूर्णि, १।२।२ २. संयुत्त निकाय, १।१०८ ४. धम्मपद, १४२ ५. मज्झिमनिकाय, ३।४०१२ ६. धम्मपद ३८८ तुलना कीजिए-उत्तराध्ययन, २५।३२ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समत्व-पौल अपने समान समझकर आचरण करें'।' समत्व का अर्थ राग द्वेष का प्रहाण या राग-द्वेष की शून्यता करने पर भी उसका बौद्ध विचारणा में ममत्वोग का महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। उदान में कहा गया है कि राग-द्वेष और मोह का प होने से निर्वाण प्राप्त होता है। बौद्ध-दर्शन में वर्णित चार ब्रह्मविहार अथवा भावनाओ मे भी समत्वयोग का चिन्तन परिलक्षित होता है । मैत्री, करुणा और मदिता ( प्रमोद ) भावनाओ का मुख्य आधार आत्मवत् दृष्टि है इसी प्रकार माध्यम्थ भावना या उपेक्षा के लिए सुखदुःख, प्रिय-अप्रिय, लौह-कांचन मे समभाव का होना आवश्यक है । वस्तुतः बौद्ध विचारणा जिस माध्यस्थवृत्ति पर बल देती है, वह समत्वयोग ही है । ४. गोता के आचार-दर्शन में समत्वयोग ___गीता के आचार-दर्शन का मूल स्वर भी समत्व'पोग का गाना ' । गीता को योगशास्त्र कहा गया है । योग शब्द युज् धातु से बना है, युज् धातु ' अर्थों में आता है। उसका एक अर्थ है जोडना, सयोजित करना और दूसरे हि मतुलित करना, मन. स्थिरता। गीता दोनो अर्थो मे उमे स्वीकार करतो है। पहले अर्थ में जो जोड़ता है, वह योग है अथवा जिसके द्वारा जुडा जाता है या जो जुडता है वह योग है, अर्थात् जो आत्मा को परमात्मा से जोडता है वह गोग है। दूगरे अर्थ में रोग वह अवस्था है जिममे मन स्थिरता होती है। डा० गधाकृष्णन के शब्दो म योग का अर्थ है अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को एक जगह इकट्ठा करना, उन्ह सतु लत करना और बढाना।" गीता सर्वागपूर्ण योग-शास्त्र प्रस्तुत करती है। लाकन प्रश्न उठता है कि गीता का यह योग क्या है ? गीता योग शब्द का प्रयोग कभी ज्ञान के गाय कमो फम माथ और कभी भक्ति अथवा ध्यान के अर्थ मे करती है। जन यह निश्चय पाना अन्यन्त कठिन है कि गीता में योग का कौन-मा म्प मान्य है। यदि गीता एक योग-शास्त्र है ता ज्ञानयोग का शास्त्र है या कर्मयोग का शास्त्र ह अथवा भक्तिभाग का शान है? यह विवाद का विषय रहा है। आचार्य शकर के अनुमार गीता ज्ञानयोग का प्रतिपादन करती है । तिलक उमे कर्मयोग-शास्त्र कहते है । वे लिखत है कि यह निर्विवाद मिद्ध है कि गीता में योग शब्द प्रवृत्ति-मार्ग अर्थात् कर्मयोग के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। श्री रामानुजाचार्य, निम्बार्क और श्री वल्लभाचार्य के अन मार गीता का प्रतिपाद्य विषय भक्तियोग है। गाधीजी उमे अनामक्तियोग कहकर कम और भक्ति का ममन्वय करते १. सुत्तनिपात, ३४३७१७ २. उदान, ८६ ३. युज्यने एतदिति योगः, युज्यते अनेन इति योग , युज्येत नम्मिन इति योगः ४. योगसूत्र, ११२ ५. भगवद्गीता (ग.), पृ० ५५ ६. गीता (शा०), २११ ७. गीतारहस्य, पृ० ६० ८. गीता (रामा०), ११ पूर्व कथन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौर मर गीता का सामना मार्ग है । डॉ० राधाकृष्णन् उसमे प्रतिपादित ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग को एक-दूसरे का पूरक मानते है । लेकिन गीता में योग का यथार्थ स्वरूप क्या है, इसका उत्तर गीता के गम्भीर अध्ययन से मिल जाता है। गीताकार ज्ञानयोग, कर्मयोग, और भक्तियोग शब्दों का उपयोग करता है, लेकिन ममम्त गीता शास्त्र में योग की दो ही व्याख्याएं मिलती है:१. समत्वं योग उच्यते (२०४८) और २. योगः कर्मसु कौशलम् (२०५०)। अतः इन दोनों व्याख्याओं के आधार पर ही यह निश्चित करना होगा कि गीताकार की दृष्टि में योग शब्द का यथार्थ स्वरूप क्या है ? गीता की पुष्पिका में प्रकट है कि गीता एक योगशास्त्र है अर्थात् वह यथार्थ को आदर्श से जोड़ने की कला है, आदर्श और यथार्थ मे सन्तुलन लाती है । हमारे भीतर का असन्तुलन दो स्तरों पर है, जीवन मे दोहरा संघर्ष चल रहा है । एक चेतना के शुभ और अशुभ पक्षों में और दूमग हमार बहिर्मम्वी स्व और बाह्य वातावरण के मध्य । गीता योग की इन दो व्याख्याओं के द्वाग इन दोनों संघर्षों में विजयश्री प्राप्त करने का संदेश देती है। संघर्ष के उम रूप की, जो हमारी चेतना के ही शुभ या अशुभ पक्षमे या हमारी आदर्शात्मक और वासनात्मक आत्मा के मध्य चल रहा है, पूर्णतः ममाप्ति के लिए मानमिक समत्व की आवश्यकता होगी। यहाँ योग का अर्थ है 'ममत्वयोग' क्योकि इम स्तर पर कर्म की कोई आवश्यकता नहीं है। यहां योग हमारी वामनान्मक आत्मा को परिष्कृत कर उमे आदर्शात्मा या परमात्मा से जोड़ने की कला है । यह योग आध्यात्मिक योग हैं, मन की स्थिरता है, विकल्पों एवं विकारों की शून्यता है। यहां पर योग का लक्ष्य हमारे अपने ही अन्दर है। यह एक आन्तरिक समायोजन है, वैचारिक एव मानमिक ममत्व है। लेकिन उम मघर्ष की समाप्ति के लिए जो कि व्यक्ति और उसके वातावरण के मध्य है, कर्म-योग की आवश्यकता होगी। यहां योग की व्याख्या होगी 'योग कर्मसु कौशलम्' यहाँ योग युक्ति है, उपाय है जिसके द्वारा व्यक्ति वातावरण में निहित अपने भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति करता है । यह योग का व्यावहारिक पक्ष है जिसमे जीवन के व्यावहारिक स्तर पर समायोजन किया जाता है। वस्तुतः मनुष्य न निरी आध्यात्मिक सत्ता है और न निरी भौतिक सत्ता है। उसमें शरीर के रूप मे भौतिकता है और चेतना के रूप मे आध्यात्मिकता है । यह भी सही है कि मनुष्य ही जगत् में एक ऐमा प्राणी है जिसमे जड पर चेतन के शासन का सर्वाधिक विकास हुआ है। फिर भी मानवीय चेतना को जिस भौतिक आवरण में रहना पड़ रहा है, वह उसकी नितात अवहेलना नही कर सकती। यही कारण है कि मानवीय चेतना को दो स्तरों पर समायोजन करना होता है-१. चैतसिक (आध्यात्मिक) १. भगवद्गीता (रा०), पृ० ८२ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तर पर और २. भौतिक स्तर पर । गीताकार द्वारा प्रस्तुत योग की उपयुक्त दो व्याख्याएँ क्रमशः इन दो स्तरों के सन्दर्भ मे है । वैचारिक या चैतसिक स्तर पर जिस योग की साधना व्यक्ति को करनी है, वह समत्वयोग है । भौतिक स्तर पर जिस योग की साधना का उपदेश गीता में है वह कर्म कौशल का योग है। तिलक ने गीता और अन्य ग्रन्थों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि योग शब्द का अर्थ युक्ति, उपाय और साधन भी है' । चाहे हम योग शब्द का अर्थ जोडनेवाला' स्वीकारें या तिलक के अनुसार युक्ति या उपाय माने, दोनो ही स्थितियो मे योग शब्द साधन के अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाता है । लेकिन योग शब्द केवल माधन के अर्थ मे प्रयुक्त नही हुआ है । जब हम योग शब्द का अर्थ मन स्थिरता करने है तो वह साधन के रूप मे नही होता है, वरन् वह स्वत साध्य ही होता है। यह मानना भ्रमपूर्ण होगा कि गीता मे चित्त-समाधि या समत्व के अर्थ में योग शब्द का प्रयोग नही है । स्वयं तिलकजी ही लिखते है कि गीता मे योग, योगी, अथवा योग शब्द मे बने हुए मामासिक शब्द लगभग अस्सी बार आये है, परन्तु चार पांच स्थानो के मिवा (६।१२-२३) योग शब्द से 'पातंजल योग' (योगश्चित्तवृत्तिनिरोध ) अर्थ कही भी अभिप्रेत नही ह-सिर्फ युक्ति, माघन, कुशलता, उपाय, जोड, मेल यही अर्थ कुछ हेर-फेर ग ममची गीता में पाये जाते है। इसमे इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि गीता में योग शब्द मन की स्थिरता या समत्व के अर्थ मे भी प्रयुक्त हुआ है । माथ ही यह भी मिद्ध हो जाता है कि गीता दो अर्थों में योग शब्द का उपयोग करती है, एक मावन का अर्थ मे दूसरे साध्य के अर्थ मे । जब गीता योग शब्द की व्याख्या 'योग समग कौगलम' के अर्थ में करती है, तो यह साधन-योग की व्याख्या है। वस्तुत हमार भौतिा स्तर पर अथवा चेतना और भौतिक जगत् (व्यक्ति और वातावरण) व मध्य जिम ममायोजन की आवश्यकता है, वहाँ पर योग शब्द का यही अर्थ विवक्षित है । तिलक भी लिखते है एक ही कर्म को करने के अनेक योग या उपाय हो सकते है, परन्तु उनमे में जो उपाय या साधन उत्तम हो उसीको योग कहते है । योग कर्मसु कौगलम् की व्याख्या भी यही कहती है कि कर्म मे कुशलता योग है। किसी क्रिया या कर्म को कुशलता पूर्वक सम्पादित करना योग है। इस व्याख्या से यह भी स्पष्ट है कि हममे योग कर्म का एक साधन है जो उसकी कुशलता में निहित है अर्थात् याग कर्म के लिए है। गीता की योग शब्द को दूसरी व्याख्या 'समत्व योग उच्यते' का मीधा अर्थ यही है कि 'ममत्व को योग कहते है।' यहाँ पर योग माधन नही, माध्य है। इस प्रकार गीता योग शब्द की द्विविध व्याख्या प्रस्तुत करती है, एक माधन योग की और दूसरी माध्य-योग की। १. अमरकोश, ३।३।२२, गीतारहस्य, पृ० ५६-५९ २-३. गीता (शा.) १०७ ४. योगमूत्र, ११२ ५-६. गीतारहस्य, पृ० ५७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौख और गोता का सामना मार्ग इसका अर्थ यह भी है कि योग दो प्रकार का है-१ माधन-योग और २. साध्य-योग । गीता जब ज्ञानयोग, कर्मयोग या भक्तियोग का विवेचन करती है तो ये उमकी साधन योग की व्याख्याएँ है । माघन अनेक हो सकते है ज्ञान, कर्म और भक्ति सभी साधन-योग है, साध्य-योग नही। लेकिन ममत्वयोग माध्य-योग है। यह प्रश्न फिर भी उठाया जा सकता है कि ममत्व योग को ही माध्य योग क्यो माना जाये, वह भी माधन योग क्यों नही हो सकता है ? इसके लिए हमारे तक इस प्रकार है : १. ज्ञान, कर्म भक्ति और ध्यान मभी 'ममत्व' के लिए होते है, क्योंकि यदि ज्ञान, कर्म, भक्ति या ध्यान ग्वयं माध्य होते तो इनकी यथार्थता या शुभत्व स्वय इनमे ही निहित होता। लेविन गीता यह बताती है कि बिना ममन्व के ज्ञान यथार्थ ज्ञान नही बनता, जो गमन्वष्टि ग्यता है वही ज्ञानी है'; विना ममत्व के कर्म अकर्म नही बनता। ममत्व के अभाव मे कर्म का बन्धकल्न बना रहता है, लेकिन जो मिद्धि और अमिद्धि में ममत्व गे यात होता है, उसके लिगा कर्म बन्धक नही बनते । इसी प्रकार वह भक्त भी मच्चा भक्त नही है, जिगमे ममत्व का अभाव है। ममत्वभाव से यथार्थ भक्ति की उपलब्धि होती है । ममत्व के आदर्श मे युक्त होने पर ही ज्ञान कर्म और भविन अपनी यथार्थता को पाते है । समत्व वह 'गार' है जिगकी उपस्थिति म ज्ञान, नर्म आर भनित का कोई मूल्य या अर्थ है। वग्नत ज्ञान में और भक्ति जबतक ममन्व गे युनत नही ति है, उनमे ममत्व की अवमारणा नही होती है, तबतक ज्ञान मात्र ज्ञान नहता है, वह ज्ञानयोग नही होता। कर्म मात्र कर्म रहता है, पर्मयोग नही जनता और भक्ति भी मात्र श्रद्धा या भक्ति ही रहती है, वह भक्तियोग नहीं बनती है क्योकि इन सवम हम मे निहित परमात्मा मे जोडने की माम" नही आती। 'ममन्व' है वह शक्ति ह जिममे ज्ञान ज्ञानयोग के रूप में, भक्ति भक्तियोग के रूप में और कर्म कर्मयोग के रूप में बदल जाता है । जैन परम्परा में भी ज्ञान, दर्शन (श्रद्धा) और चारित्र (कर्म) जबतक ममत्व मे युक्त नही होते, मम्यक् नही बनतं और जबतक ये मम्यक नही बनते, तबतक मोक्षमार्ग के अंग नही होते है। २. गीता के अनुसार मानव का साध्य परमात्मा की प्राप्ति है, और गीता का परमात्मा या ब्रह्म सम' है। जिनका मन समभाव' में स्थित है वे तो समार में रहते हुए भी मुक्त है क्योकि ब्रह्म भी निर्दोष एव सम है। वे उसी समत्व मे स्थित है जो ब्रह्म है और इसलिए वे ब्रह्म मे ही है ।" इमे स्पष्ट रूप में यों कह सकते है कि जो 'समत्व' मे स्थित है वे ब्रह्म मे स्थित है, क्योंकि 'सम' ही ब्रह्म है । गीता मे ईश्वर के १. गीता, ५।१८ २. वही, ४।२२ ३. वही, ८१५४ ४. वही, ५।१९, गीता (शां) ५।१८ ५. गीता, ५।१९ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समत्व-योग १३ इस समत्व रूप का प्रतिपादन है। नवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं कि मैं सभी प्राणियों में 'सम' के रूप मे स्थित हूँ' । तेरहवें अध्याय मे कहा है कि सम-रूप परमेश्वर सभी प्राणियों में स्थित है; प्राणियों के विनाश से भी उसका नाश नहीं होता है जो इस समत्व के रूप में उसको देखता है वही वास्तविक ज्ञानी है, स्थित परमेश्वर को समभाव से देखता हुआ वह अपने द्वारा अपना ही घात नही करता अर्थात् अपने ममत्वमय या वीतराग स्वभाव को नष्ट नही होने देता और मुक्ति प्राप्त कर लेता है । क्योंकि सभी में समरूप में ३. गीता के छठे अध्याय में परमयोगी के स्वम्प के वर्णन में यह धारणा और भी स्पष्ट हो जाती है । गीताकार जब कभी ज्ञान, कर्म या भक्तियोग मे तुलना करता है तो वह उनकी तुलनात्मक श्रेष्ठता या कनिष्ठता का प्रतिपादन करता है, जंगे कर्मसंन्याम मे कर्मयोग श्रेष्ठ है 3. भक्तों मे ज्ञानी भक्त मुझे प्रिय हैं । लेकिन वह न तो ज्ञानयोगी को परमयोगी कहता है, न कर्मयोगी को परमयोगी कहता है और न भक्त को ही परमयोगी कहना है, वरन् उसकी दृष्टि मे परमयोगी तो वह है जो सर्वत्र ममत्व का दर्शन करता है । गीताकार की दृष्टि में योगी की पहचान तो समत्व ही है । वह कहता है 'योग से युक्त आत्मा वही है जो समदर्शी है ।" गमत्व की साधना करनेवाला योगी ही सच्चा योगी है। चाहे साधन के रूप में ज्ञान, कर्म या भक्ति हो यदि उनमे ममत्व नहीं आता, तो वे योग नही है । ) रूप योग कहा है, मुझे मन की आधार दिखलाई नहीं देता है, ४. गीता का यथार्थ योग ममत्व-योग है, इस बात की सिद्धि का एक अन्य प्रमाण भी है। गीता के छठे अध्याय मे अर्जुन स्वयं ही यह कठिनाई उपस्थित करता है कि 'हे कृष्ण, आपने यह ममन्वभाव ( मन की ममता चंचलता के कारण इस समत्वयोग का कोई स्थिर अर्थात् मन की चंचलता के कारण इस ममत्व को पाना सम्भव नही है । इससे यही मिद्ध होता है कि गीताकार का मूल उपदेश तो इसी गमत्व-योग का है, लेकिन यह समत्व मन की चंचलता के कारण सह । नही होता है | अतः मन की चंचलता को ममाप्त करने के लिए ज्ञान, कर्म, तप, ध्यान और भक्ति के साधन बताये गये है । आगे श्रीकृष्ण जत्र यह कहते हैं कि हे अर्जुन, तपस्वी, ज्ञानी, कर्मकाण्डी सभी से योगी अधिक है अतः तू योगी हो जा, तो यह और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है कि गीताकार का उद्देश्य ज्ञान, कर्म, भक्ति अथवा तप की साधना का उपदेश देना मात्र नहीं १. गीता, ९।२९ ४. वही, ७।१७ ७. वही, ६।३२ २. वही, १३।२७ - २८ ५. वही, ६।३२ ८. वही, ६।४६ ३. वही, ५।२ ६. वही, ६।२९ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बीर और गीता का साधना मार्ग है । यदि ज्ञान, कर्म, भक्ति या तप रूप साधना का प्रतिपादन करना ही गीताकार का अन्तिम लक्ष्य होता, तो अर्जुन को ज्ञानी, तपस्वी, कर्मयोगी या भक्त बनने का उपदेश दिया जाता, न कि योगी बनने का । दूसरे, यदि गीताकार का योग से तात्पर्य कर्मकौशल या कर्मयोग, ज्ञानयोग, तप (ध्यान) योग अथवा भक्तियोग ही होता तो इनमें पारस्परिक तुलना होनी चाहिए थी; लेकिन इन सबसे भिन्न एवं श्रेष्ठ यह योग कौनसा है जिमके श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन गीताकार करता है एवं जिसे अंगीकार करने का अर्जुन को उपदेश देता है ? वह योग समत्व-योग ही है, जिसके श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन किया गया है । ममत्व-योग मे योग शब्द का अर्थ 'जोड़ना' नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्था में समत्व-योग भी माधन-योग होगा, माध्य-योग नहीं। ध्यान या समाधि भी समत्वयोग का माधन है।' गीता में समत्व का अर्थ गीता के ममत्व-योग को समझने के लिए यह देखना होगा कि समत्व का मीता में क्या अर्थ है ? आचार्य शंकर लिखते हैं कि समत्व का अर्थ तुल्यता है, आत्मवत् दृष्टि है, जैसे मुझे सुख प्रिय एवं अनुकूल है और दुःख अप्रिय एवं प्रतिकूल है वैसे ही जगत् के समस्त प्राणियों को सुख अनुकूल है और दुःख अप्रिय एवं प्रतिकूल है। इस प्रकार जो सब प्राणियों में अपने ही समान सुम्ब एवं दुःख को तुल्यभाव से अनुकूल एवं प्रतिकूल रूप में देखता है, किमी के भी प्रतिकूल आचरण नही करता, वही समदर्शी है। सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखना समत्व है। लेकिन समत्व न केवल तुल्यदृष्टि या आत्मवत् दृष्टि है, वरन् मध्यस्थ दृष्टि, वीतराग दृष्टि एवं अनासक्त दृष्टि भी है । सुखदुःख आदि जीवन के सभी अनुकूल और प्रतिकुल संयोगों में समभाव रखना, मान और अपमान, सिद्धि और असिद्धि मे मन का विचलित नही होना, शत्रु और मित्र दोनों में माध्यस्थवृत्ति, आसक्ति और गग-द्वेष का अभाव हो समत्वयोग है। वैचारिक दृष्टि से पक्षाग्रह एवं संकल्प-विकल्पों से मानस का मुक्त होना ही समत्व है। गीता में समत्व-योग की शिक्षा ___ गीता में अनेक स्थलों पर समत्व-योग की शिक्षा दी गयी है। श्रीकृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, जो सुख-दुःख मे समभाव रस्वता है उस धीर (समभावी) व्यक्ति को इन्द्रियों के सुख-दुःखादि विषय व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष या अमृतत्व का अधिकारी होता है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि में समत्वभाव धारण कर, फिर यदि तू युद्ध करेगा तो पाप नहीं लगेगा, क्योंकि जो समत्व से यक्त होता है उससे कोई पाप ही नहीं होता है । हे अर्जुन, आसक्ति का त्याग कर, सिद्धि एवं असिद्धि में समभाव १. गीता २।४३ २. गीता (शां०), ६।३२ ३. गीता २०१५ ४. वही, २॥३८, तुलना कीजिए-आचारांग, १३३२ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समत्व-योग १५ रखकर, समत्व से युक्त हो; तू कर्मो का आचरण कर, क्योंकि यह समत्व ही योग है । ' समत्व - बुद्धियोग से सकाम कर्म अति तुच्छ है, इसलिए हे अर्जुन, समत्व - बुद्धियोग का आश्रय ले क्योंकि फल की वासना अर्थात् आमक्ति रखनेवाले अत्यन्त दीन है । समत्वबुद्धि से युक्त पुरुष पाप और पुण्य दोनों से अलिप्त रहता है ( अर्थात् समभाव होनेपर कर्म बन्धन कारक नही होते ) । इसलिए समत्व - बुद्धियोग के लिए ही चेष्टा कर, समत्व बुद्धिरूप योग ही कर्म - बन्धन से छूटने का उपाय है, पाप-पुण्य से बचकर अनासक्त एवं साम्यबुद्धि से कर्म करने को कुशलता ही योग है। 3 जो स्वाभाविक उपलब्धियों में सन्तुष्ट है, राग-द्वेष एव ईर्ष्या से रहित निर्द्वन्द्व एवं सिद्धि-असिद्धि मे समभाव मे युक्त है, वह जीवन के सामान्य व्यापारो को करते हुए भी बन्धन मे नही आता है ।" हे अर्जुन, अनेक प्रकार के सिद्धान्तों से विचलित तरी बुद्धि जब समाधि - युक्त हो निश्चल एवं स्थिर हो जायेगी, तब तू समत्वयोग को प्राप्त हो जायेगा ।" जो भी प्राणी अपनी वासनात्मक आत्मा को जीतकर शीत और उष्ण, मान और अपमान, सुख और दुःख जैसी विरोधी स्थितियो मे भी सदैव प्रशान्त रहता है अर्थात् समभाव रखता है वह परमात्मा मे स्थित है । जिसकी आत्मा तत्त्वज्ञान एव आत्मज्ञान से तृप्त है जो अनासक्त एवं संयमी है, जो लौह एवं काचन दोनो म समानभाव रखता है, वही योगी योग (समत्व-योग) से युक्त है, ऐसा कहा जाता है। जो व्यक्ति सुहृदय, मित्र, शत्रु, तटस्थ, मध्यस्थ, द्वेषी एवं बन्धु म तथा धर्मात्मा एवं पापियो मे समभाव रखता है, वही अति श्रेष्ठ है अथवा वही मुक्ति को प्राप्त करता है ।" जो मभी प्राणियों को अपनी आत्मा में एवं अपनी आत्मा को सभी प्राणियो में देखता है अर्थात् सभी को समभाव से देखता है वही युक्तात्मा है। जो सुम्बन्दु ग्वादि अवस्थाओं मे सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समभाव मे देखता है, वही परमयोगी है इन्द्रियो के समूह को भलीभाँति संयमित करके सर्वत्र ममत्वबुद्धि में सभी प्राणियों के कल्याण मे निरत है, वह परमात्मा को ही प्राप्त कर लेता है । १५ जो न कभी हपित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्यागो है, वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है । १२ जो पुरुष शत्रु-मित्र मे और मान-अपमान में मम है तथा गर्दी-गर्मी और सुख-दुःखादि द्वन्द्व मे मम है और सब समार मे आमक्ति में रहित है तथा जो निन्दास्तुति को ।° जो अपनी १. गीता २०४८ ४. वही, ४।२३ ७. वही, ६८ १०. वही, ६।३२ १३. वही ६।७ २. वही, २१४९ ५ वही, २१५३ ८. वही, ६।९ ( पाठान्तर - विमुच्यने) ११. वही, १२।४ ३. वही, २०५० ६. वही, ६।७ ९. वही, ६।२९ १२. वही, १२।१७ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बोड और गीता का सामना मार्ग ममान ममझने वाला और मननशील है, अर्थात् ईश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करनेवाला है एवं जिम किम प्रकार से भी मात्र शरीर का निर्वाह होने में सदा ही मन्तुष्ट है और रहने के स्थान मे ममता से रहित है, वह स्थिर-बुद्धिवाला, भक्तिमान पुरुष मुझे प्रिय है। इस प्रकार जानकर, जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नागरहित परमेश्वर को ममभाव में स्थित देखता है, वह वही देखता है। क्योंकि वह पुरुप मबमे ममभाव में स्थित हुए परमेश्वर को देखता हुआ अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है, अर्थान् शरीर का नाश होने से अपनी आत्मा का नाश नही मानता है, इममे वह पगगगति को प्राप्त होता है। ममत्व के अभाव में ज्ञान यथार्थ ज्ञान नही है चाहे वह ज्ञान कितना ही विशाल क्यो न हो। वह ज्ञान योग नहीं है । ममन्व-दर्शन यथार्थ ज्ञान का अनिवार्य अग है । ममदर्शी ही मच्चा पण्डिन या जानी है। जान की मार्थकता और ज्ञान का अन्तिम लक्ष्य ममत्व-दर्शन है।" समन्वमय ब्रह्म या ईश्वर जो हम सब में निहित है, उसका बोष कराना हो ज्ञान और दर्शन की मार्थकता है। इसी प्रकार समत्व भावना के उदय से भक्ति का मच्चा म्वरूप प्रगट होता है। जो ममदर्शी होता है वह परम भक्ति को प्राप्त करता है । गीता के अठारहवे अध्याय में कृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि जो समत्वभाव मे स्थित होता है वह मेरी परमभक्ति को प्राप्त करता है। बारहवें अध्याय में सच्चे भक्त का लक्षण भी ममत्व वृत्ति का उदय माना गया है । जब समत्वभाव का उदय होता है तभी व्यक्ति का कर्म अकर्म बनता है। समत्व-वृत्ति से युक्त होकर किया गया कोई भी आचरण बन्धनकारी नही होता, उस आचरण से व्यक्ति पापको प्राप्त नही होता । इस प्रकार ध्यान-याग का परम साध्य भी वैचारिक समत्व है। समाधि की एक परिभाषा यह भी हो सकती है कि जिसके द्वारा चित्त का समत्व प्राप्त किया जाता है, वह समाधि है। ज्ञान, कर्म, भक्ति और ध्यान मभी ममत्व को प्राप्त करने के लिए है। जब वे समत्व से युक्त हो जात है तब अपने सच्चे रवरूपको प्रकट करते है । ज्ञान यथार्थ ज्ञान बन जाता है, भक्ति परम भक्ति हो जाती है, कर्म अकर्म हो जाता है और ध्यान निविकल्प सम्माधि का लाभ कर लेता है । ५. समत्वयोग का व्यवहार पक्ष समत्वयोग का तात्पर्य नेतना का संघर्ष या द्वन्द्व से ऊपर उठ जाना है। वह १. गीता १२।१९ ४. वही, ५।१८ ७. वही, १२।१७-१९ २. वही, १३३२७ ५. वही, १३॥२७-२८ ८. वही, २०३८ ___३. वही, १३१२८ ६. वही, १८१५४ ९. वही, २०५३ ५. " Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समत्वयोग निराकुल, निर्द्वन्द्व और निर्विकल्प दशा का सूचक है । समत्व-योग जीवन के विविध पक्षों में एक ऐमा सांग सन्तुलन है जिसमे न केवल चैतसिक ए. वैयक्तिक जीवन के संघर्ष समाप्त होते हैं, वग्न सामाजिक जीवन के संघर्ष भी ममाप्त हो जाते है, शर्त यह है कि समाज के सभी सदस्य उसकी माधना मे प्रयत्नशील हो। समत्वयोग में इन्द्रियाँ अपना कार्य तो करती है, लेकिन उनमे भोगासक्ति नही होती है और न इन्द्रियों के विषयो की अनुभूति चेतना मे राग और द्वेष को जन्म देती है । चिन्तन तो होता है, किन्तु उमसे पक्षवाद और वैचारिक दुगग्रहों का निर्माण नही होता । मन अपना कार्य तो करता है, लेकिन वह चेतना के मम्मुम्व जिसे प्रस्तुत करता है, उमे रंगीन नही बनाता है। आत्मा विशुद्ध द्रष्टा होता है। जीवन के सभी पक्ष अपना अपना कार्य विशुद्ध रूप मे बिना किमो मघर्ग के करने है। मनुष्य का अपने परिवेश के माथ जो मंघर्ष है, उगके कारण के रूप मे जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति इतनी प्रमुख नही है जितनी कि व्यक्ति को भोगामक्ति । संघर्ष की तीव्रता आसक्ति की तीव्रता के साथ बढती जाती है। प्रकृत-जीवन जीना न तो इतना जटिल है और न इतना संघर्षपूर्ण हो । व्यक्ति का आन्तरिक संघर्ष जो उसकी विभिन्न आकांक्षाओं और वामनाओं के कारण होता है उसके पीछे भी व्यक्ति की तृष्णा या आसक्ति ही प्रमुख है। इसी प्रकार वैचारिक जगन् का माग मघर्ष आग्रह, पक्ष या दष्टि के कारण है । वाद, पक्ष या दृष्टि एक ओर मत्य को मीमित करती है, दूसरी ओर आग्रह मे मत्य के अन्य अनन्त पहलू आवृत रह जा। है । भोगामक्ति स्वार्थो की मंकीर्णता को जन्म देती है और आग्रहवृत्ति वैचारिक गंकीर्णता को जन्म देती है। मकीर्णता चाहे वह हितों की हो या विचारों की, मंघर्ष को जन्म देती है। गमम्न मामाजिक संघर्षों के मूल में यही हितों की या विचारों की मंकीणता काम कर रही है। जव आमक्ति, लोभ या गग के रूप मे पक्ष उपम्पित होता है तो द्रुप या घृणा के म्प मे प्रतिपक्ष भी उपस्थित हो जाता है । पक्ष और प्रतिपक्ष की यह उपस्थिति आंतरिक मघर्ष का कारण होती है। ममन्वयोग गग ओर द्वेष के द्वन्द्र में ऊपर उठाकर वीतरागता की आर ले जाता है । वह आन्तरिक मन्तुलन है। व्यक्ति के लिए यह आन्तरिक मन्तुलन ही प्रमुख ह । आन्तरिक मन्तुलन की उपस्थिति में वाद्य जागतिक विक्षोभ विचलित नही कर मकते है । जब व्यक्ति आन्तरिक मन्तुलन मे युक्त होता है तो उमय आचार-विचार और व्यवहार में भी वह सन्तुलन प्रकट हो जाता है। उसका कोई भी व्यवहार या आचार बाह्य अमन्तुलन का कारण नही बनता है। आचार और विचार हमारे मन के बाह्य प्रकटन है, व्यक्ति के मानस का वाह्य जगत् में प्रतिबिम्ब है । जिसमे आन्तरिक सन्तुलन या समत्व है, उसके आचार और विचार भी समत्वपूर्ण हाते है। इतना ही नहीं, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग वह विश्व व्यवहार मे एक साग सन्तुलन स्थापित करने के लिए भी प्रयत्नशील होता है, उमका मन्तुलित व्यक्तित्व विश्व व्यवहार को प्रभावित भी करता है एवं उसके द्वारा सामाजिक जीवन का निर्माण भी हो मकता है । फिर भी सामाजिक जीवन मे ऐसा व्यक्तित्व एक मात्र कारक नही होता अत उसके प्रयास सदैव ही सफल हों यह अनिवार्य नही है । सामाजिक समत्व की संस्थापना ममत्वयोग का साध्य तो है, लेकिन उसकी सिद्धि वैयक्तिक समत्व पर नही वरन् समाज के सभी सदस्यों के सामूहिक प्रयत्नो पर निर्भर है । फिर भी ममत्व योगी के व्यवहार से न तो सामाजिक संघर्ष उत्पन्न होता है और न बाह्य मघप, क्षुब्धताओ और कठिनाईयो से वह अपन मानस को विचलित होने देता है । समत्वयोग का मूल केन्द्र आन्तरिक सतुलन या समत्व हैं, जो कि राग और द्वेष के प्रहाण में उपलब्ध होता है । १८ समत्व योग भारतीय साधना का केन्द्रीय तत्त्व है लेकिन इस समत्व की उपलब्धि कैसे हो सकती है यह विचारणीय है । सर्वप्रथम तो जैन, बौद्ध एवं गीता के आचारदर्शन समत्व की उपलब्धि के लिए त्रिविध साधना पथ का प्रतिपादन करते है | चेतना के ज्ञान, भाव और सकल्प पक्ष को समत्त्व से युक्त या सम्यक् बनाने हेतु जहाँ जैन दर्शन सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र का प्रतिपादन करता है वही बौद्ध दर्शन प्रज्ञा, शील और समाधि का और गीता ज्ञानयोग कर्मयोग और भक्तियोग का प्रतिपादन करती है । केवल इतना ही नही अपितु इन आचार दर्शनो ने हमारे व्यावहारिक और सामाजिक जीवन की समता के लिये भी कुछ दिशा निर्देशक सूत्र प्रस्तुत किये है । हमारे व्यावहारिक जीवन की विषमताएँ तीन है - १. आसक्ति २. आग्रह और ३. अधिकार भावना । यही वैयक्तिक जीवन की विषमताएँ सामाजिक जीवन मे वर्ग- विद्वेष शोषकवृत्ति र धार्मिक एवं राजनैतिक मतान्धता को जन्म देती है और परिणाम स्वरूप हिंसा, युद्ध और वर्ग संघर्ष पनपते है । इन विषमताओ के कारण उद्भूत सघर्षो को हम चार भागों में विभाजित कर सकते है (१) व्यक्ति का आन्तरिक संघर्ष - जो आदर्श और वासना के मध्य हैं, यह इच्छाओं का सघर्ष है । इसे चैतसिक विषमता कहा जा सकता है । इसका सम्बन्ध व्यक्ति स्वयं से है । ( २ ) व्यक्ति और वातावरण का संघर्ष — व्यक्ति अपनी शारीरिक आवश्यकताओं और अन्य इच्छाओ की पूर्ति बाह्य जगत् में करता है । अनन्त इच्छा और सीमित पूर्ति के साधन इस मघर्ष को जन्म देते है । यह आर्थिक सघर्ष अथवा मनो- भौतिक संघर्ष ह । (३) व्यक्ति और समाज का मघर्ष - व्यक्ति अपने अहंकार की तुष्टि समाज मे करता है, उस अहंकार को पोषण देने के लिए अनेक मिथ्या विश्वासो का समाज मे सृजन करता है । यही वैचारिक संघर्ष का जन्म होता है। ऊंच-नीच का भाव, मतान्वता और विभिन्न वाद उसी के परिणाम है । धार्मिक Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्वयोग (४) समाज और समाज का सघर्ष-जब व्यक्ति सामान्य हितों और सामान्य वैचारिक विश्वासों के आधार पर समूह या गुट बनाता है तो सामाजिक संघर्षों का उदय होता है । इसका आधार आर्थिक और वैचारिक दोनो ही हो सकता है। समत्वयोग का व्यवहार पक्ष और जैन दृष्टि जैसा कि हमने पूर्व मे देखा कि इन समग्र संघर्षों का मूल हेतु आसक्ति, आग्रह और संग्रह वृत्ति में निहित है। अत जैन दार्शनिकों ने उनके निराकरण के हेतु अनासक्ति, अनाग्रह, अहिंमा तथा असंग्रह के मिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। वस्तुतः व्यावहारिक दृष्टि से चित्तवृत्ति का समत्व, अनामक्ति या वीतरागता मे, बुद्धि का समत्व अनाग्रह या अनेकान्त मे और आचरण का समत्व अहिंमा एव अपरिग्रह मे निहित है। अनासक्ति, अनेकान्त, अहिसा और अपरिग्रह के मिद्धान्त ही जैनदर्शन मे समत्वयोग की साधना के चार आधार स्तम्भ है । जैन-दर्शन के समत्वयोग की साधना को व्यावहारिक दृष्टि से निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जा मकता हैसमत्वयोग के निष्ठासूत्र (अ) संघर्ष के निराकरण का प्रयत्न हो जीवन के विकास का सच्चा वर्ष-समत्वयोग का पहला मूत्र है मघर्प नही, सघर्ष या तनाव को समाप्त करना ही वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन को प्रगति का मच्चा स्वरूप है। अस्तित्व के लिए संघर्ष के स्थान पर जैन-दर्शन सघर्ष के निगकरण में अस्तित्व का मूत्र प्रस्तुत करता है। जीवन मघर्ष मे नही वरन् उमके निगकरण में है। जैन-दर्शन न तो इम सिद्धान्त में आस्था रखता है कि जीवन के लिए संघर्ष आवश्यक है और न यह मानता है कि "जीओ और जीने दो" का नारा ही पर्याप्त है। उमका मिद्धान्त है जीवन के लिए जीवन का विनाश नहा, वरन् जीवन के द्वारा जीवन का विकास या कल्याण (परस्परोपग्र हो जीवानाम्-तत्वार्यसूत्र) जीवन का नियम सघर्ष का नियम नही वरन् परस्पर सहकार का नियम है । (ब) सभी मनुष्यों को मौलिक समानता पर आस्था -आत्मा की दृष्टि से सभी प्राणी ममान है, यह जैनदर्शन की प्रमुख मान्यता है । इसके माथ ही जैन आचार्यों ने मानव जाति की एकता को भी स्वीकार किया है। वर्ण, जाति, मम्प्रदाय और आर्थिक आधारों पर मनुष्यो मे भेद करना मनुष्यो की मौलिक ममता को दृष्टि मे ओझल करना है । सभी मनुष्य, मनुष्य-ममाज मे ममान अधिकागे में यक्त है। यह निष्ठा माम्ययोग के सामाजिक सन्दर्भ का आवश्यक अंग है । इम। मल में मभी मनुष्यो को समान अधिकार मे युक्त ममझने की धारणा रही हुई है। यह मामाजिक न्याय का आधार है जो सामाजिक संघर्ष को समाप्त करता है । समत्वयोग के क्रियान्वयन के चार सूत्र (१) वृत्ति में अनासक्ति :-अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण यह समत्वयोग की Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन, बौद्ध और गीता का सामना मार्ग साधना का प्रथम मूत्र है। अहंकार, ममत्व और तृष्णा का विसर्जन ममत्व के सर्जन के लिये आवश्यक है । अनामक्त वृत्ति में ममत्व और अहंकार दोनों का पूर्ण ममर्पण आवश्यक है । जब तक अहम् और ममत्व बना रहेगा, ममत्व की उपलब्धि मंभव नही होगी, क्योंकि गग के माथ द्वेप अपरिहार्य रूप से जुड़ा हुआ है । जितना अहम् और ममत्व का विमर्जन होगा उतना हो ममत्व का मर्जन होगा। अनासक्ति-चैतमिक संघर्ष का निगकरण करती है एवं चैतमिक ममत्व का आधार है। बिना चैतमिक समत्व के सामाजिक जीवन मे माम्य की उद्भावना नही हो सकती। (२) विचार में अनाग्रह :-जैनदर्शन के अनुमार आग्रह एकांत है और इसलिये मिथ्यात्व भी है । वैचारिक अनाग्रह ममत्वयोग की एक अनिवार्यता है । आग्रह वैचारिक हिंसा भी है, वह दूसरे के मन्त्र को अस्वीकार करता है तथा ममग्र वैचारिक सम्प्रदायों एवं वादों का निर्माण कर वैचारिक संघर्ष की भूमिका तैयार करता है। अत' वैचारिक समन्वय और वैचारिक अनाग्रह ममत्वयोग का एक अपरिहार्य अंग है । यह वैचारिक संघर्ष को समाप्त करता है । जैनदर्शन इमे अनेकान्तवाद या स्याद्वाद के रूप में प्रस्तुत करता है। (३) वैयक्तिक जीवन में असंग्रह :-अनासक्त वृत्ति को व्यावहारिक जीवन में उतारने के लिये असग्रह आवश्यक है। यह वैयक्तिक अनामक्ति का ममाज-जीवन मे व्यक्ति के द्वारा दिया गग प्रमाण है और सामाजिक ममता के निर्माण की आवश्यक कडी भी है । सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता का निराकरण असंग्रह की वैयक्तिक साधना के माध्यम से ही सम्भव है । (४) समाजिक आचरण में अहिंसा :-जब पारस्परिक व्यवहार अहिंमा पर अधिष्ठित होगा तभी सामाजिक जीवन में शाति और माम्य गम्भव होगे । जैनदर्शन के अनुसार अहिंसा का मूल आधार आत्मवत् दृष्टि है और अहिंसा की व्यवहार्यता अनासक्ति पर निर्भर है । वत्ति मे जितनी अनासक्ति होगी, व्यवहार में उतनी ही अहिंमा प्रगट होगी। जैन आचारों की दृष्टि में अहिंमा केवल निषेधात्मक नहीं है, वग्न् वह विधायक भी है । मैत्री आर करुणा उसके विधायक पहलू है। अहिंसा सामाजिक संघर्ष का निराकरण करती है। इस प्रकार जैनदर्शन के अनुमार वृत्ति मे अनामक्ति, विचार मे अनेकान्त, अनाग्रह, वैयक्तिक जीवन में असंग्रह और सामाजिक जीवन में अहिंसा यही ममत्वयोग की साधना का व्यवहारिक पक्ष है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिविध साधनामार्ग जैन दर्शन मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध माधना मार्ग प्रस्तुत करता है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ मे ही कहा है सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और गम्यकनारित्र मोक्ष या मार्ग है। उत्तराध्ययनसूत्र मे सम्पज्ञान सम्यग्दर्शन सम्यकचारित्र और गम्यक तप ऐमे चतुर्विध मोक्ष मार्ग का भी विान ह । जैन आचार्गों ने ता का अन्तर्भाव चारित्र में किया है और इसलिए परवर्ती साहित्य में इमी विविध माधना मार्ग का विज्ञान मिलता है। उत्तगध्ययन में भी ज्ञान दर्शन और चारित्र के रूप में सिवित माधना पथ का विधान । आचार्य कुन्दकुन्द ने गमयनार एव नियमगार मे, जाचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में, आचार्य :मचन्द्र ने योगदाास् म पिवित्र साधना पथ का विधान किया है। त्रिविध साधना-मार्ग हो क्यों ? -यह प्रश्न उठ सकता , f. विविध साधना मार्ग का ही विधान क्यो किया गया है ? वस्तुतः त्रिविध मानना मार्ग के विधान में पूर्ववर्ती ऋपियो एव आचार्यों की गहन मनोवैज्ञानिक सझ रहो । । मनोवैज्ञानिक दष्टि ग मानवीय पतना के तीन पक्ष माने गये हैं-ज्ञान भाव आर माप । ननि जोवन का गाध्य चेतना के इन तीनों पक्षो का विकास माना गया है । अत यह आवश्यक ही था कि इन तीनो पक्षो के विकास के लिए विविध साधना-पथ का विन किया जाय। चंतना के भायात्मक पक्ष को सम्यक् बनान के लिए । म गहा विकार ना लिा सम्पग्दर्शन या श्रद्धा की माधना का विधान किया गया । मी प्रकार ज्ञानात्मक पता के रिझान का और सकल्पात्मक पक्ष के लिए मम्यक्चारित्र का विधान है। इस प्रकार हम दमनं है कि त्रिविध साधना-पथ के विधान के पीछे एक मनानानिष्टि नही .. । बौद्ध दर्शन में त्रिविध सापना मागं-बौद्ध दर्शन म भी त्रिवि मानना मार्ग का विधान है । प्राचीन बौद्ध ग्रथो में इमी का विधान अधिक ह । पंग बुद्ध ने अष्टाग मार्ग का भी प्रतिपादन किया है। लेकिन यह अष्टाग मार्ग भी विविध माधना मार्ग में ही अन्तर्भूत है। बाद्ध दर्शन में त्रिविध माधना मार्ग'' प म गील, ममाधि और प्रज्ञा का विधान है । कही कहीं शील, ममाधि और प्रज्ञा 4 स्थान पर वीय, श्रद्धा और प्रज्ञा का भी विधान है । वस्तुतः वीर्य शील का और श्रद्धा गमात्रि की प्रतीक है । १. तत्त्वार्थसूत्र ११ २. उत्तराध्ययन २८।२ २. (अ) अत्थि मद्धा ततो विरियं पञ्चा च मम विज्जति । -सुत्तनिपान ८1८ (ब) सव्वदा मील सम्पन्नो (इति भगवा) पञ्चवा मुममाहितो। अज्झत्तचिन्ती सतिमा ओघं तरति दुत्तरं ॥-सुत्तनिपात ९।२२ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग श्रद्धा और समाधि दोनों ममान इमलिए है कि दोनों में चित्त विकल्प नही होते हैं। समाधि या श्रद्धा को सम्यक् दर्शन से और प्रज्ञा को मम्यक्-जान से तुलनीय माना जा सकता है। बौद्ध दर्शन का अष्टाग मार्ग मम्य-दृष्टि, मम्यक्-संकल्प, सम्यक्-वाणी, सम्यक्-कर्मान्त, सम्यक्-आजीव, मम्यक्-व्यायाम, मम्यक-स्मृति और मम्यक-समाधि है । इनमें सम्यक्-वाचा, मम्यक्-कर्मान्त और सम्यक्-आजीव इन तीनों का अन्तर्भाव शील मे, सम्यक् व्यायाम, सम्यक्-स्मृति और मम्यव-ममाधि इन तीनों का अन्तर्भाव चित्त, श्रद्धा या समाधि मे और सम्यक-पंकल्प और मम्यक-दृष्टि इन दो का अन्तर्भाव प्रज्ञा में होता है। इस प्रकार बौद्ध दर्शन में भी मौलिक रूप से त्रिविध माधना मार्ग ही प्ररूपित है। गोता का त्रिविष साधना-मार्ग-गीता मे भी ज्ञान, कर्म और भक्ति के रूप मे विविध साधना-मार्ग का उल्लेख है। इन्हे ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के नाम से भी अभिहित किया गया है। यद्यपि गीता में ध्यानयोग का भी उल्लेख है । जिम प्रकार जैन-दर्शन में तप का स्वतन्त्र विवेचन होते हुए भी उमे सम्यकचारित्र के अन्तभूत लिया गया है उसी प्रकार गीता में भी ध्यानयोग को कर्मयोग के अधीन माना जा सकता है। गीता मे प्रसगान्तर से मोक्ष की उपलब्धि के माधन के रूप मे प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा का भी उल्लेख है ।' इनमे प्रणिपान श्रद्धा या भक्ति का, परिप्रश्न जान का और सेवा कर्म का प्रतिनिधित्व करत है । योग-दर्शन में भी ज्ञानयोग, भक्तियोग और क्रियायोग के रूप में इमी त्रिविर गावना मार्ग का प्रस्तुतीकरण हुआ है । वैदिक परम्पग मे इम त्रिविध सायना मार्ग । प्रस्तुतीकरण के पीछे एक दार्शनिक दृष्टि रही है। उममे परममत्ता या ब्रह्म के तीन पक्ष मत्य, मुन्दर ओर गिव माने गये है। ब्रह्म जो कि नैतिक जीवन का माध्य हैं इन तीन पक्षा मे युक्त है और इन तीनो की उपलब्धि के लिए ही विविध माधना-मार्ग श विधान किया गया । मत्य को उपलब्धि के लिए ज्ञान, सुन्दर की उपलब्धि के लिए भाव या श्रद्धा और शिव की उपलब्धि के लिए मेवा या कर्म माने गये हैं। उपनिपदों में श्रवण, मनन आर निदिध्यामन के रूप में भी त्रिविध साधना-मार्ग निरूपित है। गहराई से दवे नो श्रवण श्रद्धा, मनन ज्ञान और निदिध्यासन कर्म के अन्तर्गत् आ जाते है। इस प्रकार वैदिक परम्परा मे भी विविध साधना-मार्ग का विधान है। पाश्चात्य चिन्तन में त्रिविष सापना-पप-पाश्चात्य परम्परा मे तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैं-१. स्वयं को जानो ( Know Thyself ), २. स्वयं को स्वीकार करो ( Accept Thvself) और ३ स्व य ही बन जाओ ( Be Thysclf )२ पाश्चात्य चिन्तन के तीन नैतिक आदेश ज्ञान दर्शन और चारित्र के समकक्ष ही है। १. गीता ४॥३४, ४।३९ २. साइकोलाजी एन्ड मारल्स, पृ० १८० Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिविष सापना-मार्ग आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्त्व, आत्म-स्वीकृति में श्रद्धा का तत्त्व और आत्म-निर्माण में चारित्र का तत्त्व स्वीकृत ही है। इस प्रकार हम देखते है कि त्रिविध साधना-मार्ग के विधान में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परायें ही नहीं, पाश्चात्त्य विचारक भी एकमत हैं । तुलनात्मक रूप मे उन्हे निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है :जैज-वर्शन बौद्ध-र्शन गीता उपनिषद् पाश्चात्य-दर्शन सम्यग्ज्ञान प्रज्ञा ज्ञान, परिप्रश्न मनन Know Thyself सम्यग्दर्शन श्रद्धा,चित्त, ममाधि श्रद्धा, प्रणिपात श्रवण ..ccept Thyself सम्यकचारित्र शोल, वीर्य कर्म, मेवा निदिध्यामन B. Thysor साधन-त्रय का परस्पर सम्बन्ध-जैन आचार्यो न नेतिक गाधना के लिए इन तीनों माधना-मार्गों को एक साथ स्वीकार किया है। उनके अनुमार नैतिक माधना की पूर्णता त्रिविध साधनापथ के समग्र परिपालन में ही सम्भव है । जैन-विचारक तीनों के ममवेत मे ही मुक्ति मानते है। उनके अनुमार न अकेला ज्ञान, न अकेला कर्म और न अब ली भक्ति मुक्ति देने में समर्थ है। जब कि कुछ भारतीय विचारको ने इनमे में किगी एक को ही मोक्ष प्राप्ति का साधन मान लिया है। आचार्य शकर कंबल ज्ञान गे और गमानुज केवर भक्ति मे मुक्ति की गभावना को स्वीकार करते है, लेकिन जैन-दार्शनिक ऐमी किसी एकान्तवादिता मे नही पडत है । उनके अनुगार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत माधना मे ही मोक्ष-गिद्धि मभव है। इनमें से किगी एम. के अभाव में मोक्ष या नैतिक माध्य की प्राप्ति मम्भव नहीं। उत्तगध्ययनमू । मे कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नही होता और जिममे ज्ञान नही है उमका आचरण मम्यक नहीं होता और सम्यक् आचरण के अभाव मे आमक्ति में मुक्त नहीं हुआ जाता है और जो आमक्ति में मुक्त नही उमका निर्वाण या माक्ष नही हाता।' इग प्रकार का प्रकार यह स्पष्ट कर देता है कि निर्वाण या नैतिक पूर्णता की प्राप्ति के लिए इन तानो की एक माथ आवश्यकता है । वस्तुत नैतिक माध्य के रूप में जिग पूर्णता की म्वीकार किया गया है वह चेतना के किमी एक पक्ष की पूर्णता नहीं, वरन् नीनों पक्षो की पूर्णता है और इसके लिए माधना के तीनों पक्ष आवश्यक है। ___ यद्यपि नैतिक साधना के लिए सम्यग्ज्ञान, मम्यग्दर्शन और मम्यक्चारित्र या शोल, ममाधि और प्रज्ञा अथवा श्रद्धा, ज्ञान और कर्म तीनो आवश्यक है, लेकिन इनमें साधना की दृष्टि में एक पूर्वापरता का क्रम भी है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का पूर्वापर सम्बन्ध--ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा मे काफी विवाद रहा है। कुछ आचार्य दर्शन को प्राथमिक १. उत्तराध्ययन, २८।३० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग मानते है तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनो का यौगपद्य ( ममानान्तरता ) स्वीकार किया है । यद्यपि आचार - मी मामा की दृष्टि में दर्शन की प्राथमिकता ही प्रबल रही है । उत्तराध्ययनसूत्र मे कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नही हाता ।" इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा दर्शन को प्राथमिकता दी गयी है । तन्वार्थमूनकार उमास्वाति ने भी अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान और चारित्र के पहले स्थान दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड में कहते है कि धर्म ( साधनामार्ग ) दर्शन-प्रधान है । 3 लेकिन दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐगे भी है जिनमें ज्ञान को प्रथम माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में, उसी अध्याय में मोल मार्ग की विवेचना में जो क्रम है उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम ह । वस्तुतः साधनात्मक जीवन की दृष्टि से भी ज्ञान और दर्शन में किसे प्राथमिक माना जाय, यह निर्णय कन्ना गहज नहीं है । इस विवाद के मूल मे यह तथ्य है कि श्रद्धावादी दृष्टिकोण सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान देता है, जब कि ज्ञानवादी दृष्टिकोण श्रद्धा के सम्यक होने के 1 ए ज्ञान की प्राथमिकता को स्वीकार करता है । वस्तुतः इस विवाद मे कोई एकान्तिक निर्णय लेना अनुचित ही होगा । यहाँ समन्वयवादी दृष्टिकोण ही मंगत होगा । नवतत्त्वप्रकरण मे ऐसा ही समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया गया है जहां दोनो को एकदूसरे का पूर्वापर बताया है । कहा है कि जो जीवादि नत्र पदार्थो को यथार्थ रूप से जानता है उस सम्यक्त्व होता है। इस प्रकार ज्ञान को दर्शन के पूर्व बताया गया है, लेकिन अगली पक्ति में ही ज्ञानाभाव में केवल श्रद्धा से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति मान ली गयी है और कहा गया है कि जो वस्तुतत्त्व स्वतः नही जानता हुआ भी उसके पति भा. से श्रद्धा करता है उगे सम्यक्त्व हो K जाता - हम अपने दृष्टिकोण से इनमें से किसे प्रथम स्थान द इनका निर्णय करने के पूर्व दर्शन शब्द के अर्थ का निश्चय कर लेना जरूरी है । दनि शब्द के दो अर्थ है१. यथार्थ दृष्टिकोण और २ श्रद्धा । यदि हम दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ लेते है तो हमे साधना-मार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना चाहिए। क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही मिथ्या है, अथार्थ है तो न तो उसका ज्ञान सम्यक् (यथार्थ ) होगा और न चारित्र हो । यथार्थ दष्टि के अभाव मे यदि ज्ञान और चारित्र मन्यक् प्रतीत भी हो, तो भी वे सम्पर्क नही कहे जा सकने । वह तो मयोगिक प्रसंग मात्र है । ऐसा साधक दिग्भ्रात भी हो सकता है जिसकी दृष्टि ही दूषित है, वह क्या सत्य को जानेगा और उसका आचरण करेगा ? दूसरी ओर यदि हम सम्यग्दर्शन का श्रद्धापरक १. उत्तराध्ययन २८|३० २. तत्त्वार्थसूत्र १।१ 1 ३. दर्शनपाहुड, २ ४. ५. नवतत्त्व प्रकरण १ उद्धृत - आत्मसाधना संग्रह, पृ० १५१ , उत्तराध्ययन, २८ २ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिविय साधना-मार्ग अर्थ लेते है तो उसका स्थान ज्ञान के पश्चात् ही होगा। क्योकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद ही उत्पन्न हो सकती है । उत्तगध्ययनगूत्र मे भी दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ करते समय उसे ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है। ग्रन्थकार कहते है कि ज्ञान से पदार्थ ( तत्व ) स्वरूप को जाने और दर्शन के द्वाग उस पर श्रद्धा करें।' व्यक्ति के स्वानुभव ( ज्ञान ) के पश्चात् ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, उममे जो स्थायित्व होता है वह ज्ञानाभाव मे प्राप्त हुई श्रद्धा मे नही हो गकता। ज्ञानाभाव म जो श्रद्धा होती है, उसमे सशय होने की सम्भावना हो सकती है । गी श्रद्धा यथार्थ श्रद्धा नही वरन् अन्ध श्रद्धा ही हो सकती है । जिन-प्रणीत तत्त्वो में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवं तार्किक परीक्षण के पश्चात् ही हो गकती है । यद्यपि माधना के लिए, आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्त्व है, लेकिन वह ज्ञान-प्रमूत होनी चाहिए। रत्नराध्यानमूत्र में स्पष्ट कहा है कि धर्म की गगीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करे, तकरी तत्व का विश्लेषण करें ।' ___ इस प्रकार यथार्थ दृष्टिपरक अर्थ में मम्यग्दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना चाहिए, जब कि श्रद्धापरक अर्थ मे उसे ज्ञान । पश्चात् ग्थान देना चाहिए । बौद्ध-विचारणा में ज्ञान और श्रद्धा का सम्बन्ध-बौद्ध-विचारणा न सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टि शब्द का यथार्थ दष्टिकोणपरक अर्थ स्वीकारा है और अष्टागिक माधनामार्ग में उमे प्रथम स्थान दिया है। यद्यपि आग गाधना-गार्ग में ज्ञान का कोई स्वतन्त्र स्थान नही है, तथापि वह मम्पष्टि में ही गमाहित है। आशिक रूप में उमे मभ्यक् स्मति के अधीन भी माना जा सकता .: । तथापि बाद्ध गाधना के विविध मार्ग शील, ममाधि, प्रज्ञा में ज्ञान को स्वतन्त्र स्थान भी प्रदान की है । चा.' बुद्ध न आत्मदीप एवं आत्मशरण के स्वर्णिम मुत्र का उद्याप कर श्रद्धा को अपना ग्वावलम्बन का पाठ पढ़ाया हो, फिर भी बौद्ध आचार-दर्शन में श्रद्धा का हावपूर्ण ग्थान गभी यगो मे रहा है। सुत्तनिपात में आलवक यक्ष के प्रति बुद्ध म्वय कहत है कि मनग्य का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है। मनुष्य श्रद्धा में इस मंमाग्रूप बाट को पार करता है। इतना ही नहीं, ज्ञान की उपलब्धि के साधन के रूप में श्रद्धा को स्वीकार करके बद्ध गीता की विचारणा के अत्यधिक निकट आ जाते है। गीता रे ममान ही बुद्ध मुनिपात में आलवक यक्ष से कहते है, "निर्वाण की ओर ले जानेवाले अहंतो के प्रम में श्रद्धा ग्यनवाला अप्रमत्त और विचक्षण पुरुप प्रज्ञा प्राप्त करता ह ।'५ 'थद्धावाल्लभन ज्ञान' और 'महानो लभते पञ्च' का शब्द-माम्य दोनों आचार-दर्शनों मे निकटना दखनेवाले विद्वानों के लिए विशेषरूप से द्रष्टव्य है। लेकिन यदि हम श्रद्धा को आस्था के अर्थ में ग्रहण कर है तो बुद्ध की दृष्टि में १. उत्तराध्ययन, २८१३५ २. वही, २३।२५ ३. सुत्तनिपात, १०२ ४. वही, १०६४ ५. वही, १०६ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बोड और गोता का साधना मार्ग प्रज्ञा प्रथम है और श्रद्धा द्वितीय स्थान पर । मंयुत्तनिकाय में बुद्ध कहते है कि श्रद्धा पुरुष की साथी है और प्रजा टम पर नियन्त्रण करती है।' इस प्रकार श्रद्धा पर विवेक का स्थान स्वीकार किया गया है। बुद्ध कहते है, श्रद्धा मे ज्ञान बड़ा है। इस प्रकार बुद्ध की दृष्टि में ज्ञान का महत्त्व अधिक मिद्ध होता है । यद्यपि बुद्ध श्रद्धा के महत्व को और ज्ञान-प्राप्ति के लिए उमको आवश्यकता को स्वीकार करते है, तथापि जहाँ श्रद्धा और ज्ञान में किमी की श्रेष्ठता का प्रश्न आता है वे ज्ञान (प्रज्ञा) की श्रेष्ठता को स्वीकार करते है। बौद्ध-माहित्य में बहुचर्चित कालाममुत्त भी इसका प्रमाण है । कालामों को उपदेश देते हुए बुद्ध स्वविवेक को महत्त्वपूर्ण स्थान देते है । वे कहते है 'हे कालामों, तुम किसी बात को इमलिए स्वीकार मत करो कि यह बात अनुश्रुत है, केवल इसलिए मत स्वीकार कगे कि यह बात परम्पगगत है, केवल इमलिा मत स्वीकार कगे कि यह बात इसी प्रकार कही गई है, केवल इगलिए मत स्वीकार करो कि यह हमारे धर्म-ग्रथ (पिटक) के अनुकूल है, केवल, इमलिा मत पीकार करो कि यह तर्क-मम्मत है, केवल इसलिए मत स्वीकार कगे कि यह न्याय (गास्त्र) मम्मन है, केवल इलिए मत स्वीकार करो कि मका आकार-प्रकार (कथन का ढग) मुन्दर है, केवल इमलिए मन स्वीकार कगे कि यह हमारे मत के अनुकूल है. केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि कहने वाले का व्यक्तित्व आकर्षक है, . प्रल इलिए मत स्वीकार कगे कि कहने वाला श्रमण हमार। पूज्य है । ह का लामा. (यदि) तुम जब आत्मानुभव मे अपन आप ही यह जानो कि ये बाते अकुशल है, ये बात दाप है य बाने विज्ञ पुरुषो द्वारा निदित है, इन बातो के अनुसार वलन ग जहित हाता है, दुग होता ह-तो हे कालामो, तुम उन बातो को छोड दो' । बुद्ध का उपर्युक्त कथन श्रद्धा के आर मानवीच विव। की श्रेष्ठता का प्रतिपादक है। लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि बुद्ध मानवीय प्रज्ञा का श्रद्धा म पूर्णतया निर्मक्त कर देते है । बुद्ध की दृष्टि मे ज्ञान विहीन श्रद्धा मनुष्य के स्वविवेक रूपी चक्षु को ममाप्त कर उसे अन्धा बना देती ह और श्रद्धा-विहीन ज्ञान मनुष्य को सशय ओर तर्क के मरूस्थल मे भटका देता है। इस मानवीय प्रकृत्ति का विश्लेषण करत हुए विसुद्धिमग्ग में कहा है कि बलवान श्रद्धावाला किन्तु मन्द प्रज्ञा वाला व्यक्ति बिना सोचे-समझे हर कही विश्वास कर लेता है और बलवान् प्रज्ञावाला किन्तु मन्द श्रद्धावाला व्यक्ति कुताकिक (पूर्त) हो जाता है, वह औपवि से उत्पन्न होनेवाले रोग के ममान ही अमाध्य होता है। इस प्रकार बुद्ध अक्षा अ र विवेक के मध्य एक ममन्वयवादो दृष्टिकोण प्रस्तुत करते है। उनसरी दृष्टि में ज्ञान में युक्त श्रद्धा और श्रद्धा से युक्त ज्ञान ही माधना के क्षेत्र मे सच्चे दिशा-निर्देशक हो सकते है । १. संयुत्तनिकाय, ११११५९ २. वही, ४।४१२८ ३. अंगुत्तरनिकाय, ३६५ ४. गीता, ४।३९ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिविष साधना-मार्ग २७ गीता में पड़ा और ज्ञान का सम्बन्ध-गोता के अनुमार श्रद्धा को ही प्रथम स्थान देना होगा। गीताकार कहता है कि श्रद्धावान् ही ज्ञान प्राप्त करता है ।' यद्यपि गीता में ज्ञान की महिमा गायी गयी है, लेकिन ज्ञान श्रद्धा के ऊपर अपना स्थान नही बना पाया है, वह श्रद्धा की प्राप्ति का एक साधन ही है । श्रीकृष्ण स्वयं कहते है कि निरन्तर मेरे ध्यान मे लीन और प्रीतिपूर्वक भजने वाले लोगों को मै बुद्धियोग प्रदान करता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते है। यहां ज्ञान को श्रद्धा का परिणाम माना गया है। इस प्रकार गीता यह स्वीकार करती है कि यदि साधक मात्र श्रद्धा या भक्ति का सम्बल लेकर साधना के क्षेत्र मे आगे बढे तो ज्ञान उसे ईश्वरी अनुकम्पा के रूप में प्राप्त हो जाता है। कृष्ण कहते है कि श्रद्धायक्त भक्तजनों पर अनुग्रह करने के लिए मैं स्वयं उनके अन्तःकरण में स्थित होकर अज्ञानजन्य अन्धकार को ज्ञानरूपी प्रकाश से नष्ट कर देता हूं। इस प्रकार गीता में ज्ञान के स्थान पर मावना की दृष्टि में श्रद्धा ही प्राथमिक सिद्ध होती है। लेकिन जैन-विचारणा में यह स्थिति नही है। यद्यपि उममें श्रद्धा का काफी माहात्म्य निरूपित है और कभी तो वह गीता के अति निकट आकर यह भी कह देती है कि दर्शन (श्रद्धा) की विशुद्धि से ज्ञान को विशुद्धि हो ही जाता है अर्थान श्रद्धा के सम्यक् होन पर सम्यक् ज्ञान उपलब्ध हो ही जाता है, फिर भी उममें बद्धा ज्ञान और स्वानुभव के ऊपर प्रतिष्ठित नही हो सकती। इगके पाछ जो कारण है वह यह कि गीता में श्रद्ध य इतना ममर्थ माना गया है कि वह अपने उपासक के हण्य में ज्ञान की आभा को प्रकाशित कर सकता है, जबकि जैन-विचारणा में पद्धय ( पाम्प) उपायक को अपनी ओर से कुछ भी देने में असमर्थ है, माधक को म्वय ही ज्ञान उपलरूप करना होता है। सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र का पूर्वापर सम्बन्ध-चारित्र और जान-दर्शन के पूर्वापर मम्बन्ध को लेकर जैन-विचारणा में कोई विवाद नहीं हैं। चारित्र की अपेक्षा ज्ञान और दर्शन को प्राथमिकता प्रदान की गई है। चारित्र माधना-मार्ग में गति है जब ज्ञान साधना पथ का बोध है और दर्शन यह विश्वाम जाग्रत करता है कि यह पथ उसे अपने लक्ष्य की ओर ले जानेवाला है। मामान्य पथिक भी यदि पथ के ज्ञान एवं इस दृढ विश्वास के अभाव मे कि वह पथ उमके वाछिन लक्ष्य का जाता है, अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता, तो फिर आध्यात्मिक माधना मार्ग का पयिक बिना ज्ञान और आस्था (श्रद्धा) के कैमे आगे बढ़ मकता है । उनगध्ययनमत्र में कहा गया है कि ज्ञान से (यथार्थ साधना मार्ग को) जाने, दर्शन के द्वारा उम पर विश्वाग करें और चारित्र से उस साधना मार्ग पर आचरण करता हुआ तप में अपनी आत्मा का परिशोधन करे ।। १. गीता १०१० ३. विसुद्धिमग्ग, ४।४७ २. वही, १०।२१ ४. उत्तराध्ययन, २८।३५ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन, बोड और गीता का साधना मार्ग यद्यपि लक्ष्य के पाने के लिए चारित्ररूप प्रयाम आवश्यक है, लेकिन प्रयास को लक्ष्योन्मुख और सम्यक् होना चाहिए। मात्र अन्धे प्रयामों मे लक्ष्य प्राप्त नहीं होता । यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ नही है तो ज्ञान यथार्थ नहीं होगा और ज्ञान के यथार्थ नहीं होने पर चारित्र या आचरण भी यथार्थ नही होगा । इसलिये जैन आगमों मे चारित्र से दर्शन (श्रद्धा) की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि मम्यर्शन के अभाव में सम्यक्चाग्त्रि नहीं होता।' भक्तपरिज्ञा में कहा गया है कि दर्शन में भ्रष्ट (पतित) हो वास्तविक भ्रष्ट है, नाग्त्रि में भ्रष्ट भ्रष्ट नह है, क्योकि जोन मे युक्त है वह संमार में अधिक प•ि भ्रमण नही करता जबकि दर्शन में भ्रष्ट व्यक्ति संमार में मुक्त नही होता! कदाचित चारित्र मे रहित मिद्ध भी हो जावे, लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नही होता । वस्तृतः दग्टिकोण या बड़ा ही एक ऐमा तत्त्व है जो व्यक्ति के ज्ञान और आचरण का मही दिशा-निर्देश करता । आचार्य भद्रबाहु आचारागनियुक्ति मे कहते है कि मम्यक दृष्टि में ही तप जान जार माचरण मफल होते है। संत आनन्दघन दर्शन की महत्ता को मिद्ध करत हुए अनन्तजिन के स्तवन में कहते है शुद्ध श्रद्धा बिना मर्व किरिया करी, छार (गग्व) पर लीपणु नह जाणो र । बौद्ध-दर्शन और गीता का दृष्टिकोण-जेन-जन के ममान -शन और गीता मे भी श्रद्धा को आचरण का पूवती माना गया है। संयत्तनिकाय में बुद्ध कहा है कि श्रद्धा पूर्वक दिया हुमा दान ही प्रगानी है। आचार्य भद्रबाहु और आनन्दघन तथा भगवान् बुद्ध के उपर्गक्त दष्टि कोण के गमान ही गीता मे थाकृष्ण व हतं हे कि है अर्जुन, बिना श्रद्धा के किया हुआ हवा दिया हआ दान, तपा हआ नप कार जो कुछ भी किया हुआ कर्म । वह मभी अमत् (अमम्यक् ) कहा जाता - वह न तो इग लोक मे लाभदायक हं न परलोक में । तत्तिरीय उपनिषद् में भी यही कहा गया है कि जो भी दानादि कर्म करना चाहिए उन्हें श्रद्धापूर्वक हो करना चाहिए अश्रद्धापूर्वक नही ।। इस प्रकार हम दखने है कि जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ साचरण के पूर्व श्रद्धा को स्थान देती है । वस्तुत. श्रद्धा आचरण के अन्तस् में निहिन एक ऐमा तन्व है जो कर्म को उचितता प्रदान करता ह । नैतिक जीवन के क्षेत्र म वह एक आन्तरिक अकुश के रूप में कार्य करती ह और इमलिए वह कर्म में प्रथम है । सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र को पूर्वापरता-जन-विचारको ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही रखा है। दशवकालिकमूत्र में कहा गया है कि ना जीव और अजीव के १. उत्तराध्ययन, २८२९ २. भक्तपरिज्ञा, ६५-६६ ३. आचारांगनिर्यक्ति. २२१ ४. संयुत्त निकाय १।११३३ ५. गीता, १७।२८ ६. तैत्तिरीय उपनिषद् शिक्षावल्ली Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिविष साधना-मार्ग स्वरूप को नही जानता, ऐसा जीव और अजीव के विषय में अज्ञानी साधक क्या धर्म (सयम) का आचरण करंगा ? उत्तराध्यापनमूत्र में भी यही कहा है कि सम्यग्ज्ञान के अभाव मे मदाचण नही होता । द्ग प्रकार जेन-दर्शन ज्ञान को चारित्र के पूर्व मानता है । जैन दार्शनिक यह तो स्वीकार है कि मम्या आचरण के पूर्व सम्यक् ज्ञान का होना आवश्यक है, फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते है कि अकेला ज्ञान ही मुक्ति का माधन है । ज्ञान आचरण का म् वी जवर" ' यह भी स्वीकार किया गया है कि ज्ञान के अभाव मे चारित्र मम्यक नहीं हो सकता। लेकिन यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या ज्ञान ही मोक्ष का मूल हेतु ह ? सापन-त्रय में ज्ञान का स्थान-जैनाचाय अमृतचन्द्रमूरि ज्ञान को चारित्र से पूर्वता को सिद्ध करते हुए एक चम्म मीमा स्पर्श कर लेा है। वे अपनी गमगार नीका में लिग्वते है कि ज्ञान ही मोक्ष का हंतु ह, क्योकि ज्ञान का अभाव होने में अज्ञानियो में अंतरंग व्रत, नियम, मदाचरण ओर तपम्या आदि की उपस्थिति होने हा भी मोक्ष का अभाव है । क्योंकि अज्ञान तो बन्ध का हेतु है, जबकि ज्ञानी में ज्ञान का गद्भाव होने मे बाह्य व्रत, नियम, सदाचरण, तप आदि की सनपस्थिति होने पर भी मोक्ष का मद्भाव है। आचार्य शकर भी यह माना है कि एक ही कार्य ज्ञान के अभाव में बन्धन का हेतु आर ज्ञान की उपस्थिति में गाद का हेतु होता है । इगने यही सिद्ध होता है कि कर्म नही, ज्ञान ही मोक्ष का हतु है।' आचा। अमृत चन्द्र भी शान को त्रिविध माधनों में प्रमुख मानते है। उनकी दृष्टि में मम्यग्दर्गन और मम्यक्चाग्थि भी ज्ञान के ही रूप है । वे लिखते है कि मोक्ष के कारण मम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र है । जीवादि तत्वो के यथार्थ श्रद्धान पग तो जा ज्ञान है वह तो मम्यग्दर्शन है और उनका ज्ञान-स्वभाव म ज्ञान होना गम्यग्ज्ञान , नथा गादि के त्याग-ग्वभाव में ज्ञान का होना सम्यक्चारित्र है । इस प्रकार ज्ञान ही परमार्शन मास का कारण है। यहां पर आचार्य दर्शन और चारि । को ज्ञान के अन्य दो प.गे के कग में गिद्ध कर मात्र ज्ञान को ही मोक्ष का हेतु सिद्ध करते हैं। उनके प्टिकोण के अनुमार दर्शन और चारित्र भी जानात्मक है, ज्ञान की ही पर्या । है । ।द्यपि यहाँ हमे यह म्मरण रखना चाहिए कि आचार्य मात्र ज्ञान की उपस्थिति में मोक्ष के मद्भाव की कल्पना करते हैं, फिर भी वे अन्तरग वाग्यि की उपस्थिति में इनकार नहीं करने है । अन्तरंग चारित्र तो कपाय आदि के जय म माधों में स्थित हाता है। माधक और साध्य विवंचन में हम दखत है कि गायक आन्मा पारमार्थिक दृष्टि ग ज्ञानमय ही है १. दशवकालिक ४। २ ३. व्यवहारभाष्य, ७।२१७ ५. गीता (शा०), अ० ५ पीठिका २. उत्तगध्ययन २८।३० ४. ममयमारटीका, १५३ ६. समयसारटीका, १५५ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौड और गीता का साधनामार्ग और वही ज्ञानमय आत्मा उमका माध्य है । इम प्रकार ज्ञानस्वभावमय आत्मा ही मोक्ष का उपादान कारण है । क्योकि जो ज्ञान है, वह आत्मा है और जो आत्मा है वह जान है।' अतः मोक्ष का हेतु ज्ञान ही सिद्ध होता है ।। इस प्रकार जैन-आचार्यों ने माधन-त्रय मे ज्ञान को अत्यधिक महत्त्व दिया है । आचार्य अमृतचन्द्र का उपयंक्त दृष्टिकोण तो जैन-दर्शन को शंकर के निकट खड़ा कर देता है। फिर भी यह मानना कि जन-दृष्टि मे ज्ञान ही मात्र मुक्ति का साधन है जैनविचारणा के मौलिक मन्तव्य में दूर होना है। यद्यपि जैन साधना में ज्ञान मोक्ष-प्राप्ति का प्राथमिक एव अनिवार्य कारण है, फिर भी वह एक मात्र कारण नही माना जा सकता । ज्ञानाभाव में मक्ति सम्भव नहीं है, किन्तु मात्र ज्ञान मे भी मुक्ति सम्भव नहीं है । जैन-आचार्यों ने ज्ञान को मुक्ति का अनिवार्य कारण स्वीकार करते हुए यह बताया कि श्रद्धा और चारित्र का आदर्शोन्मुग्व एवं सम्यक् होने के लिए ज्ञान महत्त्वपूर्ण तथ्य है, सम्यग्ज्ञान के अभाव में श्रद्धा अन्धश्रद्धा होगी और चारित्र या सदाचरण एक ऐमी कागजी मुद्रा के समान होगा, जिमका चाहे बाह्य मूल्य हो, लेकिन आन्तरिक मूल्य शून्य ही है। आचार्य कुन्दकुन्द, जो ज्ञानवादी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते है वे भी स्पष्ट कहते है कि कोरे ज्ञान से निर्वाण नही होता यदि श्रद्धा न हो और केवल श्रद्धा से भी निर्वाण नही होता यदि सयम (मदाचरण) न हो। जैन-दार्शनिक शकर के समान न तो यह स्वीकार करते है कि मात्र ज्ञान से मुक्ति हो सकती है, न रामानुज प्रभृति भक्तिमार्ग के आचार्यों के समान यह स्वीकार करते है कि मात्र भक्ति से मुक्ति होती है । उन्हे मीमांसा दर्शन की यह मान्यता भी ग्राह्य नही है कि मात्र कर्म से मुक्ति हो सकती है । वे तो श्रद्धासमन्वित ज्ञान और कर्म दोनों से मुक्ति को सम्भावना स्वीकार करते है। ___सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका पूर्वापर सम्बन्ध भी ऐकातिक नहींजैन विचारणा के अनसार साधन-त्रय मे एक क्रम तो माना गया है यद्यपि इस क्रम को भी ऐकान्तिक रूप में स्वीकार करना उमकी स्याद्वाद की धारणा का अतिक्रमण ही होगा। क्योंकि जहाँ आचरण के मम्यक् होने के लिए सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन आवश्यक है वहीं दूसरी ओर सम्यग्ज्ञान एवं दर्शन की उपलब्धि के पूर्व भी आचरण का सम्यक् होना आवश्यक है । जैनदर्शन के अनुसार जबतक तीव्रतम (अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान, माया और लोभ चार कपाये समाप्त नहीं होती तब तक सम्यक्-दर्शन और ज्ञान भी प्राप्त नही होता । आचार्य शकर ने भी ज्ञान की प्राप्ति के पूर्व वैराग्य का होना आवश्यक माना है । इस प्रकार सदाचरण और संयम के तत्त्व सम्यक्-दर्शन और ज्ञान को १. समयसार, १० २. समयसारटीका, १५१ ३. प्रवचनसार, चारित्राधिकार, ३ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिविष साधना-मार्ग ३१ उपलब्धि के पूर्ववर्ती भी सिद्ध होते हैं । दूसरे, इम क्रम या पूर्वापरता के आधार पर भी साधन-त्रय में किसी एक को श्रेष्ठ मानना और दूसरे को गौण मानना जैनदर्शन को स्वीकृत नहीं है । वस्तुतः मानन-त्रय मानवीय चेतना के तीन पक्षों के रूप में ही साधना. मार्ग का निर्माण करते है । चेतना के इन तीन पक्षों में जैमी पारस्परिक प्रभावकता और अवियोज्य सम्बन्ध रहा है, वैमी ही पारम्परिक प्रभावकता और अवियोज्य सम्बन्ध इन तीनों पक्षों में भी है। ज्ञान और क्रिया के सहयोग से मुक्ति-माधना-गार्ग में ज्ञान और क्रिया ( विहित आचरण ) के श्रेष्ठन्त्र को लेकर विवाद चला आ रहा है । गैदिक यग में जहां विहित आचरण की प्रधानता रही है वहाँ ओगनिपदिक गग में ज्ञान पर बल दिया जाने लगा। भारतीय चिन्तकों के समक्ष प्राचीन ममय में ही यह ममम्पा रही है कि ज्ञान और क्रिया के बीच साधना का यथार्थ तत्त्व क्या है ? जैन-परम्पग न प्रारम्भ मे हो मापना-मार्ग में ज्ञान और क्रिया का समन्वय किया है। पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती युग में जब श्रमण परम्परा देहदण्डन-परक तप-माधना मे और पदिक परम्परा यज्ञयागपरक क्रियाकाण्डों में ही साधना की इतिथी मानकर गाधना के मात्र आचरणात्मक पक्ष पर बल देने लगी थी, तो उन्होंने उसे ज्ञान में ममन्वित ने का प्रयास किया था । महावीर और उनके बाद जैन-विचारकों ने भी ज्ञान और आचरण दोनों गे गम्ति माषना-पथ का उपदेश दिया । जैन-विचारकों का यह स्पष्ट निर्देश था कि मक्ति न तो मात्र ज्ञान में प्राप्त हो सकती है और न केवल मदाचरण में । ज्ञानमार्गी औपनिषदिक एवं मारूप परम्पराओं की ममीक्षा करत सुए उत्त गध्ययन मूत्र में स्पष्ट कहा गया कि कुछ विचारक मानत है कि पाप का त्याग किए बिना ही मात्र आर्यतत्त्व (यथार्थता) को जानकर ही आत्मा मभी दुःखों से छूट जाती है लेकिन बन्धन और मुक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले ये विचारक सयम का आचरण नही करते हुए केवल वचनों में हो आत्मा को आश्वासन देते है। सूत्रकृताग में कहा है कि मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो, अनेक शास्त्रों का जानकार हो अथवा अपने को धार्मिक प्रकट करता हो यदि उसका आचरण अच्छा नही है तो वह अपने कर्मों के पारण दुखी ही होगा। अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को शरणभूत नहीं होता । मन्त्रादि विद्या भी उसे कैसे बचा सकती है ? असद् आचरण में अनुरक्त अपने आप को पंडित मानने वाले लोग वस्तुतः मख ही है । आवश्यकनियंक्ति में ज्ञान और चारित्र के पारम्परिक सम्बन्ध का विवेचन विस्तृत म्प में है। उसके कुछ अंग इम ममम्या का हल खोजने में हमारे महायक हो सकेंगे । नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु कहत है कि 'आचरणविहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी मंमार-ममुद्र में पार नही होने । मात्र शास्त्रीय ज्ञान में, बिना आचरण के कोई १. उत्तराध्ययन, ६।९-१० २. सूत्रकृतांग, १७ ३. उत्तराध्ययन, ६।११ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैन, बौख मोर गीता का साधना मार्ग मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जिम प्रकार निपुण चालक भी वायु या गति की क्रिया के अभाव में जहाज को इच्छिन किनारे पर नही पहुँचा मकता वैसे ही ज्ञानी आत्मा भी तप-संयम म्प मदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नही कर सकता।' मात्र जान लेने से कार्य-मिद्धि नहीं होती । तैग्ना जानते हुए भी कोई कायचेष्टा नही करे तो डूब जाता हैं, वैमे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आचरण नहीं करता, वह डूब जाता है। जैमे चन्दन ढोने वाला चन्दन से लाभान्वित नहीं होता, मात्र भार-वाहक ही बना रहता है वैमे ही आचरण मे हीन ज्ञानी ज्ञान के भार का वाहक मात्र है, इससे उसे कोई लाभ नहीं होता । ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को लोक-प्रसिद्ध अंध-पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिम्वते है कि जैसे वन में दावानल लगने पर पंगु उसे देखते हुए भी गति के अभाव मे जल मरता है और अन्धा सम्यक् मार्ग न खोज पाने के कारण जल मरता है वैगे ही आचरणविहीन ज्ञान पंगु के समान है और ज्ञानचक्षु विहीन आचग्ण अन्धे के ममान है। आचरणविहीन ज्ञान और ज्ञान-विहीन आचरण दोनों निरर्थक है और संमार म्पी दावानल मे साधक को बचाने में असमर्थ हैं । जिस प्रकार एक चक्र मे रथ नही चलता, अकेला अन्धा अकेला पंगु इच्छित साध्य तक नहीं पहुंचतं, वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती, वरन् दोनों के सहयोग से मुक्ति होती हैं। भगवतीमूत्र में ज्ञान और क्रिया में से किसी एक को स्वीकार करने की विचारणा को मिथ्या विचारणा कहा गया है। महावीर ने माधक की दृष्टि से ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध की एक चतुर्भगी का कथन इसी संदर्भ में किया है १. कुछ व्यक्ति जान गम्पन्न है, लेकिन चारित्र-सम्पन्न नहीं हैं । २. कुछ व्यक्ति चारित्र मम्पन्न है, लेकिन ज्ञान-सम्पन्न नही हैं । ३. कुछ व्यक्ति न ज्ञान सम्पन्न है, न चारित्र सम्पन्न है । ४. कुछ व्यक्ति ज्ञान सम्पन्न भी है और चारित्र-सम्पन्न भी हैं । महावीर ने इनमें मे सच्चा माधक उमे ही कहा जो ज्ञान और क्रिया, श्रुत और शील दोनों से सम्पन्न है। इमी को स्पष्ट करने के लिए एक निम्न रूपक भी दिया जाता है१. कुछ मुद्रायें ऐसी होती है जिनमें धातु भी खोटी है मुद्रांकन भी ठीक नहीं है । २. कुछ मुद्राएं ऐसी होती है जिनमे धातु तो गद्ध है लेकिन मुद्रांकन ठीक नहीं है। ३. कुछ मुद्राएँ ऐमी है जिनमे बातु अशुद्ध है लेकिन मुद्रांकन ठीक है । ४. कुछ मुद्राएँ ऐमी हैं जिनमे धातु भी शुद्ध है और मुद्रांकन भी ठीक है। १. आवश्यकनियुक्ति, ९५-९७ २. वही, ११५१-५४ ३. वही, १०० ४. वही १०१-१०२ ५. भगवतीसूत्र ८।१०।४१ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिविध साधना - मार्ग ३३ बाजार में वही मुद्रा ग्राह्य होती है जिसमे धातु भी शुद्ध होती है और मुद्रांकन भी ठीक होता है । इसी प्रकार मच्चा साधक वही होता है जो ज्ञान - सम्पन्न भी हो और चारित्र सम्पन्न भी हो। इस प्रकार जैन विचारणा यह बताती है कि ज्ञान और क्रिया दोनों ही नैतिक साधना के लिए आवश्यक है। ज्ञान और चारित्र दोनों की समवेतसाधना से ही दुःख का क्षय होता है । क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों ही एकान्त है और एकान्त होने के कारण जैन दर्शन की अनेकान्तवादी विचारणा के अनुकूल नही है । वैदिक परम्परा में ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मुक्ति - जैन- परम्परा के समान वैदिक परम्परा में भी ज्ञान और क्रिया दोनो के समन्वय मे ही मुक्ति की सम्भावना मानी गयी है । नृसिंहपुराण में भी आवश्यकनियुक्ति के समान सुन्दर रूपको के द्वारा इसे सिद्ध किया गया है। कहा गया है कि जैसे रथहीन अश्व और अश्वहीन रथ अनुपयोगी है वैसे ही विद्या - विहीन तप और तप-विहीन विद्या निरर्थक हैं । जैसे दो पंखों के कारण पक्षी की गति होती हे वैसे ही ज्ञान और कर्म दोनो के सहयोग से मुक्ति होती है ।' क्रियाविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन क्रिया दोनों निरर्थक है । यद्यपि गीता ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा दोनों को ही स्वतन्त्र रूप से मुक्ति का मार्ग बताती है । गीता के अनुसार व्यक्ति ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग तोनो में में किसी एक द्वारा भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है, जब कि जैन परम्परा में इनके गमवेत में ही मुक्ति मानी गयी है । बौद्ध-विचारणा में प्रज्ञा और शोल का सम्बन्ध - जैन-दर्शन के समान बौद्ध दर्शन भी न केवल ज्ञान (प्रज्ञा) की उपादेयता स्वीकार करता है और न केवल आचरण की । उसकी दृष्टि मे भी ज्ञानशून्य आचरण और क्रियाशून्य ज्ञान निर्वाण मार्ग मे सहायक नही है । उसने सम्यग्दृष्टि और सम्यक्स्मृति के साथ ही मम्यक् वाचा, सम्यक् - आजीव और सम्यक् कर्मान्त को स्वीकार कर इसी तथ्य की पुष्टि की है कि प्रज्ञा और शोल के समन्वय मे ही मुक्ति है । बुद्ध ने क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों को अपूर्ण माना है । जातक में कहा गया है कि आचरणरहित श्रुत से कोई अर्थ सिद्ध नही होता । दूसरी ओर बुद्ध की दृष्टि में नतिक आचरण अथवा कर्म चिन की एकाग्रता के लिए है । वे एक साधन है और इसलिए परमसाध्य नही हो सकने । मात्र शीलव्रत परामर्श अथवा ज्ञानशून्य क्रियाएँ बौद्ध साधना का लक्ष्य नहीं है, प्रज्ञा की प्राप्ति ही एक ऐसा तथ्य है, जिससे नैतिक आचरण बनता है। डा० टी० आर० व्ही० मूर्ति ने शान्तिदेव की बोधिचर्यावतार की पंजिका एवं अष्टमहस्रिका में भी इस कथन की पुष्टि के लिए पृ० १. नृसिंहपुराण, ६१।९. । ११ २. उद्धृत दी क्वेस्ट आफ्टर परफेकान, ६३ ३. जातक, ५।३७३।१२७ ३ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग प्रमाण उपस्थित किये हैं। बौद्ध-विचारणा में शील और प्रज्ञा दोनों का समान रूप से महत्व स्वीकार किया गया है। सुत्तपिटक के ग्रन्ध थेरगाथा में कहा गया है-"संसार में शील ही श्रेष्ठ है, प्रज्ञा ही उत्तम है । मनुष्यों और देवों में शील और प्रज्ञा से ही वास्तविक विजय होती है। भगवान् बुद्ध ने शील और प्रज्ञा में एक सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है। दीघनिकाय में कहा है कि शील से प्रज्ञा प्रक्षालित होती है और प्रज्ञा ( शान ) से शील ( चारित्र) प्रक्षालित होता है । जहां शील है वहाँ प्रज्ञा है और जहाँ प्रज्ञा है वहाँ शील है। इस प्रकार बुद्ध की दृष्टि में शीलविहीन प्रज्ञा और प्रज्ञाविहीन शील दोनों ही असम्यक् हैं। जो ज्ञान और आचरण दोनों में ममन्वित हैं, वही सब देवताओं और मनुष्यों में श्रेष्ठ है। आचरण के द्वारा ही प्रज्ञा की शोभा बढ़ती है। इस प्रकार बुद्ध भी प्रज्ञा और शील के समन्वय में निर्वाण की उपलब्धि संभव मानते हैं। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन शील पर और परवर्ती बौद्ध दर्शन प्रज्ञा पर अधिक बल देता रहा है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार-जैन परम्परा में माधन-त्रय के समवेत में ही मोक्ष की निष्पत्ति मानी गई है। वैदिक परम्परा में ज्ञान-निष्ठा, कर्मनिष्ठा और भक्तिमार्ग ये तीनों ही अलग-अलग मोक्ष के माधन माने जाते रहे हैं और इन आधारों पर वैदिक परम्परा में स्वतन्त्र सम्प्रदायों का उदय भी हुआ है। वैदिक परम्परा में प्रारम्भ से ही कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग की धाराएँ अलग अलग रूप में प्रवाहित होती रही है । भागवत सम्प्रदाय के उदय के साथ भक्तिमार्ग एक नई निष्ठा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। इस प्रकार वेदों का कर्ममार्ग, उपनिषदों का ज्ञानमार्ग और भागवत सम्प्रदाय का भक्तिमार्ग तथा इनके साथ साथ ही योगसम्प्रदाय का ध्यान-मार्ग सभी एक-दूसरे से स्वतन्त्र रूप में मोक्षमार्ग समझे जाते रहे हैं । सम्भवतः गीता एक ऐसी रचना अवश्य है जो इन सभी साधना विधियों को स्वीकार करती है। यद्यपि गीताकार ने इन विभिन्न धाराओं को समेटने का प्रयत्न तो किया, लेकिन वह उनको समन्वित नहीं कर पाया यही कारण था कि परवर्ती टोकाकारों ने अपने पूर्व-संस्कारों के कारण गीता को इनमें से किसी एक साधना-मार्ग का प्रतिपादक बताने का प्रयास किया और गीता में निर्देशित साधना के दूसरे मार्गों को गौण बताया। शंकर ने ज्ञान को, रामानुज ने भक्ति को, तिलक ने कर्म को गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय माना । लेकिन जैन-विचारकों ने इस विविध साधना-पथ को समवेत रूप में ही मोक्ष का १. दो सेन्ट्रल फिलासफी आफ बुद्धिज्म, पृ० ३०-३१ २. थेरगाथा, १७०३. दीघनिकाय, १।४।४ ४. मज्झिमनिकाय, २०३५ ५. अंगुत्तरनिकाय तीसरा निपात पृ० १०४ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध साधना-मार्ग ३५ कारण माना और यह बताया कि ये तीनों एक-दूसरे से अलग होकर नहीं, वरन् समवेत रूप में ही मोक्ष को प्राप्त करा सकते हैं । उसने तीनों को समान माना और उनमें से किसी को भी एक के अधीन बनाने का प्रयास नहीं किया। हमें इस भ्रांति से बचना होगा कि श्रद्धा, ज्ञान और आचरण ये स्वतन्त्ररूप में नैतिक पूर्णता के मार्ग हो सकते हैं । मानबीय व्यक्तित्व और नैतिकसाध्य एक पूर्णता है और उसे समवेत रूप में ही पाया जा सकता है । बौद्ध परम्परा और जैन परम्परा दोनों ही एकांगी दृष्टिकोण नहीं रखते हैं । बौद्धपरम्परा में भी शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा प्रज्ञा, श्रद्धा और वीर्य को समवेत रूप में ही निर्वाण का कारण माना गया है। इस प्रकार बौद्ध और जैन परम्पराएँ न केवल अपने साधन मार्ग के प्रतिपादन में वरन् साधन-त्रय के बलाबल के विषय भी समान दृष्टिकोण रखती हैं । वस्तुतः नैतिक साध्य का स्वरूप और मानवीय प्रकृति, दोनों ही यह बताते हैं कि त्रिविध साधना - मार्ग अपने समवेत रूप में ही नैतिक पूर्णता की प्राप्ति करा सकता है । यहाँ इम त्रिविध साधना पथ का मानवीय प्रकृति और नैतिक साध्य से क्या सम्बन्ध है इसे स्पष्ट कर लेना उपयुक्त होगा । मानवीय प्रकृति और त्रिविध साधना पथ - मानवीय चेतना के तीन कार्य हैं१. जानना; २. अनुभव करना और ३. संकल्प करना । हमारी चेतना का ज्ञानात्मक पक्ष न केवल जानना चाहता है, वरन् वह सत्य को ही जानना चाहता है । ज्ञानात्मक चेतना निरन्तर सत्य की खोज में रहती है । अतः जिस विधि से हमारी ज्ञानात्मक श्वेतना सत्य को उपलब्ध कर सके उसे हो सम्यक् ज्ञान कहा गया है । सम्यक् ज्ञान चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष को सत्य की उपलब्धि की दिशा में ले जाता है । चेतना का दूसरा पक्ष अनुभूति के रूप में आनन्द की खोज करता है । सम्यग्दर्शन चेतना में राग-द्वेषात्मक जो तनाव हैं, उन्हें समाप्त कर उमे आनन्द प्रदान करता है । चेतना का तीसरा संकल्पनात्मक पक्ष शक्ति की उपलब्धि और कल्याण की क्रियान्वित चाहता है । सम्यक् चारित्र संकल्प को कल्याण के मार्ग में नियोजित कर शिव को उपलब्धि करता हैं। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र का यह त्रिविध साधना-पथ चेतना के तीनों पक्षों को सही दिशा में निर्देशित कर उनके वांछित लक्ष्य सत्, सुन्दर और शिव अथवा अनन्त ज्ञान, आनन्द और शक्ति की उपलब्धि कराता है। वस्तुतः जीवन के साध्य को उपलब्ध करा देना ही इस त्रिविध माधना पथ का कार्य है। जीवन का साध्य अनन्त एवं पूर्ण ज्ञान, अक्षय आनन्द और अनन्त शक्ति की उपलब्धि है, जिसे त्रिविध साधना - पथ के तीनों अंगों के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष को सम्यक्ज्ञान को दिशा में नियोजित कर ज्ञान की पूर्णता को, चेतना के भावात्मक पक्ष को सम्यग्दर्शन में नियोजित कर अक्षय आनन्द की और चेतना के संकल्पात्मक पक्ष को Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बोड और गीता का सामना मार्ग सम्यक्चारित्र में नियोजित कर अनन्त शक्ति की उपलब्धि की जा सकती है। वस्तुतः जैन आचार-दर्शन में साध्य, साधक और माधना-पथ तीनों में अभेद माना गया है। ज्ञान, अनुभूति और संकल्पमय चेतना साधक है और यही चेतना के तीनों पक्ष सम्यक दिशा में नियोजित होने पर साधना-पथ कहलाते हैं और इन तीनों पक्षों को पूर्णता ही साध्य है । साधक, साध्य और साधना-पथ भिन्न-भिन्न नहीं, वरन् चेतना की विभिन्न अवस्थाएं हैं। उनमें अभेद माना गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में और आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में इस अभेद को अत्यन्त मार्मिक शब्दों में स्पष्ट किया है । आचार्य कुन्दकुन्द समयमार में कहते हैं कि यह आत्मा ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र है।' आचार्य हेमचन्द्र इमी अभेद को स्पष्ट करते हुए योगशास्त्र में कहते हैं कि आत्मा ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र है, क्योंकि आत्मा इसी रूप में शरीर में स्थित है । आचार्य ने यह कहकर कि आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रूप में शरीर में स्थित है, मानवीय मनोवैज्ञानिक प्रकृति को ही स्पष्ट किया है । ज्ञान, चेतना और संकल्प तीनों सम्यक् होकर साधना-पथ का निर्माण कर देते हैं और यही पूर्ण होकर साध्य बन जाते हैं। इस प्रकार जैन आचार-दर्शन में साधक, साधना-पथ और साध्य में अभेद है। मानवीय चेतना के उपर्युक्त तीनों पक्ष जब सम्यक् दिशा में नियोजित होते हैं तो वे साधना-मार्ग कहे जाते हैं और जब वे असम्यक् दिशा में या गलत दिशा में नियोजित होते हैं तो बन्धन या पतन के कारण बन जाते हैं । इन तीनों पक्षों की गलत दिशा में गति ही मिथ्यात्व और मही दिशा में गति सम्यक्त्व कही जाती है । वस्तुतः सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए मिथ्यात्व (अविद्या) का विसर्जन आवश्यक है। क्योंकि मिथ्यात्व ही अनैतिकता या दुराचार का मूल है । मिथ्यात्व का आवरण हटने पर सम्यक्त्व रूपी मूर्य का प्रकाश होता है। १. समयसार, २७७ २. योगशास्त्र, ४१ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्या ( मिथ्यात्व) जैनागमों मे अज्ञान और अयथार्थ ज्ञान दोनों के लिा. 'मिथ्यात्व' शब्द का प्रयोग हुआ है । यही नहीं, कुछ सन्दर्भो में अज्ञान, अयथार्थ ज्ञान, मिथ्यात्व और मोह ममान अर्थ में भी प्रयुक्त हुए है। यहां अज्ञान शब्द का प्रयोग एक विस्तत अर्थ में किया जा रहा है जिसमे उक्त शब्दों का अर्थ भी निहित है । नैतिक दृष्टि से अज्ञान नैतिक आदर्श के यथार्थ ज्ञान के अभाव और शुभाशुभ विवेक की कमी को व्यक्त करता है। जब तक मनुष्य को स्व-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नही होता-अर्थात् मै क्या है, मेग आदर्श क्या है, या मुझे क्या प्राप्त करना है ? तब तक वह नैतिक जीवन में प्रविष्ट नही हो गकता। जैन विचारक कहते है कि जो आत्मा को नही जानता, जड पदार्थो को नही जानता, वह संयम का कैसे पालन ( नैतिक साधना ) करेगा?" __ ऋषिभाषितसूत्र मे तरुण साधक अर्हत् ऋषि गायापतिपत्र कहते है-अज्ञान ही बहुत बड़ा दुख है । अज्ञान मे ही भय ( दुःख ) का जन्म होता है, गमस्त दहयारियों के लिए भव-परम्परा का मूल विविधरूपों में व्याप्त अज्ञान ही है। जन्म, जग और मृत्यु, शोक, मान और अपमान गभी जीवात्मा के अज्ञान मे उत्पन्न हुए है। मंमार का प्रवाह ( संतति ) अज्ञानमूलक है । भारतीय नैतिक चिन्तन में मात्र कमों की शुभाशुभता पर ही विचार नही किया गया, वरन् शुभाशुभ कर्मों का कारण जानने का भी प्रयास किया गया है। क्यों एक व्यक्ति अशुभ कृत्यों को ओर प्रेरित होता है और क्यों दूमग व्यक्ति शुभकृत्यो की ओर प्रेरित होता है ? गीता मे अर्जुन यह प्रश्न उठाता है कि हे कृष्ण, नही चाहने हुए भी किसकी प्रेरणा से प्रेरित हो यह पुरुप पाप-कर्म मे नियोजित होता है।' ___ जैन-दर्शन के अनुमार इसका उत्तर यह है कि मिथ्यात्व ही अशुभ की ओर प्रवृत्ति करने का कारण है। बुद्ध का भी कहना है कि मिथ्यात्व ही अशुभाचरण और सम्यक दृष्टि ही सदाचरण का कारण है ।" गीता कहती है कि रजोगुण में समुद्भव काम ही ज्ञान को आवृत्तकर व्यक्ति को बलात् पाप-कर्म की ओर प्रेरित करता है । इस प्रकार १. दशवकालिक, ४।१२ २. इसिभासियाईमुन, गहावइज्जं नामज्झयणं ३. गीता, ३६३६ ४. इमिभामियाइंसुत्त, २१॥३ ५. अंगुत्तरनिकाय, १३१७ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौख और गीता का सामना माग बोट, जैन और गीता के तीनों आचार-दर्शन इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति का कारण मिथ्या दृष्टिकोण है । मिथ्यात्व का अर्थ-जैन-विचारकों की दृष्टि मे वस्तुतत्त्व का अपने यथार्थ स्वरूप में बोध न होना ही मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व लक्ष्य-विमुखता है, तत्त्वरुचि का अभाव है अथवा सत्य क प्रति जिज्ञामा या अभीप्सा का अभाव है। बुद्ध ने अविद्या को वह स्थिति माना है जिसके कारण व्यक्ति परमार्थ को सम्यक् रूप से नही जान पाता। बुद्ध कहते हैं, आस्वाद दोप और मोक्ष को यथार्थतः नही जानता है यही अविद्या है।' मिथ्या स्वभाव को स्पष्ट करते हा बुद्ध कहते है, जो मिथ्यादृष्टि है-मिथ्यासमाधि है-इसीको मिथ्या स्वभाव कहते है। मिथ्यात्व एक ऐमा दृष्टिकोण है जो सत्य की दिशा मे विमुख है। संक्षेप में मिथ्यात्व अमत्याभिरुचि है, गग और द्वेप के कारण दृष्टिकोण का विकृत हो जाना है । जन-र्शन में मिथ्यात्व के प्रकार-आचार्य पूज्यपाद ने मिथ्यात्व को उत्पत्ति की दृष्टि से दो प्रकार का बताया है-१. नैसर्गिक ( अनजित ) अर्थात् मोहकर्म के उदय से होने वाला तथा २. परोपदेश पूर्वक अर्थात् मिथ्याधारणा वाले लोगों के उपदेश से स्वीकार किया जाने वाला। यह अजित मिथ्यात्व चार प्रकार का है-(अ) क्रियावादी-आत्मा को कर्ता पानना, (ब) अक्रियावादी-आत्मा को अकर्ता मानना, (स) अज्ञानी-मत्य की प्राप्ति को मंभव नही मानना, (द) वैनयिक-गढ़ परम्पराओं को स्वीकार करना । स्वरूप की दृष्टि से जैनागमों में मिथ्यात्व के पाच प्रकार भी वर्णित है १. एकान्त-जैन तन्वज्ञान में वस्तृतन्व अनन्तधर्मात्मक माना गया है। उममे मात्र अनन्त गुण ही नही होने है वरन् गुणों के विरोधी युगल भी होते हैं। अतः वस्तुतत्त्व का एकांगी ज्ञान पूर्ण सत्य को प्रकट नहीं करता। वह आंशिक सत्य होता है, पूर्ण सत्य नही । आंशिक मत्य जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो वह मिथ्यात्व हो जाता है । न केवल जैन-विचारणा, वरन् बौद्ध-विचारणा में भी ऐकान्तिक ज्ञान को मिथ्या कहा गया है । बुद्ध कहते है-'भारद्वाज ! सन्यानुरक्षक विज्ञ पुरुष को एकांश से यह निष्ठा करना योग्य नही है कि यही सत्य है और बाकी सब मिथ्या है ।' बुद्ध इस सारे कथन में इसी बात पर जोर देते है कि सापेक्ष कथन के रूप मे ही सत्यानुरक्षण होता है, अन्य प्रकार से नही ।' उदान में भी कहा है कि जो एकांतदर्शी हैं वे ही विवाद करते हैं। १. संयुत्तनिकाय, २१।३।३।८ २. वही, ४३।३।१ ३. तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धिटीका ( पूज्यपाद ), ८१ ४. मजिसमनिकाय चंकिसुत्त २।५।५ पृ० ४०० ५. उदान, ६।४ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविया (मिव्यात्व) २. विपरीत-वस्तुतत्त्व को स्वरूप में ग्रहण न कर विपरीत रूप में ग्रहण करना भी मिथ्यात्व है। प्रश्न हो सकता है कि जब वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है और उसमें विरोधी धर्म भी है तो मामान्य व्यक्ति, जिसका ज्ञान अगग्राही है, इस विपरीत ग्रहण के दोष से कैसे बच सकता है, क्योंकि उसने वस्तुतत्त्व के जिस पक्ष को ग्रहण किया उसका विरोधी धर्म भी उममें उपस्थित है अतः उसका ममस्त ग्रहण विपरीत ही होगा! इस विचार मे भ्रान्ति यह है कि यद्यपि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, लेकिन यह तो सामान्य कथन है। एक अपेक्षा से वस्तु मे दो विरोधी धर्म नही होते, एक हो अपेक्षा मे आत्मा को नित्य और अनित्य नही माना जाता है। आत्मा द्रव्यार्थिक दृष्टि से नित्य है तो पर्यायाथिक दृष्टि से अनित्य है, अतः आत्मा को पर्यायार्थिक दृष्टि से भी नित्य मानना विपरीत ग्रहण रूप मिथ्यात्व है। बुद्ध ने भी विपरीत ग्रहण को मिथ्यादृष्टित्व माना है और विभिन्न प्रकार के विपरीत ग्रहणों को स्पष्ट किया है ।' गीता में भी विपरीत ग्रहण को अज्ञान कहा गया है । अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म के रूप मे मानने वाली बुद्धि को गीता में तामम कहा गया है (गीता, १८।३२) ___३. अनयिक-बिना बौद्धिक गवेषणा के परम्परागत तथ्यों, धारणाओं, नियमोपनियमों को स्वीकार कर लेना बैनयिक मिथ्यात्व है। यह एक प्रकार की रूढिवादिता है । वैनयिक मिथ्यात्व को बौद्ध दृष्टि से शीलव्रत-पगमर्श भी कहा जा सकता है । इमे हम कर्मकाण्डी मनोवृत्ति भी कह मकत है। गीता में इग प्रकार के रूढ़-व्यवहार की निन्दा की गयी है। गीता कहती है ऐसी क्रियाएँ जन्म-मरण को बढ़ानेवाली और त्रिगुणात्मक होती है । ४. संशय-मंशयावस्था को भी जैन-विचारणा मे मिथ्यात्व या अयथार्थता माना गया है । यद्यपि जैन-दार्शनिकों की दृष्टि में मशय को नैतिक विकाम की दृष्टि में अनुपादेय माना गया है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन-विचारको ने मशय को इस कोटि में रखकर उसके मूल्य को भूला दिया है। जैन-विचारक भी आज के वैज्ञानिकों की तरह संशय को ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते है । जैनागम आचारागसूत्र में कहा गया है, जो संशय को जानता है वही मंमार के स्वरूप का परिज्ञाता होता है, जो संशय को नहीं जानता वह मंमार के स्वरूप का भी परिज्ञाता नहीं हो सकता है।' लेकिन साधनामय जीवन मे संशय से ऊपर उठना होता है । आचार्य आत्मारामजी आचारांगमूत्र को टीका में लिखते हैं, संशय ज्ञान कगने में महायक है, परन्तु यदि वह जिज्ञासा को सरल भावना का परित्याग करके केवल मंदेह करने की कुटिल वृत्ति अपनाता है तो वह पतन का कारण बन जाता है । संशय वह स्थिति है जिसमें प्राणी सत् १. अंगुत्तरनिकाय, ११११ २. गीता, २।४२-४५ ३. आचारांग, १।५।१।१४४ ४. आचारांग-हिन्दीटीका, प्रथम भाग, पृ० ४०९ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौड और गीता का सापना मार्ग और असत् को कोई निश्चित धारणा नही रखता । यह अनिर्णय को अवस्था है । सांशयिक ज्ञान मत्य होते हुए भी मिथ्या है । नैतिक दृष्टि मे ऐमा साधक कब पथ-भ्रष्ट हो सकता है, कहा नहीं जा सकता। वह तो लक्ष्योन्मुयता और लक्ष्यविमुखता के मध्य हिंडोले की भाति झूलता हुआ अपना समय व्यर्थ गॅवाता है । गीता भी यही कहती है कि संशय की अवस्था मे लक्ष्य प्राप्त नही होता। मगयो आत्मा विनाश को ही प्राप्त होता है।' ५. अज्ञान-जन विचारकों ने अज्ञान को पूर्वाग्रह, विपरीत-ग्रहण, संशय और ऐकान्तिक ज्ञान मे पथक गाना है । उपर्यक्त चागे मिथ्यात्व के विधायक पक्ष कहे जा सकते है । क्योकि इनमें ज्ञान तो उपस्थित है, लेकिन वह अयथार्थ है । इनमे ज्ञानाभाव नही, वग्न् ज्ञान की अयथार्थता है जबकि अज्ञान ज्ञानाभाव है । अतः वह मिथ्यात्व का निषेधात्मक पक्ष प्रस्तुत करता है। ज्ञान नैतिक-माधन का मब से अधिक बाधक तत्त्व है, क्योंकि ज्ञानाभाव मे व्यक्ति को अपने लक्ष्य का भान नही हो सकता है, न वह कर्तव्याकर्तव्य का विचार कर मकता है। शभाशुभ में विवेक करने की क्षमता का अभाव अज्ञान ही है । ऐसे अज्ञान की अवस्था में नैतिक आचरण मभव नही होता। मिथ्यात्व के २५ भेव--मिथ्यात्व के २५ भेदों का उल्लेख प्रतिक्रमणमूत्र मे है जिममे मे १० भेदो का उल्लेख स्थानागमूत्र मे ह, शेष मिथ्यात्व के भेदो का वर्णन मूलागम ग्रन्थो में यत्रतत्र बिखग हुआ मिलता है । ये २५ भेद इस प्रकार है (१) धर्म को अधर्म ममझना, (-) अपर्म को धर्म ममाना, (३) संसार (बधन) के मार्ग को मक्ति का मार्ग ममझना (6) मक्ति के मार्ग को बन्धन का मार्ग ममझना, (५) जड पदार्थो को चेतन ( जीव ) ममझना (६) जात्मतत्त्व (जीव) को जड पदार्थ (अजीव) समझना, (७) असम्यक् जाचरण करनेवालो को साधु समझना (८) सम्यक् आचरण करनेवाले को अमाघ ममझना, (२) मक्तात्मा को बद्ध मानना, (१०) गग-द्वेष से युक्त को मुक्त समझना ।२ (११) आभिग्रहिक मिथ्यात्व-परम्परागत रूप में प्राप्त धारणाओं को बिना समीक्षा के अपना लेना अथवा उममे जकडे रहना । (१२) अनाभिअहिक मिथ्यात्व-सत्य को जानते हुए भी उमे स्वीकार नही करना अथवा सभी मतों को समान मूल्य का समझना। (१३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व-अभिमान की रक्षा के निमित्त असत्य मान्यता को हठपूर्वक पकडे रहना। (१४) मांशयिक मिथ्यात्व-संशय प्रस्त बने रहकर सत्य का निश्चय नही कर पाना। (१५) अनाभोग मिथ्यात्व-विवेक अथवा ज्ञान क्षमता का अभाव । (१६) लौकिक मिथ्यात्व-लोक रूढ़ि मे अविचार पूर्वक बंधे रहना । (१७) लोकात्तर मिथ्यात्व-पारलौकिक उपलब्धियो के निमित्त स्वार्थवश धर्म-माधना करना । (१८) कुप्रवचन मिथ्यात्व-मिथ्या दार्शनिक विचारणाओं को ग्रहण करना । (१९) न्यून मिथ्यात्व-पूर्ण सत्य को आशिक सत्य अथवा तत्त्व स्वरूप १. गीता ४।४० २. स्थानाग १०, तुलना कीजिए-अंगुत्तरनिकाय, १११०-१२ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पषित (मिमात्य) को अंशतः अथवा न्यून मानना । (२०) अधिक मिथ्यात्व-आंशिक सत्य को उससे अधिक अथवा पूर्ण सत्य समझ लेना । (२१) विपरीत मिथ्यात्व-वस्तु तत्त्व को उसके विपरीत रूप में समझना । (२२) अक्रिया मिथ्यात्व-आत्मा को ऐकान्तिक रूप से अक्रिय मानना अथवा ज्ञान को महत्त्व देकर आचरण के प्रति उपेक्षा रखना । (२३) अज्ञान मिथ्यात्व-ज्ञान अथवा विवेक का अभाव । (२४) अविनय मिथ्यात्वपूज्य वर्ग के प्रति समुचित सम्मान प्रकट न करना अथवा उनकी आज्ञाओं का परिपालन न करना । (२५) आशानता मिथ्यात्व-पूज्य वर्ग की निन्दा और आलोचना करना । ___ अविनय और आशातना को मिथ्यात इमलिए कहा गया कि इनकी उपस्थिति से व्यक्ति गुरुजनों का यथोचित सम्मान नही करता है और फलस्वरूप उनमे मिलने वाले यथार्थ बोध से वंचित रहता है । बौख-शन में मिथ्यात्व के प्रकार-भगवान् बुद्ध ने गद्धमं की विनाशक कुछ धारणाओं का विवेचन अगुत्तरनिकाय में किया है जो कि जैन विचारणा के मिथ्यात्व की धारणा के बहुत निकट है । तुलना के लिए यहा उनकी संक्षिप्त गूची प्रस्तुत की जा रही है जिसके आधार पर यह जाना जा सके कि दोनों विचार-परम्पराओं में कितना अधिक साम्य है। १. धर्म को अधर्म बताना, २. अधर्म को धर्म बताना, ३. भिक्ष अनियम (अविनय) को भिक्षुनियम (विनय) बताना, ४. भिक्षु नियम को अनियम बनाना, ५. तथागत (बुद्ध) द्वाग अभापित को तथागत भापित कहना, ६ थागत द्वारा भापित को अभाषित कहना, ७. तथागत द्वारा अनाचरित को आचरित रहना । तथागत द्वाग आचरित को अनाचरित कहना, ९ तथागत द्वारा नही बनाये हुए (अप्रज्ञान) नियम को प्रज्ञप्त कहना, १०. तथागत द्वारा प्रज्ञप्त (बनाये हुए नियम) को अप्रजप्न बताना, ११. अनपराध को अपराध कहना, १२. अपराध को अनपराध कहना, १३. लघ अपराध को गुरु अपराध कहना, १४. गुरु अपगध को लघु अपगध कहना, १. गम्भीर अपगध को अगम्भीर कहना, १६. अगम्भीर अपराध को गम्भीर कहना, १७ निविशेष अपगध को सविशेष कहना, १८. मविशेष अपराध को निर्विशेष कहना, १९. प्रायश्चित्त योग्य (सप्रतिकर्म ) आपत्ति को प्रायश्चित्त के अयोग्य कहना, २०. प्रायश्चित्त के अयोग्य (अप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित्त के योग्य (मप्रतिकर्म) कहना। गीता में अज्ञान-गीता के मोह, अज्ञान या तामग ज्ञान ही मिथ्यात्व कहे जा सकते है। इस आधार पर गीता मे मिथ्यात्व का निम्न स्वम्प उपलब्ध होता है१. परमात्मा लोक का मर्जन करने वाला, कर्म का कर्ता एवं कर्मों के फल का संयोग करनेवाला है अथवा वह किमी के पाप-पुण्य को ग्रहण करता है, यह मानना अज्ञान है (५-१४-१५) । २. प्रमाद, आलस्य और निद्रा अज्ञान है (१४-८)। ३. धन, परिवार १. अंगुत्तरनिकाय, १३१०-१२ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन, बौड और गीता का साधना मार्ग एवं दान का अहंकार करना अज्ञान है (१६-१५) ४. विपरीत ज्ञान के द्वारा क्षणभंगर या नाशवान शरीर में आत्मबुद्धि रखना तामसिक ज्ञान है (१८-२२)। इसी प्रकार असद् का ग्रहण, अशुभ आचरण (१६-१०) और संशयात्मकता को भी गीता में अज्ञान कहा गया है। पाश्चात्य दर्शन में मिथ्यात्व का प्रत्यय-मिथ्यात्व यथार्थता के बोध में बाधक तत्त्व है। वह एक ऐमा रंगीन चश्मा है जो वस्तुतत्त्व का अयथार्थ अथवा भ्रान्त रूप ही प्रकट करता है। भारत के ही नही, पाश्चात्त्य विचारकों ने भी सत्य के जिज्ञासु को मिथ्या शरणाओं से परे रहने का संकेत किया है । पाश्चात्य दर्शन के नवयुग के प्रतिनिधि फ्रांसिस बेकन शुद्ध और निर्दोष ज्ञान की प्राप्ति के लिए मानस को निम्न चार मिथ्या धारणाओ से मुक्त रखने का निर्देश करते है । चार मिथ्या धारणाएं ये है १. जातिगत मिथ्या धारणाएं ( Idola Tibius )-सामाजिक संस्कारा से प्राप्त मिथ्या धारणाएँ। २. व्यक्तिगत मिथ्या विश्वास ( Idola Specus ) व्यक्ति के द्वारा बनाई गई मिथ्या धारणाएं (पूर्वाग्रह) । ३. बाबास मिया विश्वास ( Idola Fori ) असंगत अर्थ आदि । ४. रंगमंच की भ्रान्ति ( Idola Theatri )-मिथ्या सिद्धांत या मान्यताएँ। वे कहते है इन मिथ्या विश्वासो (पूर्वाग्रहों) से मानस को मुक्त कर ही ज्ञान को यथार्थ और निर्दोष रूप मे ग्रहण करना चाहिए। जैन-वर्शन में अविद्या का स्वरूप-जैन-दर्शन में अविद्या का पर्यायवाची शब्द 'मोह' भी है । मोह सत् के संबंध मे यथार्थ दृष्टि को विकृत कर गलत मार्ग-दर्शन करता है और असम्यक् आचरण के लिए प्रेरित करता है। परमार्थ और मत्य के सबंध मे जो अनेक भ्रान्त धारणाएँ बनती है और परिणामतः जो दुराचरण होता है उसका आधार मोह ही है । मिथ्यात्व, मोह या अविद्या के कारण व्यक्ति की दृष्टि दूषित होती है और परममूल्यों के संबंध मे भ्रान्त धारणाएँ बन जाती है । वह उन्हें ही परममूल्य मान लेता है, जो कि वस्तुतः परममूल्य या सर्वोच्च मूल्य नहीं होते है। ___अविद्या और विद्या का अन्तर करते हुए समयसार मे आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो पुरुष अपने से अन्य पर-द्रव्य (सचित्त-स्त्रीपुत्रादि, अचित्त-स्वर्णरजतादि, मिश्र-ग्रामनगरादि) को ऐसा समझे कि 'मेरे है, ये मेरे पूर्व में थे इनका मैं भी पहले था तथा ये मेरे आगामी होंगे, मैं भी इनका आगामी होऊंगा' ऐसा झूठा आत्मविकल्प करता है वह मूढ है और जो पुरुष परमार्थ को जानता हुआ ऐसा झूठा विकल्प नहीं करता वह मूढ़ नहीं है, ज्ञानी है ।। १. हिस्ट्री आफ फिलासफी (थिली), पृ० २८७ २. समयसार, २०, २१, २२, तु० गीता १६३१३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्या (मियात्य) ४३ जैन-दर्शन में अविद्या या मिध्यात्व केवल आत्मनिष्ठ ( Subjective) ही नहीं है, वरन् वह वस्तुनिष्ठ भी है। जैन दर्शन मे मिथ्यात्व का अर्थ है - ज्ञान का अभाव या विपरीत ज्ञान । उसमें एकांत या निरपेक्ष दृष्टि को भी मिथ्यात्व कहा गया है । तत्त्व का सापेक्ष ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है और ऐकातिक दृष्टिकोण मिथ्याज्ञान है । दूसरे, जैनदर्शन मे अकेला मिथ्यात्व ही बन्धन का कारण नही है । बन्धन का प्रमुख कारण होते हुए भी वह सर्वस्व नही है । मिथ्यादर्शन के कारण ज्ञान दूषित होता है और ज्ञान के दूषित होने से चारित्र दूषित होता है । इस प्रकार मिथ्यात्व अनैतिक जीवन का प्रारम्भिक बिन्दु है और अनैतिक आचरण उसकी अन्तिम परिणति है । नैतिक जीवन के लिए मिथ्यात्व से मुक्त होना आवश्यक है, क्योकि जब तक दृष्टि दूषित है ज्ञान भी दूषित होगा और जब तक ज्ञान दूषित है तब तक आचरण भी गम्यक् या नैतिक नही हो सकता । नैतिक जीवन की प्रगति के लिए प्रथम शर्त हे मिथ्यात्व से मुक्त होना । जैन- दार्शनिकों की दृष्टि मे मिथ्यात्व की पूर्व -कोटि का पता नही लगाया जा सकता, यद्यपि वह अनादि है किन्तु वह अनन्त नही । जैन दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली मे कहे तो भव्य जीवो की अपेक्षा से मिथ्यात्व अनादि और मान्त है और अभव्य जीवों की अपेक्षा से वह अनादि और अनन्त है । आत्मा पर अविद्या या मिथ्यात्व का आवरण कबसे है, इसका पता नही लगाया जा सकता, यद्यपि अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति पायी जा सकती है। जैन दर्शन मे मिथ्यात्व का मूल 'कर्म' और 'कर्म' का मूल मिथ्यात्व है । एक ओर मिथ्यात्व का कारण अनैतिकता है तो दूसरी ओर अनैतिकता का कारण मिथ्यात्व है । इसी प्रकार सम्यक्त्व का कारण नैतिकता और नैतिक का कारण सम्यक्त्व है । नैतिक आचरण के परिणामस्वरूप सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण का उद्भव होता है । सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण के कारण नैतिक आचरण होता है । बौद्ध दर्शन में अविद्या का स्वरूप - बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या ही मानी गयी है । अविद्या से उत्पन्न व्यक्तित्व ही जीवन का मूलभूत पाप है । जन्म-मरण की परम्परा और दुःख का मूल अविद्या है। जैसे जैन-दर्शन मे मिध्यात्व की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती, वैसे ही बौद्ध दर्शन मे भी अविद्या की पूर्वकोटि नही जानी जा सकती । यह एक ऐमी सत्ता है जिसे ममझना कठिन है । हमें बिना अधिक गहराई मे गये इसके अस्तित्त्व को स्वीकार कर लेना होगा । उसमें अविद्या वर्तमान जीवन की अनिवार्य पूर्ववर्ती अवस्था है, इसके पूर्व कुछ नही, क्योकि जन्म-मरण की प्रक्रिया का कही आरम्भ नही खोजा जा सकता। लेकिन दूसरी ओर इसके अस्तित्त्व से इनकार भी नही किया जा सकता । स्वयं जीवन या जन्म मरण की परम्परा इसका प्रमाण है कि अविद्या उपस्थित है । अविद्या का उद्भव कैसे होता है यह नही बताया जा सकता । अश्वघोष के अनुसार, "तथता" मे ही अविद्या का जन्म होता है।' डॉ० राधाकृष्णन् १. उद्धृत - जैन स्टडीज, पृ० १३३ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौख और गीता का सामना मार्ग की दृष्टि मे बौद्ध-दर्शन मे अविद्या उम परम सत्ता, जिसे आलयविज्ञान, तथागतगर्भ, शुन्यता, धर्मधातु एवं तथता कहा गया है, की वह शक्ति है जो विश्व के भीतर से व्यक्तिगत जीवनों की शृंखला को उत्पन्न करती है। यह यथार्थ सत्ता के ही अन्दर विद्यमान निषेधात्मक तन्व है। हमारी मीमित बुद्धि इमकी तह में इससे अधिक और प्रवेश नहीं कर सकती।' सामान्यतया अविद्या का अर्थ चार आर्यसत्यों का ज्ञानाभाव है। माध्यमिक एवं विज्ञानवादी विचारकों के अनुमार इन्द्रियानभृति के विषय-इम जगत् की कोई स्वतंत्र सत्ता नही है, यह परतंत्र एवं मापेक्ष है, इसे यथार्थ मान लेना ही अविद्या है । दूसरे शब्दों में अयथार्थ अनेकता को यथार्थ मान लेना ही अविद्या का कार्य है। इसी मे वैयक्तिक अहं का प्रादुर्भाव होता है और यही ताणा का जन्म होता है। बौद्ध-दर्शन के अनुसार भी अविद्या आर तष्णा ( अनैतिकता ) में पारस्परिक कार्य-कारण सबंध है। अविद्या के कारण तृष्णा और तृष्णा के कारण अविद्या उत्पन्न होती है। जिग प्रकार जैन-दर्शन में मोह के दो रूप दर्शन-मोह और चारित्र-मोह है, उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में अविद्या के दो कार्य ज्ञेयावरण एव क्लेगावरण है । ज्ञेयावरण की तुलना दर्शन-मोह से और क्लेशावरण की तुलना चारित्र-मोह में की जा मकती है। जिस प्रकार वैदिक परम्परा में माया को अनिर्वचनीय कहा गया है, उसी प्रकार बाद्ध-परम्पग में भी मविद्या सत् और अमत दोनो ही कोटियो मे परे है। विज्ञानवाद एवं शून्यवाद के सम्प्रदायों की दृष्टि मे नानाम्पात्मक जगत् को परमार्थ मान लेना अविधा है । मेयनाथ ने अभूतपरिकल्प ( अनेकता का ज्ञान ) का विवेचन करते हुए कहा कि उसे गत और असत् दोनों ही नहीं कहा जा सकता। वह सत् इलिए नहीं है क्योकि परमार्थ मे अनेकता या द्वैत का कोई अस्तित्व नहीं है और वह असत् इाला नहीं ह कि उसके प्रहाण से निर्वाण का लाभ होता है । इस प्रकार हम देखत है कि बौद्ध-दर्शन के परवर्ती सम्प्रदायों मे अविद्या का स्वरूप बहुत-कुछ वेदान्तिक माया वे गमान बन गया है । बोड-दर्शन को अविद्या की समीक्षा-चौद्ध-दर्शन के विज्ञानवादी और शून्यवादी सम्प्रदायो मे अविद्या का जो स्वरूप निर्दिष्ट है वह आलोचना का विषय ही रहा है । विज्ञानवादी और शून्यवादी विचारक अपने निरपेक्ष दृष्टिकोण के आधार पर इन्द्रियानुभूति के विषयों को अविद्या या वासना के काल्पनिक प्रत्यय मानते है । दूसरे, उनके अनुसार अविद्या आत्मनिष्ठ ( Subjective | है। जैन दार्शनिको ने उनकी इस मान्यता को अनुचित ही माना है, क्योकि प्रथमतः अनुभव के विषयो को अनादि अविद्या के काल्पनिक प्रत्यय मानकर इन्द्रियानुभूति के ज्ञान को अमत्य बताया गया है। जैन दार्शनिकों की दष्टि मे इन्द्रियानुभूति के विषयो को अमत् नहीं माना जा सकता; १. भारतीय दर्शन, पृ० ३८२- ३८३ २. जैन स्टडीज, पृ० १३२-१३३ पर उद्धृत । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्या ( मिध्यात्व) ४५ क्योंकि वे तर्क और अनुभव दोनों को ही यथार्थ मानकर चलने है । उनके अनुसार तार्किक ज्ञान ( बौद्धिक ज्ञान ) और अनुमूल्यात्मक ज्ञान दोनो ही यथार्थता का बोध करा सकते है । बौद्ध दार्शनिको की यह धारणा कि अविद्या केवल आत्मगत है, जैनदार्शनिको को स्वीकार नही है । वे अविद्या का वस्तुगत आधार भी मानते है । उनकी दृष्टि मे बौद्ध दृष्टिकोण एागी है । वोद्ध-दर्शन को अविद्या की विस्तृत समीक्षा डॉ० नथमल टाटिया ने अपनी पुस्तक 'स्टडीज इन जैन फिलासफी' मे की है । गीता एवं वदान्त में अविद्या का स्वरूप - गीता मे → । गीता मे अज्ञान और माया का अविया, अज्ञान और माया सामान्यतया दो भिन्न अर्थों शब्द का प्रयोग हुआ में ही प्रयोग हुआ है । अज्ञान वैयक्तिक हे ओर माया ईश्वरीय अज्ञान का अर्थ परमात्मा के उस वास्तविक स्वम्प के ज्ञान का वह जगत् में व्याप्त होते हुए भी उसमे परे ह । गीता में अज्ञान शब्द विपरीत ज्ञान, , मोह, अनेकता को यथार्थ मान लेना आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त हुआ है। ज्ञान के सात्त्विक, राजस और तामस प्रकारो का विवेचन करते हुए गीता मे स्पष्ट बताया गया है कि अनेकता को यथार्थ माननेवाला दृष्टिकोण या ज्ञान राजस है, इसी प्रकार यह मानना कि परमतत्त्व मात्र इतना ही है यह ज्ञान तामस ह । गीता में माया को व्यक्ति के दुःख एव बन्धन का कारण कहा गया है, क्योकि यह एक भ्रान्त आशिक चेतना का पोषण करती है और उस रूप मे पूर्ण यथार्थता का ग्रहण सम्भव नही होता । फिर भी माया ईश्वर की एक ऐसी कार्यकारी शक्ति भी है जिसके माध्यम से परमात्मा इस नानारूपात्मक जगत् में अपने को अभिव्यक्त करता है। वैयक्तिक दृष्टि में माया परमार्थ का आवरण कर व्यक्ति को उसके यथार्थ ज्ञान में वचित करती है, जब कि परममत्ता को अपेक्षा से वह उसकी एक शक्ति ही सिद्ध होती है । वेदान्त दर्शन में अविद्या का अर्थ अद्वय परमार्थ मे अनकता की कल्पना है । बृहदारण्यकोपनिषद् मे कहा गया है कि जो अद्वय में अनेकता का दर्शन करता है वह मृत्यु को प्राप्त होता है। इसके विपरीत अनेकता में एकता का दर्शन मच्चा ज्ञान है । ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है कि जो सभी को परमात्मा से और परमात्मा मे सभी को स्थित देखता है उस एकत्वदर्शी को न विजुगुप्मा होती है और न उमे कोई मोह या शोक होता है । वेदान्त परम्परा में अविद्या जगत् के प्रति आसक्ति एव मिथ्या दृष्टिकोण है और माया एक ऐसी शक्ति है जिससे यह अनेकतामय जगत् अस्तित्त्ववान् प्रतीत होता है । माय। इस नानारूपात्मक जगत् का आवार है और अविद्या। हमे उससे बांधे रखती है । वेदान्त दर्शन में माया अद्वय अविकार्य परममत्ता की जगत् के रूप मे शक्ति है। गीता मे अभाव है जिम रूप मे १. विस्तृत विवेचन के लिए देखिए, जैन स्टडीज, पृ० १२६- १३७ एवं २०१-२१५ २. गीता १८।२१-२२ ३. वृहदारण्यकोपनिषद्, ४|४|१९ ४. ईशावास्योपनिषद्, ६-७ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ बैन, गोड बोर गीता साना मार्ग प्रतीति है । वेदान्त में माया न तो सत् है और न असत् है, उसे चतुष्कोटि विनिमुक्त कहा गया है। वह सत् इसलिए नहीं है कि उसका निरसन किया जा सकता है। वह असत् इसलिए नहीं है कि उसके आधार पर व्यवहार होता है। वेदान्त दर्शन में माया जगत् की व्याख्या और उसकी उत्पत्ति का सिद्धान्त है और अविद्या वैयक्तिक मासक्ति है। वेदान्त को माया को समीक्षा-वेदान्त-दर्शन में माया एक अर्ध सत्य है जबकि तार्किक दृष्टि में माया या तो सत्य हो सकती है या असत्य । जैन दार्शनिकों के अनुसार सत्य सापेक्ष अवश्य हो सकता है लेकिन अर्ध सत्य (Quasi-Real) ऐसी कोई अवस्था नहीं हो सकती। यदि अद्वय परमार्थ को नानारूपात्मक मानना अविद्या है, तो जैनदार्शनिकों को यह दृष्टिकोण स्वीकार नहीं है। यद्यपि जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएं अविद्या की इस व्याख्या में एकमत है कि अविद्या या मोह का अर्थ है अनात्म या 'पर' में आत्म-बुद्धि । उपसंहार-अज्ञान, अविद्या या मोह ही सम्यक् प्रगति में सबसे बड़ा अवरोध है । हमारे क्षुद्र व्यक्तित्व और परमात्मत्व के बीच सबसे बड़ी बाधा है। उसके हटते ही हम अपने को अपने में ही उपस्थित परमात्मा के निकट खड़ा पाते हैं। फिर भी प्रश्न यह है कि इस अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति कैसे हो? वस्तुतः अविद्या से मुक्ति के लिए यह आवश्यक नही कि हम अविद्या या अज्ञान को हटाने का प्रयत्न करें, क्योंकि उसके हटाने के सारे प्रयास वैसे ही निरर्थक होंगे जैसे कोई अंधकार को हटाने का प्रयत्न करे । जैसे प्रकाश के होते ही अंधकार समाप्त हो जाता है वैसे ही ज्ञान रूप प्रकाश या सम्यग्दृष्टि के उत्पन्न होते ही अज्ञान या अविद्या का अंधकार समाप्त हो जाता है । आवश्यकता इस बात की नहीं कि हम अविद्या या मिथ्यात्व को हटाने का प्रयत्न करें, वरन् आवश्यकता इस बात की है कि हम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की ज्योति को प्रज्ज्वलित करें ताकि अविद्या या अज्ञान का तामिस्र (अन्धकार) समाप्त हो जाय । १. विवेकचूडामणि, माया-निरूपण, १११ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्-दर्शन जैन-परम्परा में सम्यक् - दर्शन, सम्यक्त्व एवं सम्यक् दृष्टि शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में हुआ है । यद्यपि आचार्य जिनभद्र ने विशेषावश्यकभाष्य में सम्यक्त्व और सम्यक् - दर्शन के भिन्न भिन्न अर्थों का निर्देश किया है । मम्यक्त्व वह है जिसके कारण श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते है । सम्यक्त्व का अर्थ-विस्तार सम्यक् दर्शन से अधिक व्यापक है, फिर भी मामान्यतया सम्यक् दर्शन और सम्यक्त्व शब्द एक ही अर्थ प्रयुक्त किये गये हैं । वैसे सम्यग्दर्शन शब्द मे सम्यक्त्व निहित ही है । सम्यक्त्व का अर्थ - सामान्य रूप में सम्यक् या सम्यक्त्व शब्द सत्यता या यथार्थता का परिचायक है, जिसे 'उचितता' भी कह सकते हैं । सम्यक्त्व का एक अर्थ तत्त्व-रुचि है । इस अर्थ में सम्यक्त्व सत्याभिरुचि या सत्य की अभीप्सा है। उपर्युक्त दोनों अर्थों में सम्यक् दर्शन या सम्यक्त्व नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। जैन नैतिकता का चरम आदर्श आत्मा के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि है, लेकिन यथार्थ की उपलब्धि भी तो यथार्थ मे सम्भव होती है । यदि हमाग साध्य 'यथार्थता' की उपलब्धि है, तो उसका साधन भी यथार्थ हो चाहिए। जैन विचारणा साध्य और माधन की एकरूपता में विश्वास करती है । वह यह मानती है कि अनुचित साधन से प्राप्त किया गया लक्ष्य भी अनुचित ही है । सम्यक् को सम्यक् से ही प्राप्त करना होता है, असम्यक् से जो भी मिलता है या प्राप्त किया जाता है, वह भी असम्यक् ही होता है । अतः आत्मा के यथार्थ स्वरूप की प्राप्ति के लिये जिन साधनों का विधान किया गया, उनका सम्यक् होना आवश्यक माना गया । वस्तुतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र का नैतिक मूल्य उनके सम्यक् होने में है और तभी वे मुक्ति या निर्वाण के साधन बनते हैं । यदि ज्ञान, दर्शन और चारित्र मिथ्या होते हैं तो बन्धन का कारण बनते हैं । बन्धन-मुक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र पर निर्भर नहीं, वरन् उनके सम्यक् और मिथ्यापन पर आधारित है । आचार्य जिनभद्र के अनुसार यदि सम्यक्त्व का अर्थं तत्त्वरुचि या सत्याभीप्सा लेते हैं तो सम्यक्त्व का नैतिक साधना मे महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है । नैतिकता की साधना आदर्शोन्मुख गति है, लेकिन जिसके कारण वह गति है, साघना है, वह तो सत्याभीप्सा ही है । साधक में जबतक सत्याभीप्सा या तत्त्व रुचि जागृत नही होती, १. विशेषावश्यक भाष्य. १७८७-९० २. अभिधान राजेन्द्र खण्ड ५. पृष्ठ २४२५ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन, बोट और गीता का सापना मार्ग तबतक वह नैतिक प्रगति की ओर अग्रसर ही नही हो सकता । सत्य की प्यास ही ऐसा तत्त्व है जो माधक को माधना-मार्ग में प्रेरित करता है, प्यासा ही पानी की खोज करता है, तत्त्व-कचि या मन्याभीप्मा में यक्त व्यक्ति ही आदर्श की प्राप्ति के लिए साधना करता है। उत्तराध्ययनमूत्र में सम्यक्त्व के दोनों अर्थों को समन्वित कर दिया गया है । ग्रंथकर्ता की दृष्टि मे यद्यपि मम्यक्त्व यथार्थता की अभिव्यक्ति करता है, लेकिन यथार्थता की जिमसे उपलब्धि होती है उसके लिये सत्याभीप्सा या रुचि आवश्यक है। वर्शन का अर्थ-दर्शन शब्द भी जैनागमों में अनेक अर्थो में प्रयुक्त हुआ है । जीवादि पदार्थों के स्वम्प देवना, जानना, श्रद्धा करना 'दर्शन' हैं।' सामान्यतया दर्शन शब्द देखने के अर्थ में व्यवहृत होता है, लेकिन यहां दर्शन शब्द का अर्थ मात्र नेत्रजन्य बोध नही है । उसमे इन्द्रिय-बाध, मन-बोध और आत्म-बोध सभी सम्मिलित है। दर्शन शब्द के अर्थ के मम्बन्ध में जैन-परम्पग में काफी विवाद रहा है । दर्शन को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है। नैतिक जीवन की दृष्टि से विचार करने पर दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ किया गया है । दर्शन शब्द के स्थान पर 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग, उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है । प्राचीन जैन आगमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग अधिक मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र और उत्तराध्ययनसूत्र में दर्शन शब्द का अर्थ 'तत्त्वश्रद्धा' है। परवर्ती जैन साहित्य मे दर्शन शब्द देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है । इस प्रकार जैन परम्परा मे सम्यक् दर्शन अपने मे तत्त्व-साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अर्थों को समेटे हुए हैं। इन पर थोड़ी गहराई से विचार करना अपेक्षित है । सम्यक् दर्शन के विभिन्न अर्थ ___ सम्यक्-दर्शन शब्द के विभिन्न अर्थो पर विचार करने से पहले हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौन-सा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से प्रथम था और उसके पश्चात् किन-किन ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ। प्रथमतः हम देखते ह कि बुद्ध आर महावीर के समय में प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक अपने सिद्धान्त को सम्यक्-दृष्टि और दूसरे के सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था। बौद्धागमों में ६२ मिथ्यावृष्टियों एवं जैनागम सूत्रकृताग मे ३६३ मिथ्यादृष्टियों का उल्लेख मिलता है । लेकिन वहा पर मिथ्यादृष्टि शब्द अश्रद्धा अथवा मिथ्या श्रद्धा के अर्थ मे नही, वरन् १. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ५, पृ० २४२५ २. सम प्राब्लेम्स् इन जैन साइकोलाजी पृ० ३२ ३. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ८, पृ० २५२५ ४. तत्त्वार्थसूत्र १२ ५. उत्तराध्ययन, २८।३५ ६. सामायिकसूत्र-सम्यक्त्व पाठ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। बाद में जब यह प्रश्न उठा कि गलत दृष्टिकोण को किस सन्दर्भ मे माना जाय, तो कहा गया कि जोव (आत्मतत्त्व) और जगत् के सम्बन्ध मे जो गलत दृष्टिकोण है, वही मिथ्यादर्शन या मिथ्यादृष्टि है। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि से तात्पर्य हुआ आत्मा और जगत् के विषय मे गलत दृष्टिकोण । उस युग में प्रत्येक धर्म प्रवर्तक आत्मा और जगत् के स्वरूप के विषय मे अपने दृष्टिकोण को सम्यक् दृष्टि अथवा सम्यग्दर्शन तथा विरोधी के दृष्टिकोण को मिथ्यादृष्टि अथवा मिथ्यादर्शन कहता था। बाद मे प्रत्येक मम्प्रदाय जीवन और जगत् सम्बन्धी अपने दृष्टिकोण पर विश्वास करने को सम्यग्दृष्टि कहने लगा और जो लोग विपरीत मान्यता रखते थे उनको मिथ्यादृष्टि कहने लगा। इस प्रकार सम्यकदर्शन शब्द तत्त्वार्थ (जीव और जगत् के स्वरूप के) श्रद्धान के अर्थ मे रूढ हुआ। लेकिन तत्त्वार्थश्रद्धान के अर्थ मे भी मम्यक्-दर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नही हुआ था, यद्यपि उगकी भावनागत दिशा बदल चुकी थी । उसमें श्रद्धा का तत्व प्रविष्ट हो गया था; लेकिन वह श्रद्धा थी तत्त्व स्वरूप के प्रति । वैयक्तिक श्रद्धा का विकास बाद की बात थी । श्रमण-परम्परा मे लम्बे समय तक सम्यग्दर्शन का दृष्टिकोणपरक अर्थ ही ग्राह्य रहा था जो बाद मे तत्त्वार्थप्रधान के रूप में विकसित हुआ । यहाँ तक तो श्रद्धा मे बौद्धिक पक्ष निहित था, श्रद्धा ज्ञानात्मक थी। लेकिन जैसे-जैसे भागवत मम्प्रदाय का विकास हुआ, उसका प्रभाव जैन और बौद्ध श्रमण-परम्पराओं पर भी पड़ा । तत्त्वार्थ को श्रद्धा बुद्ध और जिन पर केन्द्रित होने लगी और वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वैयक्तिक से वैयक्तिक बन गयी। इसने जैन और बौद्ध परम्पराओ मे भक्ति के तत्व का वपन किया।' आगम एवं पिटक ग्रंथों के सकलन एवं लिपिवद्ध होने तक यह मब कुछ हो चुका था। अत. आगम और पिटक प्रयो मे सम्यक्दर्शन के ये सभी अर्थ उपलब्ध होते है । वस्तुत मम्यक्-दर्शन का भाषाशास्त्रीय विवेचन पर आधारित यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ हो उमका प्रथम एवं मूल अर्थ है, लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण ता मात्र वीतगग पुरुप का ही हो सकता है । जहाँ तक व्यक्ति राग और द्वेष मे युक्त है, उसका दृष्टिकोण यथार्थ नहीं हो मकता । इम प्रकार का सम्यक्-दर्शन या यथार्थ दृष्टिकोण तो मावनावस्था ने मम्भव नहीं है, क्योंकि साधना की अवस्था सराग अवस्था है । साधक आत्मा मे राग-द्वेष को उपस्थिति होती है, साधक तो साधना ही इमलिए कर रहा है कि वह इन दोनो मे मुक्त हो। इस प्रकार यथार्थ दष्टिकोण तो मात्र मिद्धावस्था में होगा। लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण की आवश्यकता तो साधक के लिए है, सिद्ध को तो वह स्वाभाविक रूप में प्राप्त है। यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव मे व्यक्ति का व्यवहार तथा साधना मम्यक् न ही हो मकती। क्योकि अयथार्थ दृष्टिकोण ज्ञान और जीवन के व्यवहार को सम्यक् नही बना मकता । यहाँ एक समस्या १. देखिये, स्थानाग ५।२ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैन, बौड और गीता का सामना मार्ग उत्पन्न होती है कि यथार्थ दृष्टिकोण का साधानात्मक जीवन में अभाव होता है और बिना यथार्थ दृष्टिकोण के साधना हो नहीं सकती। यह समस्या एक ऐसी स्थिति में डाल देती है जहां हमें साधना-मार्ग की सम्भावना को ही अस्वीकृत करना होता है । यथार्थ दृष्टिकोण के बिना साधना सम्भव नहीं और यथार्थ दृष्टिकोण साधना-काल में हो नहीं सकता। लेकिन इस धारणा में भ्रान्ति है। माधना-मार्ग के लिए या दृष्टिकोण की यथार्थता के लिए, दृष्टि का गग-द्वेष मे पूर्ण विमुक्त होना आवश्यक नहीं है; मात्र इतना आवश्यक है कि व्यक्ति अयथार्थता और उसके कारण को जाने । ऐसा साधक यथार्थता को न जानते हुए भी सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि वह असत्य को असत्य मानता है और उसके कारण को जानता है। अतः वह भ्रान्त नहीं है, अमत्य के कारण को जानने से वह उमका निराकरण कर मत्य को पा मकेगा। यद्यपि पूर्ण यथार्थ दृष्टि तो एक साधक में सम्भव नहीं है, फिर भी उमकी रागद्वेषात्मक वृत्तियों में जब स्वाभाविक रूप से कमी हो जाती है तो इम स्वाभाविक परिवर्तन के कारण उसे पूर्वानुभूति और पश्चानुभूति में अन्तर ज्ञात होता है और इम अन्तर के कारण के चिन्तन में उसे दो बातें मिल जाती है एक तो यह कि उसका दृष्टिकोण दूषित है और दूसरी यह कि उसकी दृष्टि की दूषितता का अमुक कारण है। यद्यपि यहाँ मत्य तो प्राप्त नहीं होता, लेकिन अपनी असत्यता और उसके कारण का बोध हो जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप उसमें सत्याभीप्सा जागृत हो जाती है। यही सत्याभीप्सा उस मत्य या यथार्थता के निकट पहुँचाती है और जितने अंश में वह यथार्थता के निकट पहुंचता है उतने ही अंश में उसका ज्ञान और चारित्र शुद्ध होता जाता है। ज्ञान और चारित्र की शुद्धता से पुनः राग और द्वेष में क्रमशः कमी होती है और उसके फलस्वरूप उमके दृष्टिकोण में और अधिक यथार्थता आ जाती है। इस प्रकार क्रमशः व्यक्ति स्वतः ही साधना की चरम स्थिति में पहुँच जाता है। आवश्यकनियुक्ति में कहा है कि जल जैसे-जैसे स्वच्छ होता जाता है, त्यों-त्यों द्रष्टा उसमें प्रतिबिम्बित रूपों को स्पष्टतया देखने लगता है। उसी प्रकार अन्तर में ज्यों-ज्यों मलिनता समाप्त होती है; तन्व-रुचि जाग्रत होती है, त्यों-त्यों तत्त्वज्ञान प्राप्त होता जाता है।' इसे जैन परिभाषा में प्रत्येक बुद्ध (स्वतः ही यथार्थता को जाननेवाले) का साधना-मार्ग कहते हैं। लेकिन प्रत्येक सामान्य साधक यथार्थ दृष्टिकोण को इस प्रकार प्राप्त नहीं करता है, न उसके लिए यह सम्भव ही है; सत्य की स्वानुभूति का मार्ग कठिन है। सत्य को स्वयं जानने की विधि की अपेक्षा दूसरा सहज मार्ग यह है कि जिन्होंने स्वानुभूति से सत्य को जानकर उसका जो भी स्वरूप बताया है उसको स्वीकार कर लेना । इसे ही जैन शास्त्र १. आवश्यकनियुक्ति, ११६३ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पयन कारों ने तत्त्वार्यश्रद्धान कहा है अर्थात् यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त वीतराग ने सत्ता का जो स्वरूप प्रकट किया है, उसे स्वीकार करना। मान लीजिए, कोई व्यक्ति पित्त-विकार से पीड़ित है। ऐसी स्थिति में वह किसी श्वेत वस्तु के यथार्थ ज्ञान से वंचित होगा। उसके लिए वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करने के दो मार्ग हो सकते हैं। पहला मार्ग यह कि उसकी बीमारी में स्वाभाविक रूप से जब कुछ कमी हो जावे और वह अपनी पूर्व और पश्चात् की अनुभूति मे अन्तर पाकर अपने रोग को जाने और प्रयास से रोग को शान्त कर वस्तु के यथार्थ स्वरूप का बोध प्राप्त करे । दूसरी स्थिति में किसी चिकित्सक द्वारा यह बताया जाये कि वह पित्तविकारों के कारण श्वेत वस्तु को पीत वर्ण की देख रहा है। यहां चिकित्सक की बात को स्वीकार कर लेने पर भी उसे अपनी रुग्णावस्था अर्थात् अपनी दृष्टि की दूषितता का ज्ञान हो जाता है और साथ ही वह उसके वचनों पर श्रद्धा करके वस्तुतत्त्व को यथार्थ रूप में जान भी लेता है। सम्यग्दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थश्रद्धान, उनमें वास्तविकता की दृष्टि से अन्तर नहीं है। अन्तर है उनकी उपलब्धि की विधि में । एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन करता है और वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। दूसरा वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्वके यथार्थ स्वरूप को जानता है। दोनों दशाओं में व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ ही कहा जायेगा, यद्यपि दोनों की उपलब्धि-विधि में अन्तर है । एक ने उसे तस्वमाक्षात्कार या स्वतः की अनुभूति में पाया तो दूसरे ने श्रद्धा के माध्यम से। वस्तुतत्त्व के प्रति दृष्टिकोण को यथार्थता जिन माध्यमों से प्राप्त की जा सकती है, वे दो हैं-या तो व्यक्ति स्वयं तत्त्व-साक्षात्कर करे अथवा उन ऋषियों के कथनों पर श्रद्धा करे जिन्होंने तत्त्व-साक्षात्कार किया है। तत्त्व-श्रद्धा तो मात्र उस समय तक के लिए एक अनिवार्य विकल्प है जबतक माधक तत्त्वमाक्षात्कर नही कर लेता । अन्तिम स्थिति तो तत्त्वसाक्षात्कार की ही है । पं० मुखलालजी लिखा है, नत्त्वश्रद्धा ही मम्यक् दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नही हैं, अन्तिम अर्थ ता तन्वमाक्षात्कार है । तत्त्व-श्रद्धा तो तत्त्व-साक्षात्कार का एक मोपान मात्र है, वह मोपान दृढ़ हो तभी यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्व का साक्षात्कार होता है।' जैन आचार दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान-मम्यग्दर्शन जैन आचार-व्यवस्था का आधार है । नन्दिसूत्र में सम्यग्दर्शन को संघरूपी मुमेरु पर्वत को अत्यन्त मुदृढ़ और गहन भूपीठिका ( आधार-शिला ) कहा गया है जिम पर ज्ञान और चारित्र रूपी उत्तम धर्म की मेखला अर्थात् पर्वतमाला स्थिर है। जैन आचार में सम्यग्दर्शनको मुक्ति १. जैनधर्म का प्राण, पृ० २४ २. नन्दिसूत्र, १११२ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन, बोट और गीता का सामना मार्ग का अधिकार-पत्र कहा जा मकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा है कि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक् ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के अभाव में सदाचार नहीं आता और सदाचार के अभाव में कर्मावरण से मुक्ति सम्भव नहीं और कर्मावरण से जकड़े हा प्राणी का निर्वाण नहीं होता।' आचारांगमूत्र में कहा है कि सम्यग्दृष्टि पापाचरण नहीं करता। जैन विचारणा के अनुसार आचरण का मत् अथवा अमत् होना कर्ता के दृष्टिकोण (दर्शन) पर निर्भर है मम्यक् दृष्टि से निष्पन्न आचरण सदैव मन् होगा और मिथ्या दृष्टि मे निष्पन्न आचरण मदेव अमत् होगा। इसी आधार पर सूत्राकृतांगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि व्यक्ति विद्वान् है, भाग्यवान् है और पराक्रमी भी है; लेकिन यदि उमका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका दान, तप आदि ममस्त पुरुषार्थ फलाकांक्षा मे होने के कारण अशुद्ध ही होगा। वह उसे मुक्ति की ओर न ले जाकर बन्धन की ओर ही ले जावेगा। क्योंकि अमम्यक दर्शी होने के कारण वह मराग दृष्टि वाला होगा और आमक्ति या फलाशा मे निष्पन्न होने के कारण उसके सभी कार्य सकाम होंगे और सकाम होने से उसके बन्धन का कारण होंगे। अतः असम्यग्दृष्टि का सारा पुरुषार्थ अशुद्ध ही कहा जायेगा, क्योंकि वह उसकी मुक्ति में बाधक होगा। लेकिन इसके विपरीत सम्यग्दृष्टि या वीतरागदृष्टि सम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य फलाशा से रहित होने से गुद्ध होंगे। इस प्रकार जैन-विचारणा यह बताती है कि सम्यग्दर्शन के अभाव से विचार प्रवाह सराग, सकाम या फलाकांक्षा से युक्त होता है और यही कर्मों के प्रति रही हुई फलाकांक्षा बन्धन का कारण होने से पुरुषार्थ को अशुद्ध बना देती है जबकि सम्यकदर्शन की उपस्थिति में विचार-प्रवाह वीतरागता, निष्कामता और अनासक्ति की ओर बढ़ता है फलाकांक्षा समाप्त हो जाती है, अतः सम्यग्दृष्टि का सारा पुरुषार्थ परिशुद्ध होता है। बोड-वर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान-बौद्ध-दर्शन में सम्यग्दर्शन का क्या स्थान है, यह बुद्ध के निम्न कथन से स्पष्ट हो जाता है । अंगुत्तरनिकाय मे बुद्ध कहते हैं कि "भिक्षुओं, मैं दुसरी कोई भी एक बात ऐसी नही जानता, जिसमे अनुत्पन्न अकुशल-धर्म उत्पन्न होते हों तथा उत्पन्न अकुशल-धर्मों में वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओं, मिथ्या दृष्टि । भिक्षुओं, मिथ्या-दृष्टि वाले मे अनुत्पन्न अकुशल-धर्म पैदा हो जाते हैं । उत्पन्न अकुशल-धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं । भिक्षुओं, मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता जिससे अनुत्पन्न कुशल-धर्मो में वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओं सम्यक् दृष्टि । भिक्षुओं, सम्यक् दृष्टिवाले में अनुत्पन्न कुशल-धर्म उत्पन्न हो जाते है । उत्पन्न १ उत्तराध्ययन, २८।३० २. आचारांग, १।३।२ ३. सूत्रकृतांग १३८।२२-२३ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ५३ कुशल-धर्म वृद्धि को, विलपुता को प्राप्त हो जाते है।' इस प्रकार बुद्ध सम्यक-दृष्टि को नैतिक जीवन के लिए आवश्यक मानते है । उनकी दष्टि मे मिथ्या दृष्टिकोण संसार का किनारा है और सम्यक-दृष्टिकोण निर्वाण का किनारा है । बुद्ध के ये वचन यह स्पष्ट कर देते है कि बौद्ध-दर्शन मे सम्यक्-दृष्टि का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है। वदिक परम्परा एवं गीता में सम्यक-वर्शन (घटा) का स्थान-वैदिक परम्परा मे भी मम्यक्-दर्शन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मनम्मति में कहा गपा है कि गम्यक दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति को कर्म का बन्धन नही होता है लेकिन गम्ाक्-दर्शन से पिहोन व्यक्ति संसार मे परिभ्रमण करता रहता है। ___ गीता मे यद्यपि नम्यक्-दर्शन शब्द का अभाव है, तथापि मम्यक् दर्शन को श्रद्धापरक अर्थ मे लेने पर गीता मे उसका महत्त्वपूर्ण स्थान गिद्ध हो जाता है। पद्धा गीता के आचार-दर्शन के केन्द्रीय तत्वों में से एक है। 'श्रद्धावाल्लभत ज्ञान' कह कर गीता ने उसका महत्व स्पष्ट कर दिया है । गीता यह भी स्वीकार करती है कि व्यक्ति की जैगी श्रद्धा होती है, उमका जीवन के प्रति जैमा दृष्टिकोण होता है, वैगा ही वह बन जाता है। गीता मे श्रीकृष्ण ने यह कह कर सम्यक् दर्शन या श्रद्धा के महत्व को स्पष्ट कर दिया है कि यदि दुराचारी व्यक्ति भी मझे भजता है अर्थात मेरे प्रति श्रद्धा रगता है तो उसे माधु ही ममझो, क्योंकि वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो चिर शाति को प्राप्त हो जाता है ।" गीता का यह कथन आचागग के उम कयन गे कि मम्यक ती कोई पाप नही करता, काफी अधिक माम्य रखता है। आचार्य शकर ने अपने गीताभाष्य में भी मम्यक्-दर्शन के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि गम्भक वर्णन निष्ट पुरुष ममार के बीजरूप अविद्या आदि दोपों का उन्मूलन नहीं कर गके ऐमा कदापि गभव नहीं हो मकता अर्थात् मम्यग्दर्शनयक्त पुरुप निश्चितरूप में निर्वाण-लाभ करता है । आचार्य शंकर के अनुमार जबतक मम्यग्दर्शन नहीं होता, तबतक गग (विपपामक्ति) का उच्छंद नही होता और जबतक गग का उच्छद नही होता, मक्ति मभव नही। सम्यक्दर्शन आध्यात्मिक जीवन का प्राण है । जिस प्रकार चेतनारहित गरीर शव है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन मे रहित व्यक्ति चलता-फिरता शव है। जेंगे शव लोक में त्याज्य होता है, वैसे ही आध्यात्मिक जगन् मे यह चल गव त्याज्य है। वस्तुतः मम्यक्दर्शन एक जोवन-दृष्टि है। बिना जीवन-दृष्टि के जीवन का कोई अर्थ नही रहता । व्यक्ति की जीवनदृष्टि जैमी होती है उमी रूप में उमके चरित्र का निर्माण होता है । गीता में कहा है कि व्यक्ति श्रद्धामय है, जैमी श्रद्धा होती है वैसा ही वह बन जाता १. अंगुत्तरनिकाय, १।१७ ४. गीता, १७।३ ७. भावपाहुड, १४३ २. वही १०।१२ ५. वही, ९।२०-३१ ३. मनुस्मृति, ६७४ ६. गीता (शां०) १८।१२ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौड और गीता का सामना मार्ग है। असम्यक् जीवनदृष्टि पतन की ओर और सम्यक् जीवनदृष्टि उत्थान की ओर ले जाती है। इसलिए यथार्थ जीवनदृष्टि का निर्माण आवश्यक है । इसे ही भारतीय परम्परा में सम्यग्दर्शन या श्रद्धा कहा गया है। ___ यथार्थ जीवन-दृष्टि क्या है यदि इम प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो ज्ञात होता है कि समालोच्य सभी आचार-दर्शनों में अनासक्त एवं वीतराग जीवन दृष्टि को ही यथार्थ जीवन-दृष्टि माना गया है । जैनधर्म में सम्यग्दर्शन का स्वरूप सम्यक्त्व का दशविध वर्गीकरण उत्तगध्ययनसूत्र मे मम्यग्दर्शन के, उसको उत्पत्ति के आधार पर, दम भेद किये गये है, जो निम्नलिखित है :१. निसर्ग (स्वभाव) रुचि-जो यथार्थ दृष्टिकोण व्यक्ति में स्वतः ही उत्पन्न हो जाता है वह निमर्गरुचि सम्यक्त्व है। २. उपवेशाच-बोतराग की वाणी (उपदेश) को मुनकर जो यथार्थ दृष्टिकोण या श्रद्धान होता है वह उपदेशाचि मम्यक्त्व है । ३. आमाचि-वीतराग के नैतिक आदेशों को मान कर जो यथार्थ दृष्टिकोण उत्पन्न होता है अथवा तन्व-श्रद्धा होती है वह आज्ञारुचि सम्यक्त्व है । ४. सूत्राषि-अंगप्रविष्ट एवं अंगबाद्य ग्रंथों के अध्ययन के आधार पर जो यथार्थ ___ दृष्टिकोण या तत्त्व-श्रद्धान होता है, वह सूत्ररुचि सम्यक्त्व है। ५. बोजचि-यथार्थता के स्वल्प बोध को स्वचिन्तन के द्वारा विकसित करना बीजरुचि सम्यक्त्व ह। ६. अभिगमचि-अंगसाहित्य एवं अन्य ग्रंथों का अर्थ एवं व्याख्या सहित अध्ययन करने से जो तत्त्वबोध एवं तत्त्व श्रद्धा उत्पन्न होती है वह अभिगमरुचि सम्यक्त्व है। ७. पिस्ताररुषि-वस्तु तत्त्व ( षद्रव्यों ) के अनेक पक्षों का विभिन्न अपेक्षाओं ( दृष्टिकोणों ) एवं प्रमाणों से अवबोध कर उनकी यथार्थता पर श्रद्धा करना विस्तार-रुचि सम्यक्त्व है। ८. क्रियाधि-प्रारम्भिक रूप में साधक जीवन की विभिन्न क्रियाओं के आचरण में रुचि हो और उस साधनात्मक अनुष्ठान के फलस्वरूप यथार्थता का बोध हो, वह क्रियाचि सम्यक्त्व है। ९. संक्षेपरुषि-जो वस्तु तत्त्व का यथार्थ स्वरूप नहीं जानता है और जो आईत् प्रवचन ( ज्ञान ) में प्रवीण भी नही है, लेकिन जिसने अयथार्थ ( मिथ्या१. गीता, १७३ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिकोण ) को अंगीकृत भी नही किया, जिसमें यथार्थ ज्ञान की अल्पता होते हुए भी मिथ्या (असत्य) धारणा नही है, वह संक्षेप रुचि सम्यक्त्व है। १०.धर्मरुचि-तीर्थकर प्रणीत सत् के स्वरूप, आगम साहित्य एव नैतिक नियमों पर आस्तिक्य भाव या श्रद्धा रखना, उन्हे यथार्थ मानना धर्मरुचि सम्यक्त्व है।' सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण-अपेक्षा भेद से गम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण भी किया गया है । जैसे कारक, रोचक और दीपक । १ कारकसम्यक्त्व-जिग यथार्थ दृष्टिकोण (सम्यक्त्व) के होने पर व्यक्ति मदाचरण या मम्यक्चारित्र की माधना मे अग्रमर होता है वह कारक मम्यक्त्व है । कारक सम्यक्त्व ऐसा यथार्थ दृष्टिकोण है, जिसमें व्यक्ति आदर्श की उपलब्धि के हेतु मक्रिय एवं प्रयामशील बन जाता है । नैतिक दृष्टि में कह तो कारक मभ्यक्त्व शुभाशुभ विवेक की वह अवस्था है, जिसमे व्यक्ति जिस शभ का निश्चय करता है उसका आचरण भी करता है । यहाँ ज्ञान और क्रिया में अभेद होता है । मुकगत का यह वचन कि 'ज्ञान ही सद्गुण है' इस अवस्था में लागू होता है। २. रोचक सम्यक्त्व-गेचक मम्यक्त्व मत्य-बोध की अवग्था है, जिसमें पक्ति गम को शुभ और अशुभ को अशुभ के म्प मे जानता है और शुभ-माप्ति की उच्छा भी करता है, लेकिन उसके लिए प्रयाम नही करता । मन्यामत्य विवेक होने पर भी गन्य का आचरण नही कर पाना गेचक मम्यक्त्व है। जैसे काई गेगी अपनी मरणावस्था एव उसके कारण को जानता है, गेग की औषधि भी जानता है और रोग में मक्त होना भी चाहता है, लेकिन औषधि ग्रहण नदी करता। वैमे ही रोचक सम्यक्य वाला व्यक्ति ममार के दुखमय यथार्थ म्वरूप को जानता है, उससे मुक्त हाना भी चाहता है, उसे मोक्ष-मार्ग का भी ज्ञान होता है, फिर भी वह सम्यक् चारित्र का पालन चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के कारण) नही कर पाता। यह अवस्था महाभारत में दुर्योधन के उम वचन के तुल्य है, जिममें कहा गया है कि धर्म को जानते हुए भी मंगे उममें प्रवृनि नही होती और अधर्म को जानते हुए भी मेरी उससे निवृत्ति नहीं होता है। ३ दीपक सम्यक्त्व-यह अवस्था है जिसमे व्यक्ति अपने उपदेश में दूमगे में तत्त्वजिज्ञामा उत्पन्न कर देता है और परिणामस्वरूप होनेवाले उनके यथार्थ बोध का कारण बनता है। दीपक सम्यक्त्व वाला व्यक्ति वह है जो दूमगे को मन्मार्ग पर लगा देने का कारण बन जाता है, लेकिन स्वयंकुमार्ग का ही पथिक बना रहता है। जैसे कोई नदी १. उत्तराध्ययन, २८।१६ २. विशेपावश्यकभाष्य, २६.५ ३. उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ३६० Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन, बीड और गीता का सामना मार्ग के तौर पर खड़ा व्यक्ति किमी मध्य नदी में थके हुए तगक का उत्साहवर्धन कर उसे पार लगने का कारण बन जाता है, यद्यपि न तो स्वयं नैरना जानता है और न पार ही होता है। सम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण एक अन्य प्रकार से भी किया गया है, जिसका आधार कर्म-प्रकृतियों का क्षयोपशम है । जैन विचारणा में अनन्तानुबंधी (तीव्रतम) क्रोध, मान, माया (कपट), लोभ तथा मिध्यान्व मोह, मिश्र-मोह और मम्यक्त्व-मोह सात कर्मप्रकृतियाँ मम्यक्त्व (यथार्थ बोध) की विरोधी है । इसमे मम्यक्त्व मोहनीय को छोड़ शेष छह कर्म प्रकृतियाँ उदय में होती है तो मम्यक्त्व का प्रगटन नही हो पाता। सम्यक्त्व मोह मात्र गम्यक्त्व की निर्मलता और विशुद्धि में बाधक है। कर्म-प्रकृतियों की तीन स्थितियां है :-१. क्षय २ उपशम ओर ३ क्षयोपशम । इमी आधार पर मम्यक्त्व का यह वर्गीकरण किया गया है .-१ औपशमिक सम्यक्त्व २ क्षायिक सम्यक्त्व और ३. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व । १. ओपामिक सम्यक्त्व-उपर्यक्त (क्रियमाण) कर्म-प्रकृतियो के उपशमित (दबाई हुई) होने पर जो गम्यक्त्व गुण प्रगट होता है वह औपमिक सम्यक्त्व है। इसमे स्थायित्व का अभाव होता है । शास्त्रीय दृष्टि में यह अन्तर्महर्त (४८ मिनट) से अधिक नही टिकता । उपशमित कर्म-प्रकृतियां (वागनाएं) पुन जागृत होकर इसे विनष्ट कर देती है। २. भायिक सम्यक्स्य-उपर्यक्त मातो कर्म-प्रकतियो के क्षय हो जाने पर जो सम्यक्त्व रूप यथार्थ बो प्रष्ट होता है, वह क्षायिक मम्गक्त्व है। यह यथार्थ-बोध स्थायो होता है और एक बार प्रकट होने पर कभी नष्ट नही होता। शास्त्रीय भाषा में यह सादि एवं अनन्त होता है। ३. बायोपशमिक सम्यक्स्व-मिथ्यात्वजनक उदयगत (क्रियमाण) कर्म-प्रकृतियों के क्षय हो जाने पर और अनुदित (मत्तावान या मचित) कर्म-प्रकृतियों का उपशम हो जाने पर जो सम्यक्त्व प्रकट होता है वह आयोपशमिक मम्यक्त्व है। यद्यपि सामान्य दृष्टि से यह अस्थायी ही है. फिर भी एक लम्बो समयावधि (छाछठसागरोपम से कुछ अधिक) तक अवस्थित रह सकता है। औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका में सम्यक्त्व के रस का पान करने के पश्चात् जब माधक पुन मिथ्यात्व की ओर लौटता है तो लोटने की इस क्षणिक अवधि मे वान्त सम्यक्त्व का किंचित् संस्कार अवशिष्ट रहता है। जैसे वमन करते समय पमित पदार्थो का कुछ स्वाद आता है वैसे ही सम्यक्त्व को वान्त करते समय सम्यक्त्व का भी कुछ आस्वाद रहता है । जीव की ऐसी स्थिति सास्वादन सम्यक्त्व कहलाती है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ ही जब जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका से क्षायिक सम्यक्त्व की प्रशस्त भूमिका पर आगे बढ़ता है और इस विकास-क्रम मे जब वह सम्यक्त्व मोहनीय कर्म-प्रकृति के कर्म दलिकों का अनुभव कर रहा होता है, तो सम्यक्त्व की यह अवस्था 'वेबक सम्यक्त्व' कहलाती है । वेदक सम्यक्त्व के अनन्तर जीव क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। वस्तुतः सास्वादन और वेदक सम्यरत्व सम्यक्त्व की मध्यान्तर अवस्था हैपहली सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर गिरने ममय और दूगरी क्षायोपगिमक गभ्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व की ओर बढ़ते समय होती है। सम्यक्त्व का विविष वर्गीकरण-मम्यक्त्व का विश्लेपण अनेक अपेक्षाओं से किया गया है ताकि उसके विविध पहलुओं पर ममुचित प्रकाश डाला जा सके। गम्यक्त्व का द्विविध वर्गीकरण चार प्रकार से किया गया है । (अ ) द्रव्य सम्यक्त्व और भाव सम्यक्त्व ( १ ) द्रव्य सम्यक्त्व-विशुद्ध रूप में परिणत किये हुए मिथ्यान्व के कर्म-परमाणु द्रव्य-सम्यक्त्व है। ( २ ) भाव-सम्यक्त्व-उपर्युक्त विशुद्ध पुद्गल वर्गणा . निमित्त में होने वाली तत्त्व-श्रद्धा भाव-सम्यक्त्व है। (ब) निश्चय-सम्यक्त्व और व्यवहार-सम्यक्त्वं (१) निश्चय सम्यक्त्व-राग, द्वेष और माह का अत्यल्प हो जाना, पर-पदार्थों से भेद ज्ञान एवं स्वस्वरूप में रमण, देह में रहते हुए देहाध्याम का छूट जाना, निश्चय सम्यक्त्व के लक्षण है । मंग शुद्ध स्वरूप अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त आनन्द मय है । पर-भाव या आमक्ति ही बंधन का कारण है और स्वस्वभाव में रमण करना ही मोक्ष का हेतु है । मैं स्वयं ही अपना आदर्श हूं, देव, गुरु और धर्म मेरा आत्मा ही है । ऐसी दृढ़ श्रद्धा का होना ही निश्चय सम्यक्त्व है । आत्मकेन्द्रित होना यही निश्चय सम्यक्त्व है। (२) व्यवहार सम्यक्त्व-वीतराग मे देव बुद्धि ( आदर्श बुद्धि ), पाँच महाव्रतों का पालन करने वाले मुनियों में गुरु बुद्धि और जिन प्रणीत धर्म में सिद्धान्त बुद्धि रखना व्यवहार सम्यक्त्व है। (स) निसर्गज सम्यक्त्व और अधिगमज सम्यक्त्व: (१) निसगंज सम्यक्त्व-जिम प्रकार नदी के प्रवाह में पड़ा हुआ पत्थर बिना प्रयास के ही स्वाभाविक रूप से गोल हो जाता है, उसी प्रकार संमार मे भटकते हुए प्राणी को अनायास ही जब कर्मावरण के अल्प होने पर यथार्थता का बोध हो जाता है, १.-२. प्रवचनसारोदार ( टीका ), १४९।९४२ ३. स्थानांगमूत्र, २११७० Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौड और गोता का सामना ना तो ऐसा सन्य-बोध निमर्गज ( प्राकृतिक ) होता है। बिना किमी गुरु आदि के उपदेश के, स्वाभाविक रूप में स्वत. उत्पन्न होने वाला, सत्य-बोध निसर्गज मम्यक्त्व कहलाता है। (२) अधिगमन सम्यक्त्व-गुरु आदि के उपदंश रूप निमित्त से होनेवाला सत्यबोध या सम्यक्त्व अधिगमज सम्यक्त्व कहलाता है। इस प्रकार जैन दार्शनिक न तो वेदान्त और मीमामक दर्शन के अनुसार सत्य-पथ के नित्य प्रकटन को स्वीकार करन है और न न्याय वैशेषिक और योग दर्शन के समान यह मानते है कि मत्य-पथ का प्रकटन ईश्वर के द्वारा होता है । वे ता यह मानते है कि जीवात्मा मे सत्य बोध को प्राप्त करने की स्वाभाविक शक्ति है और वह बिना किसी दूमरे को महायता के भी मत्य-पथ का बोध प्राप्त कर मकता है, यद्यपि पिन्ही विशिष्ट आत्माओ (सर्वज्ञ तीर्थकर) द्वारा गन्य-पथ का प्रकटन एवं उपदेश भी किया जाता है ।' सम्यक्स्व के पांच अंग-गम्यक्न्य यथार्थता है, मन्य है। इस गत्य की माधना के लिए जैन विचारको ने पाच अगो का विधान किया है। जब तक माधक इन्हें नही अपना लेता है, वह यथार्थ या मन्य की आराधना एव उपलब्धि में समर्थ नही हो पाता । सम्यक्त्व के व पाच अग इग प्रकार है १. सम-मम्यक्त्य का पहला लक्षण है मम । प्राकृत भाषा के 'मम' शब्द के संस्कृत भाषा में तीन रूप होत है .-१ मम, . शम, ३ यम । इन तीनो गन्दो के अनेक अर्थ होत है । 'मम' शब्द के ही दो अर्थ होत है-पहले अर्थ मे यह ममानभूति या तुल्यताबोध है अर्थात् मभी प्राणियो को अपने ममान समझना। इम अर्थ में यह 'आत्मवत् मर्वभनेप' के सिद्धान्त की स्थापना करता है, जो अहिंमा का आधार है। दूसरे अर्थ मे इमे चित्तवृत्ति का ममभाव कहा जा मकता है अर्थात् मुख-दुख हानि-लाभ एव अनुकूल-प्रतिकूल दोनो स्थितियो मे समभाव रखना, चित्त को विचलित नही होने देना । सम चित्त-वृत्ति मनुलन है। संस्कृत 'शम्' के रूप के आधार पर इसका अर्थ होता है शात करना अर्थात् कषायाग्नि या वामनाओ को शात करना । संस्कृत के तीसरे रूप 'श्रम' के आधार पर इसका निर्वचन होगा-सम्यक् 'प्रयास' या पुरुषार्थ । २. सवेग-सवेग शब्द का शाब्दिक विश्लेषण करने पर उसका निम्न अर्थ ध्वनित होता है सम् + वेग, सम्-मम्यक् उचित, वेग-गति अर्थात् मम्यक् गति । मम शब्द आत्मा के अर्थ मे भी आ सकता है। इस प्रकार इसका अर्थ होगा आत्मा की ओर गति । सामान्य अर्थ में सवेग शब्द अनुभूति के लिए भी प्रयुक्त होता है। यहाँ इसका तात्पर्य होगा स्वानुभूति, आत्मानुभूति अथवा आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति । मनोविज्ञान में आकाक्षा की तीव्रतम अवस्था को भी संवेग कहा जाता है। इस प्रसंग मे इसका अर्थ होगा सत्याभीप्सा अर्थात् सत्य को जानने की तीव्रतम आकांक्षा, क्योंकि १. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २६८ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन ५९ जिसमें सत्याभीप्सा होगी वही सत्य को पा सकेगा । सत्याभीप्सा से ही अज्ञान से ज्ञान की ओर प्रगति होती है। यही कारण है कि उत्तराध्ययनसूत्र मे संवंग का प्रतिफल बताते हुए महावीर कहते हैं कि संवेग से मिध्यात्व (अयथार्थता) की विशुद्धि होकर यथार्थ दर्शन की उपलब्धि ( आराधना ) होती ह । ३. निर्वेद - निर्वेद शब्द का अर्थ है उदासीनता, वैराग्य, अनासक्ति । सामारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन भाव रखना, क्योंकि इसके अभाव मे साधना के मार्ग पर चलना सम्भव नही होता । वस्तुतः निर्वेद निष्काम भावना या अनासक्त दृष्टि के विकास का आवश्यक अंग है । ४. अनुकम्पा – इस शब्द का शाब्दिक निर्वचन इस प्रकार हे अनु + कम्प । अनु का अर्थ है तदनुसार, कम्प का अर्थ है कम्पित होना अर्थात् किसी के अनुसार कम्पित होना । दूसरे शब्दो में दूसरे व्यक्ति के दुःख में पीडित होने पर तदनुकूल अनुभूति उत्पन्न होना ही अनुकम्पा है। वस्तुतः दूसरे के सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझना ही अनुकम्पा है । परोपकार के नैतिक सिद्धान्त का आधार ही अनुकम्पा ह । इसे सहानुभूति भी कहा जा सकता है । ५. आस्तिक्य - आस्तिक्य शब्द आस्तिकता का द्योतक है। इसके मूल में अस्ति शब्द है जो मत्ता का वाचक है । आस्तिक किसे कहा जाये, इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपो मे दिया गया है। कुछ ने कहा जो ईश्वर के अस्तित्व या मत्ता में विश्वास करता है वह आस्तिक है, दूसरो ने कहा जो वेदों में आस्था रखता है वह आस्तिक है । लेकिन जैन विचारणा मे आस्तिक और नास्तिक के विभेद का आधार भिन्न है । जैन दर्शन के अनुसार जो पुण्य-पाप, पुनर्जन्म कर्म सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह आस्तिक है । - सम्यक्त्व के दूषण (अतिचार) — जैन - विचारको की दृष्टि म यथार्थता या सम्यक्त्व के पाँच दूषण ( अतिचार) माने गये है जो सत्य या यथार्थता को अपने विशुद्ध स्वरूप से जानने अथवा अनुभूत करने में बाधक है । अतिचार वह दोष है जिसमे व्रत-भग तो नही होता लेकिन उसकी सम्यक्ता प्रभावित होती है— सम्यक दृष्टिकोण की यथार्थता को प्रभावित करने वाले तीन दोप है - १ चल, २ मल और ३ अगाढ | चल दोप से तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अन्तःकरण में तो यथार्थ दृष्टिकोण के प्रति दृढ रहता है, लेकिन कभी कभी क्षणिक रूप में बाह्य आवेगो में प्रभावित हो जाता है । मल व दोष है जो यथार्थ दृष्टिकोण की निर्मलता को प्रभावित करते है । मल पाच ह : १. शंका - वीतराग या अर्हत् के कथनो पर शका करना उसकी यथार्थता के प्रति सदेहात्मक दृष्टिकोण रखना । १. उत्तराध्ययन, २९।१ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौड और गीता का सामना मा २. आकांक्षा-स्वधर्म को छोड़कर पर-धर्म की इच्छा करना या आकांक्षा करना। नैतिक एवं धार्मिक आचरण के फल की कामना करना। नैतिक कर्मों की फलासक्ति भी साधना-मार्ग में बाधक तत्त्व मानी गयी है। ३. विचिकित्सा-नैतिक अथवा धार्मिक आचरण के फल के प्रति संशय करना अर्थात् मदाचरण का प्रतिफल मिलेगा या नही ऐमा मंशय करना। जैन-विचारणा में नैतिक कर्मों की फलाकाक्षा एवं फल-मंशय दोनों को ही अनुचित माना गया है । कुछ जैनाचार्यों के अनुसार इसका अर्थ घृणा भी है। रोगी एवं ग्लान व्यक्तियों के प्रति घृणा रखना । घृणाभाव व्यक्ति को मेवापथ से विमुख बनाता है। ४. मिथ्या दृष्टियों को प्रशंसा-जिन लोगों का दृष्टिकोण सम्यक् नही है ऐसे अयथार्थ दृष्टिकोणवाले व्यक्तियों अथवा मंगठनों की प्रशंसा करना । ५. मिया वष्टियों का अति परिचय-साधनात्मक अथवा नैतिक जीवन के प्रति जिनका दृष्टिकोण अयथार्थ है ऐम व्यक्तियों मे घनिष्ठ सम्बन्ध रखना। मंगति का असर व्यक्ति के जीवन पर काफी अधिक होता है। चरित्र के निर्माण एवं पतन दोनों पर ही संगति का प्रभाव पड़ता है, अतः मदाचारी पका का अनैतिक आचरण करने वाले लोगों से अति परिचय या घनिष्ठ सम्बन्ध रखना उचित नहीं माना गया है । कविवर वनारमीदाग जी ने नाटक समयमार में गम्यक्त्व के अतिचारों को एक भिन्न सूची प्रस्तुत की है। उनके अनुमार मम्यक् दशन के निम्न पाँच अतिचार है :-- १. लोकभय, २. सामारिक मुग्वों के प्रति आमक्ति, ३. भावी जीवन मे सामारिक सुखों के प्राप्त करने की इच्छा, ४. मिथ्यागास्त्रों की प्रशमा एव ५. मिथ्या-मतियों की सेवा ।। ___ अगाढ़ दोप वह दोप है जिसमे अस्थिरता रहती है । जिम प्रकार हिलत हुए दर्पण मे यथार्थ रूप तो दिखता है. लेकिन वह अस्थिर होता है। इसी प्रकार अस्थिर चित्त में सत्य प्रकट तो होता है, लेकिन अस्थिर रूप मे । जैन-विचारणा के अनुसार उपर्युक्त दोषों की सम्भावना क्षायोपशिमक सम्यक्त्व मे होती है, उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व में नही होती, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व को समयावधि ही इतनी क्षणिक होती है कि दोष होने का समय नही रहता और क्षायिक सम्यक्त्व पूर्ण शुद्ध होता है, अतः वहाँ भी दोषों को मम्भावना नही रहती । सम्यग्दर्शन के आठ वर्शनाचार-उत्तराध्ययनसूत्र मे सम्यग्दर्शन की साधना के आठ अंगों का वर्णन है । दर्शन-विशुद्धि एवं उसके मंवर्द्धन और संरक्षण के लिए इनका पालन आवश्यक है । आठ अग इस प्रकार है : १. देखिये-गोम्मटसार-जीवकाण्ड गाथा २९ की अंग्रेजी टीका जे०एल० जैनी, पृष्ठ २२ २. नाटकसमयसार, १३३३८ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन (१) निश्शंकित, ( २ ) निःकाक्षित, ( ३ ) निर्विचिकित्सा, ( ४ ) अमूढदृष्टि, (५) उपवृहण, ( ६ ) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य और (८) प्रभावना।' (१) निश्शंकता-मंशयशीलता का अभाव ही निश्शंकता है । जिन-प्रणीत तत्त्व दर्शन मे शका नही करना, उसे यथार्थ एवं सत्य मानना ही निश्शकता है । संशयशीलता साधना की दृष्टि मे विधातक तत्त्व है । जिम साधक की मन स्थिति संशय के हिंडोले में झूल रही हो वह इस संमार मे झूलता रहता है ( परिश्रमण करता रहता है ) और अपने लक्ष्य को नही पा सकता । गाधना के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए माध्य, साधक और साधना-पथ तीनों पर अविचल श्रद्धा होनी चाहिए । माधक में जिस क्षण भी इन तीनों में से एक के प्रति भी संदेह उत्पन्न होता है, वह माधना मे च्यत हो जाता है यही कारण है कि जन साधना निश्शंकता को आवश्यक मानती है। निग्शकता की इम धारणा को प्रज्ञा और तर्क की विरोधी नही मानना चाहिए। मंशय ज्ञान के विकाम मे साधन हो सकता है, लेकिन उसे साध्य मान लेना अथवा सशय में ही फक जाना माधक के लिए उपयुक्त नही है मूलाचार में निश्शंकता को निर्भयता माना गया है । नैतिकता के लिए पूर्ण निर्भय जीवन आवश्यक है। भय पर स्थित नैतिकता गच्ची नैतिकता नही है। (२) निष्कामता-स्वकीय आनन्दमय परमात्मम्वरूप में निष्ठावान् रहना और किमी भी पर-भाव की आकाक्षा या इच्छा नही करना निक्षता है । माधनात्मक जीवन मे भौतिक वैभव, ऐहिक तथा पारलौकिक मुग्व को लक्ष्य बनाना हा जन दर्शन के अनुसार "काक्षा" है। किसी भी लौकिक और पारलौकिक कामना का लेकर माधनात्मक जीवन में प्रविष्ट होना जैन विचारणा को मान्य नही है । वह ऐमी माधना को वास्तविक साधना नहीं कहती है, क्योकि वह आत्म-न्द्रित नही है । भौतिक मुग्खो और उपलब्धियों के पीछे भागनेवाला साधक चमत्कार और प्रलोभन के पीछे किमी भी क्षण लक्ष्यच्युत हो सकता है । इस प्रकार जैन-साधना मे यह माना गया है कि माधक को माधना के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के लिए निष्काक्षित अथवा निष्कामभाव से युक्त होना चाहिए। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थमिद्धयुपाय मे निष्कासना का अर्थ-'एकान्तिक मान्यताओं से दूर रहना' किया है। इस आधार पर अनाग्रह युक्त दृष्टिकाण मम्यक्त्व के लिए आवश्यक है। (३) निर्विचिकित्सा-विचिकित्मा के दो अर्थ है : (अ) मैं जो धर्म-क्रिया या माधना कर रहा है, इसका फल मुझे मिलेगा या नही, मेरी यह माधना व्यर्थ तो नहीं चली जावेगी, ऐमी आशंका रखना "विचिकित्सा" १. उत्तराध्ययन, २८१३१ २. आचाराग, १।५।५।१६३ ३. मूलाचार. २०५२-५३ ४. रन्नकरण्टकथावकाचार, १२ ५. पुरुषार्थ सिद्धघुपाय २३ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैग, बोर और गीता का सामना मार्ग कहलाती है। इस प्रकार साधना अथवा नैतिक क्रिया के फल के प्रति शंकाकुल बने रहना विचिकित्सा है । शंकाल हृदय माधक में स्थिरता और धर्य का अभाव होता है और उसकी साधना मफल नही हो पाती । अतः माधक के लिए यह आवश्यक है कि वह इस प्रतीति के साथ नैनिक आचारण का प्रारम्भ करे कि क्रिया और फल का अविनाभावी सम्बन्ध है और यदि नैतिक आचरण किया जावेगा तो निश्चित रूप से उसका फल होगा ही । इस प्रकार क्रिया के फल के प्रति सन्देह न होना ही निविचिकित्सा है। (ब) कुछ जैनाचायों के अनुमार तपस्वी एवं संयमपरायण मुनियों के दुर्बल, जर्जर शरीर अथवा मलिन यशभूपा को देखकर मन में ग्लानि लाना विचिकित्मा है, अतः साधक की वेशभूपा एवं शरीरादि बाह्य रूप पर ध्यान न देकर उसके साधानात्मक गुणों पर विचार करना चाहिए । वंगभूपा एवं शरीर आदि बाह्य सौन्दर्य पर दृष्टि को केन्द्रित न करके उमे आत्म-मौन्दर्य पर केन्द्रित करना ही सच्ची निर्विचिकित्सा है। आचार्य समन्तभद्र का कथन है, शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है, उसकी पवित्रता तो सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय के मदाचरण से ही है अतएव गुणीजनों के शरीर से घृणा न कर उसके गुणों मे प्रेम करना निविचिकित्सा है।' ४. अमढष्टि-मढ़ता अर्थात् अज्ञान । हेय और उपादेय, योग्य और अयोग्य के मध्य निर्णायक क्षमता का अभाव ही मूढ़ता है। मृढ़ताएं तीन प्रकार हैं-१. देवमूढ़ता, २. लोकमूढ़ता, ३. समयमृढता । (अ) देवमढ़ता-गाधना का आदर्श कौन है ? उपास्य बनने की क्षमता किसमें है ? ऐसे निर्णायक जान का अभाव ही देवमूढ़ता है, इसके कारण साधक गलत आदर्श और उपास्य का चयन कर लेता है । जिसमें उपास्य अथवा साधना का आदर्श बनने की योग्यता नही है उमे उपास्य बना लेना देवमूढ़ता है। काम-क्रोधादि आत्म-विकारों के पूर्ण विजेता, वीतराग एवं अविकल ज्ञान और दर्शन से युक्त परमात्मा को ही अपना उपास्य और आदर्श बनाना ही देव के प्रति अमृढदृष्टि है। (ब) लोकमढ़ता-लोक-प्रवाह और रूढ़ियों का अन्धानुकरण ही लोकमूढ़ता है। आचार्य ममन्तभद्र कहते है कि 'नदियों एवं सागर में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि मानना, पत्थरों का ढेर कर उससे मुक्ति समझना अथवा पर्वत से गिरकर या अग्नि में जलकर प्राण-विमर्जन करना आदि लोकमूढ़ताएं हैं। (स) समयमढ़ता-समय का अर्थ सिद्धान्त या शास्त्र भी है। इस अर्थ में सैद्धान्तिक ज्ञान या शास्त्रीय ज्ञान का अभाव समय-मूढ़ता है । ५. उपबृंहण-बृहि धातु के साथ उप उपसर्ग लगाने से उपबृंहण शब्द निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है वृद्धि करना, पोषण करना । अपने आध्यात्मिक गुणों का विकास १. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, २३ २. वही, २२ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना हो उपबृंहण है ।' सम्यक् आचरण करनेवाले गुणीजनों की प्रशसा आदि करके उनके सम्यक् आचरण मे योग देना उपबृहण है । (६ ) स्थिरीकरण कभी-कभी ऐसे अवमर उपस्थित हो जाते है जब साधक भौतिक प्रलोभन एव माधनासम्बन्धी कठिनाइयो के कारण पथच्युत हो जाता है। अतः ऐसे अवसरों पर स्वयं को पथच्युत होने से बचाना ओर पथच्युत साधको को धर्ममार्ग मे स्थिर करना स्थिरीकरण है। मम्यग्दृष्टिमम्पन्न साधको को न केवल अपने विकास को चिन्ता करनी होती है वरन् उनका यह भी कर्तव्य है कि वह ऐसे साधको को जो धर्म-मार्ग मे विचलित या पतित हो गये है उन्हे धम-मार्ग म स्थिर करे । जैन-दर्शन यह मानता है कि व्यक्ति या समाज की भौतिक सेवा मच्ची सेवा नही है, मच्ची सेवा तो है उसे धर्म-मार्ग मे स्थिर करना । जैनाचार्यों का कथन है कि व्यक्ति अपने शरीर के चमड़े के जूते बनाकर अपने माता-पिता को पहिनावे अर्थात् उनके प्रति इतना अधिक आत्मोत्सर्ग का भाव रखे तो भी वह उनके ऋण मे उऋण नही हो सकता। वह मातापिता के ऋण से उऋण तभी माना जाता है जब वह उन्हे मार्ग मे स्थिर करता है। दूसरे शब्दों में उनकी साधना मे महयोग देता है। अत धर्म-मार्ग से च्युत होनेवाले व्यक्तियों को धर्म-मार्ग में पुनः स्थिर करना माधक का कर्तव्य माना गया है । पतन दो प्रकार का है --१. दर्शन विकृति अर्थात् दष्टिकोण को विकृति और २ चारित्र विकृति अर्थात् धर्म-मार्ग से च्यत होना । दोनो ही स्थितियो में उमे यथोचित बोध देकर स्थिर करना चाहिए। (७) वात्सल्य-धर्म का आचरण करनेवाले ममान गण-शील माथियों के प्रति प्रेमभाव रखना वान्मल्य है । आचार्य ममन्तभद्र कहते है 'स्वमियों एवं गुणियों के प्रति निष्कपट भाव में प्रीति रखना और उनकी योचित मेवा-गशृपा करना वात्मन्य है। वात्मल्य मे मात्र ममर्पण और प्रपति का भाव होता है। वात्मन्य धर्म-गागन के प्रति अनुराग है । वात्मल्य का प्रतीक गाय और गोवत्म (बछडा ) का प्रेम है। जिस प्रकार गाय बिना किमी प्रतिफल की अपेक्षा के बछडे को मकट में देखकर अपने प्राणों को भी जोखिम में डाल देती है, इमी प्रकार मम्यग्दष्टि माधक का भी यह कर्तव्य है कि वह धार्मिकजनो के महयोग और महकार के लिए कुछ भा उठा न रखें । वात्मल्य मंघ-धर्म या सामाजिक भावना का केन्द्रीय तत्त्व है। (८) प्रभावना-माधना के क्षेत्र में म्व-पर कल्याण की भावना होती है। जैसे पुष्प अपनी सुवास मे स्स्य भी सुवामिन होता है और दूसरो को भी सुवामित करता है वैसे ही माधक सदाचरण और ज्ञान की मौग्भ में म्वय भी मुरभित होता है और जगत् १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २७ २. वही, २८ ३. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, १७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ जैन, बौद्ध और गीता का सामना मार्ग को भी सुरभित करता है । माघना सदाचरण और ज्ञान की सुरभि द्वारा जगत् के अन्य प्राणियों को धर्म मार्ग की ओर आकर्षित करना ही प्रभावना है। प्रभावना आठ प्रकार की है : - ( १ ) प्रवचन, (२) धर्म-कथा, (३) वाद, (४) नैमित्तिक, (५) तप, (६) विद्या, (७) प्रसिद्ध व्रत ग्रहण करना और (८) कवित्वशक्ति । सम्यग्दर्शन की साधना के छह स्थान - जिम प्रकार बौद्ध साधना के अनुसार 'दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख मे निवृत्ति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति का मार्ग है' इन चार आर्य सत्यों की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है, उसी प्रकार जैन-माघना के अनुसार पट् स्थानक ( छह बातों ) की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है - (१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) आत्मा कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (६) मुक्ति का उपाय ( मार्ग ) है । जैन तत्त्व-विचारणा के अनुमार इन पट्स्थानकों पर दृढ प्रतीति सम्यग्दर्शन को साधना का आवश्यक अंग है । दृष्टिकोण की विशुद्धता एवं सदाचार दोनों ही इन पर निर्भर हैं; ये पट्स्थानक जैन-नैतिकता के केन्द्र बिन्दु हैं । बौद्ध दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्वरूप - बौद्ध परम्परा में सम्यग्दर्शन के सामानार्थी सम्यग्दृष्टि, सम्यग्समाधि, श्रद्धा एवं चित्त शब्द मिलते है । बुद्ध ने अपने त्रिविध साधनामार्ग मे कही शोल, समाधि और प्रज्ञा, कहीं शील, चित्त और प्रज्ञा और कहीं शील, श्रद्धा और प्रज्ञा का विवेचन किया हैं । बौद्ध परम्परा में समाधि, चित्त और श्रद्धा का प्रयोग सामान्यतया एक ही अर्थ मे हुआ है। वस्तुतः श्रद्धा चित्त विकल्प की शून्यता की ओर ही ले जाती है। श्रद्धा के उत्पन्न हो जाने पर विकल्प समाप्त हो जाते हैं । उसी प्रकार समाधि की अवस्था में भी चित्त-विकल्पों की शून्यता होती है, अतः दोनों को एक ही माना जा सकता है। श्रद्धा और समाधि दोनों ही चिन की अवस्थाएँ हैं, अतः उनके स्थान पर चित्त का प्रयोग भी किया गया है। क्योंकि चित्त की एकाग्रता ही समाधि है और चित्त की भावपूर्ण अवस्था ही श्रद्धा है । अतः चित्त, समाधि और श्रद्धा एक ही अर्थ की अभिव्यक्ति करते है । यद्यपि अपेक्षा भेद से इनके अर्थों में भिन्नता भी है। श्रद्धाबुद्ध, संघ और धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा है तो समाधि चित्त की शान्त अवस्था है । बौद्ध परम्परा में सम्यग्दर्शन का अर्थ साम्य बहुत कुछ सम्यग्दृष्टि मे है । जिम प्रकार जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन तत्त्व श्रद्धा है उसी प्रकार बौद्ध दर्शन मे सम्यग्दृष्टि चार आर्य सत्यों के प्रति श्रद्धा है । जिस प्रकार जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन का अर्थ देव, १. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, ३० २. आत्मा छे, ते नित्य छे, छे कर्ता निजकर्म । छे भोक्ता वणी मोक्ष छे, मोक्ष उपाय सुधर्म ॥ - आत्मसिद्धिशास्त्र, पृष्ठ ४३ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यमान गुरु और धर्म के प्रति निष्ठा माना गया है, उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में श्रद्धा का अर्थ बद्ध, संघ और धर्म के प्रति निष्ठा है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में देव के रूप में अरहंत को साधना का आदर्श माना गया है, उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में साधना के आदर्श के रूप में बुद्ध और बुद्धत्व मान्य है। साधना-मार्ग के रूप में दोनों ही धर्म के प्रति निष्ठा को आवश्यक मानते हैं। जहां तक साधना के पथ-प्रदर्शक का प्रश्न है, जनपरम्परा में पथ-प्रदर्शक के रूप में गुरु को स्वीकार किया गया है, जबकि बौद्ध-परम्परा उसके स्थान पर संघ को स्वीकार करती है। जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन के दृष्टिकोणपरक और श्रद्धापरक ऐसे दो अर्थ स्वीकृत रहे हैं । जबकि बौद्ध-परम्परा में श्रद्धा और सम्यग्दृष्टि ये दो भिन्न तथ्य माने गये हैं । फिर भी दोनों समवेत रूप में जैन-दर्शन के सम्यग्दर्शन के अर्थ की अवधारणा को बौद्ध-दर्शन में भी प्रस्तुत कर देते हैं। ___ बौद्ध-परम्पग में सम्यग्दृष्टि का अर्थ दुःख, दुग्व के कारण, दु.ग्व निवृत्ति का मार्ग और दुःख-विमुक्ति इन चार आर्य-सत्यों की स्वीकृति है । जिस प्रकार जैन-दर्शन में वह जीवादि नव तत्त्वों का श्रद्धान है, उमी प्रकार बौद्ध-दर्शन में वह चार आर्य-गत्यों का श्रद्धान है। यदि हम सम्यग्दर्शन को तन्वदृष्टि या तत्त्व-श्रद्धान से भिन्न श्रद्धापरक अर्थ में लेने है तो बौद्ध-परम्परा मे उमकी तुलना श्रद्धा मे को जा मकती है। बौद्ध-परम्परा में श्रद्धा पाँच इन्द्रियों में प्रथम इन्द्रिय, पाँच बलों में अन्तिम बल और स्रोतापन्न अवस्था का प्रथम अंग मानी गई है। बौद्ध-परम्पग में श्रद्धा का अर्थ चित्त को प्रमादमयी अवस्था है। जब श्रद्धा चित्त में उत्पन्न होती है तो वह चित्त को प्रीति और प्रमोद में भर देती है और चित्तमलों को नष्ट कर देती हैं। बौद्ध-परम्पग मे श्रद्धा अन्धविश्वास नही, वग्न एक बुद्धि-सम्मत अनुभव है । यह विश्वास करना नही, वग्न् माक्षात्कार के पश्चात् उत्पन्न तन्व-निष्ठा है । बुद्ध एक ओर यह मानते है कि धर्म का ग्रहण स्वयं के द्वारा जानकर ही करना चाहिए । समग्र कालाममुन मे उन्होंने इस मविस्तार स्पष्ट किया है। दूसरी ओर वे यह भी आवश्यक समझते है कि प्रत्येक व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति निष्ठावान् रहे । बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से ममन्वित करके चलन है। मज्झिमनिकाय में बुद्ध यह स्पष्ट कर देते है कि ममीक्षा के द्वाग ही उचित प्रतीत होने पर धर्म को ग्रहण करना चाहिए ।' विवेक और ममीक्षा मदैव ही बुद्ध को स्वीकृत रहे है । बुद्ध कहते थे कि भिक्षुओं, क्या तुम शास्ता के गौरव से तो 'हो' नहीं कह रहे हो ? भिक्षओं, जो तुम्हारा अपना देखा हुआ, अपना अनुभव किया हुआ है क्या उमी को तुम कह रहे हो ? इस प्रकार बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से ममन्वित करते है। सामान्यतया बौद्ध-दर्शन १. मज्झिमनिकाय, १५७ ____२. वहो, १।४।८ 1८ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन, बौद्ध और गोता का सामना मार्ग मे श्रद्धा को प्रथम और प्रज्ञा को अन्तिम स्थान दिया गया है। साधनामार्ग की दृष्टि से श्रद्धा पहले आती है और प्रज्ञा उसके पश्चात् उत्पन्न होती है। श्रद्धा के कारण ही धर्म का श्रवण, ग्रहण, परीक्षण और वीर्यारम्भ होता है। नैतिक जीवन के लिए श्रद्धा कैसे आवश्यक होती है, इसका सुन्दर चित्रण बौद्ध-परम्परा के मौन्दरनन्द नामक ग्रन्थ मे मिलता है । उममे बुद्ध नन्द के प्रति कहते है कि पृथ्वी के भीतर जल है यह श्रद्धा जब मनुष्य को होती है तब प्रयोजन होने पर पृथ्वी को प्रयत्नपूर्वक खोदता है। भूमि से अन्न की उत्पत्ति होती है, यदि यह श्रद्धा कृपक में न हो तो वह भूमि में बीज ही नही डालेगा । धर्म की उत्पनि मे यही श्रद्धा उत्तम कारण है। जब तक मनुष्य तत्त्व को देख या सुन नही लेता, नव तक उमकी श्रद्धा स्थिर नही होती। माधना के क्षेत्र में प्रथम अवस्था मे श्रद्धा एक परिकल्पना के रूप में ग्रहण होती है और वही अन्त मे तत्त्व-साक्षात्कार बन जाती है । बुद्ध ने श्रद्वा और प्रज्ञा अथवा दूसरे शब्दो मे जीवन के बौद्धिक और भावात्मक पक्षो में ममन्वय किया है। यह ऐसा ममन्वय है जिसमे न तो श्रद्धा अन्धश्रद्धा बनती है और न प्रज्ञा केवल बौद्धिक या तर्कात्मक ज्ञान बन कर रह जाती है। जिम प्रकार जैन-दर्शन मे मम्यग्दर्शन के शका, आकाक्षा, विचिवित्मा आदि दोष है उमी प्रकार बौद्ध-परम्पग में भी पांच नीवरण माने गये है। वे इस प्रकार है :१ कामच्छन्द ( कामभोगो को चाह ), २. अव्यापाद ( अविहिसा), ३. स्थानमृद ( मानमिक और चैतमिक आलस्य ), ४ औद्धत्य-कोकृत्य ( चित्त की चंचलता ) और ५. विचिकित्मा (शका )। तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो बौद्ध-परम्परा का कामच्छन्द जैन-परम्परा के कामा नामक अतिचार के ममान है। इसी प्रकार विचिकित्मा भी दोनो दर्शनी में स्वीकृत है । जैन-परम्परा मे सगय और विचिकित्सा दोनो अलग-अलग माने गये है, लेकिन बौद्ध-परम्पग दोनो का अन्तग्भाव एक में ही कर देती है। इस प्रकार कुछ मामान्य मतभेदो को छोड कर जैन और बौद्ध दृष्टिकोण एक-दूसरे के निकट ही आते है। गीता में बड़ा का स्वरूप एवं वर्गीकरण-गीता में सम्यग्दर्शन के स्थान पर श्रद्धा का प्रत्यय ग्राह्य है । जैन-परम्परा मे सामान्यतया सम्यग्दर्शन दृष्टिपरक अर्थ मे स्वीकार हुआ है और अधिक से अधिक उसमे यदि श्रद्धा का तत्व समाहित है तो वह तन्व श्रद्धा ही है । लेकिन गीता में श्रद्धा शब्द का अर्थ प्रमुख रूप से ईश्वर के प्रति अनन्यनिष्ठा ही माना गया है, अत. गीता में श्रद्धा के स्वरूप पर विचार करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि जैन-दर्शन में श्रद्धा का जो अर्थ है वह गीता मे नही है । यद्यपि गीता यह स्वीकार करती है कि नैतिक जीवन के लिए संशयरहित होना १. विसुद्धिमग्ग, भाग १ पृ० ५१ (हिन्दी अनुवाद) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन आवश्यक है । श्रद्धारहित यज्ञ, तप, दान आदि सभो नैतिक कर्म निरर्थक माने गये हैं।' गीता में श्रद्धा तीन प्रकार की वर्णित है-१. सात्विक, २. राजस और ३. तामस । सात्विक श्रद्धा सत्वगुण से उत्पन्न होकर देवताओं के प्रति होती है। राजम श्रद्धा यज्ञ और राक्षसों के प्रति होती है, इसमें रजोगुण की प्रधानता होती है। तामम श्रद्धा भूत-प्रेत आदि के प्रति होती है । जैसे जैन-दर्शन में संदेह सम्यग्दर्शन का दोष है, वैसे ही गोता में भी संशयात्मकता दोष है। जिम प्रकार जैन-दर्शन में फलाकांक्षा सम्यग्दर्शन का अतिचार ( दोष ) मानो गई है, उमी प्रकार गीता में भी फलाकांक्षा को नैतिक जीवन का दोष माना गया है । गोता के अनुमार जो फलाकांक्षा से युक्त होकर श्रद्धा रखता है अथवा भक्ति करता है वह साधक निम्न कोटि का ही है । फलाकांक्षायुक्त श्रद्धा व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रगति को दृष्टि से आगे नहीं ले जाती । गीता में श्रीकृष्ण कहते है कि जो लोग विवेक-ज्ञान से रहित होकर तथा भोगों की प्राप्ति विषयक कामनाओं से युक्त हो मुझ परमात्मा को छोड़ देवताओं की शरण ग्रहण करते है, मैं उन लोगों की श्रद्धा उनमें स्थिर कर देता हूँ और उम श्रद्धा से युक्त होकर वे उन देवताओं की आराधना के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति करते है । लेकिन उन अल्प-बुद्धि लोगों का वह फल नाशवान् होता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, लेकिन मुझ परमात्मा की भक्ति करनेवाला मुझे ही प्राप्त होता है।' गीता में श्रद्धा या भक्ति चार प्रकार की कही गई है-(१) ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् होने वाली श्रद्धा या भक्ति-परमात्मा का माक्षात्कार कर लेने के पश्चात् उनके प्रति जो निष्ठा होती है वह, एक ज्ञानी की निष्ठा मानी गई है । (२) जिज्ञासा की दृष्टि से परमात्मा पर श्रद्धा रखना, श्रद्धा या भक्ति का दूमरा रूप है। इसमें श्रद्धा तो होती है लेकिन वह पूर्णतया मंशयरहित नही होती, जब कि प्रथम स्थिति में होनेवाली श्रद्धा पूर्णतया संगयरहित होती है। मशयरहित श्रद्धा तो साक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है । जिज्ञासा को अवस्था में मंशय बना ही रहता है। अतः श्रद्धा का यह स्तर प्रथम की अपेक्षा निम्न ही माना गया है। (३) तीसरे स्तर की श्रद्धा आर्त-व्यक्ति को होतो है। कठिनाई में फैमा व्यक्ति जब स्वयं अपने को उममे उबारने में असमर्थ पाता है और इसी दैन्यभाव से किमी उद्धारक के प्रति अपनी निष्ठा को स्थिर करता है, तो उसकी यह श्रद्धा या भक्ति एक दुःखी या आर्त व्यक्ति की भक्ति ही होती है। श्रद्धा या भक्ति का यह स्तर पूर्वोक्त दोनों स्तरों से निम्न होता है। (८) श्रद्धा या भक्ति का चोथा स्तर वह है जिममे श्रद्धा का उदय स्वार्थ के वशीभूत होकर होता है। यहां श्रद्धा कुछ १. गीता, १७।१३ २. वही, ४।४० ३. वही, १७१२-४ ४. वही, ७।२०-२३ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग पाने के लिए की जाती है। यह फलाकांक्षा की पूर्ति के लिए की जाने वाली श्रद्धा अत्यन्त निम्न स्तर की मानी गयी है। वस्तुतः इसे श्रद्धा केवल उपचार में ही कहा जाता है । अपनी मूल भावनाओं में तो यह एक व्यापार अथवा ईश्वर को ठगने का एक प्रयत्न है । ऐसी श्रद्धा या भक्ति नैतिक प्रगति में किसी भी अर्थ में सहायक नहीं होती। नैतिक दृष्टि से केवल ज्ञान के द्वारा अथवा जिज्ञासा के लिए की गयी श्रद्धा का हो कोई अर्थ और मूल्य हो सकता है।' तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते समय हमें यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि गीता में स्वयं भगवान के द्वारा अनेक बार यह आश्वासन दिया गया है कि जो मेरे प्रति श्रद्धा रखेगा वह बन्धनों से छूटकर अन्त में मुझे ही प्राप्त होगा। गीता में भक्त के योगक्षेम की जिम्मेदारी स्वयं भगवान ही वहन करते है, जबकि जैन और बौद्ध दर्शनों में ऐसे आश्वासनों का अभाव है। गीता मे वैयक्तिक ईश्वर के प्रति जिम निष्ठा का उद्बोधन है, वह सामान्यतया जैन और बौद्ध परम्पराओं में अनुपलब्ध ही है । उपसंहार-सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा का जीवन में क्या मूल्य है इस पर भी विचार करना अपेक्षित है। यदि हम सम्यग्दर्शन को दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार करते हैं, जैसा कि सामान्यतया जैन और बौद्ध विचारणाओं में स्वीकार किया गया है, तो उसका हमारे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है । सम्यग्दर्शन जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है । वह अनासक्त जीवन जीने की कला का केन्द्रीय तत्त्व है। हमारे चरित्र या व्यक्तित्त्व का निर्माण इसी जीवनदृष्टि के आधार पर होता है। गीता में इसी को यह कह कर बताया है कि यह पुरुष श्रद्धामय है और जैसी श्रद्धा होती है वैमा ही वह बन जाता है । हम अपने को जो और जैसा बनाना चाहते हैं वह इसी बात पर निर्भर है कि हम अपनी जीवनदृष्टि का निर्माण भी उसी के अनुरूप करें। क्योंकि व्यक्ति की जैसी दृष्टि होती है वैसा ही उसका जीवन जीने का ढंग होता है और जैसा उसका जीने का ढंग होता है वैसा ही उसका चरित्र बन जाता है । और जैसा उसका चरित्र होता है वैसा ही उसके व्यक्तित्व का उभार होता है। अतः एक यथार्थ दृष्टिकोण का निर्माण जीवन की सबसे प्राथमिक आवश्यकता है । __ यदि हम गीता के अनुसार सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा को आस्तिक बुद्धि के अर्थ में लेते हैं और उसे समर्पण की वृत्ति मानते है तो भी उसका महत्त्व निर्विवाद रूप से बहुत अधिक है। जीवन दुःख, पीड़ा और बाधाओं से भरा है। यदि व्यक्ति इसके बीच रहते हए किसी ऐसे केन्द्र को नहीं खोज निकालता जो कि उसे इन बाधाओं और पीड़ाओं से उबारे तो उसका जीवन सुख और शान्तिमय नही हो सकता है। जिस प्रकार परिवार में बालक अपने योगक्षेम की सम्पूर्ण जिम्मेदारी माता-पिता पर छोड़कर १. गीता, ७१६॥ २. वही, १८६६५-६६ । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यमन चिन्ताओं से मुक्त एवं तनावों से रहित सुख और शान्तिपूर्ण जीवन जीता है, उसी प्रकार साधक व्यक्ति भी अपने योगक्षेम की समस्त जिम्मेदारियों को परमात्मा पर छोड कर एक निश्चिन्त, तनावरहित, शान्त और सुखद जीवन जी सकता है । इस प्रकार तनावरहित, शान्त और समत्वपूर्ण जीवन जीने के लिए सम्यग्दर्शन से या श्रद्धा युक्त होना आवश्यक है । उसी से वह दृष्टि मिलती है जिसके आधार पर हम अपने ज्ञान को भी सही दिशा में नियोजित कर उसे यथार्थ बना लेते हैं । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान (ज्ञानयोग) जन नैतिक साधना में ज्ञान का स्थान-अज्ञान दशा में विवेक-शक्ति का अभाव होता है और जबतक विवेकाभाव है, तब तक उचित और अनुचित का अन्तर ज्ञात नही होता। इसीलिा दशकालिकमूत्र में कहा है भला, अज्ञानी मनुष्य क्या (माधना' करेगा? वह श्रेय (शुभ) और पाप (अशुभ) को कैसे जान मकेगा जैन-माधना-मार्ग में प्रविष्ट होने की पहली शर्त यही है कि व्यक्ति अपने अज्ञान अथवा अयथार्थ ज्ञान का निगकरण कर सम्यक् (यथार्थ) ज्ञान को प्राप्त करे । माधना-मार्ग के पथिक के लि जैन ऋपियों का चिर-सन्देश है कि प्रथम ज्ञान और तत्पश्चात् अहिंसा का आचरण; मयमो माधक की साधना का यही क्रम है। माधक के लिए स्व-परम्वरूप का भान, हेय और उपादेय का ज्ञान और शुभाशुभ का विवेक माधना के गजमार्ग पर बढने के लिए आवश्यक है । उपर्यक्त ज्ञान को साधनात्मक जीवन के लिए क्या आवश्यकता है इसका क्रमिक और सुन्दर विवेचन दर्शवकालिकमूत्र में मिलता है। उसमे आचार्य लिग्नत है कि जो आत्मा और अनात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानता है ऐगा ज्ञानवान मा क माधना (मयम) के स्वरूप को भलीभांति जान लेता है, क्योकि जो आत्मम्वरूप और जडम्वरूप को यथार्थ रूपेण जानता है. वह मभी जीवात्माओ के समार-परिभ्रमण रूप विविध (मानव-पशुआदि) गतियो को जान भी लेता है और जो इन विविध गतियो को जानता है, वह (इस परिभ्रमण के कारण रूप) पुण्य, पाप, बन्धन तथा मोक्ष के स्वरूप को भी जान लेता है। पुण्य, पाप, बंधन और मोक्ष के स्वरूप को जानने पर माधक भोगो को निम्मारता को समझ लेता है और उनमे विरक्त (आसक्त) हो जाता है। भोगों मे विरक्त होने पर बाह्य और आन्तरिक सासारिक सयोगों को छोडकर मुनिचर्या धारण कर लेता है । तत्पश्चात उत्कृष्ट संवर (वासनाओ के नियन्त्रण) में अनुत्तर धर्म वा आस्वादन करता है, जिससे वह अज्ञानकालिमा-जन्य वर्म-मल को झाइ देता है और केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर तदन्तर मुक्ति-लाभ कर लेता है। उत्तराध्ययनम्त्र में ज्ञान का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि ज्ञान अज्ञान एव मोहजन्य अन्धकार को नाट कर सर्व तथ्यों (यथार्थता) को प्रकाशित करता है । सत्य के स्वरूप को समझने का एकमेव साधन ज्ञान ही है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते है, ज्ञान ही मनुष्य-जीवन का मार है ।" १. अन्नाणी कि काही किं वा नाहिइ छेय पावग ? दर्शववालिक. ८।१० (उत्तरार्ध) । २. पढ़मं नाणं तओ दया एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । वही, ४।१० (पूर्वार्ध) । ३. वही, ४।१४-२७। ४. उत्तराध्ययन, ३२१२ ५. दर्शनपाहुइ, ३१ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान व्यक्ति आस्रव, अशुचि, विभाव और दुःख के कारणों को जानकर ही उनसे निवृत्त हो सकता है।' बीड-वर्शन में ज्ञान का स्थान-जैन-साधना के समान बौद्ध-साधना में भी अज्ञान को बंधन का और ज्ञान को मुक्ति का कारण कहा गया है । सुत्तनिपात ने बुद्ध कहते हैं, अविद्या के कारण ही (लोग) बारम्बार जन्म मृत्यु रूपी संसार में आते हैं, एक गति से दूसरी गति (को प्राप्त होते है) । यह अविद्या महामोह है, जिमके आश्रित हो (लोग) संमार में आते है । जो लोग विद्या से युक्त हैं, वे पुर्नजन्म को प्राप्त नहीं होने । जिम व्यक्ति में ज्ञान और प्रज्ञा होती है वही निर्वाण के ममीप होता है । बौद्ध-दर्शन के त्रिविध साधना-मार्ग में प्रज्ञा अनिवार्य अंग है। गीता में शान का स्थान-गीता के आचार-दर्शन में भी ज्ञान का महन्वपूर्ण स्थान है। शंकरप्रभति विचारकों की दष्टि में तो गीता ज्ञान के द्वारा ही मुक्ति का प्रतिपादन करती है। आचार्य शंकर की यह धारणा कहां तक ममचित है, यह विचारणीय विषय है, फिर भी इतना तो निश्चित है कि गीता की दष्टि में ज्ञान मक्ति का गाधन है और अजान विनाश का। गीताकार का कथन है कि अज्ञानी, अश्रद्धाल और मशरयुक्त व्यक्ति विनाश को प्राप्त होते है"। जबकि ज्ञानरूपी नौका का आश्रय लेकर पापी से पापी व्यक्ति पापम्पी ममुद्र मे पार हो जाता है। ज्ञान-अग्नि ममम्म कर्मों को भम्म कर देती है । इम जगत् में ज्ञान के ममान पवित्र करने वाला अन्य कुछ नहीं है।' सम्यग्ज्ञान का स्वरूप-जान मक्ति का माधन है, लेकिन कौन मा ज्ञान गाधना के लिए आवश्यक है ? यह विचारणीय है। आचार्य यशोविजयनी ज्ञानमार मे लिखा है कि मोक्ष के हेतृभत एक पद का ज्ञान भी श्रेष्ठ है, जबकि मोक्ष की माधना में अनपयोगी विस्तृत ज्ञान भी व्यर्थ है। ऐम विशालकाय ग्रन्थों का अध्ययन नैतिक जीवन के लिए अनुपयोगी ही है जिसमे आत्म-विकास सम्भव न हो। जैन नैतिकता यह बताती है कि जिम जान से म्बम्प का बोध नही होना, वह ज्ञान माधना में उपयोगी नदी है, अल्पतम मम्यग्ज्ञान भी माधना के लिए श्रेष्ट है । जैन-मायना में सम्यग्ज्ञान को ही मावनत्रय में म्थान दिया गया है। जैन चिन्तकों की दृष्टि में ज्ञान दो प्रकार का हो गकता है, एक गम्यक और दूनग मिथ्या। मामान्य गब्दावली में इन्हें यथार्यमान और अयथार्थजान कह गकते हैं। अतः यह विचार अपेक्षित है कि कौनमा ज्ञान सम्बन है ओर कानमा जान मिथ्या है ? १. ममयमार, ७२ २. मुननिपान, ३८१६-७ ३. धम्मपद, ३७० ४. गीता (गां), २११० ५. गीता, ४।४० ६. वही, ४।३६ ७. वही, ४।३७ ८. वही, ४॥३८ १. ज्ञानमार ५२ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग सामान्य साधकों के लिए जैनाचार्यों ने ज्ञान की सम्यक्ता और असम्यक्ता का जो आधार प्रस्तुत किया, वह यह है कि तीर्थंकरों के उपदेशरूप गणधर प्रणीत जैनागम यथार्थजान है और शेष मिथ्याज्ञान है ।' यहाँ ज्ञान के सम्यक् या मिथ्या होने की कसौटी आप्तवचन है । जैनदृष्टि में आप्त वह है जो रागद्वेष से रहित वीतराग या अर्हत् है । नन्दीसूत्र में इमी आधार पर सम्यक् श्रुत और मिथ्या श्रुत का विवेचन हुआ है । लेकिन जैनागम ही सम्यग्ज्ञान है और शेप मिथ्याज्ञान है, यह कमौटी जैनाचार्यों ने मान्य नहीं रखी। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि आगम या ग्रन्थ जो शब्दों के संयोग से निर्मित हुए हैं, वे अपने आपमें न तो सम्यक हैं और न मिथ्या, उनका सम्यक् या मिथ्या होना तो अध्येता के दृष्टिकोण पर निर्भर है। एक यथार्थ दृष्टिकोण वाले (सम्यक दृष्टि) के लिए मिथ्या श्रुत (जैनतर आगम ग्रन्थ) भी सम्यकथुत है जबकि एक मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक् श्रुत भी मिथ्याश्रुत है । इस प्रकार अध्येता के दृष्टिकोण की विशुद्धता को भी ज्ञान के सम्यक् अथवा मिथ्या होने का आधार माना गया है । जैनाचार्यों ने यह धारणा प्रस्तुत की कि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण शुद्ध है, सत्यान्वेपी है तो उसको जो भी ज्ञान प्राप्त होगा; वह भो सम्यक् होगा। इसके विपरीत जिमका दृष्टिकोण दुराग्रह दुरभिनिवेश से युक्त है, जिसमें यथार्थ लक्ष्योन्मुग्वता और आध्यात्मिक जिज्ञासा का अभाव है, उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान है। शान के स्तर-'स्व' के यथार्थ स्वरूप को जानना ज्ञान का कार्य है, लेकिन कौनसा ज्ञान स्व या आत्मा को जान सकता है, यह प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण है। भारतीय और पाश्चात्य चिन्तन में इस पर गहराई मे विचार किया गया है। गीता में एक और बुद्धि ज्ञान और असम्मोह के नाम से ज्ञान की तीन कक्षाओं का विवेचन उपलब्ध है, तो दूसरी ओर सात्विक, राजस और तामम इस प्रकार से ज्ञान के तीन स्तरों का भी निर्देश है। जैन-परम्परा मे मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवल इस प्रकार से ज्ञान के पांच स्तरों का विवेचन उपलब्ध है। दूमरो ओर अपेक्षाभेद से लौकिक प्रत्यक्ष (इन्द्रियप्रत्यक्ष) परोक्ष (बौद्धिकज्ञान और आगम) और अलौकिक प्रत्यक्ष (आत्म-प्रत्यक्ष) ऐसे तीन स्तर भी माने जा सकते है । आचार्य हरिभद्र ने जैन-दृष्टि और गीता का समन्वय करते हुए इन्द्रियजन्य ज्ञान को बुद्धि, आगमज्ञान को ज्ञान और सदनुष्ठान (अप्रमत्तता) को असम्मोह कहा है। इतना ही नहीं, आचार्य ने उनमें बुद्धि (इन्द्रियज्ञान) एवं बौद्धिकज्ञान की अपेक्षा ज्ञान (आगम) और ज्ञान की अपेक्षा असम्मोह (अप्रमत्तता) की कक्षा ऊंची मानी है । बौद्ध-दर्शन मे भी इन्द्रियज्ञान, बौद्धिक ज्ञान और लोकोत्तर ज्ञान ऐसे १. अभिधान-राजेन्द्र खण्ड ७, १०५१५ २. वही, पृ० ५१४ ३. गीता, १०।४ ४. वही, १८।१९ ५. तत्त्वार्थसूत्र, १९ ६. योगदृष्टिसमुच्चय ११९ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान तीन स्तर माने जा सकते हैं । त्रिशिका में लोकोत्तर ज्ञान का निर्देश है ।' पाश्चात्य दार्शनिक स्पोनोजा ने भी ज्ञान के तीन स्तर माने हैं ।२ १. इन्द्रियजन्य ज्ञान, २. तार्किक ज्ञान और ३. अन्तर्बोधात्मक ज्ञान । यही नहीं, स्पीनोजा ने भी इनमें इन्द्रिय-ज्ञान की अपेक्षा ताकिक ज्ञान को और तार्किक ज्ञान की अपेक्षा अन्तर्बोधात्मक ज्ञान को श्रेष्ठ और अधिक प्रामाणिक माना है । उनकी दृष्टि में इन्द्रियजन्यज्ञान अपर्याप्त एवं अप्रामाणिक है, जबकि तार्किक एवं अन्तर्बोधात्मक ज्ञान प्रामाणिक है । इसमे भी पहले की अपेक्षा दूसरा अधिक पूर्ण है। ज्ञान का प्रथम स्तर इन्द्रियजन्य ज्ञान है। यह पदार्थों को या इन्द्रियों के विषयों को जानता है । ज्ञान के इस स्तर पर न तो 'स्व' या आत्मा का साक्षात्कार सम्भव है और न नैतिक जीवन ही । आत्मा या स्व का ज्ञान इस स्तर पर इसलिए असम्भव है कि एक तो आत्मा अमूर्त एवं अतीन्द्रिय है । दूसरे, इन्द्रियाँ बहिर्दृष्टा हैं, वे आन्तरिक 'स्व' को नहीं जान सकतीं। तीसरे, इन्द्रियों की ज्ञान-शक्ति 'स्व' पर आश्रित है, वे 'स्व' के द्वारा जानती है, अतः 'स्व' को नहीं जान सकती। जैसे आँख स्वयं को नही देख सकती, उसी प्रकार जानने वाली इन्द्रियाँ जिसके द्वारा जानती है उमे नहीं जान सकतीं। ज्ञान का यह स्तर नैतिक जीवन की दृष्टि से इमलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इस स्तर पर आत्मा पूरी तरह पराश्रित होती है। वह जो कुछ करता है, वह किन्हीं बाह्यतन्वों पर आधारित होकर करता है; अतः ज्ञान के इस स्तर मे आत्मा परतन्त्र है । जैन-विचारकों ने आत्मा की दृष्टि से इसे परोक्षज्ञान ही माना है, क्योंकि इसमें इन्द्रियादि निमित्त की अपेक्षा है। बौद्धिक ज्ञान-ज्ञान का दूसरा स्तर वौद्धिक ज्ञान या आगम ज्ञान का है। ज्ञान का बौद्धिक स्तर भी आत्म-साक्षात्कार या स्व-बोध की अवस्था तो नही है, केवल परोक्ष रूप में इस स्तर पर आत्मा यह जान पाता है कि वह क्या नही है । यद्यपि इस स्तर पर ज्ञान के विपय आन्तरिक होते हैं, तथापि इस स्तर पर विचारक और विचार का द्वैत रहता है । ज्ञायक आत्मा आत्मकेन्द्रित न होकर पर-केन्द्रित होता है। यद्यपि यह पर ( अन्य ) बाह्य वस्तु नहीं, स्वयं उसके ही विचार होते हैं । लेकिन जब तक पर-केन्द्रितता है, तब तक सच्ची अप्रमत्तता का उदय नहीं होता और जब तक अप्रमत्तता नहीं आती, आत्मसाक्षात्कार या परमार्थ का बोध नही होता है। जब तक विचार है, विचारक विचार में स्थित होता है और 'स्व' में स्थित नहीं होता और 'स्व' में १. त्रिशिका २०. उद्धृत महायान पृ० ७२ २. स्पीनोजा और उसका दर्शन, पृ० ८६-८७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग स्थित हुए बिना आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता। यद्यपि इस स्तर पर 'स्व' का ग्रहण नहीं होता, लेकिन पर ( अन्य ) का पर के रूप में बोध और पर का निराकरण अवश्य होता है। इस अवस्था में जो प्रक्रिया होती है वह जैन-विचारणा में भेद-विज्ञान कही जाती है । आगम-जान भी प्रत्यक्ष रूप से तत्त्व या आत्मा का बोध नहीं करता है, फिर भी जमे चित्र अथवा नक्शा मूल वस्तु का निर्देश करने में महायक होता है, वैसे ही आगम भी तन्वोपलब्धि या आत्मज्ञान का निर्देश करते है। वास्तविक तन्व-बोध तो अपरोक्षानुभूति मे ही मम्भव है । जिम प्रकार नक्शा या चित्र मूलवस्तु मे भिन्न होते हुए भी उमका संकेत करता है, वैसे ही बौद्धिक ज्ञान या आगम भी मात्र संकेत करते है-लक्ष्यते न तु उच्यते । माध्यात्मिक ज्ञान-ज्ञान का तोमग स्तर आध्यात्मिक ज्ञान है। इसी स्तर पर आत्म-बोध, म्व का माक्षात्कार अथवा परमार्थ की उपलब्धि होती है। यह निर्विचार या विचारशून्यता की अवस्था है । इम स्तर पर ज्ञाता, ज्ञान और जेय का भेद मिट जाता है । ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय मभी 'आत्मा' होता है । ज्ञान की यह निविचार, निर्विकल्प, निराश्रित अवस्था ही ज्ञानात्मक माधना को पूर्णता है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन का माध्य ज्ञान की इमी पूर्णता को प्राप्त करना है। जैन दष्टि में यही केवलज्ञान है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते है कि जो मर्वनयों ( विचार-विकल्पो ) में शून्य है, वही आत्मा ( ममयमार ) है और वहां केवलज्ञान और केवलदर्शन कहा जाता है।' आचार्य अमृतचन्द्र भी लिखते है-विचार की विधाओं में रहित, निर्विकल्प म्ब-ग्वभाव मे स्थित ऐमा जो आत्मा का मार तत्त्व ( ममयमार ) है, जो अप्रमत्त पुरुषों के दाग अनुभूत है, वही विज्ञान है, वही पवित्र-पुगणपुरुप है । उमे ज्ञान ( आध्यामिक ज्ञान ) कहा जाय या दर्शन (आत्मानुभूति) कहा जाय या अन्य किमी नाम मे कहा जाय, वह एक ही है और अनेक नामों से जाना जाता है। बौद्ध-आचार्य भी इसी रूप में इम लोकोत्तर आध्यात्मिक ज्ञान की विवेचना करते है। वह किसी भी वाह्य पदार्थ का ग्राहक नहो होने से 'अचित' है, बाह्य पदार्थो के आश्रय का अभाव होने में अनुपलब्ध है वही लोकोत्तर ज्ञान है । क्लेशावरण और जेयावरण के नष्ट हो जाने में वह आनि-चित्त (आलयविज्ञान ) निवृत्त ( परावृत ) होता है प्रवृत्त नहीं होता है। वही अनामत्र धातु ( आवरणरहित ), अतर्कगम्य, कुगल, ध्रुव, आनन्दमा विमुविनकाय और मकाय कहा जाता है। ___ गीता मे भी कहा है कि जो सर्व-संकल्पों का त्याग कर देता है, वह योग मार्ग में आरूढ़ कहा जाता है। क्योंकि समाधि को अवस्था में विकल्प या व्यवमायात्मिका बुद्धि १. समयसार, १४४ २ मययमाग्टीका, ९३ ३. त्रिशिका २९-३० उद्धत महायान, पृ० ७०-७१ ४. गोता, ६।४ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं होती।' डा. राधाकृष्णन भी आध्यात्मिक ज्ञान के सम्बन्ध मे लिखते है कि "(जब) वासनाएं मर जाती है, तब मन में एक ऐसी शान्ति उत्पन्न होती है जिसमे आन्तरिक निःशब्दता पैदा होती है । इस निःशब्दता मे अन्तर्दृष्टि ( आध्यात्मिक ज्ञान ) उत्पन्न होती है और मनुष्य वह बन जाता है जो कि वह तत्त्वत है।" इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन ज्ञान के इस आध्यात्मिक स्तर पर ही ज्ञान की पूर्णता मानते है । लेकिन प्रश्न यह है कि इम ज्ञान की पूर्णता तो कैगे प्राप्त किया जाये ? भारतीय आचार-दर्शन इम गन्दर्भ मे जो मार्ग प्रस्तुत करने है उमे भेद-विज्ञान या आत्म-अनात्म-विवेक कहा जा मकता है । यहां भेद-विज्ञान की प्रक्रिया पर किंचित् विचार करलेना उचित होगा। नैतिकजीवन का लक्ष्य आत्मज्ञान-भारतीय नैतिर चिन्तन आत्म-जिज्ञागा में प्रारम्भ होता है। जब तक आत्म-जिज्ञामा उत्पन्न नही होती, तब तक नैतिक विकास की आर अग्रसर ही नही हुआ जा सकता । जब तक बाह्य दृष्टि है और आत्म जिज्ञागा नहीं है, तब तक जैन-दर्शन के अनुमार नैतिक विकास सम्भव नही । आत्मा के गच्चं स्वरूप की प्रतीति होना ही नितात आवश्यक है, गही मम्यग्ज्ञान है। ऋग्वेद का ऋपि इगी आ-मजिज्ञामा की उत्कट वेदना से पुकार कर कहता है, 'यह मै कोन ह अथवा कैमा ह दनको मै नही जानता।"3 प्रमुख जैनागम आचागगमूत्र का प्रारम्भ भा आन्म-जिज्ञागा गे होता है । उममे कहा है कि अनेक मनुष्य यह नही जानते कि मै कहाँ में आया ह। मंग भवान्तर होगा या नही ? मै कोन हूं? यहाँ में कहा जाऊंगा २४ जैन-दर्शन का निक आदर्श आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप में उपलब्ध करना । । नैतिकता आत्मोपलब्धि का प्रयाम है और आत्म-ज्ञान नैतिक आदर्श के रूप में म्वस्वरूप (परमार्थ) का ही ज्ञान है, जो अपने आपको जान लेता है उमे गविज्ञात हा जाता है । महावीर कहते है कि एक (आत्मा) को जानन पर मब जाना जाता है ।५ उपनिषद् का ऋपि भी यही कहता है कि उम एक (आन्मन्) को विनात कर लेन पर गा विनात हो जाता है । जैन बोद्ध और गीता मी विचारणाएँ इस विषय में एक मत है जिनात्म मे आत्मबुद्धि, ममन्वबुद्धि या मेरापन ही बन्धन का कारण । । वस्तुन जो हमाग बम्प नही है उसे अपना मान लेना ही बन्धन है। गीलि नतिक जीवन मे स्वरूपबोध आवश्यक माना गया । स्वम्प-बोध जिम क्रिया में उपलब्ध होता है उसे जैन-दर्शन में भेदविज्ञान कहा गया है । आचार्य अमृतचन्द्रम्रि कहते हैं कि जो सिद्ध हुए है वे भेद-विज्ञान १. गीता, 16 २. भगवदगीता (ग.), प० ५८ ३. ऋग्वंद, ११६४।३७ ८. आचागग, १।११ ५. वही, १।३।४ ६. छान्दोग्योपनिषद्, ६।१।३ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अन, बोद्ध और गीता का साथमा माग से ही हुए हैं और जो कर्म से बंधे है वे भेद-विज्ञान के अभाव में बंधे हुए है ।' भेद-विज्ञान का प्रयोजन आत्मतत्व को जानना है। नैतिक जीवन के लिए आत्मतत्त्व का बोध अनिवार्य है । प्राच्य एवं पाश्चात्य सभी विचारक आत्मबोध पर बल देते हैं । उपनिषद् के ऋपियो का संदेश है - आत्मा को जानो । पाश्चात्य विचारणा भी नैतिक जीवन के लिए आत्मज्ञान, आत्म-स्वीकरण (श्रद्धा) और आत्मस्थिति को स्वीकार करती है । आत्मज्ञान की समस्या -स्व को जानना अपने आप में एक दार्शनिक समस्या है, क्योकि जो भी जाना जा सकता है, वह 'स्व' कैसे होगा ? वह तो 'पर' ही होगा । 'स्व' तो वह है, जो जानता है । स्व को ज्ञेय नहीं बनाया जा सकता । ज्ञान तो ज्ञेय का होता है, ज्ञाता का ज्ञान कैसे हो सकता है ? क्योंकि ज्ञान की प्रत्येक अवस्था में ज्ञाता ज्ञान के पूर्व उपस्थित होगा और इस प्रकार ज्ञान के हर प्रयाम में वह अज्ञेय ही बना रहेगा । ज्ञाता को जानने की चेष्टा तो आँख को उमी आंख से देखने की चेष्टा जैसी बात है । जैसे नट अपने कंधे पर चढ़ नहीं सकता, वैसे ही ज्ञाता ज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता । ज्ञाता जिसे भी जानेगा वह ज्ञान का विषय होगा और वह ज्ञाता मे भिन्न होगा । दूमरे, आत्मा या ज्ञाता स्वतः के द्वारा नहीं जाना जा सकेगा क्योंकि उसके ज्ञान के लिए अन्य ज्ञाता की आवश्यकता होगी और यह स्थिति हमें अनवस्था दोष की ओर ले जायेगी । * इमलिए उपनिषद् के ऋषियों को कहना पड़ा कि अरे ! विज्ञाता को कैसे जाना जाये । केनोपनिषद् में कहा है कि वहाँ तक न नेत्रेन्द्रिय जाती है, न वाणी जाती है, न मन हो जाता है । अतः किस प्रकार उसका कथन किया जाये वह हम नहीं जानते । वह हमारी समझ मे नही आता । वह विदित से अन्य ही है तथा अविदित से भी परे है । 3 जो वाणी मे प्रकाशित नही है, किन्तु वाणी ही जिससे प्रकाशित होती है, जो मन से मनन नहीं किया जा सकता बल्कि मन हो जिससे मनन किया हुआ कहा जाता है, जिमे कोई नेत्र द्वारा देख नहीं सकता वरन् जिसकी सहायता से नेत्र देखते हैं, " जो कान से नहीं सुना जा सकता वरन् श्रोत्रों में ही जिससे सुनने की शक्ति आती है । वास्तविकता यह है कि आत्मा समग्र ज्ञान का आधार है, वह अपने द्वारा नही जाना जा सकता । जो समग्र ज्ञान के आधार में रहा है उसे उम रूप मे तो नहा जाना जा सकता जिस रूप में हम सामान्य वस्तुओं को जानते हैं । जैन विचारक कहते हैं कि जैसे सामान्य वस्तुएँ इन्द्रियों के माध्यम से जानी जाती हैं, वैसे आत्मा को नहीं जाना जा सकता । उत्तराध्ययन में कहा है कि आत्मा इन्द्रियग्राह्य नहीं है, क्योंकि वह अमूर्त है । १. समयसार टीका, १३१ ३. केनोपनिषद्, ११४ ५. वही, १1७ ७. उत्तराध्ययन, १४।१९ २ बृहदारण्यक उपनिषद् २|४|१४ ४. वही १५ ६. वही, १७ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यमान ७७ पाश्चात्य विचारकों में कांट भी यह मानते हैं कि आत्मा का ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय के आधार पर नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मा के ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नही रह सकता, अन्यथा ज्ञाता के रूप में वह सदा ही अज्ञेय बना रहेगा। वहाँ तो जो ज्ञाता है वही ज्ञेय है, यही आत्मज्ञान की कठिनाई है। बुद्धि अस्ति और नास्ति की विधाओं से सीमित है, वह विकल्पों से परे नही जा सकती, जबकि आत्मा या स्व तो बुद्धि की विधाओं से परे है । आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे नयपक्षातिक्रान्त कहा है । बद्धि की विधाएं या नयपक्ष ज्ञायक आत्मा के आधार पर ही स्थित है । वे आत्मा के समग्र स्वरूप का ग्रहण नही कर सकते । उसे तर्क और बुद्धि से अज्ञेय कहा गया है।' मैं सबको जान सकता हूँ, लेकिन उसी भांति स्वयं को नही जान सकता। शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी घटना भी दुरुह बनी हुई है। इसीलिए सम्भवतः आचार्य कुन्दकुन्द को भी कहना पड़ा, आत्मा बडी क ठनता से जाना जाता है। निश्चय ही आत्मज्ञान वह ज्ञान नही है जिससे हम परिचित है। आत्मज्ञान में ज्ञाता-ज्ञेय का भेद नही है। इसीलिए उसे परमज्ञान कहा गया है, क्योंकि उसे जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नही रहता । फिर भी उमका ज्ञान पदार्थ-ज्ञान की प्रक्रिया से नितान्त भिन्न रूप मे होता है । पदार्थ-ज्ञान मे विषय-विषयी का सम्बन्ध है, आत्मज्ञान में विषय-विषयी का अभाव । पदार्थ ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय होते है लेकिन आत्मज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रहता। वहाँ तो मात्र ज्ञान होता है। वह शुद्ध ज्ञान है, क्योंकि उममें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों अलग अलग नही रहतं । इम ज्ञान की पूर्ण गुद्धावस्था का नाम ही आत्मज्ञान है, यही परमार्थज्ञान है । लेकिन प्रश्न तो यह है कि ऐमा विपय और. विषयी से अथवा जाता और ज्ञेय से रहित ज्ञान उपलब्ध कैसे हो? आत्मज्ञान की प्राथमिक विधि भेव-विज्ञान-यद्यपि यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञाता-ज्ञेयरूप ज्ञान के द्वाग नही जाना जा सकता, लेकिन अनात्म-तन्व तो ऐमा है जिसे ज्ञाता ज्ञेयरूप ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है । मामान्य व्यक्ति भी इम माधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान सकता है कि अनात्म या उसके ज्ञान के विषय क्या है । अनात्म के स्वरूप को जानकर उसमें विभेद स्थापित किया जा सकता है और इस प्रकार परोक्ष विधि के माध्यम से आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ा जा सकता है। मामान्य बुद्धि चाहे हमे यह न बता सके कि परमार्थ का स्वरूप क्या है, लेकिन वह यह तो महज रूप में बता सकती है कि यह परमार्थ नहीं है । यह निषेधात्मक विधि ही परमार्थ बोध की एकमात्र पद्धति है, जिसके द्वारा मामान्य माधक परमार्थबोध की दिशा में आगे बढ़ सकता है। जैन, बौद्ध और वेदान्त की परम्परा मे इस विधि का बहुलता मे निर्देश १. आचारांग, १।५।६ २. मोक्खपाहुड, ६५ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जन, बोट और मोता का सामना मार्ग हुआ है। इसे ही भेद-विज्ञान या आत्म-अनात्मविवेक कहा जाता है। अगली पंक्तियों में हम इमी भेद विज्ञान का जैन, बौद्ध और गीता के आधार पर वर्णन कर रहे हैं। __ जैन-दर्शन में भेव-विज्ञान-आचार्य कुन्दकुन्द ने भेद-विज्ञान का विवेचन इस प्रकार किया है-रूप आत्मा नही है क्योंकि वह कुछ नही जानता, अतः रूप अन्य है और आत्मा अन्य है । वर्ण आन्मा नही है क्योंकि वह कुछ नही जानता, अतः वर्ण अन्य है और आत्मा अन्य है । गन्ध आत्मा नही है क्योंकि वह कुछ नही जानता, अतः गन्ध अन्य है और आत्मा अन्य है। रम आत्मा नही है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता, अतः रम अन्य है और आत्मा अन्य है। स्पर्श आत्मा नही है क्योकि वह कुछ मही जानता, अतः म्पर्श अन्य है और आत्मा अन्य है। कर्म आत्मा नहीं है क्योकि कम कुछ नही जानते, अतः कर्म अन्य है आत्मा अन्य है । अध्यवमाय आत्मा नही है क्योंकि अध्यवसाय कुछ नही जानते (मनोभाव भी किसी ज्ञायक के द्वारा जाने जाते है अतः वे स्वतः कुछ नही जानने-क्रोध के भाव को जानने वाला शायक उममे भिन्न है ), अतः अध्यवसाय अन्य है और आत्मा अन्य है।' आत्मा न नारक है, न तिर्यच है, न मनुष्य है, न देव है न बालक है, न वृद्ध है, न तरुण है, न गग है, न द्वेष है, न मोह है, न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है । वह इसका कारण भी नहीं है और कर्ता भी नहीं है (नियमगार ७८-८१) । इस प्रकार अनात्म-धर्मों (गुणों) के चिन्तन के द्वारा आत्मा का अनात्म गे पार्थक्य किया जाता है । यही प्रज्ञापूर्वक आत्म-अनात्म मे किया हुआ विभेद भेद-विज्ञान कहा जाता है। इमी भेद-विज्ञान के द्वारा अनात्म के स्वरूप को जानकर उममे आत्म-बुद्धि का त्याग करना हो सम्यग्ज्ञान की साधना है। बीड-दर्शन में भेराभ्यास-जिस प्रकार जैन-साधना में सम्यग्ज्ञान या प्रज्ञा का वास्तविक उपयोग भेदाभ्यास माना गया, उसी प्रकार बौद्ध-साधना में भी प्रज्ञा का वास्तविक उपयोग अनात्म की भावना में माना गया है । भेदाम्यास की माधना मे जैन साधक वस्तुतः स्वभाव के यथार्थज्ञान के आधार पर म्वस्वम्प (आत्म) और परस्वरूप (अनात्म) मे भेद स्थापित करता है और अनान्म मे रही हुई आत्म-बुद्धि का परित्याग कर अन्त में अपने माधना के लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति करता है । बौद्ध साधना मे भी साधक प्रज्ञा के सहारे जागतिक उपादानों (धर्म) के स्वभाव का ज्ञान कर उनके अनात्म स्वरूप मे आत्म-बुद्धि का परित्याग कर निर्वाण का लाभ करता है । अनात्म के स्वरूप का ज्ञान और उसमे आत्म-बुद्धि का परित्याग दोनों दर्शनों में साधना के अनिवार्य तत्त्व है । जिस प्रकार जैन विचारकों ने रूप, रस, वर्ण, देह, इन्द्रिय, मन, अध्यवमाय आदि को अनात्म कहा, उसी प्रकार बौद्ध-आगमों में भी देह, इन्द्रियाँ, उनके विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श तथा मन आदि को अनात्म कहा गया है और दोनों ने साधक के लिए यह स्पष्ट निर्देश किया कि वह उनमें आत्म-बुद्धि न रखे । लगभग समान शब्दों १. समयमार, ३९२-४०३ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान ७९ और शैली में दोनों ही अनात्म भावना या भेद - विज्ञान की अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं, जो तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययनकर्ता के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इस सन्दर्भ बुद्ध वाणी है । "भिक्षुओं, चक्षु अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, जो दुःख है वह अनात्म है, जो अनात्म है वह न मेरा है, न मै हूँ, न मेरा आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए ।" “भिक्षुओं, घ्राण अनित्य है, जिह्वा अनित्य है, काया अनित्य है, मन अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, जो दुःख है वह अनात्म है, जो अनात्म है वह न मेरा है, न मैं हूँ, न मेरा आत्मा है, इमे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए ।" 'भिक्षुओं, रूप अनित्य है, जो अनित्य है वह दुःख है, वह अनात्म है, जो अनात्म है, वहन मेरा है, न मैं हूँ, न मेरी आत्मा है, इमे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए ।” 'भिक्षुओ, शब्द अनित्य है । गध। रम । स्पर्श । धर्म अनित्य है, जो अनित्य है, वह दुःख है, वह अनात्म है, जो अनात्म है, वह न मेरा है, न मै हूँ, न मेरी आत्मा है, इसे यथार्थतः प्रज्ञापूर्वक जान लेना चाहिए ।' 'भिक्षुओं । इमे जान पण्डित आर्यश्रावक चक्षु मे वैराग्य करता है, श्रोत्र मे, घ्राण मे, जिह्वा मे, काया में, मन मे वैराग्य करता है । वैराग्य करने मे, रागरहित होने से विमुक्त हो जाता है । विमुक्त होने में विमुक्त हो गया ऐमा ज्ञान होता है । जाति क्षीण हुई, ब्रह्मचर्य पूरा हो गया, जो करना था सो कर लिया, पुनः जन्म नही होगा - जान लेता है ।' 'भिक्षुओ | अतीत और अनागत रूप अनात्म है वर्तमान का क्या कहना गन्ध..........। रम''''। स्पर्श । धर्म। ? शब्द" | भिक्षुओं । इसे जानकर पण्डित आर्यश्रावक अतीत रूप मे भी अनपेक्ष होता है, अनागत रूप का अभिनन्दन नही करता और वर्तमान रूप के निर्वेद, विराग और विरोध के लिए यत्नशील होता है ।' शब्द । गन्ध ं''। रम"'"। स्पर्श | धर्म। इस प्रकार हम देखते है कि दोनों विचारणाएँ भेदाभ्यास या अनात्म-भावना के चिन्तन में एक-दूसरे के अत्यन्त निकट है । बौद्ध-विचारणा में समस्त जागतिक उपादानों को 'अनात्म' सिद्ध करने का आधार है उनकी अनित्यता एवं तज्जनित दुःखमयता | जैन- विचारणा ने अपने भेदाभ्यास की साधना मे जागतिक उपादानों में अन्यत्व भावना का आधार उनकी मांयोगिक उपलब्धि को माना है, क्योंकि यदि सभी १. संयुत्तनिकाय, ३४|१|१|१; ३४ |१| १ |४; ३४ । १ । १ । १२ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डन, बोट और गोता का साधना मार्ग संयोगजन्य है, तो निश्चय ही संयोग कालिक होगा और इस आधार पर वह अनित्य भी होगा। बुद्ध और महावीर, दोनों ने ज्ञान के समस्त विषयों में 'स्व' या आत्मा का अभाव देखा और उनमें ममत्व-बुद्धि के निषेध की बात कही । लेकिन बुद्ध ने साधना की दृष्टि से यहीं विश्रान्ति लेना उचित ममझा । उन्होंने साधक को यही कहा कि तुझे यह जान लेना है कि 'पर' या अनात्म क्या है, 'स्व' को जानने का प्रयास करना व्यर्थ है। इस प्रकार बुद्ध ने मात्र निषेधात्मक रूप में अनात्म का प्रतिबोध कराया, क्योंकि आत्मा के प्रत्यय में उन्हें अहं, ममत्व, या आसक्ति की ध्वनि प्रतीत हुई । महावीर की परम्परा ने अनात्म के निराकरण के साथ आत्मा के स्वीकरण को भी आवश्यक माना। पर या अनात्म का परित्याग और स्व या आत्म का ग्रहण यह दोनों प्रत्यय जैन-विचारणा में स्वीकृत रहे है । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, यह शुद्धात्मा जिस तरह पहले प्रज्ञा से भिन्न किया था उसी तरह प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करना।' लेकिन जैन और बौद्ध परम्पराओं का यह विवाद इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण नही रहता है कि बौद्ध-परम्परा ने आत्म शब्द से 'मेरा' यह अर्थ ग्रहण किया जबकि जैन-परम्परा ने आत्मा को परमार्थ के अर्थ में ग्रहण किया । वस्तुतः राग का प्रहाण हो जाने पर 'मेरा' तो शेष रहता ही नहीं, रहता है मात्र परमार्थ । चाहे उसे आत्मा कहें, चाहे शून्यता, विज्ञान या परमार्थ कहें, अन्तर शब्दों में हो सकता है, मूल भावना में नहीं । गोता में मारम अनात्म विवेक (भेव-विज्ञान)--गीता का आचार-दर्शन भी अनासक्त दृष्टि के उदय और अहं के विगलन को नैतिक साधना का महत्त्वपूर्ण तथ्य मानता है । डा० राधाकृष्णन् के शब्दों में हमे उद्धार की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी अपनी वास्तविक प्रकृति को पहचानने की है। अपनी वास्तविक प्रकृति को कैसे पहचानें ? इसके साधन के रूप में गीता भी भेद-विज्ञान को स्वीकार करती है । गीता का तेरहवां अध्याय हमे भेद-विज्ञान सिखाता है जिसे गीताकार ने 'क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ ज्ञान' कहा है। गीताकार ज्ञान की व्याख्या करते हुए कहता है कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को जानने वाला ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। गीता के अनुसार यह शरीर क्षेत्र है और इसको जानने वाला ज्ञायक स्वभाव-युक्त आत्मा ही क्षेत्रन है। वस्तुतः समस्त जगत् जो ज्ञान का विषय है, वह क्षेत्र है और परमात्मस्वरूप विशुद्ध आत्म-तत्त्व जो ज्ञाता है. क्षेत्रज्ञ है। इन्हे क्रमशः प्रकृति और पुरुष भी कहा जाता है । इस प्रकार क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, प्रकृति और पुरुष या अनात्म और आत्म का यथार्थ विवेक या भिन्नता का बोध ही ज्ञान है । गीता में सांख्य शब्द आत्म-अनात्म के ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और उसकी व्याख्या में १. समयसार, २९६ २. भगवद्गीता (रा०) पृ० ५४ ३. गीता, १३३२ ४. वही, १३३१ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यमान आचार्य शंकर ने यही दृष्टि अपनायी है । वे लिखते है कि 'यह त्रिगुणात्मक जगत् या प्रकृति ज्ञान का विषय है, मैं उनसे भिन्न हूँ ( क्योकि ज्ञाता और ज्ञेय, नाटा और दृश्य एक नही हो सकते है), उनके व्यापारों का द्रष्टा या साक्षीमात्र हूँ, उनमे विलक्षण हैं। इस प्रकार आत्मस्वरूप का चिन्तन करना ही मम्यग्ज्ञान है ।' ज्ञायकम्वरूप आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप के बोध के लिए जिन अनात्म तथ्यों से विभेद स्थापित करना होता है, वे हैं-पंचमहाभूत, अहभाव, विपययक्त बुद्धि, सूक्ष्म प्रकृति, पाचज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन, रूप, रम, गन्ध, शब्द और स्पर्श-पाचों इन्द्रियों के पांच विषय, इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख, स्थूल देह का पिण्ड ( गरीर ) मुख-दु.खादि भावो की चेतना और धारणा । ये सभी क्षेत्र है अर्थात् ज्ञान के विषय है और इसलिए ज्ञायक आत्मा इसमे भिन्न है ।२ गीता यह मानती है कि 'आत्मा को अनात्म मे अपनी भिन्नता का बोध न होना ही बन्धन का कारण है ।' जब यह पुरुप प्रकृति में उत्पन्न हुए विगुणात्मक पदार्थो को प्रकृति में स्थित होकर भोगता है तो अनात्म प्रकृति में आत्म-बद्धि के कारण ही वह अनेक अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेता है ।' दुगरे शब्दो में अनात्म में आत्म-बुद्धि करके जब उसका भोग किया जाता है तो उग आत्मवद्धि के कारण ही आत्मा बन्धन में आ जाता है । वस्तुत. इम शरीर में स्थित होता हुआ भी आत्मा गगे भिन्न ही है, यही परमात्मा है। यह परमात्मम्वरूप आन्मा गगेर आदि विषयों में आत्मबुद्धि करके ही बन्धन मे है । जब नो इमे भेद-विज्ञान के द्वाग अपने यथार्थ स्वम्प का वोध हो जाता है, वह मुक्त हो जाता है । अनात्म के प्रति आत्म-बुद्धि को ममाप्त करना यही भेद-विज्ञान है और यही क्षेत्र-क्षेज्ञत्र-ज्ञान है । इमी के दाग अनात्म एवं आम के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है । यही मुक्ति का मार्ग है। गीता कहती है जो व्यक्ति अनात्म त्रिगुणात्मक प्रकृति और परमात्मम्वरूप नायक आत्मा के यथार्थ म्बम्प को तत्वदृष्टि मे जान लेता है, वह इस ममार में रहता हुआ भी तन्त्र म्प गे ग ममार मे ऊपर उठ गया है, वह पुनर्जन्म को प्राप्त नही होता है।" इस प्रकार हम देखते है कि जैन-दर्शन के ममान गीता भी इमी आत्म-अनात्मविवेक पर जोर देती है । दोनों के निष्कर्ष समान है। गर्गरम्थ नायक स्वरूप आत्मा का बोध ही दोनों आचार-दर्शनों को स्वीकार है। गीता में श्रीकृष्ण ज्ञान-अमि के द्वाग अनात्म में आत्मबुद्धि रूप अज्ञान के छेदन का निर्देश करते है, ' तो आचार्य कुन्दकुन्द प्रज्ञा-छेनी में इम आत्म और अनात्म (जड) को अलग करने की बात कहत है।' १. गीता (शां) १३।२४ ३. वही, १३।२१ ५. वही, १६१२३ ७. समयसार २९४ २. गीता, १३१५.६ ८. वही, १३।३१ ६. वही, ४।४२ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग निष्कर्ष यह है कि जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन में यह भेद - विज्ञान लक्ष्य है । यही मुक्ति या अनात्म-विवेक या क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ ज्ञान हो ज्ञानात्मक साधना का निर्वाण की उपलब्त्रि का आवश्यक अंग है तब तक अनात्म मे आत्म- बुद्धि का परित्याग नही होगा, तब तक आमक्ति समाप्त नही होती और आसक्ति के समाप्त न होने से निर्वाण या मुक्ति की उपलब्धि नही होती । आचारागसूत्र में कहा है जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नही रखता वह 'स्व' से अन्य रमता भी नही है और जो 'स्व' में अन्यत्र रमता नही है वह 'स्व' मे अन्यत्र बुद्धि भी नही रखता है ।' इस आत्म-दृष्टि या तत्त्व-स्वरूप दृष्टि का उदय भेद-विज्ञान के द्वारा ही होता है और इस भेद - विज्ञान की कला में निर्वाण या परमपद की प्राप्ति होती है । भेद - विज्ञान वह कला है जो ज्ञान के व्यावहारिक स्तर से प्रारम्भ होकर साधक को उस आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचा देती है, जहाँ वह विकल्पात्मक बुद्धि से ऊपर उठकर आत्म-लाभ करता है । निष्कर्ष - भारतीय परम्परा में सम्यग्ज्ञान, विद्या अथवा प्रज्ञा के जिम रूप को आध्यात्मिक एवं नैतिक जीवन के लिए आवश्यक माना गया है, वह मात्र बौद्धिक ज्ञान नही है । वह तार्किक विश्लेपण नही, वरन् एक अपरोक्षानुभूति हैं । बौद्धिक विश्लेषण परमार्थ का साक्षात्कार नही करा सकता, इसलिए यह माना गया कि बौद्धिक विवेचनाओ से ऊपर उठकर ही तत्त्व का साक्षात्कार सम्भव है । जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराएँ समान रूप मे यह स्वीकार करती है कि केवल शास्त्रीय ज्ञान से तत्त्व की उपलब्धि नही होती । जहाँ तक बौद्धिक ज्ञान का प्रश्न है, वह अनिवार्य रूप से नैतिक जीवन के साथ जुडा हुआ नही है । यह सम्भव है कि एक व्यक्ति विपुल शास्त्रीय ज्ञान एवं तर्क-शक्ति के होते हुए भी सदाचारी न हो । बौद्धिक स्तर पर ज्ञान और आचरण का द्वैत बना रहता है, लेकिन आध्यात्मिक स्तर पर यह द्वैत नही रहता । वहाँ सदाचरण और ज्ञान साथ-माथ रहते है । सुकरात का यह कथन कि 'ज्ञान ही सदगुण है' ज्ञान के आध्यात्मिक स्तर का परिचायक है। ज्ञान के आध्यात्मिक स्तर पर ज्ञान और आचरण ये दो अलग अलग तथ्य भी नही रहते । ज्ञान का यही स्वरूप नैतिक जीवन का निर्माण कर सकता है । इसमे ज्ञान और आचरण दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ८२ १. आचारांग ११२:२ 1 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्चारित्र (शील) सम्यग्दर्शन से सम्यकचारित्र की ओर आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए श्रद्धा और ज्ञान में काम नही चलता। उनके लिए आचरण जरूरी है। यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का सम्यक्चारित्र के पूर्व होना आवश्यक है, फिर भी वे बिना सम्यक्चारित्र के पूर्णता को प्राप्त नहीं होते। दर्शन अपने अन्तिम अर्थ तत्त्व-साक्षात्कार के रूप में तथा ज्ञान अपने आध्यात्मिक स्तर पर चारित्र मे भिन्न नही रह पाता । यदि हम सम्यग्दर्शन को श्रद्धा के अर्थ में और सम्यग्ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान के अर्थ मे ग्रहण करे, तो सम्यक्-चारित्र का स्थान स्पष्ट हो जाता है । वस्तुत इम रूप मे सम्यकचारित्र आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में उठाया गया अन्तिम चरण है। आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा मे बढने के लिए, सबसे पहले यह आवश्यक ह कि जब तक हम अपने मे स्थित उम आध्यात्मिक पूर्णता या परमात्माका अनुभव न करलें, तब तक हमे उन लोगो के प्रति, जिन्होने उम आध्यात्मिक पूर्णता या परमात्मा का माक्षात्कार कर लिया है, आस्थावान रहना चाहिए एव उनके कथनों पर विश्वास करना चाहिए । लेकिन देव, गुरु, शास्त्र और धर्म पर श्रद्धा या आस्था का यह अर्थ कदापि नही है कि बुद्धि के दरवाजे बन्द कर लिये जायें । मानव मे चिन्तन-शक्ति है यदि उमको इम चिन्तन-शक्ति को विकास का यथोचित अवमर नही दिया गया है तो न केवल उमका विकास ही अपूर्ण होगा, वरन् मानवीय आत्मा उम आस्था के प्रति विद्रोह भी कर उठेगी। जीवन के तार्किक पक्ष को सन्तुष्ट किया जाना चाहिए । इसीलिए श्रद्धा के माथ ज्ञान का समन्वय किया गया है, अन्यथा श्रद्धा अन्धी होगी। श्रद्धा जब तक ज्ञान एव स्वानुभूति से ममन्वित नही होती वह परिपुष्ट नहीं होती। ऐमी अपूर्ण, अस्थायी और बाह्य श्रद्धा साधक जीवन का अग नही बन पाती है । महाभारत में कहा गया है कि जिस व्यक्ति ने स्वय के चिन्तन द्वारा ज्ञान उपलब्ध नहीं किया, वरन् केवल बहुत मी बातो को सुना भर है, वह शास्त्र को सम्यक् रूप मे नही जानता; जैसे चमचा दाल के स्वाद को नही जानता।' इसलिए जैन-विचारणा मे कहा गया है कि प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा करना चाहिए; तर्क से तत्त्व का विश्लेषण करना चाहिए। लेकिन तार्किक या बौद्धिक ज्ञान भी अन्तिम नही है । ताकिक ज्ञान जब तक अनुभूति से प्रमाणित नही होता वह पूर्णता तक नही १. महाभारत, २०५५।१ २. उत्तराध्ययन, २३।२५ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग पहुंचता है । तर्क या बुद्धि को अनुभूति का मम्बल चाहिए । दर्शन परिकल्पना है, ज्ञान प्रयोग-विधि है और चारित्र प्रयोग है। तीनो के सयोग मे मत्य का माक्षात्कार होता है। ज्ञान का मार आचरण है और आचरण का मार निर्वाण या परमार्थ की उपलब्धि है।' सत्य जब तक स्वय के अनुभवो में प्रयोग-मिद्ध नहीं बन जाता, तबतक वह मत्य नही होता । सत्य तभी पूर्ण मत्य होता है जब वह अनुभूत हो । इमीलिए उत्तगध्ययनसूत्र में कहा है कि ज्ञान के द्वाग परमार्थ का स्वरूप जाने, श्रद्धा के द्वारा स्वीकार करे, और आचरण के द्वाग उमका साक्षात्कार करे। यहां माक्षात्कार का अर्थ है मत्य, परमार्थ या सत्ता के माथ एकरम हो जाना । शास्त्रकार ने परिग्रहण शब्द को जो योजना की है वह विशेष रूप में द्रष्टव्य है। बौद्धिक ज्ञान तो हमारे सामने चित्र के समान परमार्थ का निर्देश कर देता है । लेकिन जिम प्रकार मे चित्र और यथार्थ वस्तु म महान् अन्तर होता है उमी प्रकार परमार्थ के ज्ञान द्वारा निर्देशित स्वरूप में और तत्त्वत परमार्थ में भी महान् अन्तर होता है । ज्ञान तो दिशा-निर्देश करता है, गाक्षावार तो स्वयं करना होता है । माक्षात्कार की यही प्रक्रिया आचारण या चारित्र है। मत्य, परमार्थ, आत्म या तत्त्व जिसका साक्षात्कार किया जाना है वह तो हमारे भीतर मदेव ही उपस्थित है । लेकिन जिम प्रकार मलिन, गदले एव अस्थिर जल मे कुछ भी प्रतिविम्बित नही होता उसी प्रकार वामनाओ, कपायो और राग-द्वेष की वृत्तियो से मलिन एव अस्थिर बनी हुई चेतना मे सत्य या परमार्थ प्रतिबिम्बित नही होता । प्रयास या आचरण सत्य को पाने के लिए नही, वरन् वासनाओ एव राग-द्वेष का वृत्तियो मे जनित इम मलिनता या अस्थिरता को समाप्त करने के लिा आवश्यक है। जब वामनाओ की मलिनता समाप्त हो जाती है, राग और द्वेष के प्रहाण से चित्त स्थिर हो जाता है तो सत्य प्रतिबिम्बित हो जाता है और साधक को परम शान्ति, निर्वाण या ब्रह्म-भाव का लाभ हो जाता है । हम वह हो जाते है जो कि तत्त्वत हम है । सम्यकचारित्र का स्वरूप-सम्यक्चारित्र का अर्थ ह चित्त अथवा आत्मा की वामनाओं की मलिनता और अस्थिरता को समाप्त करना । यह अस्थिरता या मलिनता स्वाभाविक नही, वग्न् वैभाविक है, बाह्यभौतिक एव तज्जनित आन्तरिक कारणो से है । जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएं इस तथ्य को स्वीकार करती है। ममयमार मे कहा है कि तत्त्व दृष्टि से आत्मा शुद्ध है । भगवान् बुद्ध भी कहते है कि भिक्षुआ, यह चित्त स्वाभाविक रूप में शुद्ध है ।' गोता भी उसे अविकारी कहती है। आत्मा या चित्त की जो अशुद्धता है, मलिनता है, अस्थिरता या चचलता है, वह बाह्य है, अम्वाभाविक है। जैन-दर्शन उस मलिनता के कारण को कर्ममल मानता है, गीता उमे त्रिगुण १. आचारार्गानयुक्ति, २४४ २. समयमार, १५१ ३. अंगुत्तरनिकाय, १।५।९ ४. गीता, २।२५ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक चारित्र (झील) ८५ कहती है और बौद्ध दर्शन मे उमे बाह्यमल कहा गया है । स्वभावतः नीचे की ओर बहने वाला पानी दबाव से ऊपर चढने लगता है, स्वभाव से शीतल जल अग्नि के संयोग से उष्णता को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा या चित्त स्वभाव से शुद्ध होते हुए भी त्रिगण, कर्मो या बाह्यमलो मे अशुद्ध बन जाता है। लेकिन जैसे ही दबाव समाप्त होता है पानी स्वभावतः नीचे की ओर बहने लगता है, अग्नि का सयोग दूर होने पर जल शीतल होने लगता है । ठीक इसी प्राकर बाह्य सयोगों से अलग होने पर यह आत्मा याचिन पुन अपनी स्वाभाविक समत्वपूर्ण अवस्था को प्राप्त हो जाता है । सम्यक् आचरण या चारित्र का कार्य इन मयोगो में आत्मा या चित्त को अलग रख कर स्वाभाविक समत्व की दिशा में ले जाना ह । संस्थापन माना जो धर्म है वह जैन आचार-दर्शन में सम्यक् चारित्र का कार्य आत्मा के समत्व का गया है । आचार्य कुन्दकुन्द कहने है कि चारित्र ही वास्तव में धर्म है, समत्व है और मोह एव क्षोभ से रहित आत्मा की शुद्ध दशा को प्राप्त करना समत्व है ।" पचास्तिकायमार में इसे अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि समभाव हो चारित्र है | चारित्र के दो रूप - जैन- परम्परा में चारित्र दो प्रकार निरूपित है -१ व्यवहारवारित्र और २ निश्चयचारित्र । आचरण का बाह्य पक्ष या आचरण के विविधविधान यवहारचारित्र है और आचरण का भावपक्ष या अन्तरात्मा निश्चयचारित्र है । जहाँ तक नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का प्रश्न है अथवा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न ह, निश्चयचारित्र ही उसका मूलभूत आधार है। लेकिन जहां तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, चारित्र का यह बाह्यपक्ष ही प्रमुख है । निश्चयदृष्टि से चारित्र - चारित्र का सच्चा स्वरूप समन्व की उपलब्धि है । चारित्र का यह पक्ष आत्मरमण हो है । निश्चयचारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है । अपन चेतना की अवस्था मे होनेवाले सभी कार्य शुद्ध हो माने गये है | चेतना मे जब गग, द्वेष, कपाय और वामनाओ की अग्नि पूरी तरह शान्त हो जाती है, तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होना है और ऐसा ही मदाचार मोक्ष का कारण होता है । अप्रमत्त चेतना जो कि निश्चय चारित्र का आधार है राग, द्वेष, कपाय, विषयवासना, आलस्य और निद्रा मे रहित अवस्था है । माधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन मे जाग्रत् होता है, उसका आचरण बाह्य आवेगो और वामनाओ मे चालित नही होता है, तभी वह मच्चे अर्थो में निश्चयचारित्र का पालनकर्ता माना जाता है । यहीं निश्चय चारित्र मुक्ति का सोपान है । व्यवहारचारित्र — व्यवहारचारित्र का सम्बन्ध हमारे मन, वचन और कर्म की २. पचास्तिकायमार, १०७ १. प्रवचनसार, १७ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन, बोद्ध और गोता का साधना मार्ग शुद्धि तथा उस शुद्धि के कारणभूत नियमों से है । सामान्यतया व्यवहारचारित्र में पंचमहाव्रतों, तीन गुप्तियों, पंचसमितियों आदि का सामावेश है । व्यवहारचारित्र भी दो प्रकार का है-१. सम्यक्त्वाचरण और २. मंयमाचरण । व्यवहारचारित्र के प्रकार-चारित्र को देशव्रतीचारित्र और मर्ववतीचारित्र ऐसे दो वर्गों में विभाजित किया गया है । देशव्रतीचारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ-उपासकों मे और सर्वव्रतीचारित्र का सम्बन्ध श्रमण वर्ग से है । जैन-परम्पग मे गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूलगुण, षट्कर्म, बारह व्रत शौर ग्यारह प्रतिमाओं का पालन आता है। श्वेताम्बर परम्पग में अष्टमूलगुणों के स्थान पर मप्तव्यमन त्याग एवं ३५ मार्गानुमागे गणों का विधान मिलता है । इमी प्रकार उममं पट्कर्म को पडावश्यक कहा गया है । श्रमणाचार के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, रात्रिभोजन निषेध, पचममिति, तीन गुप्ति, दम यतिधर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ, बाईस परीपह, अट्ठाइस मूलगुण, बावन अनाचार आदि का विवेचन उपलब्ध है । इसके अतिरिक्त भोजन, वस्त्र, आवाम सम्बन्धी विधि निषेध है । इन सबका विवेचन गृहस्थाचार और श्रमणाचार के प्रमंगों मे हुआ है। चारित्र का वर्गीकरण गृहस्थ और श्रमण धर्म के अतिरिक्त अन्य अपेक्षाओं से भी हुआ है। चारित्र का चतुर्विष वर्गीकरण-स्थानांगसूत्र में निर्दोष आचरण को अपेक्षा से चारित्र का चतुर्विध वर्गीकरण किया गया है। जैसे घट चार प्रकार के होते है वैसे ही चारित्र भी चार प्रकार का होता है। घट के चार प्रकार है-१. भिन्न (फूटा हुआ), २. जर्जरित, ३. परिस्रावी और ४. अपरिस्रावी । इसी प्रकार चारित्र भी चार प्रकार का होता है-१. फूटे हुए घड़े के समान अर्थात् जब साधक अंगीकृत महाव्रतों को सर्वथा भंग कर देता है तो उसका चारित्र फूटे घड़े के समान होता है। नैतिक दृष्टि से उसका मूल्य समाप्त हो जाता है । २. जर्जरित घट के समान-सदोषचारित्र जर्जरित घट के समान होता है । जब कोई मुनि ऐसा अपराध करता है जिसके कारण उमकी दीक्षा-पर्याय का छेद किया जाता है तो ऐसे मुनि का चारित्र जर्जरित घट के समान होता है । ३. परित्रावी-जिस चारित्र मे सूक्ष्म दोप होते हैं वह चारित्र परिसावी कहा जाता है। ४. अपरित्रावी-निर्दोष एवं निरतिचार चारित्र अपरिखावी कहा जाता है। चारित्र का पंचविष वर्गीकरण-तत्त्वार्थसूत्र ( ९।१८ ) के अनुसार चारित्र पांच प्रकार का है-१. सामायिक चारित्र, २. छेदोपस्थापनीय चारित्र, ३. परिहारविशुद्धि चारित्र, ४. सूक्ष्मसम्परायचारित्र और ५. यथाख्यात चारित्र । १. सामायिक चारित्र-वासनाओं, कषायों एवं राग-द्वेष की वृत्तियों से निवृत्ति तथा समभाव की प्राप्ति सामायिक चारित्र है। व्यावहारिक दृष्टि से हिंसादि बाह्य १. स्थानांग, ४१५९५ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्चारित्र (झील) पापों से विरति भी सामायिक चारित्र है । सामायिक चारित्र दो प्रकार का है-(अ) इत्वरकालिक - जो थोड़े समय के लिए ग्रहण किया जाता है और (ब) यावत्कथित - जो सम्पूर्ण जीवन के लिए ग्रहण किया जाता है । ८७ २. छेोपस्थापनीयचारित्र - जिम चारित्र के आधार पर श्रमण जीवन मे वगिठता और कनिष्ठता का निर्धारण होता है वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है । यह सदाचरण का बाह्य रूप है, इसमे आचार के प्रतिपादित नियमों का पालन करना होता है और नियम के प्रतिकूल आचरण पर दण्ड देने की व्यवस्था होती है । ३. परिहारविशुद्धिचारित्र - जिम आचरण के द्वारा कर्मो का अथवा दोषो का परिहार होकर निर्जंग के द्वारा विशद्धि हो वह परिहारविद्धिवारित्र है । ४. सूक्ष्मसम्पराय चारित्र - जिस अवस्था में कपाय-वत्तिया क्षीण होकर किचित् रूप में ही अवशिष्ट रही हों, वह सूक्ष्म सम्परायचारित्र हैं । ५. यथाख्यातचारित्र - कपाय आदि सभी प्रकार दोपों से रहित निर्मल एवं विशुद्ध चारित्र यथाख्यातचारित्र है । यथाख्यातचारित्र निश्चयचारित्र है । चारित्र का त्रिविध वर्गीकरण वामनाओं के क्षय, उपशम और क्षयोपशम के आधार पर चारित्र के तीन भेद है । १. क्षायिक, २. औपशमिक और ३ श्रापोपशमिक । क्षायिकचारिन हमारे आत्मस्वभाव मे प्रतिफलित होता है। उसका स्रोत हमारी आत्मा ही है, जब कि औपशमिकचारित्र में यद्यपि आचरण सम्यक् होता है, लेकिन आत्मस्वभाव मे प्रतिफलित नही होता । वह कर्मों के उपशम से प्रकट होता है । आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में क्षायिकचारित्र में वासनाओं का निग्मन हो जाता है, जब कि औपशमिक चारित्र मे मात्र वागनाओं का दमन होता है । वामनाओं का दमन और वामनाओं के निरगन में जो अन्तर है, वही अन्तर औपशमिक और क्षायिकचारित्र में है । नैतिक साधना का लक्ष्य वामनाओं का दमन नही वरन् उसका निरसन या परिकार है । अतः चारित्र का क्षायिक प्रकार ही नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि में महत्वपूर्ण सिद्ध होता है । चारित्र के उपर्युक्त सभी प्रकार आत्मशोधन की प्रक्रियाएँ है । जो प्रक्रिया जितनी अधिक मात्रा में आत्मा को राग, द्वेष और मोह से निर्मल बनाती है, वामनाओं की आग मे तप्त मानस को शीतल करती है और संकल्पों और विकल्पों के चंचल झंझावात मे बचा कर चित्त को शान्ति एवं स्थिरता प्रदान करती है और समाजिक एवं वैयक्तिक जीवन में समत्व की संस्थापना रखती है, वह उतनी ही अधिक मात्रा में चारित्र के उज्ज्वलतम पक्ष को प्रस्तुत करती है । बौद्ध दर्शन और सम्यक्चारित्र बौद्ध दर्शन में सम्यक्चारित्र के स्थान पर शील शब्द का प्रयोग हुआ है । बोद्ध Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग परम्परा में निर्वाण की प्राप्ति के लिए शोल को आवश्यक माना गया है । शील और श्रत या आचरण और ज्ञान दोनों ही भिक्ष-जीवन के लिए आवश्यक हैं। उसमें भी शील अधिक महत्वपूर्ण माना गया है । विशुद्धिमार्ग में कहा गया है कि यदि भिक्षु अल्पश्रुत भी होता है, किन्तु गीलवान है तो गील ही उमकी प्रशंसा का कारण है। उसके लिए श्रुत अपने आप पूर्ण हो जाता है, इसके विपरीत यदि भिक्षु बहुश्रुत भी है किन्तु दुःशील है तो दु.शीलता उमको निन्दा का कारण है और उसके लिए श्रुत भी सुखदायक नही होता है। __शील का अर्थ-बौद्ध आचार्यों के अनुमार जिससे कुशल धर्मों का धारण होता है या जो कुगल धर्मों का आधार है, वह गील है। मद्गुणों के धारण या गीलन के कारण ही उमे मील कहते है । कुछ आचार्यों की दृष्टि से गिगर्थ गोलार्थ है, अर्थात् जिस प्रकार गिर के कट जाने पर मनुष्य मर जाता है वैमे ही शील के भंग हो जाने पर सारा गुण रूपी शरीर ही विनष्ट हो जाता है । इमलिा शील को गिरार्थ कहा जाता है। विशुद्धिमार्ग मे शील के चार रूप वर्णित है।-१. चेतना गील २. चैत्तसिक गोल ३. मंवर शील और ४. अनुल्लंघन गोल । १. चेतना शोल-जीव हिमा आदि में विरत रहने वाले या व्रत-प्रतिपत्ति (व्रताचार) पूर्ण करनेवाली चेतना ही चेतना शील है । जीव-हिमा आदि छोड़नेवाले व्यक्ति का कुशल-कर्मों के करने का विचार चेतना गील है । २. चैतसिक शोल-जीव हिंमा आदि ने विरत रहने वाले की विरति चतमिक शील है, जैसे वह लोभ रहित चित्त में विहरता है। ___३. संवर शील-सवा गील पाँच प्रकार का है-१. प्रतिमोक्षसंवर, २. म्मृतिसंवर, ३. ज्ञानसंवर, ४. क्षातिमवर और ५. वीर्यमंवर । ___४. अनुल्लघन शोल-ग्रह्ण किये हए व्रत नियम आदि का उल्लंघन न करना यह अनुल्लंघन शील है। शोल के प्रकार विमुद्धिमग्ग मे गोल का वर्गीकरण अनेक प्रकार में किया गया है । यहाँ उनमे से कुछ रूप प्रस्तुत है । शील का द्विविध वर्गीकरण १. चारित्र-वारित्र के अनुसार गोल दो प्रकार का माना गया है। भगवान के द्वारा निर्दिष्ट 'यह करना चाहिए' इस प्रकार विधि रूप में कहे गये शिक्षा-पदों या नियमों का १. विगुद्धिमार्ग, भाग १, पृ० ४९ २. वही, पृ०९ ३. वही, पृ०८ ४. वही, पृ० १३-१४ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यकचारित्र (शोल) ८९ पालन करना 'चारित्र-शील' है। इसके विपरीत 'यह नही करना चाहिए' इस प्रकार निषिद्ध कर्म न करना 'वारित्र-शील' है। चारित्र-शील विधेयात्मक है, वारित्र-शील निषेधात्मक है। २. निश्रित और अनिश्रित के अनुसार शील दो प्रकार का है। निश्रय दो प्रकार के होते है-तृष्णा-निश्रय और दृष्टि-निश्रय । भव-सपत्त को चाहते हुए फलाकाक्षा मे पाला गया शील तृष्णा-निश्रित है। मात्र शील से ही विशुद्धि होती है इस प्रकार की की दृष्टि में पाला गया शील दृष्टि-निधित है । तृष्णा-निश्रित और दृष्टि-निश्रित दोनों प्रकार के शील निम्न कोटि के है। तणा-निश्रय और दण्टि-निश्रय से रहित शील अनिश्रित-शील है । यही अनिश्रित-शील निर्वाण मार्ग का माधक हैं। ३. कालिक आधार पर शील दो प्रकार का है । किमी निश्चित समय त के लिए ग्रहण किया गया शील कालपर्यन्त-गील कहा जाता है जबकि जीवन-पर्यन्त के लिा ग्रहण किया गया शील आप्राणकोटिक गील कहा जाता है । जैन परम्पग में इन्हे क्रमशः इत्वरकालिक और यावत्कथित कहा गया है। ४. मपर्यन्त और अपर्यन्त के आधार पर शील दो प्रकार का है । लाभ, यश, जाति अथवा दारीर के किमी अग एव जीवन की रक्षा के लिए जिम शील का उल्लघन कर दिया जाता है वह मपर्यन्तशील है। उदाहरणार्थ, किमी विपशील नियम का पालन करने हा जाति-गरीर के किमी अग अथवा जीवन की हानि की गम्भावना को देखकर उम गील का त्याग कर देना । इसके विपरीत जिम गोल का उल्लघन किमी भी स्थिति मे नही किया जाता, वह अपर्यन्त शील है। तुलनात्मक दृष्टि में ये नैतिकता के गापेक्ष और निरपेक्ष पक्ष है । जैन परम्पग में इन्हें अपवाद और उन्गग मार्ग कहा गया है । ५. लौकिक और अलौकिक के आधार पर शील दो प्रकार का है । जिम गील का पालन मामाजिक जीवन के लिए होता है और जो मायव है, वह लौकिक गील है । जिम मील का पालन निर्वेद विगग और विमक्ति के लिए होता है और जो अनास्रव है वह लोकोत्तर शील है। जैन-परम्पग मे उन्हें क्रमश. व्यवहार-चरित्र और निश्चयचारित्र कहा गया है। शील का विविध वर्गीकरण' __ शील का विविध वर्गीकरण पाँच त्रिकों में किया गया है १. हीन, मध्यम और प्रणीत के अनुमार गील तीन प्रकार का है। दूमगे की निन्दा की दृष्टि में अथवा उन्हे हीन बताने के लिए पाला गया गील हीन है। लौकिक शील या मामाजिक नियम-मर्यादाओं का पालन मध्यम शील है और लोकोत्तर शील प्रणीत है। एक दूसरी अपेक्षा में फलाकाक्षा में पाला गया शील होन है । अपनी १. विशुद्धिमार्ग, पृ० १५-१६ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग मुक्ति के लिए पाला गया शील मध्यम है और सभी प्राणियों की मुक्ति के लिए पाला गया पारमिता गील प्रणीत है । २. आत्माधिपत्य, लोकाधिपत्य और धर्माचिपत्य की दृष्टि से भी शील तीन प्रकार का है। आत्म गौरव या आत्म-सम्मान के लिए पाला गया शील आत्माधिपत्य है । लोक-निन्दा से बचने के लिए अथवा लोक में सम्मान अर्जित करने के लिए पाला गया शील लोकाधिपत्य है । धर्म के महत्त्व, धर्म के गौरव और धर्म के सम्मान के लिए पाला गया शील धर्माधिपत्य है । ३. परामृष्ट, अपरामृष्ट और प्रतिप्रश्रब्धि के अनुसार शोल तीन प्रकार का है । मिथ्यादृष्टि लोगों का आचरण परामृष्ट शील है । मिथ्यादृष्टि लोगो मे भी जो कल्याणकर या शुभ कर्मों में लगे हुए है उनका शील अपरामृष्ट है, जब कि सम्यदष्टि के द्वारा पाला गया शील प्रतिप्रश्रव्धि शील है । ४. विशुद्ध, अशुद्ध और वैमतिक के अनुसार शील तीन प्रकार का है। आपत्ति या दोष से रहित शील विशुद्ध शील है। आपत्ति या दापयुक्त शाल अविशुद्ध शील हे । दोप या उल्लघन सम्बन्धी बातों के बारे मे जो सदेह में पड़ गया है, उसका शोल वैमतिकगोल है । ५. शैक्ष्य, अशैक्ष्य और न-शैक्ष्य-न- अशैक्ष्य के अनुसार गील तीन प्रकार का है । मिथ्या दृष्टि का शील न-शैक्ष्य-न अशैक्ष्य है । सम्यकदृष्टि का शील शैक्ष्य है और अर्हत् का शील अशैक्ष्य है | विशुद्धिमग्ग मे शील का चतुविध और पचविध वर्गीकरण भी अनेक रूपों में वर्णित है । लेकिन विस्तार भय एवं पुनरावृत्ति के कारण यहाँ उनका उल्लेख करना आवश्यक नही है । शील का प्रत्युपस्थान — काया की पवित्रता, वाणी की पवित्रता और मन की पवित्रता ये तीन प्रकार की पवित्रताएँ शोल के जानने का आकार ( प्रत्युपस्थान ) है अर्थात् कोई व्यक्ति शीलवान् है या दुःशील है, यह उसके मन, वचन और कर्म की पवित्रता के आधार पर ही जाना जाता है । शील का पवस्थान-जिन आधारों पर शील ठहरता है, उन्हें शील का पदस्थान कहा जाता है । लज्जा और संकोच इसके पदस्थान है । लज्जा और सकोच के होने पर ही शील उत्पन्न होता है और स्थित रहता है, उनके न होने पर न तो उत्पन्न होता और न स्थिर रहता है । शील के गुण-शील के पाँच गुण हैं - १. शीलवान व्यक्ति अप्रमादी होता है और अप्रमादी होने से वह विपुल धन-सम्पत्ति प्राप्त करता है । २. शील के पालन से व्यक्ति की ख्याति या प्रतिष्ठा बढती है । ३. सचरित्र व्यक्ति को कहीं भी भय और संकोच १. विशुद्धि मार्ग (भूमिका), पृ० २१ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पचारित्र (गोल) नहीं होता। ४. शीलवान सदैव ही अप्रमत्त चेतनावाला होता है और इसलिए उसके जीवन का अन्त भी जाग्रत चेतना की अवस्था में होता है । ५. शील के पालन मे सुगति या स्वर्ग की प्राप्ति है। अष्टांग साधनापप और शोल-बुद्ध के अष्टाग साधना-पथ में मम्यक् वाचा, मायक् कर्मान्त और सम्यक् आजीव ये तीन शील-स्कन्ध है । यद्यपि मज्झिन निकाप और अभिधर्मकोश व्याख्या के अनुमार शील-स्कन्ध मे उपर्युक्त तीनो अंगो का हो ममाव किया गया है। लेकिन यदि हम शील को न केवल दैहिक वग्न् मानमिक भी मानते है तो हो ममाधि-स्कन्ध में से सम्यकव्यायाम को और प्रज्ञा-स्कन्ग में में सम्यक माप को ही शील-स्कन्ध मे ममाहित करना पड़ेगा। क्योंकि गकल्प आचरण का चैतनिक आधार है और व्यायाम उमकी वृद्धि का प्रयत्न । अतः उन्हे गील-स्कन्ध में ही लेना चाहिए। __यदि हम शील-स्कन्ध के तीनों अंग तथा ममानि-सन्ध के मम्यक व्यायाम और प्रज्ञा-स्कन्ध के मम्यक् मकल्प को लेकर बौद्ध-दर्शन में शील के स्वरूप को गमहाने का प्रयत्न करें तो उमका चित्र इम प्रकार में होगामम्यक् वाचा १. मृपावाद विरमण २. पिशुनवचन विग्मण ३. पुरुपवचन विग्मण ४ व्यर्थसंलाप विग्मण मम्यक् कर्मान्त १. अदत्तादान विग्मण २. प्राणातिपात विरमण ३. कामेपमिथ्याचार विग्मण ४. अब्रह्मचर्य विग्मण सम्यक् आजीव (अ) भिक्षु नियमों के अनुमार भिक्षा प्राप्त करना (ब) गृहम्थ नियमों के अनुमार आजीविका अजित करना सम्यक् व्यायाम १. अनुत्पन्न अकुशल के उत्पन्न नहीं होने देने के लिए प्रयत्न २. उत्पन्न अकुशल के प्रहाण के लिए प्रयत्न ३. अनुत्पन्न कुगल के उत्पादन के लिए प्रयन्न ४. उत्पन्न कुगल के वैपुल्य के लिए प्रयत्न सम्यक् संकल्प १. नैष्कर्म्य संकल्प २. अव्यापाद मंकल्प ३. अविहिमा मंकल्प यदि तुलनात्मक दृष्टि से बौद्ध-दर्शन के शोल के स्वरूप पर विचार करे तो ऐमा १. देखिए-अर्ली मोनास्टिक बुद्धिज्म, पृ० १४२-४३ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जेन, बोद्ध और गोता का साधना मार्ग प्रतीत होता है कि वह जैन-दर्शन को मान्यताओं के निकट ही है । यद्यपि दोनों परम्पराओं में नाम और वर्गीकरण की पद्धतियों का अन्तर है. लेकिन दोनों का आन्तरिक स्वरूप समान ही है । मम्यक् आचरण के लिए जो अपेक्षायें बौद्ध जीवन-पद्धति मे की गयी है वे ही अपेक्षायें जैन आचार-दर्शन मे भी स्वीकृत रही है । सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्मान्त और मम्यक् आजीव के रूप मे प्रतिपादित ये विचार जैन दर्शन मे भी उपलब्ध हैं । अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों परम्पराएँ एक दूसरे के काफी निकट रही है । वैदिक परम्परा में शील या सदाचार मम्यक् चारित्र को हिन्दू धर्मसूत्रों में शील, माम्याचारिक, सदाचार या शिष्टाचार कहा गया है। गीता की निष्काम कर्म और सेवा की अवधारणाओं को भी सम्यक्चारित्र का पर्यायवाची माना जा सकता है। गीता जिस निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन करती है, वस्तुतः वह मात्र कर्तव्य बुद्धि से एवं कर्ताभाव का अभिमान त्याग कर किया गया ऐमा कर्म है, जिसमे फलाकाक्षा नही होती। क्योंकि इस प्रकार का कर्म (आचरण) कर्म-वन्धन कारक नही होता हे अतः इसे अकर्म भी कहने है । उस आचरण को जो बन्धन हेतु न बनकर मुक्ति का हेतु होता है, जैन परम्परा में सम्यक् चारित्र और गीता मे निष्काम कर्म या अकर्म कहा गया है। गीता के अनुसार निष्काम कर्म या कर्मयोग के अन्तर्गत दैवीय गुणों अर्थान् अहिमा, आर्जव, स्वाध्याय, दान, संयम, निर्लोभता, शौच भादि मद्गुणों का सम्पादन, स्वधर्म अर्थात् अपने वर्ण और आश्रम के कर्तव्यों का लन और लोकसंग्रह (लोक-कल्याणकारी कार्यों का सम्पादन) आता है । इसके अतिरिक्त भगवद्भक्ति एवं अतिथि सेवा भी उसकी चारित्रिक साधना का एक अंग है । शोल - मनुस्मृति में शील, साधुजनों का आचरण ( मदाचरण) और मन की प्रसन्नता ( इच्छा, आकाक्षा आदि मानसिक विक्षोभों से रहित मन की प्रशान्त अवस्था ) को धर्म का मूल बताया गया है । वैदिक आचार्य गोविन्दराज ने शील की व्याख्या रागद्वेष के परित्याग के रूप मे की हैं ( शीलं रागद्वेषपरित्याग इत्याह २ ) । हारीत के अनुसार ब्रह्मण्यता, देवपितृभक्तिता, सौम्यता, अपरोपतापिता, अनमूयता, मृदुता, अपारुष्य, मैत्रता, प्रियवादिता, कृतज्ञता, शरण्यता, कामण्य और प्रशन्तता - ये तेरह प्रकार का गुण समूह शील है। सामयाचारिक - आपस्तम्ब धर्मसूत्र के भाष्य में सामयाचारिक शब्द की व्याख्या निन्न प्रकार की गई है - आध्यात्मिक व्यवस्था को 'समय' ( धर्मज्ञममयः ) कहते है वह १. मनुस्मृति २६ २. ( अ ) मनुस्मृति टीका २६ वही (ब) हिन्दू धर्मकोश, पृ० ६३१ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्चारित्र (शील) ९३ तीन प्रकार का होता है - विधि, प्रतिषेध और नियम । आचारों का मूल 'समय' (मिद्धात ) में होता है । 'समय' से उत्पन्न होने के कारण वे सामयाचरिक कहलाते है ।" अभ्युदय और निःश्रेयम के हेतु अपूर्व नामक आत्मा के गुण को धर्म कहते है । वैदिक परम्परा का यह सामयाचारिक शब्द जैन परम्परा के समाचारी ( समयाचारी ) और सामयिक के अधिक निकट है। आचाराग मे 'समय' शब्द समता के अर्थ मे और सूत्रकृताग में 'मिद्धात' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन परम्परा मे ममता मे युक्त चार को 'मामायिक' और सिद्धान्त ( शास्त्र ) मे निमृत आचार नियमो को 'गमाचारी' वहा गया है । गीता भी शास्त्र विधान के अनुसार आचरण का निर्देश तर सामयाचरिक या समाचारी के पालन की धारणा को पुष्ट करती है । शिष्टचार - शिष्ट आचार शिष्टाचार कहा जाता है। शिष्ट शब्द को व्याख्या करते हुए वशिष्ठधर्म सूत्र में कहा है कि 'जो स्त्रार्थमय कामनाओ मे रहित है, वह शिष्ट है ( शिष्ट पुनरकामात्मा ) इस आधार पर शिष्टाचार का अर्थ होगा - निश्वाम भावग किया जाने वाला आचार शिष्टाचार है अथवा नि स्वार्थ व्यक्ति का आचरण शिष्टाचार है। ऐसा आचार धर्म का कारणभूत होने से प्रमाणभूत माना गया है । इस प्रकर यहा शिष्टाचार का अर्थ, सामान्यतया शिष्टाचार में हम जो अर्थ ग्रहण करत है, उससे भिन्न है । शिष्टाचार निस्वार्थ या निष्काम कर्म है । निष्काम कर्म या सेवा की अवधारणा गीता मं स्वीकृत है ही और उसे जैन तथा बद्धि परम्पराओ ने भी पूरी तरह मान्य किया है । सदाचार - मनु के अनुसार ब्रह्मावर्त में निवारा करने वाले चारो वर्णों का जो परम्परागत आचार है वह मदाचार है । मदाचार के तीन भेद है - १ - देशाचार २ - जात्याचार और ३ कुलाचार | विभिन्न प्रदेशो मे परम्परागत रूप से चले आते आचार नियम 'देशाचार' कहे जाते है । प्रत्येक देश में विभिन्न जातियो के भी अपनेअपने विशिष्ट आचार नियम होते है, ये 'जात्याचार' कहे जाते है । प्रत्येक जाति के विभिन्न कुलों में भी आचारगत भिन्नताएँ होती है— प्रत्येक कुछ की अपनी आचारपरम्पराएँ होती है, जिन्हे 'कुलाचार' कहा जाता है | देशावार, कुलाचार और जत्याचार श्रुति और स्मृतियों में प्रतिपादित आचार नियमों के अतिरिवत होते है । सामान्यतया हिन्दू धर्म शास्त्रकारो ने उसके पालन की अनुगामा की है। यही नही, कुछ स्मृतिकारों के द्वारा तो ऐसे आचार नियम श्रुति, स्मति आदि के विरुद्ध होने पर पालनीय कहे गये है । वृहस्पति का तो कहना है- बहुजन और चिरकालमानित देश, जाति और कुल के आचार ( श्रुति विरुद्ध होने पर भी ) पालनीय है, अन्यथा प्रजा में क्षोभ उत्पन्न होता है और राज्य की शक्ति और कोप क्षीण हो जाता है। याज्ञवल्क्य १. आपस्तम्ब धर्मसूत्र भाष्य ( हग्दत्त ) १1१1१-३ ३. मनुस्मृति २।१७ - १८ २. वशिष्ट धर्मसूत्र १/६ ४. हिन्दू धर्मकोश, पृ० ६२५ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग ९४ ने आचार के अन्तर्गत निम्नलिखित विषय सम्मिलित किये है :- १. संस्कार, २. वेदपाठी ब्रह्मचारियों के चारित्रिक नियम, ३. विवाह ( पति-पत्नी के कर्तव्य ), ४. चार वर्णो एवं वर्णशंकरों के कर्तव्य, ५. ब्राह्मण गृहपति के कर्तव्य, ६. विद्यार्थी जीवन की समाप्ति पर पालनीय नियम, ७. भोजन के नियम, ८. धार्मिक पवित्रता, ९. श्राद्ध, १०. गणपति पूजा, ११. गृहगान्ति के नियम, १२. राजा के कर्तव्य आदि । यद्यपि सदाचार के उपर्युक्त विवेचन मे ऐसा लगता है कि सदाचार का सम्बन्ध नैतिकता या साधनापरक आचार से न होकर लोक व्यवहार (लोक - रूढि) या बाह्याचार के विधिनिषेधो में अधिक है । जब कि जैन-परम्परा के सम्यक् चारित्र का सम्बन्ध साधनात्मक एवं नैतिक जीवन मे है। जैनधर्म लोक व्यवहार की उपेक्षा नहीं करता है फिर भी उसकी अपनी मर्यादाएँ है ' (१) उसके अनुसार वही लोक व्यवहार पालनीय है जिसके कारण सम्यक् दर्शन और मम्यक् चारित्र ( गृहीत व्रत, नियम आदि ) मे कोई दोष नही लगता हो । अतः निर्दोष लोक व्यवहार ही पालनीय है. सदोष नही । (२) दूसरे यदि कोई आचार ( बाह्याचार) निर्दोष है किन्तु लोक व्यवहार के विरुद्ध है तो उसका आचरण नही करना चाहिये ( यदपि शुद्धं तदपि लोकविरुद्ध न समाचरेत् ) किन्तु इसका विलोम सही नही है अर्थात् सदोष आचार लोकमान्य होने पर भी आचरणीय नही है । उपसहार सामान्यतया जैन, बुद्ध और गीता के आचारदर्शनों में सम्यक्चारित्र, शील एवं सदाचार का तात्पर्य राग-द्वेष, तृष्णा या आसक्ति का उच्छेद रहा है । प्राचीन माहित्य मे इन्हें ग्रन्थि या हृदयग्रन्थि कहा गया है । ग्रन्थि का अर्थ गाँठ होता है, गाँठ बाँधने का कार्य करती है, चूंकि ये तत्त्व व्यक्ति को संसार से बाँधते है और परमसत्ता से पृथक् रखते है इसीलिये इन्हे ग्रन्थि कहा गया है । इस गाँठ का खोलना ही साधना है, चारित्र है या शील है । सच्चा निर्ग्रन्थ वही है जो इस ग्रन्थो का मोचन कर देता है । भाचार के समग्र विधि-निषेध इसी के लिये है । : वस्तुतः सम्यक्चारित्र या शील का अर्थ काम, क्रोध, लोभ, छल-कपट आदि अशुभ प्रवृत्तियों से दूर रहना है । तीनों ही आचारदर्शन साधक को इनसे बचने का निर्देश देते है । जैनपरम्परा के अनुसार व्यक्ति जितना क्रोध, मान, माया ( कपट) और लोभ की वृत्तियों का शमन एवं विलयन करेगा उतना हो वह साघना या सच्चरित्रता के क्षेत्र में आगे बढ़ेगा । गीता कहती है जब व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरी प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर अहिंसा, क्षमा आदि दैवी सद्गुणों का सम्पादन करेगा तो वह अपने को २. वही, पृ०७४-७५ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पचारित्र (शील) परमात्मा के निकट पायेगा । 'सद्गुणों का सम्पादन और दुर्गुणों से बचाव' एक ऐसा तत्त्व है, जहाँ न केवल सभी भारतीय अपितु अधिकाश पाश्चात्य आचारदर्शन भी समस्वर हो उठने हैं । चाहे इनके विस्तार-क्षेत्र एवं प्राथमिकता के प्रश्न को लेकर उनमे मतभेद हो । उनमें विवाद इस बात पर नहीं है कि कौन सद्गुण है और कौन दुर्गुण है. अपितु विवाद इस बात पर है कि किस सद्गुण का किस सीमा तक पालन किया जावे और दो मद्गुणों के पालन में विगेघ उपस्थित होने पर किसे प्राथमिकता दी जाने । उदाहरणार्थ 'अहिमा सद्गुण है' यह मभी मानने है किन्तु अहिंसा का पालन किम मीमा तक किया जावे, इस प्रश्न पर मतभेद रखते है । इमी प्रकार न्याय्य ( जस्टिस ) और दयालुता दोनों को मभी ने मद्गुणों के रूप मे स्वीकार किया गया है किन्तु जब न्याय्य और दयालता में विरोध हो अर्थान दोनों का एक साथ सम्पादन सम्भव न हो तो किसे प्रधानता दी जावे, इम प्रश्न पर मतभेद हो सकता है। फिर भी सद्गुणों का यथाशक्ति सम्पादन किया जावे इमे मभी स्वीकार करते है । वस्तुतः सम्यक्चारित्र या शील, मन, वचन और कर्म के माध्यम से वैयक्तिक और मामाजिक जीवन में समत्व की संस्थापन का प्रयाम है, वह व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पक्षों में एक माग सन्तुलन स्थापित कर उसके आन्तरिक सघर्ष को गमाप्त करने की दिशा में उठाया गया कदम है। इतना ही नही, वह व्यक्ति के गामाजिक पक्ष का भी संस्पर्श करता है। व्यक्ति और ममाज के मध्य तथा ममाज और ममाज के मध्य होनवाले मघर्पो को सम्भावनाओं के अवमों को कम कर मामाजिक ममत्व की मम्थापना भी सम्यक्चारित्र का लक्ष्य है। इन्ही लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पगओ मे गृहस्थ और श्रमण के आचारविषयक अनेक सामान्य और विशिष्ट नियमों या विधियों का प्रतिपादन किया गया है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् तप तथा योग-मार्ग मामान्य रूप में जैन आगमों में साघना का त्रिविध मार्ग प्रतिपादित है, लेकिन प्राचीन आगमों में एक चतुविध मार्ग का भी वर्णन मिलता है। उत्तराध्ययन और दर्शनपाहुड में चतुविध मार्ग का वर्णन है ।' माघना का चौथा अग 'सम्यक् तप' कहा गया है । जैसे गीता मे ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग के साथ साथ ध्यानयोग का भी निरूपण है, वैसे ही जैनपरम्परा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के साथ साथ सम्यक् तप का भी उल्लेख है । परवर्ती परम्पराओं में ध्यानयोग का अन्तर्भाव कर्मयोग में और सम्यक् तप का अन्तर्भाव सम्यक् चारित्र में हो गया । लेकिन प्राचीन युग मे जैनपरम्परा मे मम्यक् तप का, बौद्ध परम्परा में समाधि मार्ग का तथा गीता मे ध्यानयोग का स्वतंत्र स्थान रहा है । अत तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि में यहा सम्यक् तप का विवेचन स्वतंत्र रूप मे किया जा रहा है । साधारणतः यह मान लिया जाता है कि जैन परम्परा में ध्यानमार्ग या समाधिमार्ग का विधान नहीं है, लेकिन यह धारणा भ्रान्त ही है। जिस प्रकार योग परम्परा मे अष्टागयोग का विधान है, उसी प्रकार जैन परम्परा में इस योगमार्ग का विधान द्वादशाग रूप मे हुआ है । इसे ही सम्पक् तप का मार्ग कहा जाता है। जैन परम्परा के मम्यक् तप की गीता के ध्यानयोग तथा बौद्ध परम्परा के समाधिमार्ग से बहुत कुछ समानता है, जिम पर हम अगले पृष्ठों में विचार करेंगे । नैतिक जीवन एवं तप-तपस्यामय जीवन एवं नैतिक जीवन परस्पर मापेक्ष पद है। त्याग या तपस्या के बिना नैतिक जीवन की कल्पना अपूर्ण है । तप नैतिक जीवन का ओज है, शक्ति है । तप-शून्य नैतिकता खोखली है, तप नैतिकता की आत्मा है । नैतिकता का विशाल प्रासाद तपस्या की ठोस बुनियाद पर स्थित है । नैतिक जीवन की मात्रा प्रणाली, चाहे उसका विकास पूर्व में हुआ हो या पश्चिम में, हमेशा तप मे ओतप्रोत रही है। नैतिकता की सैद्धान्तिक व्याख्या चाहे 'तप' के अभाव में सम्भव हो, लेकिन नैतिक जीवन तप के अभाव में सम्भव नही । वैयक्तिक सुखो की उपलब्धि में ही नैतिक व्याख्या का निम्नतम सिद्धान्त भी, जो नैतिक साधना की इतिश्री मान लेता है, तप- शून्य नही हो मकता । यह सिद्धान्त उम मनोवैज्ञानिक तथ्य को स्वीकार करके चलता है कि वैयक्तिक जीवन मे भी इच्छाओं का संघर्ष चलता रहता है और बुद्धि उनमे से किमी एक को चुनती हैं, जिसकी मन्तुष्टि १. उत्तराध्ययन, २८ २, ३, ३५, दर्शनपाहुड, ३२ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक तप तमा बोष-मार्ग की जानी है और यह सन्तुष्टि ही सुख उपलब्धि का साधन बनती है। लेकिन विचार पूर्वक देखें तो यहाँ भो त्यागभावना मौजूद है, चाहे अपनी अल्पतम मात्रा में ही क्यो न हो, क्योंकि यहां भी बुद्धि की बात मानकर हमे सघर्षशील वामनाओ में एक समय के लिए एक का त्याग करना ही होता है । त्याग की भावना ही तप है । दूसरे तप का एक अर्थ होता है-प्रयत्न, प्रयाम, और इम अर्थ मे भी वहाँ 'तप' है, क्योकि वामना को पूत्ति भी बिना प्रयाम के सम्भव नही है। लेकिन यह सब तो तप का निम्नतम रूप है, यह उपादेय नही है। हमाग प्रयोजन तो यहाँ मात्र इतना दिवाना था कि कोई भी नैतिक प्रणाली तपःशून्य नही हो सकती। जहाँ तक भारतीय नैतिक विचारधाराओ की, आचार-दर्शनो की, बात है, उनमें से लगभग सभी का जन्म 'तपस्या' की गोद मे हुआ, सभी उमीमे पले एवं विकगित हुए है । यहाँ तो घोर भौतिकतावादी अजित-केसकम्बलिन् और नियतिवादी गोशालक भी तप साधना में प्रवृत्त रहते है, फिर दूसरी विचार मरणियों में निहित तप के महत्त्व पर तो शंका करने का प्रश्न ही नही उठता ।हां, विभिन्न विचार-मरणियो मे तपस्या के लक्ष्य के मम्बन्ध में मत-भिन्नता हो मकती है, तप के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार-भेद हो मकता है, लेकिन तपस्या के तथ्य में इनकार नही किया जा मकता । तप-माधना भारतीय नैतिक जीवन एव मस्कृति का प्राण है। श्री भगतगिह उपाध्याय के शब्दों में "भारतीय मस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त एव महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह मब तपस्या मे ही मम्भत है, तपस्या मे नी इम गष्ट का बल या ओज उत्पन्न हुआ है "तपस्या भारतीय दर्शनशास्त्र की ही नही, किन्तु उसके ममम्त इतिहास की प्रस्तावना है "प्रत्येक चिन्तनशील प्रणाली चाहे वह आध्यात्मिक हो चाहे आधिभौतिक, मभी तपस्या की भावना मे अनुप्राणित है "उमके वंद, वंदाग, दर्शन, पुराण, धर्मशास्त्र आदि मभी विद्या के क्षेत्र जीवन की गाधनारूप तपस्या के एकनिष्ठ उपासक है।" भारतीय नैतिक जीवन या आचार-दर्शन में तप के महत्व को अधिक म्पाट करते हुए काका कालेलकर लिम्वन है, "बुद्धकालीन भिक्षओ की तपश्चर्या के परिणामम्वरूप ही अशोक के माम्राज्य का और मौर्य ( कालीन ) मस्कृति का विस्तार हो पाया। शकराचार्य की तपश्चर्या मे हिन्दू धर्म का मम्करण हुआ। महावीर की तपस्या मे अहिमा धर्म का प्रचार हुआ।""""वगाल वे चैतन्य महाप्रभ (जो) मुम्वद्धि के हेतु एक हर्र भी नही रखते थे, उन्ही से बगाल की वैष्णव मम्कृति विकसित हुई।"५ । यह सब तो भूतकाल के तथ्य है, लेकिन वर्तमान युग का जीवन्त तथ्य है गाधी १. बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ७१-७२ । २. जीवनमाहित्य, द्वितीय भाग, पृ० १९७-१९८ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और गीता का साथमा मार्ग और अन्य भारतीय नेताओं का तपोमय जीवन, जिमने अहिंसक क्रान्ति के आधार पर देश को स्वतन्त्रता प्रदान की । वस्तुतः तपोमय जीवन प्रणाली हो भारतीय नैतिकता का उज्ज्वलतम पक्ष है और उसके बिना भारतीय आचार -दर्शन को चाहे वह जैन, बौद्ध या हिन्दू आचार-दर्शन हो, समुचित रूप से समझा नही जा सकता। नीचे तप के महत्त्व, लक्ष्य, प्रयोजन एवं स्वरूप के सम्बन्ध मे विभिन्न भारतीय माघना पद्धतियों के दृष्टिकोणों को देखने एवं उनका समीक्षात्मक दृष्टि मे मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है। ९८ जैन साधना पद्धति में तप का स्थान- जैन तीर्थकरों एवं विशेषकर महावीर का जीवन ही, जैन-साधना मे तप के स्थान का निर्धारण करने के हेतु एक सबलतम साक्ष्य है । महावीर के साधनाकाल (माढे बारह वर्ष ) मे लगभग ग्यारह वर्ष तो निराहार गिने जा सकते है । महावीर का यह सारा साधना काल स्वाध्याय, आत्म-चिन्तन, ध्यान और कायोत्सर्ग से भरा है। जिस आचार-दर्शन का शास्ता अपने जागृत जीवन में तप का ऐसा उज्ज्वलतम उदाहरण प्रस्तुत करता हो, उसको साधना-पद्धति तपः शून्य कैसे हो सकती है ? उस शास्ता का तपोमय जीवन अतीत में वर्तमान तक जैन साधकों को तप साधना की प्रेरणा देता रहा है । आज भी सैकडों जैन माधक ऐसे मिलेगे जो ८-१० दिन ही नही वरन् एक और दो-दो माह तक केवल उष्ण जल पर रहकर तपसाधना करत है, ऐसे अनेक होगे जिनके भोजन के दिनो का योग वर्ष में दो-तीन माह से अधिक नही बैठता, शेष सारा समय उपवास आदि तपस्या में व्यतीत होता है । जैन - गाधना समत्वयोग की साधना है और यही समत्वयोग आचरण के व्यावहारिक क्षेत्र मे अहिंसा बन जाता है, और यही अहिंसा निषेधात्मक साधना क्षेत्र में संयम कही जाती है और सयम ही क्रियात्मक रूप मे तप है । अहिमा, संयम और तप अपनी । अभिव्यजना की दृष्टि अलग-अलग अर्थ भी गहन विवेचना में एक दूसरे के पर्यायवाची ही प्रतीत होते है से चाहे तो हम इन्हें अलग रख सकते है और उमी अपेक्षा मे Baf करते है | अहिमा, सयम और तप मिलकर ही धर्म के समग्र स्वरूप को उपस्थित करते हैं । संयम और तप अहिमा की दो पाखे हैं। जिनके बिना अहिंसा की गति एवं विकास अवरुद्ध हो जाता है । तप और संयम से युक्त अहिंसा धर्म की मंगलमयता का उद्घोष करते हुए जैनाचार्य कहते है - 'धर्म मंगलमय है, कौन सा धर्म ? अहिंसा, संयम और तपमय धर्म ही सर्वोत्कृष्ट तथा मंगलमय है । जो इस धर्म के पालन मे दत्तचित्त है उसे मनुष्य तो क्या, देवता भी नमन करते है ।' जैन-साधना का लक्ष्य मोक्ष या शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि है और जो केवल तप १. दशकालिक, १1१ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् तप तवा योग-मान साधना (अविपाक निर्जरा) से ही सम्भव है । जैन साधना मे तप का क्या स्थान है, इस तथ्य के साक्षी जैनागम ही नही है वरन् बौद्ध और हिन्दू आगमो में भी जैन-साधना के तपोमय म्वरूप का वर्णन उपलब्ध होता है।' हिन्दू साधना-पद्धति में तप का स्थान-वैदिक साधना चाहे प्रारम्भिक काल मे तप प्रधान (निवृत्तिपरक) न रही हो, लेकिन विकासचरण में श्रमण-परम्परा से प्रभावित हो, समन्वित हो, तपोमय साधना से युक्त हो गयी, वैदिक ऋषि तप को महत्ता का सबलतम शब्दो मे उद्घोष करते है। वे कहते है, तपस्या से ही ऋत और मत्य उत्पन्न हुए, तपस्या मे ही वेद उत्पन्न हुए, तपस्या से ही ब्रह्म खोजा जाता है', तपस्या मे हो मृत्यु पर विजय पायी जाती है और ब्रह्मलोक प्राप्त किया जाता है।५ तपस्या के द्वारा ही तपस्वी-जन लोक-कल्याण का विचार करते है और तपस्या से ही लोक मे विजय प्राप्त की जाती है। इतना ही नही, वे तो तप रूप साधन को साध्य के तुल्य मानते हुए कहते है-'तप ही ब्रह्म है।" जैन-साधना मे भी तप को आत्म-गुण मानकर उस साध्य और साधन दोनो रूप में स्वीकार किया गया है। आचार्य मनु कहते है कि तपस्या मे ऋषिगण त्रैलोक्य के चगचर प्राणियों को देखते है. जो कुछ भी दुर्लभ और दुस्तर इस समार मे है, वह मब तपस्या से साध्य है। तपस्या की शक्ति दूतिक्रम है।° महापातकी और निम्न आचरण करनेवाले भी तपस्या से तप्त होकर किल्विषी योनि से मुक्त हो जाते है ।" तप की महत्ता के सम्बन्ध में और भी सैकडी माक्ष्य हिन्दू आगम ग्रन्थो से प्रस्तुत किये जा सकते है। लेकिन विस्तार-भय से केवल गोस्वामी तुलमीदास जी के दो चरण प्रस्तुत करना पर्याप्त होगा-वे कहते है, तप सुखप्रद सब बोष नसावा तथा 'करउ नाह तप अस जिय जानी।' बौद्ध साधना-पद्धति में तप का स्थान-यह स्पष्ट तथ्य है कि 'तप' शब्द आचार के जिम कठोर अर्थ में जैन और हिन्दू परम्पग में प्रयुक्त हुआ है, वह बौद्ध माधना मे उसकी मध्यममार्गी माधना के कारण उतने कठोर अर्थ में प्रयुक्त नही हुआ है । बौद्ध साधना मे तप का अर्थ है-चित्त गुद्धि का मतत प्रयाम । वौद्ध-साधना तप को प्रयत्न १. देखिए-श्रीमद्भागवत, ५।२, मज्झिमनिकाय-चूल दुक्वक्वन्ध सुन्न २. ऋग्वेद, १०।१९०१ ३. मनुस्मृति, ११।२४३ ४. मुण्डकोपनिपद, १११३८ ५. अथर्ववेद, ११।३।५।१९ ६. वही, १९।५।४१ ७. शतपथब्राह्मण, ३।४।४।२७ ८. उत्तराध्ययन, २८।११, तत्तिरीय उपनिषद्, ३।२।३।४ ९. मनुस्मृति, ११॥२३७ १०. बही, १९१२३८ ११. वही, ११।२३९ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन, बोद और गोता न सापना मार्ग या प्रयास के अर्थ में ही ग्रहण करती है और इसी अर्थ में बौद्ध साधना तप का महत्त्व स्वीकार करके चलती है । भगवान् बुद्ध महामंगलसुत्त में कहते हैं कि तप, ब्रह्मचर्य, आर्यमत्यों का दर्शन और निर्वाण का माक्षात्कार ये उत्तम मंगल है। इसी प्रकार कासिभारद्वाजसुत्त में भी तथागत कहते हैं, मैं श्रद्धा का बीज बोता हूँ, उस पर तपश्चर्या की वृष्टि होती है-शरीर वाणी से संयम रखता हूँ और आहार से नियमित रहकर सत्य द्वारा मैं ( मन-दोषों की ) गोड़ाई करता हूँ।२ दिठिवज्जसुत्त में शास्ता कहते हैं, "किसी तप या व्रत के करने से किसी के कुशल धर्म बढ़ते हैं, अकुशल धर्म घटते हैं, तो उसे अवश्य करना चाहिए।"3 बुद्ध स्वयं अपने को तपस्वी कहते हैं-'ब्राह्मण, यही कारण है कि जिससे मैं तपस्वी हूँ।' बुद्ध का जीवन तो कठिनतम तपस्याओं मे भरा हुआ है । उनके अपने माधना-काल एवं पूर्वजन्मों का इतिहास एवं वर्णन जो हमें बौद्धागमों में उपलब्ध होता है, उनके तपोमय जीवन का साक्षी है। मज्झिमनिकाय महासोहनादमुत्त में बुद्ध सारिपुत्त से अपनी कठिन तपश्चर्या का विस्तृत वर्णन करते हैं। इतना ही नहीं, सुत्तनिपात के पवज्जासुत्त में बुद्ध बिबिसार ( राजा श्रेणिक ) में कहते हैं कि अब मैं तपश्चर्या के लिए पा रहा हूँ, उस मार्ग में मेरा मन रमता है । यद्यपि उपर्युक्त तथ्य बुद्ध के जीवन की तप-साधना के महत्त्वपूर्ण साक्ष्य हैं फिर भी यह सुनिश्चित है कि बुद्ध ने तपश्चर्या के द्वारा देह-दण्डन की प्रक्रिया को निर्वाणप्राप्ति में उपयोगी नहीं माना । उसका अर्थ इतना ही है कि बुद्ध अज्ञानमूलक देह-दण्डन को निर्वाण के लिए उपयोगी नहीं मानते थे, ज्ञान-युक्त तप-साधना तो उन्हें भी मान्य पी। श्री भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में भगवान बुद्ध की तपस्या में मात्र शारीरिक यन्त्रणा का भाव बिलकुल नही था, किन्तु वह सर्वथा सुख-साध्य भी नहीं थी। डा. राधाकृष्णन् का कथन है, 'यद्यपि बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या की आलोचना की, फिर भी यह आश्चर्यजनक है कि बौद्ध-श्रमणों का अनुशासन किसी भी ब्राह्मण ग्रन्थ में वर्णित अनुशासन ( तपश्चर्या ) से कम कठोर नही है । यद्यपि बुद्ध सैद्धान्तिक दृष्टि से तपश्चर्या के अभाव में भी निर्वाण की उपलब्धि सम्भव मानते हैं, तथापि व्यवहार में तप उनके अनुसार आवश्यक प्रतीत होता है । १. सुत्तनिपात, १६:१० २. वही, ४२ ३. अंगुत्तरनिकाय, दिठिवज्जमुत्त ४. मज्झिमनिकाय-महासीहनादसुत्त ५. सुत्तनिपात, २७।२० ६. बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीयदर्शन, पृ० ४ ७. इण्डियन फिलासफी, भाग १, पृ० ४३६ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक तप तथा योग-भाग १०१ बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त भी बौद्ध भिक्षुओं में घुतग ( जंगल में रह कर विविध प्रकार की तपश्चर्या करनेवाले ) भिक्षुओं का काफी महत्त्व था । विसुद्धिमग्ग एवं मिलिन्दप्रश्न में ऐसे घुतंगों की प्रशंसा की गई है। दीपवंश मे कश्यप के विषय में लिखा है कि वे धुतवादियों के अगुआ थे । ( धुतवादानं अग्गो सो कस्सपो जिनसासने ) | ये सब तथ्य बौद्ध दर्शन एवं आचार मे तप का महत्त्व बताने के लिए पर्याप्त है । तप के स्वरूप का विकास जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में हमने तप के महत्त्व को देखा । लेकिन तप के स्वरूप को लेकर इन परम्पराओं मे सैद्धान्तिक अन्तर भी है । पौराणिक ग्रन्थों तथा जैन एवं बौद्ध आगमों मे तपस्या के स्वरूप का क्रमिक ऐतिहामिक विकास उपलब्ध होता है । पं० सुखलालजी तप के स्वरूप के ऐतिहासिक विकास के सम्बन्ध मे लिखते है कि 'ऐसा ज्ञात होता है कि तप का स्वरूप स्थूल में से सूक्ष्म की ओर क्रमशः विकसित होता गया है - तपोमार्ग का विकास होता गया और उसके स्थूल सूक्ष्म अनेक प्रकार साधको ने अपनाये । तपोमार्ग अपने विकास में चार भागों में बाँटा जा सकता है - एक अवधूत माधना, २ . तापम साधना, ३. तपस्वी माधना और ४ योग साधना । जिनमें क्रमशः तप के सूक्ष्म प्रकारों का उपयोग होता गया, तप का स्वरूप बाह्य से आभ्यन्तर बनता गया। साधना देह-दमन मे चित्तवृत्ति के निरोध की ओर बढ़ती गई ।" जैन-साधना तपस्वी एव योग-साधना का ममन्वित रूप में प्रतिनिधित्व करती है जबकि वौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शन योग-साधना का प्रतिनिधित्व करते है । फिर भी वे सभी अपने विकास के मूल केन्द्र मे पूर्ण अलग नहीं है । जैन आगम आचारागसूत्र का धूत अध्ययन, बौद्ध ग्रन्थ विमुद्धिमग्ग का धूतंगनिद्देस और हिन्दू साधना की अवधूत गीता इन आचार-दर्शनों के किसी एक ही मूल केन्द्र की ओर इंगित करते है । जैन-साधना का तपस्वी मार्ग तापस-मार्ग का ही अहिमक संस्करण है । बौद्ध और जैन विचारणा में जो विचार-भेद है, उसके पीछे एक ऐतिहासिक कारण है । यदि मज्झिमनिकाय के बुद्ध के उस कथन को ऐतिहासिक मूल्य का समझा जाये तो यह प्रतीत होता है कि बुद्ध ने अपने प्रारम्भिक साधक जीवन मे बड़े कठोर तप किये थे । प० मुखलालजी लिखते है कि उस निर्देश को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है। कि अवधूत मार्ग ( तप का अत्यन्त स्थूल रूप ) में जिम प्रकार के तपोमार्ग का आचरण किया जाता था बुद्ध ने वैसे ही उग्र तप किये थे । गोशालक और महावीर तपस्वी तो थे ही, परन्तु उनकी तपश्चर्या में न तो अवधूतों को और न तापमों की तपश्चर्या का अंश था । उन्होंने बुद्ध जैसे तप-व्रतों का आचरण नही किया । बुद्ध तप की उत्कट कोटि पर पहुँचे थे, परन्तु जब उसका परिणाम उनके लिए सन्तोषप्रद नहीं आया, तब १. समदर्शी हरिभद्र, पृ० ६७ २. वही, पृ० ६७ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग वे ध्यानमार्ग की ओर अभिमुख हुए और तप को निरर्थक मानने और मनवाने लगे । शायद यह उनके उत्कट देह-दमन की प्रतिक्रिया हो ।' ___ गीता में भी तप के योगात्मक स्वरूप पर ही अधिक बल दिया गया है । गोता में तप की महिमा तो बहुन गायी गई है, लेकिन गीताकार का झुकाव देह-दण्डन पर नही है, वग्न् उमने तो ऐसे तप को निम्नम्तर का माना है। गीताकार ने 'तपस्विभ्योऽधिकोयोगी' कहकर इमी तथ्य को और अधिक स्पष्ट कर दिया है । बौद्ध-परम्परा और गीता नप के योग पक्ष पर ही अधिक बल देनी है, जब कि जैन-दर्शन में उसके पूर्व रूप भी स्वीकृत रहे है । जैन-दर्शन का विरोध तप के उम म्प से रहा है जो अहिंमक दृष्टिकोण के विपरीत जाता है । बुद्ध ने यद्यपि योगमार्ग पर अधिक बल दिया और ध्यान को पद्धति को विकसित किया है, तथापि तपस्या-मार्ग का उन्होंने स्पष्ट विरोध भी नही किया। उनके भिक्षक धतग व्रत के रूप में इस तपस्या-मार्ग का आचरण करते थे। जन-साधना में तप का प्रयोजन-तप यदि नैतिक जीवन की एक अनिवार्य प्रक्रिया है तो उमे किमी लक्ष्य के निमित्त होना चाहिए । अत यह निश्चय कर लेना भी आवश्यक है कि तप का उद्देश्य और प्रयोजन क्या है ? जैन-साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि है, आत्मा का गुद्धिकरण है। लेकिन यह शुद्धिकरण क्या है ? जैन दर्शन यह मानता है कि प्राणी कायिक, पाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के माध्यम से कर्म वर्गणाओ के पुद्गलों (Kaumic Matter) को अपनी ओर आकर्षित करता है और ये आकर्षित कर्म-वर्गणाओं के पुद्गल राग-द्वेप या कपायवृत्ति के कारण आत्मतत्व से एकीभूत हो, उमको शुद्ध सत्ता, शक्ति एव ज्ञान ज्योति को आवरित कर देते है । यह जड तत्त्व एवं चेतन तत्त का संयोग ही विकृति है। ___ अतः शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि के लिये आत्मा को स्वशक्ति को आवरित करने वाले कर्म पुद्गलों का विलगाव आवश्यक है । पृथक् करने की इस क्रिया को निर्जरा कहते है जो दो रूपों में सम्पन्न होती है। जब कर्म पुद्गल अपनी निश्चित अवधि के पश्चात् अपना फल देकर स्वतः अलग हो जाते है, वह सविपाक निर्जरा है, लेकिन यह नैतिक साधना का मार्ग नही है । नैतिक साधना तो मपयाम है । प्रयामपूर्वक कर्म-पुद्गलों को आत्मा से अलग करने की क्रिया को अविपाक निर्जरा कहते है और तप ही वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा अविपाक निर्जग होती है । इस प्रकार तप का प्रयोजन है प्रयासपूर्वक कर्म-पुद्गलों को आत्मा से अलग कर मात्मा की स्वशक्ति को प्रकट करना है और यही शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि है । यही १. समदर्शी हरिभद्र, पृ० ६७-६८ २. गीता, १८५ ३. वही, १७१६,१९ ४. वही, ६।४६ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् तप तप योग-मार्ग आत्मा का विशुद्धिकरण है, यही तप-साधना का लक्ष्य है। उत्तराध्ययनमूत्र में भगवान महावीर तप के विषय में कहते है कि तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है ।' आबद्ध कर्मों के क्षय करने की पद्धति है। तप के द्वारा ही महपिंगण पूर्व पापकर्मों को नष्ट करते है । तप का मार्ग राग-द्वेष-जन्य पाप-कर्मों के बंधन को क्षीण करने का मार्ग है, जिसे मेरे द्वारा सुनो। इस तरह जैन-माधना में तप का उद्देश्य या प्रयोजन आत्म-परिशोधन, पूर्ववद्ध वर्मपुद्गों का आत्म-तत्त्व में पृथक् करण और शुद्ध आत्म-तत्व की उपलब्धिी मिद्ध होता है। वैदिक साधना में तप का प्रयोजन-वैदिक माधना, मख्यत औपनिषदिक गाधना का लक्ष्य आत्मन या ब्रह्मन की उपलब्धि रहा है । औपनिपदिक विचारबाग स्पष्ट उद्घोपणा करती है तप में ब्रह्मा खोजा जाता है, तपस्या मे ही ब्रह्म को जानो। इतना ही नही औपनिषदिक विचारधाग मे भी जैन-विचार के ममान तप को शुद्ध आत्म-तन्व की उपलब्धि का माधन माना गया है। मुण्डकोपनिषद् के तीमो मुण्डक मे कहा है, यह आत्मा (जो ज्योतिर्मय और शुद्ध है) तपस्या और मत्य के द्वारा ही पाया जाता है । औपनिपदिक परम्पग एक अन्य अर्थ मे भी जैन-परम्परा में माम्य रखते हुए कहती है कि नप के द्वाग कर्म-रज दूर कर मोक्ष प्राप्त किया जाता है । मुण्टकोपनिषद् के द्वितीय मुण्डक का ११ वा श्लोक इम मन्दर्भ मे विगेप म्प में द्रष्टव्य है । कहा है-"जो शान्त विद्वान् जन वन में रह कर भिक्षाचर्या करते हुए तप और श्रद्धा का मेवन करन है, वे विग्ज हो (कर्म-रज को दूर कर) मूर्य द्वार (ऊर्व मार्गो) मे वहा पहुँच जाते है जहां वह पुरुप (आत्मा) अमन्य एव अव्यय आ-मा के रूप में निवाग करता है।" वैदिक परम्पग मे जहाँ तप आध्यात्मिक गद्धि अथवा आत्म-शुद्धि का माधन है वही उमके द्वारा होने वालो शरीर और इन्द्रियो की गुद्धि के महन्व का भी अंकन किया गया है । उमका आध्यात्मिक जीवन के माथ ही माथ भौतिक जीवन में भी मन्बन्ग जोड़ा गया है और जीवन के मामान्य व्यवहार के क्षेत्र में नप का क्या प्रयोजन है, यह स्पष्ट दर्शाया गया है । महर्षि पनजलि कहते है, नप मे अशुद्धि का क्षय होने से गरीर और इन्द्रियों की गद्धि ( मिद्धि ) होती है। बोद्ध-साधना में तप का प्रयोजन-बौद्ध-माधना में तप का प्रयोजन पापकारक १. उत्तराध्ययन, २८।३५ २. वही २०१७ ३. वही, २८१३६,३०१६ ८. वही, २०११ ५. मुण्डकोपनिषद्, ११३८ ६. नैत्तिरीय उपनिषद्, ३।२।३।४ ७. मुण्डकोपनिषद्, १३।५ ८. वही, २।११ ९. योगसूत्र, साधनपाद, ४३ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जेन, बोद्ध और गीता का साधना मार्ग अकुशल धर्मों को तपा डालना है । इम सन्दर्भ में बुद्ध और निर्ग्रन्थ उपासक सिंह सेना - पति का सम्वाद पर्याप्त प्रकाश डालता है । बुद्ध कहते है "हे सिंह, एक पर्याय ऐसा है जिसमे मत्यवादी मनुष्य मुझे तपस्वी कह सके ।" वह पर्याय कौनसा है ? हे सिंह, मैं कहता हूँ कि पापकारक अकुशल धर्मो को तपा डाला जाय। जिसके पापकारक अकुशल धर्म गल गये, नष्ट हो गये, फिर उत्पन्न नही होने, उसे मैं प्रकार बौद्ध साधना में भी जैन-माघना के समान आत्मा की अकुशल चित्तवृत्तियों या पाप वामनाओं के क्षीण करने के लिए तप स्वीकृत रहा है । तपस्वी कहता हूँ । ४ इस जैन - साधना में तप का वर्गीकरण जैन आचार-प्रणाली में तप के बाह्य (शारीरिक) और आभ्यन्तर (मानसिक) ऐसे दो भेद है ।' इन दोनों के भी छह-छह भेद है । (१) बाह्य तप - १. अनशन, २. ऊनोदरी, ३. भिक्षाचर्या, ४. रम- परित्याग ५. कायक्लेश और ६. मंलीनता । ( २ ) आभ्यन्तर तप - १. प्रायश्चित्त, २ विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान और ६. व्युत्मगं । ין शारीरिक या बाह्य तप के भेद १. अनशन - आहार के त्याग को अनशन कहते है । यह दो प्रकार का है - एक निति समयावधि के लिए किया हुआ आहार-त्याग, जो एक दिन में लगा कर छह मास तक का होता है । दूसरा जीवन पर्यन्त के लिए किया हुआ आहार त्याग । जीवनपर्यन्त के लिए आहार त्याग की अनिवार्य शर्त यह है कि उस अवधि मे मृत्यु की आकाक्षा नही होनी चाहिए । आचार्य पूज्यपाद के अनुसार आहार त्याग का उद्देश्य आत्म-संयम, आसक्ति में कमी करना, ध्यान, ज्ञानार्जन और कर्मो की निर्जग है, न कि सांसारिक उद्देश्यों की पूति । 3 अनशन मे मात्र देह-दण्ड नही है, वरन् आध्यात्मिक गुणों की उपलब्धि का उद्देश्य निहित है । स्थानाग सूत्र में आहार ग्रहण करने के और आहार त्याग के छह छह कारण बताये गये है । उसमें भूख को पीडा की निवृत्ति, मेवा, ईर्यापथ, संयमनिर्वाहार्थ, धर्मचिन्तार्थ और प्राणरक्षार्थ ही आहार 'ग्रहण' करने की अनुमति है । (२) ऊनोबरी ( अजमोदर्य) - इस तप में आहार विषयक कुछ स्थितियाँ या गत निश्चित की जाती है । इसके चार प्रकार है - १. आहार की मात्रा से कुछ कम खाना, यह द्रव्य-नोदरी तप हैं । २. भिक्षा के लिए, आहार के लिए कोई स्थान निश्चित कर वही से मिली भिक्षा लेना, यह क्षेत्रऊनोदरी तप है । ३. किसी निश्चित समय पर ४. बुद्धलीलासारसंग्रह, पृ० २८० - २८१ २. वही, २०१८ - २८ १. उत्तराध्ययन ३०।७ ३. सर्वार्थसिद्धि, ९।१९ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् तप तथा योग-मार्ग १०५ आहार लेना यह काल-ऊनोदरी तप है। ४. भिक्षा-प्राप्ति के लिए या आहार के लिए किसी शर्त (अभिग्रह) का निश्चय कर लेना, यह भाव-ऊनोदरीतप है । संक्षेप मे ऊनोदरी तप वह है जिसमें किसी विशेष समय एवं स्थान पर, विशेष प्रकार से उपलब्ध आहार को अपनी आहार की मात्रा से कम मात्रा मे ग्रहण किया जाता है । मूलाचार के अनुसार ऊनोदरी तप की आवश्यकता निद्रा एवं इन्द्रियों के संयम के लिए तथा तप एवं पट् आवश्यकों के पालन के लिए है।' ३. रस-परित्याग-भोजन में दूध, दही, घृत, तैल, मिष्ठान्न आदि सबका या उनमे से किसी एक का ग्रहण न करना रस-परित्याग तप है । रस-परित्याग स्वाद-जय है । नैतिक जीवन की साधना के लिए स्वाद-जय आवश्यक है । महात्मा गांधी ने ग्यारह प्रतों का विधान किया, उसमे अस्वाद भी एक व्रत है। रस-परित्याग का तात्पर्य यह है कि माधक स्वाद के लिए नही, वरन् शरीर-निर्वाह अथवा साधना के लिए आहार करता है। ४. भिक्षाचर्या-भिक्षा-विषयक विभिन्न विधि-नियमों का पालन करते हुए भिक्षान्न पर जीवन यापन करना भिक्षाचर्या तप है। इसे वृत्तिपरिसंख्यान भी कहा गया है। इसका बहुत कुछ सम्बन्ध भिक्षुक जीवन से है । भिक्षा के सम्बन्ध मे पूर्व निश्चय कर लेना और तदनुकूल ही भिक्षा ग्रहण करना वृतिपरिमख्यान है । इमे अभिग्रह तप भी कहा गया है। ५ कायक्लेश-वीरासन, गोदुहामन आदि विभिन्न आसन करना, शीत या उष्णता सहन करने का अभ्याम करना कायक्लेश तप है। कायक्लेश तप चार प्रकार का है१. आमन, २. आतापना--सूर्य को रश्मियो का ताप लेना, गीत को सहन करना एवं अल्पवन्न अथवा निर्वस्त्र रहना । ३. विभपा का त्याग, ४. परिकर्म-शरीर की साज सज्जा का त्याग । ६. संलोनता-मलीनता चार प्रकार की है-. इन्द्रिय मलीनता-इन्द्रियों के विपयो म वचना, २. कपाय-मलीनता- क्रोध, मान, माया और लोभ में बचना, ३. योग सलीनता-मन, वाणी और शरीर को प्रवृत्तियो से बचना, ४. विविक्त शयनासनएकात स्थान पर मोना-बैठना । मामान्य रूप में यह माना गया है कि कपाय एवं रागद्वेष के वाह्य निमित्तों से बचने के लिये माधक को श्मशान, शून्यागार और वन के एकान्त स्थानों में रहना चाहिए । आभ्यन्तर तप के भेद आभ्यन्तर तप को मामान्य जनता तप के रूप में नही जानती है, फिर भी उसमे १. मुलाचार, ५।१५३ २. उत्तराध्ययन, ३०१२९-३६ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैन, बौद्ध और गीता का सामना मार्ग तप का एक महत्त्वपूर्ण और उच्च पक्ष निहित है । बाह्य तप स्थूल हैं, जबकि अन्तरंग तप सूक्ष्म हैं। आभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं । १. प्रायश्चित - -अपने शुभ आचरण के प्रति ग्लानि प्रकट करना, उसका पश्चात्ताप करना, आलोचना करना, उसे वरिष्ठ गुरुजन के ममक्ष प्रकट कर उसके लिए योग्य दण्ड की याचना कर, उनके द्वारा दिये गये दण्ड को स्वीकार करना, प्रायश्चित्त तप है । प्रायश्चित के अभाव में मदाचरण सम्भव नही है, क्योंकि गलती या दोष होना सामान्य मानव प्रकृति है । लेकिन यदि उसका निराकरण नही किया जाता तो उस गलती का सुधार सम्भव नहीं । प्रायश्चित्त दस प्रकार का है - १. आलोचना - गलती या असदाचरण के लिए पश्चात्ताप करना । २. प्रतिक्रमण - चारित्रिक पतन से पुनः लौट जाना । अपनी गलती को सुधार लेना । ३. तदुभयः - आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों को स्वीकार करना । ४. विवेक — गलती या अमदाचरण को अमदाचरण के रूप में जान लेना । ५. कायोत्सर्ग - प्रायश्चित्त स्वरूप कायोत्सर्ग करना अथवा असदाचरण का परि त्याग करना । ६. तपस्या - अपराप या गलती के होने पर आत्मशुद्धि के निमित्त उपवास आदि तप स्वीकार करना । ७. छेद- -मुनि-जीवन मे दीक्षापर्याय का कम कर देना छेद है अर्थात् अपराधी भिक्षु की श्रमण जीवन को वरीयता को कम करना । ८. मूल - पूर्व के श्रमण जीवन या दीक्षा पर्याय को समाप्त कर पुनः दीक्षा देना अथवा पुनः नये सिरे मे श्रमण जीवन का प्रारम्भ करना । ९. परिहार - अपराधी श्रमण को श्रमण संस्था मे बहिष्कृत करना । १०. श्रद्धान - मिथ्या दृष्टिकोण के उत्पन्न हो जाने पर उसका परित्याग कर सम्यक दर्शन को पुनः प्राप्त करना । २. विनय - प्रायश्चित बिना विनय के सम्भव नहीं है । विनयशील ही आत्मशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त ग्रहण करता है । विनय का वास्तविक अर्थ वरिष्ठ एवं गुरुजनों का सम्मान करते हुए तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करते हुए अनुशासित जीवन जीना है । विनय के सात भेद है - १. ज्ञान विनय, २. दर्शन विनय, ३. चारित्र - विनय, ४. मनोविनय, ५. वचन- विनय, ६. काय-विनय और ७. लोकोपचार विनय । शिष्टाचार के रूप में किये गये बाह्य उपचार को लोकोपचार विनय कहा जाता है । ३. वैयावृत्य - वैयावृत्य का अर्थ सेवा-शुश्रूषा करना है। भिक्षु संघ में दन प्रकार के साधकों की सेवा करना भिक्षु का कर्तव्य है - १. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी, १. तत्त्वार्थसूत्र, ९।२२ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् तप तवा योग-मार्ग १०७ ४. गुरु, ५. रोगी, ६. वृद्ध मुनि, ७. सहपाठी, ८. अपने भिक्ष-संघ का सदस्य, ९ दीक्षा स्थविर और १०. लोक सम्मानित भिक्षु । इन दस की सेवा करना वैयावत्य तप है। इसके अतिरिक्त संघ (ममाज) की सेवा भी भिक्षु का कर्तव्य है। ४. स्वाध्याय-स्वाध्याय शब्द का सामान्य अर्थ आध्यात्मिक साहित्य का पठनपाठन एवं मनन आदि है । स्वाध्याय के पाँच भेद है १ वाचना : सद्ग्रन्थो का पठन एव अध्ययन करना। २. पृच्छना : उत्पन्न शंकाओ के निरसन के लिए एवं नवीन ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त विद्वज्जनो से प्रश्नोत्तर एवं वार्तालाप करना । ३ अनुप्रेक्षा : ज्ञान की स्मृति को बनाये रखने के लिए उसका चिन्तन करना एवं उम चिन्तन के द्वारा अजित ज्ञान को विशाल करना अनुप्रेक्षा है । ४ आम्नाय (पगवर्तन) : आम्नाय या परावर्तन का अर्थ दोहगना है । अजित ज्ञान के स्थायित्व के लिए यह आवश्यक है। ५ धर्मकथा : धार्मिक उपदेश करना धर्मकथा है । ५. व्युत्सर्ग-व्यत्मर्ग का अर्थ त्यागना या छोडना है । व्यत्मर्ग के आभ्यन्तर और बाह्य दो भेद है । बाह्य व्युत्मर्ग के चार भेद है १. कायोत्सर्ग : कुछ ममय के लिए शरीर से ममत्व को हटा लेना। २. गण-व्यत्मर्ग : माधना के निमित्त मामूहिक जीवन को छोड़कर एकात में अकेले माधना करना। ३. उपधि-व्यन्मर्ग : वस्त्र, पात्र आदि मुनि जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओ का त्याग करना या उनमे कमी करना । ४ भक्तपान व्यत्मर्ग : भोजन का परित्याग । यह अनशन का ही रूप है । आभ्यन्तर व्यन्सर्ग तीन प्रकार का है१ कपाय-व्युन्मर्ग : क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कपायों का परित्याग करना। २ समार-व्युन्मर्ग : प्राणीमात्र के प्रति गग-द्वेप की प्रवृत्नियो को छोडकर मबके प्रति समत्वभाव रखना है। ३. कर्म-व्युन्मर्ग : आत्मा की मलिनता मन, वचन और शरीर की विविध प्रवृत्तियो को जन्म देती है। इम मलिनता के परित्याग के द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक प्रवृत्तियों का निरोध करना। ६. ध्यान-चिन की अवस्थाओ का किमी विषय पर केन्द्रित होना ध्यान है। जैन-परम्परा मे ध्यान के चार प्रकार है-१. आतं-ध्यान, २. गेद्र ध्यान, ३. धर्मध्यान और ४. शुक्लध्यान । आनध्यान और गैद्रध्यान चित्त की दूषित प्रवृत्तियाँ है अतः Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन, बौद्ध और गीता का सामना मार्ग साधना एवं तप की दृष्टि से उनका कोई मूल्य नहीं है, ये दोनों ध्यान त्याज्य हैं। आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दोनों महत्त्वपूर्ण हैं । अतः इन पर थोड़ी विस्तृत चर्चा करना आवश्यक है। धर्म-ध्यान-इसका अर्थ है चित्त-विशुद्धि का प्रारम्भिक अभ्यास । धर्म-ध्यान के लिए ये चार बातें आवश्यक है-१. आगम-शान, २. अनासक्ति, ३. आत्मसंयम और मुमुक्षुभाव । धर्म ध्यान के चार प्रकार है : १. आज्ञा-विचय : आगम के अनुसार तत्त्व स्वरूप एवं कर्तव्यों का चिन्तन करना। २. अपाय-विचय : हेय क्या है, इसका विचार करना । ३. विपाक-विचय : हेयके परिणामोंका विचार करना । ४. संस्थान-विचय : लोक या पदार्थों की आकृतियों, स्वरूपों का चिन्तन करना। संस्थान-विचय धर्म-ध्यान पुनः चार उपविभागों में विभाजित है-(अ) पिण्डस्थ ध्यानयह किसी तत्त्व विशेष के स्वरूप के चिन्तन पर आधारित है । इमकी पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी, और तत्त्वभू ये पाँच धारणाएं मानी गयी है । (ब) पदस्थ घ्यान-यह ध्यान पवित्र मंत्राक्षर आदि पदों का अवलम्बन करके किया जाता है । (स) रूपस्थ-ध्यानगग, द्वेप, मोह आदि विकारों मे रहित अर्हन्त का ध्यान करना हैं । (द) रूपातीत-ध्यान निराकार, चैतन्य-स्वरूप सिद्ध परमात्मा का ध्यान करना । शुक्ल-ध्यान-यह धर्म-ध्यान के बाद की स्थिति है । शुक्लध्यान के द्वारा मन को शान्त और निष्प्रकम्प किया जाता है । इमकी अन्तिम परिणति मन की समस्त प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध है । शुक्ल-ध्यान चार प्रकार का है-(१) पृथक्त्व-वितर्क-सविचार-इस ध्यान में ध्याता कभी अर्थ का चिन्तन करते करते शब्द का और शब्द का चिन्तन करते करने अर्थ का चिन्तन करने लगता है । इस ध्यान में अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही रहता है। (२) एकत्व-वितर्क अविचारी-अर्थ, व्यंजन और योग संक्रमण से रहित, एक पर्याय-विषयक ध्यान 'एकत्व-श्रुत अविचार' ध्यान कहलाता है। (३) सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाती-मन, वचन और शरीर व्यापार का निरोध हो जाने एवं केवल श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया के शेष रहने पर ध्यान की यह अवस्था प्राप्त होती है। (४) ममुच्छिन्न-क्रिया-निवृत्ति-जब मन, वचन और शरीर की समस्त प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है और कोई भी सूक्ष्म क्रिया शेष नहीं रहती उस अवस्था को समुच्छिन्न-क्रिया शुक्लघ्यान कहते है। इस प्रकार शुक्लध्यान की प्रथम अवस्था से क्रमशः आगे बढ़ते हुए अन्तिम अवस्था में साधक कायिक, वाचिक और मानसिक सभी प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध कर अन्त में सिद्धावस्था प्राप्त कर लेता है जो कि नैतिक साधना और योगसाधना का अन्तिम लक्ष्य है।' १. विशेष विवेचन के लिए देखिए-योगशास्त्र प्रकाश ७, ८, ९, १०, ११ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् तप तथा योग-भाग गोता में तप का वर्गीकरण-वैदिक साधना में तप का सर्वांग वर्गीकरण गीता में प्रतिपादित है । गीता में तप का दोहरा वर्गीकरण है । एक तप के स्वरूप का वर्गीकरण है तो दूसरा तप की उपादेयता एवं शुद्धता का । प्रथम स्वरूप की दृष्टि से गीताकार तप के तीन प्रकार बताते हैं -(१) शारीरिक, (२) वाचिक और (३) मानसिक । १. शारीरिक तप-गीताकार की दष्टि में शारीरिक तप हैं-१. देव, द्विज, गरुजनों और ज्ञानीजनों का पूजन (सत्कार एवं सेवा), २. पवित्रता (शरीर की पवित्रता एवं आचरण की पवित्रता), ३. सरलता (अकपट), ४. ब्रह्मचर्य और ५. अहिंमा का पालन। २. वाचिक-वाचिक तप के अन्तर्गत क्रोध जाग्रत नहीं करने वाला शान्तिप्रद, प्रिय एवं हितकारक यथार्थ भाषण, स्वाध्याय एवं अध्ययन ये तीन प्रकार आते हैं। ३. मानसिक तप-मन की प्रसन्नता, शान्त भाव, मौन, मनोनिग्रह और भाव संशुद्धि । तप की शुद्धता एवं नैतिक जीवन में उसकी उपादेयता की दृष्टि से तप के तीन स्तर या विभाग गीता में वर्णित हैं-१. सात्विक तप, २. राजम तप और ३. तामस तप । गीताकार कहता है कि उपर्युक्त तीनों प्रकार का तप श्रद्धापूर्वक, फल को आकांक्षा से रहित एवं निष्काम भाव से किया जाता है तब वह सात्विक तप कहा जाताहै । लेकिन जो तप सत्कार, मान-प्रतिष्ठा अथवा दिखावे के लिए किया जाता है तो वह गजस तप कहा जाता है । __इसी प्रकार जिस तप में मूढ़तापूर्वक अपने को भी कष्ट दिया जाता है और दूसरे को भी कष्ट दिया जाता और दूसरे का अनिष्ट करने के उद्देश्य से किया जाता है, वह तामस तप कहा जाता है। वर्गीकरण की दृष्टि में गीता और जैन विचारणा में प्रमुख अन्तर यह है कि गीता अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य एवं इन्द्रियनिग्रह, आर्जव आदि को भी तप की कोटि में गलती है, जब कि जन विचारणा उन पर पाँच महाव्रतों एवं दम यतिधर्मों के सन्दर्भ में विचार करती है । इमी प्रकार गीता में जैन-विचारणा के बाह्य तपों पर विशेष विचार नहीं किया गया है । जैन-विचारणा के आभ्यन्तर तपों पर गीता में तप के रूप में नहीं, वग्न् अलग से विचार किया गया है। केवल स्वाध्याय पर तप के रूप में विचार किया गया है। ध्यान और कायोत्सर्ग का योग के रूप में, यावृत्य का लोक-संग्रह के रूप १. गीता, १७।१४-१६ २. वही, १७।१७-१९ ३. तुलना कीजिये-सूत्रकृतांग, १।८।२४ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैन, बौद्ध और पोता का सामना मार्ग में एवं विनय पर गुण के रूप में विचार किया गया है । प्रायश्चित्त गीता में शरणागति बन जाता है। ___ यदि समग्र वैदिक माधना की दृष्टि मे जैन वर्गीकरण पर विचार किया जाये तो तप के लगभग वे सभी प्रकार वैदिक साधना में मान्य है।। धर्ममूत्रों विशेषकर वैखानस सूत्र तथा अन्य स्मृति-ग्रन्थों के आधार पर इसे सिद्ध किया जा सकता है। महानारायणोपनिषद् मे तो यहाँ तक कहा है कि 'अनशन से बढ़ कर कोई तप नहीं है । यद्यपि गीता में अनशन ( उपवास ) की अपेक्षा ऊनोदरी तप को ही अधिक महत्त्व दिया गया है। गीता यहाँ पर मध्यममार्ग अपनाती है । गीताकार कहता है, योग न अधिक खाने वाले लोगों के लिए मम्भव है, न बिलकुल ही न खानेवाले के लिए सम्भव है । युक्ताहारविहार वाला ही योग की साधना सरलतापूर्वक कर सकता है। महर्षि पतंजलि ने तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर-प्रणिधान इन तीनों को क्रिया-योग कहा है। बौद्ध साधना में तप का वर्गीकरण-बौद्ध-साहित्य में तप का कोई ममुचित वर्गीकरण देखने मे नही आया। 'मज्झिमनिकाय' के कन्दरकसुत्त में एक वर्गीकरण है जिसमें गीता के समान तप की श्रेष्ठता एवं निकृष्टता पर विचार किया गया है। वहाँ बुद्ध कहते है कि 'चार प्रकार के मनुष्य होते है (१) एक वे जो आत्मन्तप हैं परन्तु परन्तप नही है। इस वर्ग के अन्दर कठोर तपश्चर्या करनेवाले तपस्वीगण आते है जो स्वयं को कष्ट देते है, लेकिन दूसरे को नही । (२) दूसरे वे जो परन्तप है आत्मन्तप नही । इस वर्ग में बधिक तथा पशु बलि देनेवाले आते हैं जो दूसरों को ही कष्ट देते हैं । (३) तीसरे वे जो आत्मन्तप भी है और परन्तप भी अर्थात् वे लोग जो स्वयं भी कष्ट उठाते है और दूसरों को भी कष्ट देते है, जैसे-तपश्चर्या महित यजयाग करनेवाले । (४) चौथे वे जो आत्मन्तप भी नही है और परन्तप भी नही है अर्थात् वे लोग जो न तो स्वयं को कष्ट देते हैं और न औरों को ही कष्ट देते हैं । बुद्ध भी गीता के समान यह कहते हैं कि जिस तप में स्वयं को भी कष्ट दिया जाता है और दूसरे को भी कष्ट दिया जाता है, वह निकृष्ट है । गीता ऐसे तप को तामस कहती है । बुद्ध अपने श्रावकों को चौथे प्रकार के तप के सम्बन्ध मे उपदेश देते है और मध्यममार्ग के सिद्धान्त के आधार पर ऐसे ही तप को श्रेष्ठ बताते हैं, जिनमे न तो स्वपीड़न है, न पर-पीड़न । १. महानारायणोपनिषद्, २११२ २. गीता, ६।१६-१७ -तुलना कीजिए-सूत्रकृतांग १२८।२५ ३. मज्झिमनिकाय कन्दरकसुत्त, पृ० २०७-२१० Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक तप तपा योग-मार्ग जैन-विचारणा उपर्युक्त वर्गीकरण मे पहले और चौथे को स्वीकार करती है और कहती है कि यदि स्वयं के कष्ट उठाने से दूसरों का हित होता है और हमारी मानसिक शुद्धि होती है तो पहला ही वर्ग सर्वश्रेष्ठ है और चौथा वर्ग मध्यममार्ग है हो, यह अवश्य है कि वह दूसरे और तीसरे वर्ग के लोगों को किसी रूप में नैतिक या तपस्वी स्वीकार नहीं करता। यदि हम जैन परम्परा और गीता में वर्णित तप के विभिन्न प्रभेदों पर विचार करके देखें तो हमे उनमे से अधिकांश बौद्ध-परम्परा में मान्य प्रतीत होते है (१) बौद्ध भिक्षुओं के लिए अति भोजन वर्जित है। साथ ही एक समय भोजन करने का आदेश है जो जैन-विचारणा के ऊनोदरी तप से मिलता है । गीता मे भी योग साधना के लिए अति भोजन वर्जित है । (२) बौद्ध भिक्षुओं के लिए ग्मासक्ति का निषेध है। (३) वौद्ध साधना में भी विभिन्न सुखासनों की माधना का विधान मिलता है। यद्यपि आमनों की साधना एवं शीत एवं ताप सहन करने की धारणा बौद्ध-विचागणा मे उतनी कठोर नही है जितनी जैन-विचारणा मे । (४) भिक्षाचर्या जैन और बौद्ध दोनों आचार-प्रणालियों में स्वीकृत है, यद्यपि भिक्षा नियमों की कठोरता जैन माधना मे अधिक है । (५) विविक्त शयनासन तप भी बौद्ध विचारणा में स्वीकृत है । बोद्ध आगमों मे अग्ण्यनिवास, वृक्षमूल-निवाम, श्मशान निवाम करनेवाले (जैन परिभाषा के अनुमार विविक्त शयनामन तप करनेवाले) धुतग भिक्षुओं की प्रशसा की गयी है। आभ्यन्तरिक तप के छह भेद भी बौद्ध परम्परा मे स्वीकृत रहे है । (६) प्रायश्चित्त बौद्ध-परम्परा और बैदिक परम्परा में स्वीकृत रहा है। बौद्ध आगमों में प्रायश्चित्त के लिए प्रवारणा आवश्यक मानी गयी है । (७) विनय के सम्बन्ध मे दोनो ही विचार परम्परा एकमत हैं । (८) बौद्ध परम्पग में भी बुद्ध, धर्म, संघ, रोगी, वृद्ध एवं शिक्षार्थी भिक्षक की सेवा का विधान है। (९) इमी प्रकार स्वाध्याय एवं उममें विभिन्न अंगों का विवेचन भी बौद्ध परम्परा में उपलब्ध है। बुद्ध ने भी वाचना, पृच्छना, पगवर्नना एवं चिन्तन को ममान महन्व दिया है । (१०) व्युत्मर्ग के सम्बन्ध मे यद्यपि बुद्ध का दृष्टिकोण मध्यममार्गी है, तथापि वे इसे अम्वीकार नही करते है । व्युत्मर्ग के आन्तरिक प्रकार तो बौद्ध परम्परा में भी उमी प्रकार स्वीकृत रहे है जिम प्रकार वे जैन दर्शन में है । (११) ध्यान के सम्बन्ध में बौद्ध दृष्टिकोण भी जन परम्परा के निकट ही आता है। बौद्ध परम्परा में चार प्रकार के ध्यान माने गये हैं १. मवितर्क-सविचार-विवेकजन्य प्रीतिसुखात्मक प्रथम ध्यान । २. वितर्क विचार-रहित-समाधिज प्रीतिसुखात्मक द्वितीय ध्यान । ३. प्रीति और विराग से उपेशक हो स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त उपेक्षा स्मृति सुखबिहारी तृतीय ध्यान । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ बेन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग ४. सुख-दुःस एवं सौमनस्य-दौमनस्य से रहित असुख-अदुःखात्मक उपेक्षा एवं परिशुद्धि से युक्त चतुर्थ ध्यान । इस प्रकार चारों ध्यान जैन-परम्परा में भी थोड़े शाब्दिक अन्तर के साथ उपस्थित हैं । योग-परम्परा में भी समापत्ति के चार प्रकार बतलाये हैं, जो कि जन-परम्परा के समान ही लगते हैं। समापत्ति के वे चार प्रकार निम्नानुसार हैं-१. सवितर्का, २. निवितर्का, ३. सविचारा, ४. निविचारा । इस विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन-साधना में जिस सम्यक् तप का विधान है, वह अन्य भारतीय आचारदर्शनों में भी सामान्यतया स्वीकृत रहा है । जैन, बौद्ध और गीता की विचारणा में जिस सम्बन्ध में मत भिन्नता है वह है अनशन या उपवास तप । बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन उपवासों की लम्बी तपस्या को इतना महत्त्व नहीं देते जितना कि जैन विचारणा देती है। इसका मूल कारण यह है कि बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन तप की अपेक्षा योग को अधिक महत्त्व देते हैं । यद्यपि यह स्मरण रखने की बात है कि जैन दर्शन की तप-माधना योग-साधना मे भिन्न नहीं है । पतंजलि ने जिस अष्टांग योगमार्ग का उपदेश दिया वह कुछ तथ्यों को छोड़ कर जैन-विचारणा में भी उपलब्ध है। मष्टांग योग और जेन-दर्शन-योग-दर्शन में योग के आठ अंग माने गये है-१. यम, २. नियम, ३. आसन, ४. प्राणायाम, ५. प्रत्याहार, ६. धारणा, ७. ध्यान और ८. समाधि । इनका जैन-विचारणा से कितना साम्य है, इस पर विचार कर लेना उपयुक्त होगा। १. यम-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम हैं । जैन-दर्शन में ये पांचों यम पंच महाव्रत कहे गये हैं। जैन-दर्शन और योग-दर्शन में इनकी व्याख्याएं समान है। २. नियम-नियम भी पांच है-१. शौच, २. सन्तोष, ३. तप, ४. स्वाध्याय और ५. ईश्वरप्रणिधान । जैन दर्शन में ये पांचों नियम प्रसंगान्तर से मान्य हैं। जैन-दर्शन में नियम के स्थान पर योग-संग्रह का विवेचन उपलब्ध है। जैन आगम समवायांग में ३२ योग-संग्रह माने है । यथा १. अपने किये हुए पापों की गुरुजनों के पास आलोचना करना। २. किसी की आलोचना सुनकर किसी और के पास न कहना । ३. कष्ट आने पर धर्म में दृढ़ रहना । ४. किसी की सहायता की अपेक्षा न करते हुए तप करना ५. ग्रहणशिक्षा और आसेवनशिक्षा का पालन करना । ६. शरीर की निष्प्रतिक्रमता । ७. पूजा आदि की आशा से रहित होकर अज्ञात तप करना । ८. लोभपरित्याग । ९. तितिक्षा-- सहन करना । १०. ऋजुता (सरलता) । ११. शुचि (सत्य-संयम) । १२. सम्यग्दृष्टि होना । १३. समाधिस्थ होना । १४. आचार का पालन करना । १५. विनयशील होना। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्तप तथा योगमार्ग ११३ १६ धृतिपूर्वक मतिमान् होना । १७ मवेगयुक्त होना। १८ प्रनिधि-माया (१ पट) न करना । १९. सुविधि-सदनुष्ठान । २०. सवरयुक्त होना । २१ अपने दोपो का निरोध करना । २२ सब कामो (विषयो) से विरक्त रहना । २३ मूलगुणो का शुद्ध पालन करना। २४. उत्तरगुणो का शुद्ध पालन करना । २५ व्युत्मर्ग करना । २६ प्रमाद न करना। २७ क्षण-क्षण मे समाचारी-अनुष्ठान करना । २८. ध्यान-मवरयोग करना। :० माग्णान्तिक कष्ट आने पर भी अपने ध्येय से विचलित न होना। ३०. मग का परित्याग करना । ३१ प्रायश्चित्त ग्रहण करना। ३२ मणकाल मे आगधक बनना । ___३ आसन-स्थिर एव बैठने के सुखद प्रकार-विशेष को आमन कहा गया है । जैन परम्परा मे बाह्य तप के पाचवें काया-क्लेश में आमनो का भी ममावेश ह । औपपातिक सूत्र एव दशाश्रुतस्कधसूत्र मे वीरासन, भद्रामन, गोदुहामन और सुग्वासन आदि अनेक आसनो का विवेचन है। ४ प्राणायाम-प्राण, अपान, ममान', उदान और व्यान ये पांच प्राणवायु है । इन प्राणवायुओ पर विजय प्राप्त करना ही प्राणायाम है। इसके रेचक, पूरक और कुम्भक ये तीन भेद है । यद्यपि जैन धर्म के मूल आगमो में प्राणायाम सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध नहीं है, तथापि आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव और आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र में प्राणायाम का विस्तृत विवेचन है। ५ प्रत्याहार-इन्द्रियो की बहिर्मुखता को ममाप्त कर उन्हें अन्तर्मग्वी करना प्रत्याहार है । जैन दर्शन में प्रत्याहार के स्थान पर प्रतिसलीनता शब्द का प्रयोग हुआ है । वह चार प्रकार की है-१ इन्द्रिय-प्रतिसलीनता, २ कषाय-प्रतिमलीनता, ३. योग-प्रतिसलीनता और ४ विविक्त शयनासन मवनता। इस प्रकार योग दर्शन के प्रत्याहार का समावेश जैन-दर्शन की प्रतिमलीनता में हो जाता है । ६ धारणा-चित्त की एकाग्रता के लिए उमे किमी स्थान-विशेप पर केन्द्रित करना धारणा है । धारणा का विषय प्रथम स्थूल होता है जो क्रमश सूक्ष्म और मृक्ष्मनर होता जाता है । जैन आगमो मेधारणा का वर्णन स्वतत्र रूप मे नही मिलता, यद्यपि उमका उल्लेख ध्यान के एक अग के रूप मे अवश्य हुआ है। इन-परम्पग मे ध्यान की अवस्था मे नामिकान पर दष्टि केन्द्रित करने का विधान है । दशाश्रुतस्कघमत्र मे भिक्षुप्रतिमाओ का विवेचन करते हुए एक-पुद्गलनिविदृष्टि का उल्लेख है । ७ ध्यान-जैन-परम्पग में योग-माधना के म्प में ध्यान का विशेष विवेचन उपलब्ध है। ८. समाधि-चित्तवृत्ति का स्थिर हो जाना अथवा उमका क्षय हो जाना ममावि है । जैन-परम्परा मे ममाधि शब्द का प्रयोग तो काफी हआ है, लेकिन ममाधि को ध्यान १, ममवायाग ३२। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैन, बौद्ध और गोता का साधना मागं 1 से पृथक नहीं माना गया है । जैन परम्परा में धारणा, ध्यान और समाधि तीनों ध्यान में हो ममाविष्ठ हैं । शुक्लध्यान की अवस्थाएँ समाधि के तुल्य हैं । समाधि के दो विभाग किये गए हैं - १. संप्रज्ञात -समाधि और २ असंप्रज्ञात -समाधि । संप्रज्ञात समाधि का अन्तर्भाव शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकार पृथक्त्ववितर्क मविचार और एकत्व वितर्क अविचार मे और अमंप्रज्ञात-समाधि का अन्तर्भाव शुक्ल- ध्यान के अन्तिम दो प्रकार सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ओर समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति में हो जाता है । १ इस प्रकार अष्टांग योग मे प्राणायाम को छोड़कर शेष सभी का विवेचन जैनआगमों में उपलब्ध है । यही नहीं, परवर्ती जैनाचार्यो ने प्राणायाम का विवेचन भी किया है । आचार्य हरिभद्र ने तो पचाग योग का विवेचन भी किया है, जिसमे योग के निम्न पाँच अंग बताये है: - १. अध्यात्म, २. भावना, ३. ध्यान, ४. समता और ५. वृत्तिसंक्षय | आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिममुच्चय, योग-बिन्दु और योगविशिका; आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव तथा आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र की रचना कर जैन परम्परा में योग-विद्या का विकाम किया है । तप का सामान्य स्वरूप एक मूल्याकन - तप शब्द अनेक अर्थो मे भारतीय आचार दर्शन में प्रयुक्त हुआ है और जब तक उसकी मीमाएँ निर्धारित नहीं कर लीजाती, उसका मूल्यांकन करना कठिन है । 'तप' शब्द एक अर्थ मे त्याग भावना को व्यक्त करता है। त्याग चाहे वह वैयक्तिक स्वार्थ एवं हितों का हो, चाहे वैयक्तिक मुखोपलब्धियों का हो, तप कहा जा सकता है । सम्भवतः यह तप की विस्तृत परिभाषा होगी, लेकिन यह तप के निषेधात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत करती है । यहाँ तप, संयम, इन्द्रिय-निग्रह और देह- दण्डन बन कर रह जाता है। तप मात्र त्यागना ही नहीं है, उपलब्ध करना भी है । तप का केवल विसर्जनात्मक मूल्य मानना भ्रम होगा । भारतीय आचार-दशनो ने जहाँ तप के विसर्जनात्मक मूल्यों की गुण गाथा गायी है, वही उसके सृजनात्मक मूल्य को भी स्वीकार किया है। वैदिक परम्परा में तप को लोक-कल्याण का विधान करने वाला कहा गया है। गीता की लोक-संग्रह की और जैन परम्परा की वैयावृत्य या संघसेवा की अवधारणाएँ तप के विधायक अर्थात् लोक-कल्याणकारी पक्ष को ही तो अभिव्यक्त करती है । बोद्ध परम्परा जब "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय " का उद्घोप देती है तब वह भी तप के विधायक मूल्य का ही विधान करती है । सृजनात्मक पक्ष में तप आत्मोपलब्धि ही है, लेकिन यहाँ स्व-आत्मन् इतना व्यापक होता है कि उसमे स्व या पर का भेद ही नही टिक पाता है और इसीलिए एक तपस्वी का आत्म-कल्याण और लोक कल्याण परस्पर विरोधी नहीं होकर एक रूप होते हैं । एक तपस्वी के आत्मकल्याण मे लोक-कल्याण समाविष्ट रहता है और उसका लोक-कल्याण आत्म-कल्याण ही होता है । १. विस्तृत एवं सप्रमाण तुलना के लिए देखिए — जैनागमों में अष्टांग योग । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक तप तथा योगमार्ग ११५ तप, चाहे वह इन्द्रिय संयम हो, चित्त निरोध हो अथवा लोक-कल्याण या बहुजनहित हो, उसके महत्त्व से इनकार नहीं किया जा सकता । उसका वैयक्तिक जीवन के लिए एवं समाज के लिए महत्त्व है । डॉ० गफ आदि कुछ पाश्चात्त्य विचारकों ने तथा किसी सीमा तक स्वयं बुद्ध ने भी तपस्या को आत्म-निर्यातन (Self Torture ) या स्वपीडन के रूप में देखा और इसी आधार पर उसकी आलोचना भी की है । यदि तपस्या का अर्थ केवल आत्म-निर्यातन या स्वपीड़न ही है और यदि इस आधार पर उसकी आलोचना की गयी हैं तो समुचित कही जा सकती है। जैन विचारणा और गीता की धारणा भी इससे महमत ही होगी । लेकिन यदि हमारी सुखोपलब्धि के लिए परपीड़न अनिवार्य हो तो ऐसी सुखोपलब्धि समालोच्य भारतीय आचार-दर्शनों द्वारा त्याज्य ही होगी । इमी प्रकार यदि स्वपीड़न या परपीड़न दोनों में से किसी एक का चुनाव करना हो तो स्वपीड़न हो चुनना होगा । नैतिकता का यही तकाजा है । उपर्युक्त दोनों स्थितियों में स्वपीड़न या आत्म-निर्यातन को क्षम्य मानना ही पड़ेगा । भगवान् बुद्ध स्वयं ऐसी स्थिति में स्वपीड़न या आत्म-निर्यातन को स्वीकार करते हैं । यदि चित्तवृत्ति या वासनाओं के निरोध के लिए आत्म-निर्यातन आवश्यक हो तो इसे स्वीकार करना होगा । भारतीय आचार-परम्पराओं एवं विशेषकर जैन आचार-परम्परा में तप के माथ शारीरिक कष्ट सहने या आत्म-निर्यातन का जो अध्याय जुड़ा है उसके पीछे भी कुछ तर्कों का बल तो है ही । देह - दण्डन की प्रणाली के पीछे निम्नलिखित तर्क दिये जा मकते है १. सामान्य नियम है कि सुख की उपलब्धि के निमित्त कुछ न कुछ दुःख तो उठाना ही होता है, फिर आत्म-सुखोपलब्धि के लिए कोई कष्ट न उठाना पड़े, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? २. तप स्वयं को स्वेच्छापूर्वक कष्टप्रद स्थिति में डालकर अपने वैचारिक समत्व का परीक्षण करना एवं अभ्यास करना है । 'मुख दुःखे समं कृत्वा' कहना महज हो सकता है लेकिन ठोस अभ्यास के बिना यह आध्यात्मिक जीवन का अंग नहीं बन सकता और यदि वैयक्तिक जीवन में ऐसे महज अवसर उपलब्ध नहीं होने हैं तो स्वयं को कष्टप्रद स्थिति में डालकर अपने वैचारिक ममत्व का अभ्यास या परीक्षण करना होगा । लेकिन शरीर और आत्मा ३. यह कहना महज है कि 'मैं चैतन्य हूँ, देह जड़ है ।' के बीच, जड़ और चेतन के बीच, पुरुष और प्रकृति के बीच, सत् ब्रह्म और मिथ्या जगत् के बीच जिस अनुभवात्मक भेद-विज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता है, उसकी सच्ची कमौटी तो यही आत्म-निर्यातन की प्रक्रिया है । देह दण्डन या काय-क्लेश वह अग्नि Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग परीक्षा है जिसमें व्यक्ति अपने भेदज्ञान की निष्ठा का सच्चा परीक्षण कर सकता है । उपर्युक्त आधार पर हमने जिस देह-दण्डन या आत्म-निर्यातन रूप तपस्या का समर्थन किया है वह ज्ञान-ममन्वित तप है । जिस तप में समत्व की साधना नहीं भेदविज्ञान का ज्ञान नहीं, ऐमा देह दण्डनरूप तप जैन- माधना को बिलकुल मान्य नही है । भगवान् पार्श्वनाथ और तापस कमठ के बीच तप का यही स्वम्प तो विवाद का विषय था और जिसमें पार्श्वनाथ ने अज्ञानजनित देह-दण्डन को प्रणाली की निन्दा की थी । स्वाध्याय तप का ज्ञानात्मक स्वरूप है । भारतीय ऋषियों ने स्वाध्याय को तप के रूप में स्वीकार कर तप के ज्ञान समन्वित स्वरूप पर ही जोर दिया है । गीताकार ज्ञान और तप को साथ-साथ देखता है । भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर ने अज्ञानयुक्त तप की निन्दा समान रूप से की है । भगवान् महावीर कहते है कि जो अज्ञानीजन मास -माम की तपस्या करते हैं उसकी समाप्ति पर केवल कुशाग्र जितना अन्न ग्रहण करते हैं वे ज्ञानी की सोलहवीं कला के बराबर भी धर्म का आचरण नही करते । २ यही बात इन्ही शब्दों में बुद्ध ने भी कही है । 3 दोनों कथनों में शब्द साम्य विशेष द्रष्टव्य है । इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन अज्ञानयुक्त तप को हेय समझते हैं । देह-दण्डन को यदि कुछ ढीले अर्थ में लिया जाये तो उसकी व्यावहारिक उपादेयता भी सिद्ध हो जाती है । जैसे व्यायाम के रूप मे किया हुआ देह-दण्डन (शारीरिक कष्ट ) स्वास्थ्य रक्षा एवं शक्ति-संचय का कारण होकर जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में भी लाभप्रद होता है, वैसे ही तपस्या के रूप में देह- दण्डन का अभ्यास करने वाला अपने शरीर में कष्ट सहिष्णु शक्ति विकसित कर लेता है, जो वासनाओं के संघर्ष में ही नहीं, जीवन की सामान्य स्थितियों में भी सहायक होती है । एक उपवास का अभ्यासी व्यक्ति यदि किसी परिस्थिति में भोजन प्राप्त नहीं कर पाता, तो इतना व्याकुल नहीं होगा जितना अनभ्यस्त व्यक्ति । कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है । आध्यात्मिक दृष्टि के बिना शारीरिक यन्त्रणा अपने आप में कोई तप नहीं है, उसमें भी यदि इस शारीरिक यन्त्रणा के पीछे लौकिक या पारलौकिक स्वार्थ हैं तो फिर उसे तपस्या कहना महान् मूर्खता होगी। जैन- दार्शनिक भाषा में तपस्या में देह दण्डन किया नहीं जाता, हो जाता है । तपस्या का प्रयोजन आत्म १. देखिये - गीता १६।१, १७, १५, ४ १०, ४२८ २. मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसि ॥ - उत्तराध्ययन, ९।४४ ३. मासे मासे कुसग्गेन बालो भुंजेय भोजनं । न सो संखतधम्मानं कलं अग्धति सोलसि ॥ - धम्मपद, ७० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् तप तथा योगमा गं ११७ परिशोधन है, न कि देह- दण्डन । घृत को शुद्धि के लिए घृत को तपाना होता है न कि पात्र को। उसी प्रकार आत्म-शुद्धि के लिए आत्म-विकारों को तपाया जाता है न कि शरीर को । शरीर तो आत्मा का भाजन ( पात्र) होने से तर जाता है, तपाया नहीं जाता । जिम तप में मानसिक कष्ट हो, वेदना हो, पीड़ा हो, वह तप नहीं है। पीड़ा का होना एक बात है और पीड़ा को व्याकुलता की अनुभूति करना दूसरी बात है । तप में पीड़ा हो सकती है लेकिन पीड़ा की व्याकुलता की अनुभूति नहीं । पोड़ा शरीर का धर्म है, व्याकुलता की अनुभूति आत्मा का । ऐमे अनेक उदाहरण हैं जिनमें इन दोनों को अलग-अलग देखा जा सकता है। जैन बालक जब उपवास करता है, तो उमे भूख की पीड़ा अवश्य होगी, लेकिन वह पीड़ा की व्याकुलता को अनुभूति नही करता । वह उपवास तप के रूप में करता है और तप तो आत्मा का आनन्द है । वह जीवन के सौष्ठव को नष्ट नहीं करता, वरन् जीवन के आनन्द को परिष्कृत करता है । पुनः तप को केवल देह दण्डन मानना बहुत बड़ा भ्रम है। देह दण्डन तप का एक छोटा-सा प्रकार मात्र है । 'तप' शब्द अपने आप में व्यापक है । विभिन्न साधनापद्धतियों ने तप की विभिन्न परिभाषाएँ की हैं और उन सबका समन्वित स्वरूप ही तप की एक पूर्ण परिभाषा को व्याख्यायित कर सकता है। संक्षेप में जीवन के शोधन एवं परिष्कार के लिए किये गये समग्र प्रयास तप हैं । यह तप की निर्विवाद परिभाषा है जिसके मूल्यांकन के प्रयास की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती है । जीवन - परिष्कार के प्रयास का मूल्य सर्वग्राह्य है, सर्वस्वीकृत है । इस पर न किमी पूर्ववाले को आपत्ति हो सकती है न पश्चिमवाले को । यहाँ आत्मवादी और भौतिकवादी सभी समभूमि पर स्थित हैं और यदि हम तप की उपर्युक्त परिभाषा को स्वीकृत करके चलने हैं तो निषेधात्मक दृष्टि से तृष्णा, राग, द्वेष आदि चित्त की समस्त अकुटाल ( अशुभ ) वृत्तियों का निवारण एवं विधेयात्मक दृष्टि से मभी कुशल ( शुभ ) वृत्तियों एवं क्रियाओं का सम्पादन 'तप' कहा जा सकता है । भारतीय ऋषियों ने हमेशा तप का विराट् अर्थ में ही देखा है । यहाँ श्रद्धा, ज्ञान, अहिमा, ब्रह्मचर्य, आर्जव, मार्दव, क्षमा, संयम, समावि, मत्य, स्वाध्याय, अध्ययन, सेवा, सत्कार आदि सभी शुभ गुणों को तप मान लिया गया है । अब जैन-परम्परा में स्वीकृत तप के भेदों के मूल्यांकन का किचित् प्रयास किया जा रहा है। अनशन में कितनी शक्ति हो सकती है, इसे आज गाँधी-युग का हर व्यक्ति जानता है । हम तो उसके प्रत्यक्ष प्रयोग देख चुके हैं। सर्वोदय समाज रचना तो उपवास के मूल्य की स्वीकार करती हो है, देश में उत्पन्न अन्न-संकट को समस्या ने भी इस ओर १. गीता, १७।१४-१९ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जन, बौद्ध और गोता का सापना मार्ग हमारा ध्यान आकर्षित किया है। इन सबके साथ आज चिकित्सक एवं वैज्ञानिक भी इसकी उपादेयता को मिद्ध कर चुके है । प्राकृतिक चिकित्मा प्रणाली का तो मूल आधार ही उपवास है। ___ इमी प्रकार ऊनोदरी या भूख से कम भोजन, नियमित भोजन तथा रम-परित्याग का भी स्वास्थ्य को दृष्टि में पर्याप्त मूल्य है । साथ ही यह मयम एवं इन्द्रिय जय में भी सहायक है । गाधीजी ने तो इसी में प्रभावित हो ग्यारह व्रतो में अस्वाद व्रत का विधान किया था। यद्यपि वर्तमान युग भिक्षावृत्ति को उचित नहीं मानता है, तथापि ममाज-व्यवस्था की दृष्टि से इसका दूसरा पहलू भी है । जैन आचार-व्यवस्था मे भिक्षावृत्ति के जो नियम प्रतिपादित है वे अपने आप में इतने मबल है कि भिक्षावृत्ति के मम्भावित दोपो का निराकरण स्वतः हो जाता ह । भिक्षावृत्ति के लिा अह का त्याग आवश्यक है और नैतिक दृष्टि मे उसका कम मूल्य नही है। इसी प्रकार आसन-साधना और एकातवाम का योग-साधना की दृष्टि मे मल्य है । आमन योग-साधना का एक अनिवार्य अंग है। तप के आभ्यन्तर भेदो मे ध्यान और कायोत्मर्ग का भी माधनात्मक मूल्य है । पुनः स्वाध्याय, वैयावृत्य (मेवा) एव विनय (अनुशासन) का तो सामाजिक एव वयक्तिक दोनो दृष्टियो से बड़ा महत्त्व है। सेवाभाव और अनुशामित जीवन ये दोनो सभ्य समाज के आवश्यक गुण है । ईसाई धर्म मे तो इम मेवाभाव को काफी अधिक महन्व दिया गया है। आज उसके व्यापक प्रचार का एकमात्र कारण उमकी मेवा-भावना ही तो है। मनुष्य के लिए सेवाभाव एक आवश्यक तत्व है जो अपने प्रारम्भिक क्षेत्र में परिवार से प्रारम्भ होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' तक का विशाल आदर्य प्रस्तुत करता है। स्वाध्याय का महत्त्व आध्यात्मिक विकास और ज्ञानात्मक विकाम दोनो दण्टियो मे है। एक ओर वह स्व का अध्ययन है तो दूसरी ओर ज्ञान का अनुशीलन । ज्ञान और विज्ञान की सारी प्रगति के मूल मे तो स्वाध्याय ही है । प्रायश्चित्त एक प्रकार से अपराधी द्वारा स्वयाचित दण्ड है। यदि व्यक्ति में प्रायश्चित्त की भावना जागृत हो जाती है तो उसका जीवन ही बदल जाता है । जिम समाज में ऐसे लोग हो, वह समाज तो आदर्श हो होगा। ___ वास्तव मे तो तप के इन विभिन्न अगो के इतने अधिक पहलू है कि जिनका समुचित मूल्याकन सहज नहीं । ___ तप आचरण में व्यक्त होता है। वह आचरण ही है । उसे शब्दो मे व्यक्त करना सम्भव नहीं है । तप आत्मा की ऊषा है, जिसे शब्दो मे बांधा नहीं जा सकता। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् तप तथा योगमार्ग यह किमी एक आचार-दर्शन की बपौती नही, वह तो प्रत्येक जागृत आत्मा की अनुभूति है। उमको अनुभूति से ही मन के कलुप धुलने लगते है, वामनाएँ शिथिल हो जाती है, अहं गलने लगता है । तृष्णा और कपारो की अग्नि तप की ऊष्मा के प्रकट होते ही निशेष हो जाती है। जडता क्षीण हो जाती है । चेतना और आनन्द का एक नया आयाम खुल जाता है, एक नवीन अनुभूति होती है । शब्द और भापा मान हो जाती है, आचरण की वाणी मुखरित होने लगती है। तप का यही जीवन्त और जागृत गाश्वत स्वम्प है जो मार्वजनीन और मार्वकालिक है । सभी साधना-पद्धतिया इमे मानकर चलती है और दश काल के अनुसार इमके किमी एक द्वार से माधको को तप के इस भग महल में लाने का प्रयास करती है, जहा साधक अपने परमात्म स्वरूप का दर्शन करता है, आन्मन ब्रह्म या ईश्वर का माक्षात्कार करता है। तप एक ऐमा प्रशस्त योग है जो आत्मा को परमात्मा म जोड देता है, आत्मा का परिष्कार कर उमे परमात्म-स्वरूप बना दता है । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग निवृत्तिमार्ग एवं प्रवत्तिमार्ग का विकास आचार-दर्शन के क्षेत्र मे प्रवृत्ति और निवृत्ति का प्रश्न सदैव ही गम्भीर विचार का विषय रहा है। आचरण के क्षेत्र मे ही अनैकिता को मम्भावना रहती है, क्रिया मे ही बन्धन की क्षमता होती है। इमलिए कहा गया कि कर्म मे बन्धन होता है । प्रश्न उठता है कि यदि कर्म अथवा आचरण ही बन्धन का कारण है तो फिर क्यो न इसे त्याग कर निष्क्रियता का जीवन अपनाया जाये। बम, इसी विचार के मूल मे निवृत्ति वादी अथवा नैष्कर्म्यवादी मन्याममार्ग का बोज है । निष्पाप जीवन जीने की उमग मे ही निवृत्तिवादी परम्पग मनुष्य को कर्मक्षेत्र में दूर निर्जन वनखण्ड एवं गिरिगुफाओ मे ले गयी, जहाँ यथासम्भव निष्कम जीवन सुलभतापूर्वक बिताया जा सके । दूमरी ओर जिन लोगो ने कर्मक्षेत्र में भागना तो नही चाहा, लेकिन पाप के भय एवं भावी मुग्वद जीवन की कल्पना से अपने को मुक्त नहीं रख सके उन्होने पाप-निवृत्ति एव जीवन की मगलकामना के लिए किमी ऐमी अदृश्य मत्ता में विश्वाम किया जो उन्हे आचरित पाप से मुक्त कर मके और जीवन मे मुग्व-मुविधाओ की उपलब्धि कगये । इतना ही नहीं, उन्होने उम मत्ता को प्रसन्न करने के लिए अनेक विधि-विधानो का निर्माण कर लिया और यही मे प्रवृत्ति मार्ग या कर्मकाण्ड की परम्पग का उद्भव हुआ। भारतीय आचार-दर्शन के इतिहाम का पूर्वार्ध प्रमुखत इन दोनो निवर्तक एव प्रवर्तक धर्मो के उद्भव, विकास और मघर्ष का इतिहास है, जबकि उत्तरार्ध इनके समन्वय का इतिहास है। जैन, बौद्ध एव गीता के आचार-दर्शनो का विकाम इन दोनो परम्पराओ के मघर्ष-युग के अन्तिम चरण मे हुआ है। इन्होने इस मघर्ष को मिटाने के हेतु ममन्वय की नई दिशा दी । जैन एव बौद्ध विचार-परम्पराएं यद्यपि निवर्तक धर्म को ही शाग्वाये थी, तथापि उन्होने अपने अन्दर प्रवर्तक धर्म के कुछ तत्त्वो का ममावेश किया और उन्हे नई परिभापाय प्रदान की। लेकिन गीता तो समन्वय के विचार को लेकर ही आगे आयी थी। गीता में अनामक्तियोग के द्वारा प्रवृत्ति और निवृत्ति का सुमेल कराने का प्रयास है। ___ निवृत्ति-प्रवृत्ति के विभिन्न अर्थ-निवृत्ति एव प्रवृत्ति शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होते रहे है । साधारणतया निवृत्ति का अर्थ है अलग होना और प्रवृत्ति का अर्थ है प्रवृत्त होना या लगना । लेकिन इन अर्थों को लाक्षणिक रूप में लेते हुए प्रवृत्ति और Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवृत्ति मार्ग मोर प्रवृत्ति मार्ग १२१ निवृत्ति के अनेक अर्थ किये गये । यहाँ विभिन्न अर्थों को दृष्टि मे रखते हुए विचार करेंगे। प्रवृत्ति और निवृत्ति सक्रियता एवं निष्क्रियता के अर्थ में निवृत्ति शब्द निः + वृत्ति इन दो शब्दों के योग से बना है । वृत्ति से तात्पर्य कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियायें है । वृत्ति के साथ लगा हुआ निस् उपसर्ग निषेध का सूचक है। इस प्रकार निवृत्ति शब्द का अर्थ होता है कायिक, वाचिक एवं, मानसिक क्रियाओं का अभाव । निवृत्तिपरकता का यह अर्थ लगाया जाता है कि कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं के अभाव की ओर बढ़ना, उनको छोड़ना या कम करते जाना, जिसे हम कर्म मंन्यास कह सकते है । इस प्रकार ममझा यह जाता है कि निवृत्ति का अर्थ जीवन से पलायन है, मानसिक, वाचिक एवं कायिक कर्मों की निष्क्रियता है । लेकिन भारतीय आचार-दर्शनों में से कोई भी निवृत्ति को निष्क्रियता के अर्थ में स्वीकार नही करता। क्योंकि कर्म-क्षेत्र मे कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं की पूर्ण निष्क्रियता मम्भव ही नही है। जैन इष्टिकोण-यद्यपि जैनधर्म मे मुक्ति के लिए मन, वाणी और गरीर की वृत्तियो का निरोध आवश्यक माना गया है फिर भी उममे विशुद्ध चेतना एवं शुद्ध ज्ञान की अवस्था पूर्ण निष्क्रियावस्था नही है। जैनधर्म तो मुक्तदशा में भी आत्मा में ज्ञान की अपेक्षा में परिणमनशीलता (मक्रियता) को स्वीकार कर पूर्ण निष्क्रियता की अव. धारणा को अस्वीकार कर देता है । जहाँ तक दैहिक एवं लौकिक जीवन की बात है, जैन-दर्शन पूर्ण निष्क्रिय अवस्था की सम्भावना को ही स्वीकार नहीं करता । कर्म-क्षेत्र मे क्षणमात्र के लिए भी ऐमी अवस्था नही होती जब प्राणी की मन, वचन और शरीर की समग्र क्रियायें पूर्णतः निरुद्ध हो जायें। उसके अनुमार अनामक्त जीवन्मुक्त अहंत में भी इन क्रियाओं का अभाव नही होता । ममम्त वत्तियों के निरोध का काल ऐसे महापुरुपों के जीवन में भी एक क्षणमात्र का ही होता है जब कि वे अपने परिनिर्वाण की तैयारी में होते है। मन, वचन और शरीर की ममस्त क्रियाओं के पूर्ण निगेव की अवस्था (जिसे जैन पारिभाषिक शब्दों मे अयोगीकेवली गुणस्थान कहा जाता है) की कालावधि पाँच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण में लगने वाले समय के बराबर होती है। इस प्रकार जीवन्मुक्त अवस्था में भी इन क्षणों के अतिरिक्त पूर्ण निष्क्रियता के लिए कोई अवसर ही नहीं होता, फिर मामान्य प्राणी की बात ही क्या ? जब आत्मा कृतकार्य हो जाती है, तब भी वह अर्हतावस्था या तीर्थकर दशा में निष्क्रिय नही होती वरन् मंघ-सेवा और प्राणियों के आध्यात्मिक विकास के लिए मतत प्रयत्नशील रहती है। नीर्थकरत्व अथवा अहंतावस्था प्राप्त करने के बाद मघ-स्थापना और धर्म-चक्रप्रवर्तन की मार्ग क्रियाय लोकहित की दृष्टि में की जाती है जो यही बताती है कि जैन विचारणा न केवल साधना के पूर्वांग के रूप में क्रियाशीलता को आवश्यक मानती है Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग वरन् साधना की पूर्णता के पश्चात् भी सक्रिय जीवन को आवश्यक मानती है । अतः कहा जा सकता है कि जैन दर्शन में निवृत्ति को निष्क्रियता के अर्थ में स्वीकार नहीं किया गया है । यद्यपि जैन-साधना का लक्ष्य शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञानदशा के अतिरिक्त ममस्त शारीरिक, मानमिक एवं वाचिक कर्मों की पूर्ण निवृत्ति है, लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में ऐसी निष्क्रियता कभी भी सम्भव नहीं है। वह मानती है कि जब तक शरीर है तब तक शरीर धर्मो को निवृत्ति सम्भव नहीं । जीवन के लिए प्रवृत्ति नितान्त आवश्यक है, लेकिन मन, वचन और तन को अशुभ प्रवृत्ति में न लगाकर शुभ प्रवृत्ति में लगाना नैतिक साधना का सत्त्वा मार्ग है। मन, वचन एवं तन का अयुक्त आचरण ही दोषपूर्ण है, युक्त आचरण तो गुणवर्धक है । बौद्ध दृष्टिकोण – बौद्ध आचार-दर्शन में भी पूर्ण निष्क्रियता की सम्भावना स्वीकार नहीं की गयी है । यही नहीं, ऐसे अनेक प्रसंग है जिनके आधार पर यह मिद्ध किया जा सकता है कि बोद्ध-माधना निष्क्रियता का उपदेश नही देती । विनयपिटक के चलवग्ग में अर्हत् दर्भ विचार करते हैं कि "मैंने अपने भिक्षु जीवन के ७ वें वर्ष में ही अर्हत्व प्राप्त कर लिया, मैंने वह सब ज्ञान भी प्राप्त कर लिया जो किया जा सकता है, अब मेरे लिए कोई भी कर्तव्य शेष नही है। फिर भी मेरे द्वारा संघ की क्या सेवा हो मकती है ? यह मेरे लिए अच्छा कार्य होगा कि मैं संघ के आवास और भोजन का प्रबन्ध करूँ ।' वे अपने विचार बुद्ध के समक्ष रखते है और भगवान् बुद्ध उन्हें इन कार्य के लिए नियुक्त करते है ?" इतना हा नहीं. महायान शाखा में तो बोधिसत्व का आदर्श अपनी मुक्ति की इच्छा नही रखता हुआ सदैव ही मन, वचन और तन से प्राणियों के दुःख दूर करने की भावना करता है । भगवान् बुद्ध के द्वारा बोधिलाभ के पश्चात् किये गये संघ प्रवर्तन एव लोकमंगल के कार्य स्पष्ट बताते है कि लक्ष्य विद्ध हो जाने पर भी नैष्कर्म्यता का जीवन जीना अपेक्षित नहीं है । बोधिलाभ के पश्चात् स्वयं बुद्ध भी उपदेश करने में अनुत्सुक हुए थे, लेकिन बाद में उन्होंने अपने इस विचार को छोड़कर लोकमंगल के लिए प्रवृत्ति प्रारम्भ की 13 गीता का दृष्टिकोण – गीता का आचार-दर्शन भी यही कहता है कि कोई भी प्राणी किसी भी काल में क्षणमात्र के लिए भी बिना कर्म किये नही रहता। सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा परवश हुए कर्म करने ही रहते है ।" गीता का आचारदर्शन तो साधक और सिद्ध दोनों के लिए कर्ममार्ग का उपदेश देता है। गीता मे श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, जो पुरुष मन में इन्द्रियों को वा मे कर के अनासक्त हुआ कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है। इसलिए तू शास्त्रविधि से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्म को कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म १. विनयपिटक चूलवग्ग, ४२११ ३. विनयपिटक, महावग्ग १1१1५ २. बोधिचर्यावतार, ३।६ ४. गीता ३।५ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १२३ करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नही होगा । बन्धन के भय मे भी कर्मों का त्याग करना योग्य नही है ।' हे अर्जुन, यद्यपि मझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा किंचित् भी प्राप्त होने योग्य वस्तु अप्राप्त नही है, तो भी में कर्म में ही बर्तता है । इसलिए है भारत, कर्म मे आसक्त हुए अज्ञानी जन जैगे कर्म करते है, वैमे ही अनासक्त हुआ विद्वान् भी लोकशिक्षा को चाहता हुआ कर्म करे । गीता की भक्तिमार्गीय व्याख्याएँ तो मोक्ष की अवस्था मे भी निष्क्रियता को स्वीकार न कर मुक्त आत्मा को सदैव ही ईश्वर की मेवा मे तत्पर बनाये रखती है । इम प्रकार म्पष्ट है कि जैन, बौद्ध एन गीता के आचार-दर्शनों में निवत्ति का अर्थ निक्रियता नही है । उनके अनुसार निवृत्ति का यह तात्पर्य कदापि नही है कि जीवन मे निष्क्रियता को स्वीकार किया जाये । न तो गाधना-काल में ही निष्क्रियता ना कोई स्थान है और न नैतिक आदर्श (अर्हन् अवस्था या जीवन्मक्ति) की उपलब्धि के पश्चात् ही निष्क्रियता अपेक्षित है । कृतकृत्य होने पर भी नीर्थकर, गम्यक् सम्बद्ध और पम्पोनम का जीवन मतत रूप से कृत्यात्मकता का ही परिचय देता है, और बताता है । लक्ष्य की मिद्धि के पश्चात् भी लोकहित के लिए प्रयास करते रहना चाहिए । गृहस्थ धर्म बनाम संन्यास धर्म जैन और बौद्ध दष्टिकोण-यह भी समझा जाता है कि निवत्ति का अर्थ मन्याममार्ग है अर्थात् गृहस्थ-जीवन के कर्मक्षेत्र में पलायन । पदि इस अर्थ के मन्दर्भ में निर्वान का विचार करें तो स्वीकार करना होगा कि जैनधर्म और बौद्धधर्म निवतक धर्म है, क्योंकि दोनो आचार-परम्पराओ मे स्पष्ट रूप में मन्याग-धर्म का प्रधानता रायठता स्वीकृत है । जैनागम दर्शवकालिकमूत्र में कहा गया है-"गृहम्थ-जीवन गयक्त :सन्यास क्लेशशून्य है, गृहस्थवाम बन्धनकारक है, मन्याम मुक्ति प्रदाता है। गम्थ जीवन पापकारी है, सन्याम निप्पाप है।' बौद्ध ग्रंथ मुनिपात में भी कहा गया है कि 'यह गहवाम कंटको मे पूर्ण है, वासनाओ का घर है, प्रव्रज्या खुले आकाग जमी निर्मल है।" प्रवृत्ति और निवृत्ति के उक्त अर्थ के आधार पर जैन एव बौद्ध परम्पग निवृत्तिलक्षी ही ठहरती है । दोनो प्राचार-दर्शन यह मानत है कि परमधेय की उपलब्धि के लिए जिम आत्म-मन्तोप, अनासक्तवृति, माध्यम्यभाव या समन्वभाव की अपेगा है, वह गृहस्थ-जीवन मे चाहे अमाध्य नही हो, तो भी मुमाध्य तो नहीं ही है । दगव लिए जिम एकान्त, निर्मोही एवं शान्त जीवन की आवश्यकता है, वह गृहस्थ अवस्था मे मुलभ नही है । अतः मन्याममार्ग ही एक ऐमा मार्ग है जिसमें गाधना के लिए विघ्न-बाधाओ की मम्भावनाएँ कम होती है । १. गीता, ३१७-९ २. वही, ३२२, २० ३. दशवकालिक चूलिका, ११११.१२,१३ ४ . मुन निपात, २७। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन, बौड और गीता का सापना मार्ग संन्यास मार्ग पर अधिक बल-जैन और बौद्ध परम्पराओं के अनुसार गृहीजीवन नैतिक परमश्रेय को उपलब्धि का एक ऐमा मार्ग है जो सरल होते हुए भी भय से पूर्ण है, जबकि संन्यास ऐसा मार्ग है जो कठोर होने पर भी भयपूर्ण नहीं है । गृहीजीवन में माधना के मूल तत्त्व अर्थात् मनःस्थिरता को प्राप्त करना दुष्कर है । संन्यासमार्ग माधना की व्यावहारिक दृष्टि से कठोर प्रतीत होते हुए भी वस्तुतः सुसाध्य है, जब कि गृहस्थ-मार्ग व्यावहारिक दृष्टि से सुमाध्य प्रतीत होते हुए भी दुःसाध्य है, क्योंकि नैतिक विकाम के लिए जिस मनो-मन्तुलन की आवश्यकता है वह संन्यास में सहज प्राप्त है, उममें चित विचलन के अवमर अति न्यून हैं, जबकि गृहस्थ जीवन में वन-खण्ड की तरह बाधाओं में भरा है। जैसे गिरिकन्दराओं में सुरक्षित रहने के लिए विशेष साहस एवं योग्यता अपेक्षित है, वैसे ही गृहस्थ-जीवन में नैतिक पूर्णता प्राप्त करना विशेष योग्यता का ही परिचायक है। __गृही-जीवन में माधना के मूल तत्त्व अर्थान् मनःस्थिरता को सुरक्षित रखते हुए लक्ष्य तक पहुंच पाना कठिन होता है । गगद्रेप के प्रसंगों की उपस्थिति की सम्भावना गृही-जीवन में अधिक होती हैं, अतः उन प्रसंगों में राग-द्वेप नही करना या अनासक्ति रखना एक दुःसाध्य स्थिति है, जबकि संन्यासमार्ग में इन प्रसंगों की उपस्थिति के अवसर अल्प होते हैं, अतः इसमे नैतिकता की समत्वरूपी साधना सरल होती है । गृहस्थजीवन में माधना की ओर जाने वाला रास्ता फिसलन भरा है, जिसमे कदम कदम पर सतर्कता की आवश्यकता है । यदि साधक एक क्षण के लिए भी आवेगों के प्रवाह में नहीं संभला तो फिर बच पाना कठिन होता है । वासनाओं के बवंडर के मध्य रहते हुए भी उनसे अप्रभावित रहना सहज कार्य नहीं है। महावीर और बुद्ध ने मानव की इन दुर्बलताओं को समझकर ही संन्यासमार्ग पर जोर दिया। जैन और बौद्ध दर्शन में संन्यास निरापद मार्ग-महावीर या बुद्ध की दृष्टि में मंन्यास या गृहस्थ धर्म नैतिक जीवन के लक्ष्य नहीं है, वरन् साधन हैं । नैतिकता संन्यास धर्म या गृहस्थधर्म की प्रक्रिया में नहीं है, वरन् चित्त की समत्ववृत्ति में है, राग-देष के प्रहाण में है. माध्यस्थभाव में है । नैतिक मूल्य तो मानसिक समत्व या अनामक्ति का है । महावीर या बुद्ध का आग्रह कमी भी साधनों के लिए नहीं रहा। उनका आग्रह तो साध्य के लिए है। हां, वे यह अवश्य मानते हैं कि नैतिकता के इस आदर्श की उपलब्धि का निगपद मार्ग संन्यासधर्म है, जब कि गृहस्थधर्म बाधाओं से परिपूर्ण है, निगपद मार्ग नहीं है । जैन-दर्शन के अनुसार, जिसमे मरुदेवी जैसी निश्छलता और भरत जैसी जागरूकता एवं अनासक्ति हो, वही गृहस्थ जीवन में भी नैतिक परमलक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण को प्राप्त करनेवाले सौ पुत्रों में यह केवल भरत की ही विशेषता थी जिसने गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी पूर्णता को प्राप्त किया। शेष ९९ पुत्रों ने तो परमसाध्य को प्राप्ति के लिए संन्यास का सुकर मार्ग ही चुना । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १२५ वस्तुतः गृहस्थ-जीवन मे नैतिक माध्य को प्राप्त कर लेना दुःसाध्य कार्य है । वह तो आग में खेलते हुए भी हाथ को नही जलने देने के ममान है । गीता भी जब यह कहती कि कर्म-मन्याम से कर्मयोग श्रेष्ठ है तो उसका यही तात्पर्य है कि सन्याम की अपेक्षा गृहस्थ जीवन में रहते हुए जो नैतिक पूर्णता प्राप्त की जाती है वह विशेष महत्त्वपूर्ण है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि गृहस्थ-जीवन सन्यासमार्गको अपेक्षा था है। यदि दो मार्ग एक ही लक्ष्य की ओर जाते हो, लेकिन उनमें से एक बाधाओ: पूर्ण हो, लम्बा हो और दूसरा मार्ग निरापद हो, कम लम्बा हो तो कोई भी पहले मार्ग को श्रेष्ठ नही कहेगा । श्रेष्ठ मार्ग तो दूमरा ही कहलायेगा। हा, बाधाओ मे परिपूण मार्ग से होकर जो माधक लक्ष्य तक पहुँचता है वह अवश्य हो विशेष योग्य वहा जायेगा। जैन और बौद्ध आचार-दर्शन यद्यपि मन्याममार्ग पर अधिक जोर देते है और दम अर्थ में निवन्यात्मक ही है, तथापि इसका यह अर्थ कदापि नही है कि गृहस्थ-जीवन में रह कर नैतिक साधना को पूर्णता को प्राप्त नहीं किया जा सकता है । इमका तात्पर्य इनना ही है कि सन्याममार्ग के द्वारा नैतिक साधना या आध्यात्मिक समत्व की उपलब्धि करना अधिक सुलभ है। पया सन्यास पलायन है ?-जो लोग निवृत्तिमार्ग या मन्याममार्ग को पलायनवादिता कहते है, वे भी किसी अर्थ में ठीक है । मन्याम इस अर्थ में पलायन है कि वह हमे उस सुरक्षित स्थान की ओर भाग जाने को कहता है जिसमे रहकर नैतिक विकास सुलभ होता है। वह नैतिक विकास या आध्यात्मिक समत्व की उपलब्धि के मार्ग में वासनाओं के मध्य रहकर उनमे संघर्ष करने की बात नही कहता, वरन् वासनाओं के क्षेत्र से बच निकलने की बात कहता है । संन्यासमार्ग में माधक वामनाओं के मध्य रहते हुए उनमे ऊपर नही उठता, वरन् वह उनमे बचने का ही प्रयाम करता है। वह उन सब प्रसंगों मे जहां इम आध्यात्मिक समत्व या नैतिक जीवन से विचलन की मम्भावनाओं का भय होता है, दूर रहने का ही प्रयाम करता है। वह वासनाओं से मंघर्ष का पथ नही चुनता, वग्न् वामनाओं से निगपद मार्ग को ही चुनता है । वह वासनाओं मे संघर्ष के अवमरों को कम करने का प्रयाम करता है । वह मघर्ष के प्रसंगों से दूर रहना या वचना चाहता है । इन मब अर्थो मे निश्चय ही मन्याममार्ग पलायन है, लेकिन ऐमी पलायनवादिता अनुचित तो नही कही जा मकती। क्या निगपदमार्ग चुनना अनुचित है ? क्या पतन के भय से बचने का प्रयाम करना अनुचित है ? क्या उन मंघर्षों के अवमगें को, जिनमे पतन की सम्भावना हो, टालना अनुचित है : मन्याम पलायन तो है लेकिन वह अनुचित नही है; वरन् मानवीय बुद्धि का ही परिचायक है । १. गीता, ५।२ २. स्थू लिभद्र का कोशा वेश्या के यहाँ चातुर्माम करने का मम्पूर्ण कथानक इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट कर देता है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जन, बोट और गीता का सापना मार्ग ममन्व के भंग होने के अवसर या गग-द्वेप के प्रमग गृहस्थ जीवन में अधिक होते है और यदि कोई माधक उम अवस्था में ममत्व दृष्टि रख पाने में अपने को असमर्थ पाता है ना उसके लिए यही उचित है कि वह मन्याम के सुरक्षित क्षेत्र मे ही विचरण करे । जैसे चोगें मे धन की सुरक्षा के लिए व्यक्ति के मामने दो विकल्प हो सकते हैएक तो यह कि व्यक्ति अपने में इतनी योग्यता एवं माहम विकसित कर ले कि वह कभी भी चोगे में संघर्ष में पगभूत न हो, किन्तु यदि वह अपने में इतना साहम नही पाता है, तो उचित यही है कि वह किमी सुरक्षित एव निरापद म्थान की ओर चला जाय । इमी प्रकार मन्याम आत्मा के ममत्वरूप धन की सुरक्षा के लिए निरापद स्थान में रहना है, जिसे बौद्धिक दृष्टि मे अमगत नही माना जा सकता । जैन-धर्म संन्यासमार्ग पर जो बल देता है, उसके पीछे मात्र यही दृष्टि है कि अधिकाश व्यक्तियो मे इतनी योग्यता का विकास नही हो पाता कि वे गृही-जीवन मे, जो कि राग-द्वेष के प्रसगो का केन्द्र है, अनासक्त या ममत्वपूर्ण मन स्थिति बनाये रख सकें। अतः उनके लिए मन्यास हो निगपद क्षेत्र है । मन्याम का महत्त्व या आग्रह साधन-मार्ग की सुलभता की दृष्टि मे है । माध्य से परे माधन का मूल्य नही होता। जेन एवं बौद्ध दृष्टि में सन्यास का जो भी मूल्य है, साधन की दृष्टि मे है । समत्वरूप साध्य की उपलब्धि की दृष्टि से तो जहाँ भी ममभाव को उपस्थिति ह, वह स्थान समान मूल्य का है, चाहे वह गृहस्य-धर्म हो या मन्यास-धर्म। गृहस्थ और संन्यस्त जीवन को श्रेष्ठता? गृहस्थ और संन्यास जीवन मे कौन श्रेष्ठ है इसका उत्तराध्ययनसूत्र में विचार हुआ है। उमी प्रसग को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय अमरमुनिजी लिखते है, 'यह जीवन का क्षेत्र है, यहाँ श्रेष्ठता और निम्नता का मापतौल आत्म-परिणति पर आधारित है। किसी-किमी गृहस्थ का जीवन सन्त के जीवन मे भी श्रेष्ठ होता है, यदि वह अपने कर्तव्य-पथ पर पूरी ईमानदारी के साथ चल रहा है।"कौन छोटा है और कौन बडा? इसकी नापतोल साधु और गृहस्थ के भेदभाव मे नही की जा सकती। साधु और श्रावक, जो भी अपने दायित्वो को भली प्रकार निभा रहा है, जिन्दगी के मोर्चे पर मावधानी के माथ ग्वडा हुआ है वही श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण है । यह अनेकान्त-दृष्टि है । यहाँ वेश को महत्ता नही दी जाती, बाह्य जीवन को नही देखा जाता, किन्तु अन्तरात्मा के विचारो को टटोला जाता है । कौन कितना कर रहा है ( मात्र ) यह नही देखा जाता, पर कौन कमा कर रहा है इसी पर ध्यान दिया जाता है।' वस्तुत. जैन-दर्शन के अनुसार गृहस्थ और सन्यासी के जीवन मे श्रेष्ठता और अश्रेष्ठता का माप सामान्य दृष्टि और वैयक्तिक दृष्टि ऐसे दो आधागे पर किया जाता है । सामान्यतः संन्यासधर्म श्रेष्ठ १. अमरभारती, मई १९६५, पृ० १० Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १२७ प्रवृत्यात्मक जीवन और है, क्योंकि यह नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास का सुलभ मार्ग है, उसमे पतन की सम्भावनाओं की अल्पता है; जब कि व्यक्तिगत आधार पर गृहस्थधर्म भी श्रेष्ठ हो सकता है । जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन मे भी अनामक्त भाव से रहता है, कीचड मे रह कर भी उससे अलिप्त रहता है, वह निश्चय ही साधारण माधुओ की अपेक्षा श्रेष्ठ है । गृहस्थ के वर्ग मे साधुओं का वर्ग श्रेष्ठ होता है, लेकिन कुछ माधुओ की अपेक्षा कुछ गृहस्थ भी श्रेष्ठ होते है १ गृहस्थ के माधु के निवृत्यात्मक जीवन के प्रति जैन- दृष्टि का यही सार है । उमे न गृहस्थजीवन की प्रवृत्ति का आग्रह है और न सन्यास मार्ग की निवृत्ति का आग्रह है । उसे यदि आग्रह है तो वह अनाग्रह का ही आग्रह है, अनासक्ति का ही आग्रह है । प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनो ही उसे स्वीकार ह-यदि वे इस अनाग्रह या अनासक्ति के लक्ष्य की यात्रा में सहायक है । गृहस्थ जीवन और सन्याम के यह बाह्य भेद उसकी दृष्टि मे उतने महत्त्वपूर्ण नही है, जितनी साधक की मन स्थिति एव उनकी अनासक्त भावना | वेशविशेष या आश्रम विशेष का ग्रहण माघना का सही अर्थ नही है । उत्तगध्ययनसूत्र मे स्पष्ट निर्देश है, 'नीवर, मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, जीर्ण वस्त्र और मुण्डन अर्थात् सन्यास जीवन के बाह्य लक्षण दुशील की दुर्गति में रक्षा नही कर सकते । भिक्षु भी यदि दुराचारी हो तो नरक मे बच नहीं सकता । गृहस्थ हो अथवा भिक्षु, गम्यक् आचरण करनेवाला दिव्य लोको को ही जाता है । गृहस्थ हो अथवा भिक्षु, जो भी कपायो एव आसक्ति से निवृत्त है एवं सयम एव तप से परिवृत है, वह दिव्य स्थानो को ही प्राप्त करता है गीता का दृष्टिकोण - वैदिक आचार-दर्शन मे भी प्रवृत्ति और निवृत्ति क्रमशः गृहस्थ धर्म और सन्यास धर्म के अर्थ मे गृहीत है । इम अर्थ विवक्षा के आधार पर वैदिक परम्परा मे प्रवृत्ति और निवृत्ति का यथार्थ स्वरूप समझने का प्रयास करने पर ज्ञात होता है कि वैदिक परम्परा मूल रूप में चाहे प्रवृत्ति परक रही हो, लेकिन गीता के युग तक उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति के तत्त्व समान रूप से प्रतिष्ठित हो चुके थे । परममाध्य की प्राप्ति के लिए दोनों को ही साधना का मार्ग मान लिया गया था । महाभारत शान्तिपर्व मे स्पष्ट लिखा है कि 'प्रवृत्ति लक्षण धर्म (गृहस्थ धर्म) और निवृत्ति लक्षण धर्म ( मन्याम धर्म ) यह दानों ही मार्ग वेदों में समान रूप में प्रतिष्ठित है। गीता मे श्रीकृष्ण कहने है, ' हे निष्पाप अर्जुन, पूर्व मे ही मेरे द्वारा जीवन शोधन की इन दोनों प्रणालियों का उपदेश दिया गया था। उनमे ज्ञानी या चिन्तनशील व्यक्तियों के लिए ज्ञानमार्ग या सन्याममार्ग का और कर्मशील व्यक्तियों के लिए १. उत्तराध्ययन, ५।२० ३. महाभारत शान्तिपर्व, २४०/६० २. वही, ५/२० - २३, २८ ४. गीता (शा), ३1३ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन, बौर और गोता का साधना मार्ग कर्ममार्ग' का उपदेश दिया गया है । यद्यपि गीता के टीकाकार उन दोनों में में किमी एक की महत्ता को स्थापित करने का प्रयाम करते रहे हैं। शंकर का संन्यासमार्गीय इष्टिकोण-आचार्य शंकर गीता भाष्य में गीता के उन ममम्त प्रसंगों की, जिनमे कर्मयोग और कर्ममंन्याम दोनों को ममान बल वाला माना गया है अथवा कर्मयोग की विशेषता का प्रतिपादन किया गया है, व्याख्या इस प्रकार प्रस्तुत करने की कोशिश करते है कि संन्याममार्ग को श्रेष्ठता प्रतिष्ठापिन हो । वे लिखते है, 'प्रवृत्तिरूप कर्मयोग को और निवृत्तिरूप परमार्थ या मंन्यास के माथ जो नमानता म्वीकार की गयी है, वह किमी अपेक्षा में ही है । परमार्थ (मन्याम) के साथ कर्मयोग की कर्त-विषयक समानता है । क्योंकि जो परमार्थ मन्यामी है वह मब कर्म-माधनों का त्याग कर चुकता है, इमलिा मब कर्मों का और उनके फलविषयक मंकल्पों का, जो कि प्रवृत्ति हेतूक काम के कारण है, त्याग करता हैं और इस प्रकार परमार्थ मंन्याम की और कर्मयोग को कर्ता के भावविषयक त्याग की अपेक्षा मे ममानता है। गोता के एक अन्य प्रसंग की, जिसमें कर्म-मन्याम की अपेक्षा कमयोग की विशेषता का प्रतिपादन किया है, आचार्य शंकर व्याख्या करते हैं कि 'ज्ञानरहित केवल मंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग विशेष है । इस प्रकार आचार्य शंकर यही सिद्ध करने का प्रयाम करते है कि गीता में ज्ञानमहित संन्यास तो निश्चय ही कर्मयोग से श्रेष्ठ माना गया है। उनके अनुमार कर्मयोग तो ज्ञान-प्राप्ति का माधन है, लेकिन मोक्ष तो ज्ञानयोग से ही होता है और ज्ञाननिष्ठा के अनुष्ठान का अधिकार संन्यामियों का ही है। तिलक का कर्ममार्गीय दष्टिकोण-तिलक के अनुसार गीता कर्ममार्ग की प्रतिपादक है । उनका दृष्टिकोण शंकर के दृष्टिकोण से विपरीत है । वे लिखते हैं कि इस प्रकार यह प्रकट हो गया कि कर्म-संन्यास और निष्काम-कर्म दोनों वैदिक धर्म के स्वतन्त्र मार्ग हैं और उनके विषय मे गीता का यह निश्चित सिद्धान्त है कि वे वैकल्पिक नही है, किन्तु संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग की योग्यता विशेष है ।' वे गीता के इस कथन पर कि 'कर्म-संन्यास से कर्मयोग विशेष है' (कर्म संन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते) अत्यधिक भार देते हैं और उसको ही मूल-केन्द्र मानकर ममग्र गीता के दृष्टिकोण को स्पष्ट करना चाहते हैं। उनका कहना है कि गीता स्पष्ट रूप से यह भी संकेत करती है कि बिना संन्यास ग्रहण कियेहए भी व्यक्ति परम-सिद्धि प्राप्त कर सकता है । गीताकार ने जनकादि का उदाहरण देकर अपनी इस मान्यता को परिपुष्ट किया है । अतः गीता को गृहस्थधर्म या प्रवृत्तिमार्ग का ही प्रतिपादक मानना चाहिए। १. गोता, ३॥३ २. वही, ३३ ३. गीता (शां) ६२ ४. वही ५।२ ५. वही ३।३ ६. गीता-रहस्य, पृ० ३२० ७. गीता, ३।२० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १२९ गोता का दृष्टिकोण समन्वयात्मक-गीता मे प्रवृत्तिप्रधान गृहस्थधर्म और निवृनिप्रधान सन्यामधर्म दोनो स्वीकृत है। गीता के अधिकार टीकासार भी इस विषय मे कमत है कि गीता में दोनों प्रकार की निष्ठा स्वीकृत है। दोनो से ही परमनाध्य की प्राप्ति सभव है। लोकमान्य तिलक लिखते है 'ये दोनो मार्ग अथवा निष्ठा ब्रह्मविद्यामलक है। दोनों में मन की निष्कामावस्था और शान्ति (ममत्तवृत्ति) एक ही प्रकार की है । इस कारण दोनों मार्गो से अन्न मे मोक्ष प्राप्त होता है। ज्ञान के पश्चात् कर्म को (अर्थात् गृहस्थ धर्म को) छोड बैठना और काम्य (आमक्तियुक्त) कर्म छोडकर निकाम कर्म (अनासक्तिपूर्वक व्यवहार) करते रहना, यही इन दोनो मे भेद है ।' दूसरी ओर आचार्य शकर ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि सन्याम का वास्तविक अर्थ विशेष परिधान को धारण कर लेना अथवा गृहस्थ कर्म का परित्याग कर देना मात्र नही है । वास्तविक मन्याम तो कर्म-फल, मकल्प, आमक्ति या वामनाओ का परित्याग करने मे है। वे कहते है कि केवल अग्निरहित, क्रियारहित पुरुध ही संन्यासी या योगी है. ऐमा नही मानना चाहिए । कर्म-फल के सकल्प का त्याग होने मे ही मन्यामित्व है, न केवल अग्निरहित और क्रियारहित (व्यक्ति) सन्यामी या योगी होता है, किन्तु जो कोई कर्म करने वाला (गृहस्थ) भी कर्मफल और आमक्ति को छोड कर अन्तःकरण की यद्धिपूर्वक कर्मयोग में स्थित है, वह भी मन्यामी और योगी है। वस्तुत गीताकार की दृष्टि मे मन्यासमार्ग और कर्ममार्ग दोनो ही परमलक्ष्य की ओर ले जाने वाले है जो एक का भी मम्यकरूप मे पालन करता है वह दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है। जिस स्थान की प्राप्ति एक मन्यामी करता है, उमी स्थान की प्राप्ति एक अनासक्त गृहस्थ (कर्मयोगी) भी करता है। गीताकार का मल उपदेश न तो कर्म करने का है और न कर्म छोड़ने का है। उमका मुख्य उपदश तो आसक्ति या कामना के त्याग का है । गीताकार की दृष्टि में नैतिक जीवन का मार तो आसक्ति या फलाकाक्षा का त्याग है । जो विचारक गीता की इम मूल भावना को दृष्टि में रखकर विचार करेंगे उन्हे कर्म-सन्याम और कर्मयोग मे अविरोध ही दिखाई देगा। गीता की दृष्टि मे कर्म-संन्याम और कर्मयोग, दोनो नैतिक जीवन के बाद्य गर्गर है, नैतिकता की मूलात्मा ममत्व या निष्कामता है। यदि निष्कामता है, ममन्वयोग की साधना है, वीतरागदृष्टि है, तो कर्ममन्याम की अवस्था हो या कर्मयोग की, दोनों ही समान रूप से नैतिक आदर्श को उपलब्धि कगने है। इमफ विपरीत यदि उनका अभाव है तो कर्मयोग और कर्मसंन्याम दोनो ही अर्थशून्य है, नैतिकता की दृष्टि में उनका कुछ भी मूल्य नहीं है। गीताकार का कहना है कि यदि साधक अपनी परिस्थिति या योग्यता के आधार पर सन्याममार्ग (कममन्याम) को अपनाता है तो उसे यह १. गीतारहस्य, पृ० ३५८। २. गीता (शा०), ६१ ३. वही, ६ पूर्वभूमिका ४. वही, ५४ ५. वही ५५ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैन, बौद्ध और गीता का सपना मार्ग स्मरण रखना चाहिए कि जब तक कर्मामक्ति या फलाकाक्षा समाप्त नहीं होती, तब तक केवल कर्ममन्याम मे मुक्ति नहीं मिल मकती । दूसरी ओर यदि माधक अपनी परिस्थिति या योग्यता के आधार पर कर्मयोग के मार्ग को चुनता है तो भी यह ध्यान मे रखना चाहिए कि फलाकांक्षा या आमक्ति का त्याग तो अनिवार्य है। मंक्षेप में, गीताकार का दष्टिकोण यह है कि यदि कर्म करना है तो उसे अनामक्तिपूर्वक करो और यदि कर्म छोडना है तो केवल वाह्य कर्म का परित्याग ही पर्याप्त नहीं है, कर्म की आन्तरिक वामनाओं का त्याग ही आवश्यक है। गीता में वाह्य कर्म करने और छोड़ने का जो विधि-निषेध है वह औपचारिक है, कर्तव्यता का प्रतिपादक नही है । वास्तविक कर्तव्यता का प्रतिपादक विधि-निषेध तो आमक्ति, तृष्णा, ममत्व आदि के सम्बन्ध में है। गीता का प्रतिपाद्य विषय तो समत्वपूर्ण वीतरागदृष्टि की प्राप्ति और आमक्ति का परित्याग ही है । यह महत्वपूर्ण नही है कि मनुष्य प्रवृत्ति-लक्षणम्प गृहस्थधर्म का आचरण कर रहा है या निवृत्ति-लक्षणरूप सन्यामधर्म ग पालन कर रहा है । महन्वपूर्ण यह है कि वह वामनाओ मे कितना ऊपर उठा है, आमक्ति की मात्रा कितने अग में निर्मूल हुई है और ममत्वदृष्टि की उपलब्धि मे उमने कितना विकास किया है। निष्कर्ष-यदि हम इस गहन विवेचना के आधार रूप निवृत्ति का अर्थ राग-द्वेप से अलिप्त रहना माने तो तीनों आचार-दर्शन निवृत्तिपरक ही मिद्ध होते है। जैन दर्शन का मूल केन्द्र अनेकान्तवाद जिम ममन्वय की भूमिका पर विकमित होता है वह मध्यस्थ भाव है और वहीं राग-द्वेष से अलिप्तता है। यही जैन-दृष्टि में यथार्थ निवृत्ति है । पं० सुखलालजी लिखते है, "अनेकान्तवाद जैन तत्त्वज्ञान की मूल नीव है और राग-द्वेष के छोटे-बड़े प्रसंगों मे अलिप्त रहना (निवृत्ति) ममग्र आचार का मूल आधार है। अनेकान्तवाद का केन्द्र मध्यस्थता मे है और निवृत्ति भी मध्यस्थता मे ही पैदा होती है। अतएव अनेकान्तवाद और निवृत्ति ये दोनों एक दूसरे के पूरक एवं पोषक है । ""जैन-धर्म का झुकाव निवृत्ति की ओर है। निवृत्ति याने प्रवृत्ति का विरोधी दूसरा पहलू । प्रवृत्ति का अर्थ है राग-द्वेष के प्रसंगों मे रत होना । जीवन मे गृहस्थाश्रम रागद्वेष के प्रसंगों के विधान का केन्द्र है । अतः जिस धर्म मे गृहस्थाश्रम (राग-द्वेष के प्रसंगों से युक्त अवस्था) का विधान किया गया हो वह प्रवृत्ति-धर्म, और जिम धर्म मे (ऐमे) गृहस्थाश्रम का नहीं, परन्तु केवल त्याग का विधान किया गया हो वह निवृत्ति-धर्म । जैनधर्म निवृत्ति धर्म होने पर भी उसके पालन करनेवालों में जो गृहस्थाश्रम का विभाग है, वह निवृत्ति की अपूर्णता के कारण है । सर्वांश मे निवृत्ति प्राप्त करने में असमर्थ व्यक्ति जितने अंशों मे निवृत्ति का सेवन न कर सके उन अंशों में अपनी परिस्थिति के अनुमार विवेकदृष्टि से प्रवृत्ति की मर्यादा कर सकते हैं, परन्तु उस प्रवृत्ति का विधान जैनशास्त्र Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १३१ नहीं करता, उसका विधान तो मात्र निवृत्ति का है"''इस प्रकार इस संदर्भ में नहीं गीता प्रवृत्तिपरक निवृत्ति का विधान करती है वहाँ बौद्ध और जैन दर्शन निवृत्तिपरक प्रवृत्ति का विधान करते हैं, यद्यपि राग-द्वेष से निवृत्ति तीनों आचार दर्शनों को मान्य है। भोगवाद बनाम वैराग्यवाद प्रवृत्ति और निवृत्ति का तात्पर्य यह भी लिया जाता है कि प्रवत्ति का अर्थ हैबन्धन के हेतुरूप भोग-मार्ग और निवृत्ति का अर्थ है-मोक्ष के हेतुरूप वैराग्यमार्ग । भोगवाद और वैराग्यवाद नैतिक जीवन की दो विधाएँ हैं । इन्ही को भारतीय औपनिषदिक चिन्तन में प्रेयोमार्ग और श्रेयोमार्ग भी कहा गया है। कठोपनिषद् का ऋषि कहता है, जीवन में श्रेय और प्रेय दोनों के ही अवसर आते रहते हैं। विवेकी पुरुप प्रेय की अपेक्षा श्रेय का ही वरण करता है, जबकि मन्दबुद्धि अविवेकी जन श्रेय को छोडकर शारीरिक योग-क्षेम के निमित्त प्रेय (भोगवाद) का वरण करता है । भोगवाद और वैराग्यवाद भारतीय नैतिक चिन्तन की आधारभूत धारणाएं हैं। वैराग्यवाद शरीर और आत्मा अथवा वासना और बुद्धि के द्वैत पर आधारित धारणा है। वह यह मानता है कि आत्मलाभ या चिन्तनमय जीवन के लिए वासनाओं का परित्याग आवश्यक है । वासनाएं ही बन्धन का कारण हैं, समस्त दुःखों की मूल हैं । वामनाएँ इन्द्रियों के माध्यम से ही अपनी मांगों को प्रस्तुत करती है, और उनके द्वारा ही अपनी पूर्ति चाहती हैं, अतः शरीर और इन्द्रियों की मांगों को ठुकराना श्रेयस्कर है। बन्थम वैराग्यवाद के सम्बन्ध में लिखते हैं कि उन (वैराग्यवादियों) के अनुसार कोई भी चीज़ जो इन्द्रियों को तुष्ट करती है, घृणित है और इन्द्रियों को तुष्ट करना अपराध है। इसके विपरीत भोगवाद यह मानता है कि जो शरीर है, वही आत्मा है अतः शरीर की मांगों की पूर्ति करना उचित एवं नैतिक है । भोगवाद बुद्धि के ऊपर वामना का शासन स्वीकार करता है। उसकी दृष्टि में बुद्धि वासनाओं की दासी है। उसे वही करना चाहिए जिममे वासनाओं की पूर्ति हो । औपनिषदिक चिन्तन और जैन, बौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शनों के विकास के पूर्व ही भारतीय चिन्तन में ये दोनों विधाएँ उपस्थित थीं। भारतीय नैतिक चिन्तन में चार्वाक और किमी मीमा तक वैदिक परम्परा भोगवादका और जैन, बौद्ध एवं किमी मीमा तक सांख्य-योग की परम्परा संन्यासमार्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। भोगवाद प्रवृत्तिमार्ग है और वैराग्यवाद या संन्याममार्ग निवृत्तिमार्ग है । वैराग्यवादी विचार-परम्परा का साध्य चित शान्ति, आध्यात्मिक परितोप, आत्मलाभ एवं आत्म-साक्षात्कार है, जिसे दूसरे शब्दों में मोक्ष, निर्वाण या ईश्वर साक्षात्कार १. जैनधर्म का प्राण, पृ० १२६ २. गीता (शां०), १८६३० ३. कठोपनिषद् १।२।२ ४. नीतिप्रवेशिका, पृ० १९८ पर उद्धृत । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग भी कहा जा मकता है । इस साध्य के साधन के रूप में वे जान को स्वीकार करते है और कर्म का निषेध करते हैं । विवेच्य आचार-दर्शनों में बौद्ध एवं जैन परम्पराओं को निश्चय ही वैगग्यवादी परम्पराएं कहा जा सकता है। इतना नही, यदि हम भोगवाद का अर्थ वासनात्मक जीवन लेने है तो गीता की आचार-परम्परा को भी वैराग्यवादी परम्परा ही मानना होगा। लेकिन गहराई से विचार करने पर विवेच्य आचार दर्शनों को बंगग्यवाद के उम कठोर अर्थ में नहीं लिया जा सकता जैसा कि आमतौर पर ममझा जाता है । वैराग्यवाद के समालोचक वैराग्यवाद का अर्थ देह-दण्डन, इन्द्रिय-निरोध और शरीर की मांगों का ठु कगना मात्र करते हैं। लेकिन जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में वैराग्यवाद को देह-दण्डन या शरीर-यंत्रणा के अर्थ में स्वीकार नही किया गया है। वस्तुतः समालोच्य आचार-दर्शनों का विकाम भोगवाद और वैराग्यवाद के ऐकान्तिक दोषों को दूर करने में ही हुआ है। इनका नैतिक दर्शन वैराग्यवाद एवं भोगवाद की समन्वय-भूमिका में ही निखरता है। सभी का प्रयास यही रहा कि वैगग्यवाद के दोषों को दूर कर उसे किसी रूप में सन्तुलित बनाया जा सके । ऐकान्तिक वैराग्यवाद ज्ञानशन्य देह-दण्डन मात्र बनकर रह जाता है, जबकि ऐकान्तिक भोगवाद स्वाथ-सुखवाद की ओर ले जाता है, जिसमें समस्त सामाजिक एवं नैतिक मूल्य समाप्त हो जाते हैं । भोग एवं त्याग के मध्य यथार्थ समन्वय आवश्यक है और भारतीय चिन्तन की यह विशेषता है कि उसने भोग व त्याग में वास्तविक समन्वय खोजा है । ईशावास्य उपनिषद् का ऋषि यह समन्वय का सूत्र देता है। वह कहता है-'त्यागपूर्वक भोग करो, आसक्ति मत रखो।" अन-इष्टिकोण-जैन-दर्शन वैराग्यवादी विचारधारा के सर्वाधिक निकट है, इसमें अत्युक्ति नही है । उत्तराध्ययन सूत्र में भोगवाद की समालोचना करते हुए कहा गया है कि 'काम-भोग शल्यरूप है, विषरूप है और आशिविष सर्प के समान है । काम-भोग की अभिलाषा करनेवाले काम-भोगों का सेवन नही करते हुए भी दुर्गति में जाते हैं ।'२ 'समस्त गीत विलापरूप है, सभी नृत्य विडम्बना है, सभी आभूषण भाररूप है और सभी काम-भोग दुःख प्रदाता है । बज्ञानियों के लिए प्रिय किन्तु अन्त मे दुःख प्रदाता काम-भोगों में वह सुख नहीं है, जो शील गुण में रत रहनेवाले तपोधनी भिक्षुओं को होता है।' सूत्र कृतांग में कहा गया है, 'जब तक मनुष्य कामिनी और कांचन आदि जड़चेतन पदार्थों में आसक्ति रखता है, वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता।" 'अन्त में पछताना न पड़े, इसलिए आत्मा को भोगों से छुड़ाकर अभी से ही अनुशासित करो। क्योंकि कामी मनुष्य अन्त में बहुत पछताते है और विलाप करते है। जिन्होंने काम-भोग १. ईशावास्योपनिषद् १ २. उत्तराध्ययन ९।५३ ३. वही, १३॥१६-१७ ४. सूत्रकृतांग, १११।२ ५. वही ११३४७ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग और पूजा-मस्कार (अहंकार तुष्टि के प्रपामों) का त्याग कर दिया है उन्होंने राब-कुछ त्याग दिया है। ऐसे ही लोग मोक्षमार्ग में स्थिर रह सके हैं।'' 'बुद्धिमान् पुरुषों मे मैने सुना है कि मुख-शोलता का त्याग करके. कामनाओं को शान्त करके निष्काम होना ही वीर का वीरत्व है।"२ 'इमलिए मायक शब्द-स्पर्श आदि विषयों में अनासक्त रहे और निन्दित कर्म का आचरण नहीं करे, यहा धर्म-सिद्धान्त का सार है। शेष मभी बातें धर्म सिद्धान्त के बाहर है ।'3 फिर भा उपर्यक्त वैराग्यवादी तथ्यों का अर्थ देह-दण्डन या आत्म-पोड न नही है। जैन-वैगग्यवाद देह-दण्डन की उन सब प्रणारियों को, जो वैराग्य के मही अर्थों में दूर है, कतः स्वीकार नहीं करता । जैन आचार-दर्शन में मावना का महा अर्थ वासना-क्षय है, अनासक्त दृष्टि का विकाम है, राग-द्वेष से ऊपर उठना है । उमकी दृष्टि मे वैराग्य अन्तर की वस्तु है, उसे अन्तर मे जागृत होना चाहिए । केवल शरीर-यंत्रणा या देहदण्डन का जैन-माधना में कोई मूल्य नही है। मूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में स्पष्ट कहा गया है कि कोई भले ही नग्नावस्था मे फिरे या मास के अन्त में एक बार भोजन करे, लेकिन यदि वह माया मे युक्त है तो बार-बार गर्भवास को प्राप्त होगा अर्थात् वह बन्धन में मुक्त नहीं होगा।'४ जा अज्ञानो माम-माम के अन्त में कुशाग्र जितना आहार ग्रहण करता है वह वास्तविक धर्म की मोलहवों कला के बराबर भी नहीं है।" जैनदृष्टि म्पाट कहती है कि बन्धन या पतन का कारण राग-देश युक्त दृष्टि है, मूर्छा या आमक्ति है. न कि काम-भोग । विकृति के कारण तो काम-भोग के पीछे निहित राग या आमक्ति के भाव ही है, काम-भाग म्वयं नही । उत्तराधयनमूत्र में कहा है, 'काम-भोग किमी को न तो मन्तृष्ट कर मकन है, न किमो मे विकार पैदा कर सकते है । किन्तु जो काम-भोगों में गग-द्वेप करता है वही उम राग-द्वेषजनित माह में विकृत हो जाता है।" जैन दृष्टि नैतिक आचरण के क्षेत्र में जिमका निषेध करतो है वह नो आमक्ति या राग-द्वेष के भाव है। यदि पूर्ण अनामक्त अवस्था में भोग मम्भव हो तो उमका उन भोगो में विरोध नही है, लेकिन वह यह मानती है कि भोगों के बीच रहकर भोगों को भोगत हा. उनमे अनासक्त भाव रखना असम्भव चाहे न हो लेकिन मुमाध्य भी नहीं है । अतः काम-भोगों के निषेध का माधनात्मक मूल्य अवश्य मानना होगा। माधना का लब्ध पूर्ण अनामक्ति या वीतरागावस्था है । काम-भोगों का परित्याग उमकी उपलब्धि का माधन है । यदि यह माधन माव्य में मयाजित है, साध्य की दिशा में प्रयुक्त किया जा रहा है, तब तो वह ग्राह्य है, अन्यथा अग्राह्य है । १. मूत्रकृतांग, १।३।४।१७ ३. वही. १९३५ ५. उनराध्ययन, ५४८४ २. वही, १८०१८ ४. वही, १।२।११९ ६. वही, ३२।१०१ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग बौख-दृष्टिकोण-बौद्ध-परम्परा में वैराग्यवाद और भोगवाद मे ममन्वय खोजा गया है । बुद्ध मध्यममार्ग के द्वारा इमी ममन्वय के मूत्र को प्रस्तुत करते है । अंगुत्तर-निकाय में कहा है, ' भिओं, तीन मार्ग हैं:- शिथिल मार्ग, कठोर मार्ग और ३ मध्यम मार्ग । भिक्षुओं, किमी-किमी का ऐमा मत होता है, ऐमी दृष्टि होती है-काम-भोगों मे दोप नहीं है। वह काम-भोगोंमें जा पड़ता है। भिक्षुओं, यह शिथिल मार्ग कहलाता है। भिक्षुओं, कठोर मार्ग कौनमा है ? भिक्षुओं, कोई-कोई नग्न होता है, वह न मछली खाता है, न माम ग्वाता है, न मुग पीता है, न मैग्य पीता है. न चावल का पानी पीता है। वह या तो एक ही घर में लेकर ग्वानेवाला होता है या एक ही कार खाने वाला; दो घरों से लेकर खाने वाला होता है या दो ही कौर खाने वाला “मान घरों मे लेकर ग्वाने वाला होता है या मात कोर खाने वाला । वह दिन में एक बार भी खाने वाला होता है, दो दिन में एक बार भी खाने वाला होता है "मात दिन में एक बार भी खाने वाला होता है, इस प्रकार वह पन्द्रह दिन में एक बार खाकर भी रहता है । भात खाने वाला भी होता है, आचाम ग्वाने वाला भी होता है, खली खानेवाला भी होता है, तिनके (घाम) खानेवाला भी होता है, गोबर ग्वानेवाला भी होता है, जगल के पेडों में गिरे फल-मल खाने वाला भी होता है। वह मन के कपड़े भी धारण करता है, कुश का बना वस्त्र भी पहनता है. छाल का वस्त्र भी पहनता है, फलक (छाल) का वस्त्र भी पहनता है, केशों में बना कम्बल भी पहनता है, पूंछ के बाला का बना कम्बल भी पहनता है, उल्लू के पगें का बना वस्त्र भी पहनता है । वह केग-दाढ़ी वालचन करनेवाला भी होता है। वह बैठने का त्याग कर निरन्तर खडा ही रहने वाला भी होता है। वह उकई बैठ कर प्रयत्न करनेवाला भी होता है, वह कॉटों की शैय्या पर मोनेवाला भी होता है। प्रातः, मध्याह्न, सायं-दिन में तीन बार पानी में जानेवाला होता है। इस तरह वह नाना प्रकार में शरीर को कष्ट या पीड़ा पहुंचाता हुआ विहार करता है । भिक्षुओं, यह कठोर मार्ग कहलाता है । भिक्षुओं, मध्यममार्ग कोनमा है । भिक्षुओं, भिक्षु शरीर के प्रति जागरूक रहकर विचरता है । वह प्रयत्नशील, ज्ञानयुक्त, स्मृतिमान हो, लोक मे जो लोभ. वैर, दौर्मनम्य है, उसे हटाकर विहरता है, वंदनाओं के प्रति "चित्त के प्रति धर्मों के प्रति जागरूक रहकर विचरता है । वह प्रपन्न-शील, ज्ञान-युक्त, स्मृति-मान हो लोक मे जो लोभ और दौर्मनस्य है उसे हटाकर विहरता है। भिक्षुओं, यह मध्यममार्ग कहलाता है । भिक्षुओं, ये तीन मार्ग है ।' बुद्ध कठोरमार्ग (देह-दण्डन) और शिथिलमार्ग (भोगवाद) दोनों को ही अम्वीकार करते है । बुद्ध के अनुसार यथार्थ नैतिक जीवन का मार्ग मध्यम मार्ग है । उदान में भी बुद्ध अपने इमी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं, 'ब्रह्मचर्य (मंन्याम) के माथ व्रतों का पालन १. अंगुत्तरनिकाय, ३६१५१ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवत्तिमार्ग और प्रवत्तिमार्ग १३५ करना हो मार है-यह एक अन्न है। काम-भागों के मेवन मे कोई दोष नही-यह दूसरा अन्त है। इन दोनों प्रकार के अन्तों के सेवन से मस्कारों की वृद्धि होती है और मिथ्या धारणा बढती है।'' इस प्रकार बुद्ध अपने मध्यममार्गीय दृष्टिकोण के आधार पर वैराग्यवाद और भोगवाद मे यथार्थ समन्वय स्थापित करते है। गोता का दष्टिकोण-गीता का अनामक्ति मूलक कर्म योग भी भोगवाद और वैराग्यवाद (देह-दण्डन) की ममम्या का यथार्थ समाधान प्रस्तुत करता है। गोना भी वैगग्य की ममर्थक है। गीता में अनेक स्थलो पर बैगग्यभाव का उपदेश है, किन गीता वैगग्य के नाम पर होनेवाले देह-दण्डन की प्रक्रिया को विगेगे है। गीता में कहा है कि आग्रहपूर्वक शरीर को पीटा देने के लिए जो तप किया जाता है वह नामसतप है। इस प्रकार भोगवाद और वैराग्यवाद के ग्न्दर्भ में गीता मी ममन्ययामा एवं मन्तुलिन दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है । विधेयात्मक बनाम निषेधात्मक नैतिकता निवत्ति और प्रवृत्ति का विचार निषेधात्मक और विधेयानक नैतिकता की दष्टि मे भी किया जा सकता है । जो आचार-दर्शन निपे गन्मक नैतिकता को प्रकट करते है वं कुछ विचारकों की दष्टि में निवृत्ति परम है और जो आचार-दनिधेियात्मक नैतिकता को प्रकट करते है वे प्रवृतिपरक है। ___ इम अर्थ में विवेच्य आचार दर्शनी में काई भी आचार-दगन एकान्त रूप से न तो निवृतिपरक है न प्रयनिगरका प्रत्येक निप का एक विवात्मक पक्ष होना हार प्रत्येक विधेय का एक निपंध पक्ष हाता है। जहा तक जन, बाद अर गीता के आचार-दर्शनों की बात है, मभी में नैतिक आचरण के विधि निपथ मूत्र तान-बान के ग ग एकदूसरे में मिले हुए है। __जन दृष्टिकोण-यदि हम जैन आचार-दर्शन ननिक डा नं को माधारण दष्टि से देखे तो हम हर कही निषेध का ग्बर है गुनाई दता है। जी हिंमा न का, अट न बोलो. चोरी न कगे, यभिचार न कगे मग्रा न कगे, क्रोध न कगे, लाभ न कगे, अभिमान न कगे। दग प्रकार मभा दिशात्रा में निप्प की दीगर बटी हः है। वह मात्र नहीं करने के लिए कहता है, करने । गि कर नहीं कहता । यही कारण है कि मामान्य जन उमे निवृत्तिपरक कह देता है । लेकिन यदि गहगर्द ग विचार को नो ज्ञान होगा कि यह धारणा माग मन्य नही है । उपाध्यार अमरमनिजी जैन आचार-दर्शन के निपेधक मूत्रों का हार्द प्रकट करत हा यिनं है कि 'यह मन्य है, किन-दर्शन ने निवृनि का उच्चतम आदर्श प्रम्नत किया है। उसके प्रत्यक चित्र में निपनि का रंग १. उदान, ६८ २. गीता, ६।३५, १३.८, १८१५२ ३. वही, १७१५, १७११९ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग भरा हुआ है, किन्तु दृष्टि जग माफ हो, स्वच्छ और तीक्षण हो तो उसके रंगों का विश्लेपण करन पर यह ममझा जा मकता है कि निषेधक मूत्रों की कहाँ, क्या उपयोगिता है, निवृति के स्वर में क्या मल भावनाएँ ध्वनित है ? जैन-दर्शन एक बात कहता है कि वह दग्बो कि तुम्हारी प्रवृत्ति निवृनिमलक है या नहीं। तुम दान कर रहे हो, दीन दु.खियो की मेवा के नाम पर कुछ पैमा लुटा रहे हो, किन्त दूसरी ओर यदि शोपण का कुचक्र भी चल रहा है तो इस दान और मवा का क्या अर्थ है ? मौ-मो घाव करके एक-दो घावो की मरहम-पट्टी करना मेवा का कौनमा आदर्श ह" वास्तविकता यह है कि आचरण के मूल में यदि निवृति नही है ता प्रवनि का भी कोई अर्थ नही रहता है । प्रवृत्ति के मूल मे निवृत्ति आवश्यक है । मेवा, परोपकार, दान आदि सभी नतिक विधाना के पोछे अनामक्ति एव म्बहिन के परित्याग के निषेधात्मक म्वगे का होना आवश्यक है अन्यथा नैतिक जीवन को मुमधुरता एव समम्वरता नष्ट हो जायेगी। निपंध के अभाव मे विधेय भी अर्थहीन है। विधान के पूर्व प्रस्तुत निषेध ही उम विधान का मच्ची ययार्यता प्रदान करता है। मेवा, परोपकार, दान के मभो नैतिक विवि-आदगो के पीछे सकृत हो रहे निषेधक म्वर के अभाव मे उन विधि-आदशो का मूल्य गृन्य हो जायेगा, नैतिकता की दष्टि में उनका कोई अर्थ ही नहीं रहेगा । जैन आचार-दर्शन में यत्र-तत्र-मर्वत्र जो निषेध के स्वर सुनाई देन है, उनके पीछे मूल भावना यही है। उसके अनुसार निषेध के आधार पर किया हुआ विधान ही आचरण को गमज्वल बना मकता है। निषेधात्मक नैतिक आदश नैतिक जीवन के मुन्दर चित्र निर्माण के लिए एक मुन्दर, स्वच्छ एव ममपावमि प्रदान करते है, जिस पर विधिमूलक नैतिक आदेशो की तूलिका उम नुन्दर चित्र का निर्माण कर पाती है । निषेध के द्वारा प्रस्तुत स्वच्छ एव ममपार्श्वभूमि हो विधि के चित्र को मौन्दर्य प्रदान कर सकती है। मक्षेप में जैन आचार-दशन की नैतिकता अपन बाह्य प म निषेधात्मक प्रतीत होती है, लेकिन इस निषेत्र में भी विधेयकता छिपी है। यही नही, जैनागमो मे अनेक विधिारक आदेश भो मिलने है । जैन आचार-दर्शन में विधि-निपेध का यथार्थ स्वरूप क्या है ? इमे प० सुखलालजी इन दाब्दो में व्यक्त किया ह-जैनधर्म प्रथम तो दोप विरमरण ( निषेध या त्याग ) रूप शील-निशान करता है ( अर्थात् निषेधात्मक नैतिकता प्रस्तुत करता है ), परन्तु चेतना और पुष्पार्थ ऐम नहीं है कि वे मात्र अमुक दिशा मे निष्क्रिय होकर पडे रहे। वे तो अपन विकाम को भूख दूर करने के लिए गति को दिया ढूँढने ही रहते हैं, इमलिए जैनधर्म ने निति के साथ हा शुद्ध प्रवृत्ति । विहित आचरणरूप चारित्र ) के विधान भी किये है। उसन कहा ह कि मलिन वृति में आत्मा का घात न होन दना और उमके रक्षण मे हो ( स्वदया मे ही ) बुद्धि और पुरुषार्थ का उपयोग करना चाहिए। १. श्री अमरभारतो अप्रैल १९६६ १० २०-२१ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग प्रवृत्ति के इस विधान मे से ही सत्य-भाषण, ब्रह्मचर्य, सन्तोप आदि विविध मार्ग निष्पन्न होने है ।' बौद्ध दृष्टिकोण-बौद्ध आचार-दर्शन में निषेधात्मक नैतिकता का स्वर मुखर हुआ है । भगवान् महावीर के समान भगवान् बुद्ध ने भी नैतिक जीवन के लिए अनेक निषेधात्मक नियमों का प्रतिपादन किया है। लेकिन केवल इस आधार पर बौद्ध आचार-दर्शन को निषेधात्मक नीतिशास्त्र नहीं कह सकते। बुद्ध ने आचरण के क्षेत्र में निषेध के नियमों पर बल अवश्य दिया है, फिर भी बौद्ध आचार-दर्शन को निषेधात्मक नही माना जा सकता । बुद्ध ने गहस्थ उपासकों और भिक्षुओं दोनों के लिए अनेक विधेयात्मक कर्तव्यों का विधान भी किया है जिनमे पारस्परिक सहयोग, लोक-मंगल के कर्तव्य मम्मिलित है । लोक-मगल की साधना का स्वर बुद्ध का मूल स्वर है । ___ गोता का दृष्टिकोण-गीता के आचार-दर्शन मे तो निषेध की अपेक्षा विधान का स्वर ही अधिक प्रबल है। गीता का मूलभूत दष्टिकोण विधेयात्मक नैतिकता का है। श्रीकृष्ण यह स्पष्ट कर देना चाहते है कि यद्यपि मानमिक शान्ति और मन की साम्यावस्था के लिए विषय-वामनाओं मे निवृत्त होना आवश्यक है, तथापि इसका अर्थ कर्तव्यमार्ग मे बचना नही है। मामाजिक क्षेत्र मे हमार जो भी उत्तरदायित्व है उनका हमे अपने वर्णाश्रम-धर्म के रूप में परिपालन अवश्य ही करना चाहिए। गीता के ममग्र उपदेश का मार तो यही है कि अर्जुन अपने क्षात्रधर्म के कर्तव्यों का पालन करे । ममाजसेवा के रूप मे यज्ञ और लोकमंग्रह गीता के अनिवार्य तत्त्व है । अतः कहा जा मकता है कि गीता विधेयात्मक नैतिकता की समर्थक है, यद्यपि वह विधान के लिये अनासक्तिरूपी निपेधक तत्त्व को भी आवश्यक मानती है । व्यक्तिपरक बनाम समाजपरक नीतिशास्त्र निवृत्ति और प्रवृति के विषय में एक विचार-दृष्टि यह भी है कि जो आचार-दर्शन व्यक्तिपरक नीतिशास्त्र का प्रतिपादन करते है, वे निवृत्तिपरक है और जो आचारदर्शन ममाजपरक नीतिशास्त्र का प्रतिपादन करते है वे प्रवृत्तिपरक है । किन्तु यह स्पष्ट है कि जो आचार-दर्शन भोगवाद मे व्यक्तिपरक ( स्वार्थ-मुग्ववादी ) दृष्टि रखने है, वे निवृत्तिपरक नही माने जा मकने । संक्षेप मे जो लोक-कल्याण को प्रमन्वता देने है वे प्रवृत्तिमार्गी कहे जाते है तथा जो आचार-दर्शन वैयक्तिक आत्मकल्याण को प्रमुखता देते है वे निवृत्तिमार्गी कहे जाते है । पं० मुग्वलालजी लिम्बने है, 'प्रवर्तक धर्म का मश्क्षेप सार यह है कि जो और जैमी ममाज-व्यवस्था हो उसे इस तरह नियम और कर्तव्यबद्ध बनाना कि जिससे समाज का प्रत्येक मदस्य अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा मे मुग्वलाभ करे । प्रवर्तक धर्म का उद्देश्य ममाज-व्यवस्था के साथ-साथ जन्मान्तर १. जैनधर्म का प्राण, पृ० १२६-१२७ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जन, बोद्ध और गीता का साधना मार्ग कृपण इच्छा का का सुधार करना है । प्रवर्तक धर्म समाजगामी था, इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर ही मामाजिक कर्तव्य ( जो ऐहिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं ) और धार्मिक कर्तव्य ( जो पारलौकिक जीवन मे सम्बन्ध रखते है ) का पालन करे । व्यक्ति को मामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का पालन करके अपनी संशोधन करना इष्ट है, पर उम ( मुख की इच्छा ) का निर्मूल नाश करना न शक्य है और न इष्ट । प्रवर्तक धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए गृहस्थाश्रम जरूरी है । उमे लाँघकर कोई विकास नही कर सकता । निवर्तक धर्म व्यक्तिगामी है । वह आत्ममाक्षात्कार की उत्कृष्ट वृत्ति मे उत्पन्न होने के कारण जिज्ञासु को - आत्मतत्व है या नही ? है तो कैसा है ? क्या उसका माक्षात्कार संभव है ? और है तो किन उपायों मे संभव है ?- - इन प्रश्नों की ओर प्रेरित करता है। ये प्रश्न ऐसे नही है कि जो एकान्त, चिन्तन, ध्यान, तप और असंगतापूर्ण जीवन के सिवाय सुलझ सकें । ऐसा मन्चा जीवन खास व्यक्तियों के लिए ही सम्भव हो सकता है। उनका ममाजगामी होना सम्भव नही ।'' अतएव निवर्तक धर्म समस्त सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नही मानता । उसके अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्तव्य एक ही हैं और वह यह कि जिस तरह हो आत्म-साक्षात्कार का और उसमे रुकावट डालनेवाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे । ' भारतीय चिन्तन में नैतिक दर्शन की ममाजगामी एवं व्यक्तिगामी, यह दो विधाएँ तो अवश्य रही है । परन्तु इनमें कभी भी आत्यन्तिक विभेद स्वीकार किया गया हो ऐसा प्रतीत नही होता। जैन और बौद्ध आचार-दर्शनों में प्रारम्भ में वैयक्तिक कल्याण का स्वर ही प्रमुख था, लेकिन वहां पर भी हमे सामाजिक भावना या लोकहित ने पराङ्मुखता नही दिखाई देती है । बुद्ध और महावीर की संघ व्यवस्था स्वयं ही इन आचार - दर्शनों की मामाजिक भावना का प्रबलतम माध्य है । दूसरी ओर गीता का आचार-दर्शन जो लोक मग्रह अथवा समाज कल्याण की दृष्टि को लेकर ही आगे आया था, उसमे भी वैयक्तिक निवृत्ति का अभाव नही है । तीनों आचार-दर्शन लोककल्याण की भावना को आवश्यक मानते है, लेकिन उसके लिए वैयक्तिक जीवन मे निवृत्ति आवश्यक है । जब तक वैयक्तिक जीवन मे निवृत्ति की भावना का विकास नही होता, तब तक लोक-कल्याण की साधना सम्भव नही है । आत्महित अर्थात् वैयक्तिक जीवन मे नैतिक स्तर का विकास लोकहित का पहला चरण है । मच्चा लोक-कल्याण तभी सम्भव है, जब व्यक्ति निवृत्ति के द्वारा अपना नैतिक विकास कर ले । वैयक्तिक नैतिक विकास एवं आत्म-कल्याण के अभाव मे लोकहित की साधना पाखण्ड है, दिखावा है । जिमने आत्म-विकास नही किया है, जो अपने वैयक्तिक जोवन को नैतिक विकास की भूमिका १. जैनधर्म का प्राण, पृ०५६, ५८, ५९ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवृत्ति मार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १३९ पर स्थित नही कर पाया है, उसमे लोक मगल की कामना सबसे बडा भ्रम है, छलना है। यदि व्यक्ति के जीवन में वासना का अभाव नही है, उसको लोभ की ज्वाला गान्त नही हुई है, तो उसके द्वारा किया जानेवाला लोकहित भी इनमे ही उद्भूत होगा । उसके लोकहित मे भी स्वार्थ एव वासना छिपी होगी और ऐसा लोकहित जो वैयक्तिक वामना एवं स्वार्थ की पूर्ति के लिए किया जा रहा है, लोकहित ही नही होगा । उपाध्याय अमरमनिजी जैन दृष्टि को स्पष्ट करते हुए लिखते है, 'व्यक्तिगत जीवन में जब तक निवृत्ति नही आ जाती तब तक समाज सेवा की प्रवत्ति विवद्ध नही हो सकती । अपने व्यक्तिगत जीवन मे मर्यादाहीन भोग और आकाक्षाओं में निर्वात्ति लेकर समाजकल्याण के लिए प्रवृत्त होना जैन दर्शन का पहला नीतिधर्म है। व्यक्तिगत जीवन का शोधन करने के लिए अमत्कर्मो से पहले निवृत्ति करनी होती है। जब निवत्ति आयगी तो जीवन पवित्र और निर्मल होगा, अन्त करण विशुद्ध होगा और तब जो भी प्रवत्ति होगी वह लोक-हिताय एव लोक-सुखाप होगी। जैन दर्शन की निवत्ति का हार्द व्यक्तिगत जीवन में निवत्ति और सामाजिक जीवन में प्रवत्ति है । लोकपेवक या जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थ एवं द्रन्हों से दूर रहे, गह जैन-दर्शन की आचार महिला का पहला पाठ है ।" आत्महित ( वैयक्तिक नैतिकता ) और लोकहित ( सामाजिक नैतिकता ) परस्पर विरोधी नही है, वे नेतिक पूर्णता के दो पहलू है । आत्महित में परहित और पति में आत्महित समाहित है । आत्मकल्याण और लोककल्याण एक ही सिक्के के दो पल है, जिन्हें अलग देखा तो जा मक्ता है, अलग किया नही जा रक्ता | जैन, वद्ध गीता की विचारधाराएं आत्मकल्याण (निवति) और लोक कल्याण (प्रवनि) को अलग-अलग देखती तो है, लेकिन उन्हें एक-दूसरे से पथा- पथक् करने का प्रयाग नहीं करता । प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों आवश्यक निवनि और प्रवृत्ति का समग्र विधेनन हमे स निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि हम निवनि या प्रवत्ति का चाहे जो अर्थ ग्रहण करे, हर स्थिति मे, एकान्त रूप से निवत्ति या प्रवृत्ति के सिद्धान्त को लेकर किसी भी आचार-दर्शन का सर्वाग विकास नही हो मकना । जैसे जीवन में आहार और निहार दोनों आवश्यक है, इतना ही नही उनके मध्य समचित गन्तुलन भी आवश्यक है, वैगे ही प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनो आवश्यक है । प० सुखलाल जी का विचार है कि समाज को भी हो वह मात्र निवृत्ति की भूल भुलैया पर जीवित नहो रह नकता और न नितात प्रवति ही गाध मकता है। यदि प्रवृत्ति चक्र का महत्व मानने वाले आखिर में प्रवृत्ति के तुफान और आंधी में फमकर मर सकते है तो यह भी सच है कि प्रवृत्ति का आश्रय लिये बिना मात्र निवृत्ति हवाई किला बन जाती है। ऐतिहासिक और दार्शनिक सत्य यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति मानव कल्याण रूपी सिक्के के दो पहलू है। दोप गलती, बुग और , श्री अमर भारती ( अप्रैल १९६६ ), पृ० २१ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जन, बोर और गोता का साधना मार्ग अकल्याण में तब तक कोई नहीं बच नही मकता, जब तक कि दोष-निवृत्ति के साथ-साथ मद्गुण प्रेग्क और कल्याण मय प्रवृत्ति मे प्रवृत्त न हुआ जाय । बीमार व्यक्ति केवल कुपथ्य के भवन में निवृत्त होकर ही जीवित नही रह मकता, उमे रोग निवारण के लिए पथ्य का मवन भी करना होगा । शरीर में दूपित रक्त को निकाल डालना जीवन के लिए अगर जरूरी है तो उममे नये रक्त का मचार करना भी उतना ही जरूरी है।' प्रवृत्ति और निवृत्ति को सीमाएं एवं क्षेत्र-जन-दर्शन की अनेकातवादी व्यवस्था यह मानती है कि न प्रवृत्तिमार्ग ही शुभ ह और न एकानरूप मे निवृत्तिमार्ग ही शुभ है। प्रवनि और निवृत्ति दोनो में शुभत्व-अशुभत्व के तत्त्व है। प्रवृत्ति शुभ भी है और अशुभ भी । इमी प्रकार निवृत्ति शुभ भी है और अशुभ भी । प्रवृत्ति और निवृत्ति के अपने-अपने क्षेत्र है, स्वस्थान है और अपने-अपने स्वस्थानों में वे शुभ है, लेकिन परम्थानो या क्षेत्रो में वे अशुभ है । न केवल आहार से जीवन-यात्रा सम्भव है और न केवल निहार से । जीवन-यात्रा के लिा दोनो आवश्यक है, लेकिन मम्यक् जीवन-यात्रा के लिए दोनो का अपने-अपने क्षेत्रो में कार्यरत होना भी आवश्यक है । यदि आहार के अग निहार का और निहार के अग आहार का कार्य करने लगे अथवा आहार योग्य पदार्थों का निहार होने लगे और निहार के पदार्थों का आहार किया जाने लगे तो व्यक्ति का स्वास्थ्य चौपट हो जायेगा। व ही तन्व जो अपने स्वस्थान एवं देशकाल मे शुभ है, परस्थान में अशुभ रूप में परिणत हो जायेंगे। जैन दृष्टिकोण-भगवान् महावीर ने प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को नैतिक विकास के लिये आवश्यक कहा है। इतना ही नही, उन्होने प्रवृत्ति और निवृत्ति के अपने-अपने क्षेत्रो की व्यवस्था भी की और यह बताया कि वे स्वक्षेत्रो मे कार्य करते हुए ही नैतिक विकास की ओर ले जा सकती है। व्यक्ति के लिए यह भी आवश्यक है कि वह प्रवृत्ति और निवृत्ति के स्वक्षेत्रो एव सीमाओ को जाने और उनका अपने-अपने क्षेत्रों में ही उपयोग करे । जिस प्रकार मोटर के लिए गतिदायक यत्र (एक्मीलेटर ) और गतिनिरोधक यत्र ( ब्रेक ) दोनो ही आवश्यक है, लेकिन साथ ही मोटर चालक के लिए यह भी आवश्यक है कि दोनो के उपयोग के अवसरो या स्थानो को समझे और यथावमर एवं यथास्थान ही उनका उपयोग करे । दोनो के अपने-अपने क्षेत्र है; और उन क्षेत्रों मे ही उनका समुचित उपयोग यात्रा की सफलता का आधार है। यदि चालक उतार पर क न लगाये और चढाव पर एक्सीलेटर न दबाये अथवा उतार पर एक्मोलेटर दबाये और चढाव पर ब्रेक लगाये तो मोटर नष्ट-भ्रष्ट हो जायगी। महावीर ने जीवन १. देखिये-जैनधर्म का प्राण; पृ० ६८ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १४१ की व्यावहारिता को गहराई मे ममझा था। साधु और गृहस्थ दोनो के लिए ही प्रवृत्ति और निवृत्ति को आवश्यक माना, लेकिन माथ-साथ यह भी कहा कि दोनो रे अलगअलग क्षेत्र है । एक प्रबुद्ध विचारक के रूप में भगवान् महावीर ने कहा-"एक ओर से विरत होओ, एक ओर प्रवत्त होओ, अमयम से निवृत्त होओ, और सयम में प्रवत्त होओ।'' यह कथन उनकी पैनी दृष्टि का परिचायक है। इसमे प्रवृत्ति और नित्ति के क्षेत्रो को अलग-अलग करन हुए मफल नियता के रूप में उन्होने कहा अमयम अर्थात् वामनाओ का जोवन', समत्व से विचलन का, पतन का मार्ग है। यह जीवन का उतार है, अत यहा ब्रेक लगाओ, नियत्रण कगे। इम दिशा में निवृत्ति को अपनाओ। सयम अर्थात् आदर्श मूलक जीवन विकाम का मार्ग है, वह जीवन का चढाव ह, उममे गति देने की आवश्यकता है, अत उम क्षेत्र मे प्रवृत्ति को अपनाओ। बौद्ध दृष्टिकोण-भगवान् बुद्ध ने भी प्रवृत्ति-निवृत्ति मे समन्वय साधत हुए कहा है कि शोलवत-परामर्श अर्थात् सन्याम का बाह्य रूप से पालन करना ही सार है यह एक अन्त है, काम-भोगो के मेवन में कोई दोष नही, यह दूसरा अन्त है । अन्तो के मवन में सस्कागे को वृद्धि होती है । अत साधक को प्रवृत्ति और निवृत्ति के सन्दर्भ मे अतिवादी या एकातिक दृष्टि न अपनाकर एक समन्वयवादी दृष्टि अपनाना चाहिए। गोता का दृष्टिकोण-गीता का आचार-दर्शन एकात म्प गे प्रवृत्ति या निवृत्ति का ममर्थन नहीं करता। गीताकार की दृष्टि मे भी सम्यक् आचरण के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनो ही आवश्यक है । इतना ही नही, मनुष्य म इस बात का ज्ञान होना भी आवश्यक है कि कौन से कार्यों में प्रवृत्ति आवश्यक है और कौन से कार्यों में निवृत्ति । गीताकार का कहना है कि जिम व्यक्ति को प्रवृत्ति और निवृत्ति की सम्यक दिशा का ज्ञान नही है, अर्थात् जो यह नही जानता कि पुरुषार्थ के साधन रूप किस कार्य में प्रवृत्त होना उचित है और उसके विपरीत अनर्थ के हेतु किम कार्य में निवृत्त होना उचित है, वह आसुरी सम्पदा से युक्त है । जिममें प्रवृत्ति और निवृत्ति के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नही है, ऐसे आसुरी प्रकृति के व्यक्ति मे न तो शुद्धि होती है, न सदाचार होता है और न सत्य होता है । उपसंहार-इस प्रकार विवेच्च आचार-दर्शनी में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनो को म्वीकार किया गया है, फिर भी जैन-दर्शन का दृष्टिकोण निवृति प्रधान प्रवृत्ति का है । वह निवृत्ति के लिए प्रवृत्ति का विधान करता है । बौद्ध-दर्शन में निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनो का ममान महन्व है । यद्यपि प्रारंभिक बौद्ध-दर्शन निवृन्यान्मक प्रवृत्ति का ही समर्थक था। गीता का दृष्टिकोण प्रवृत्ति प्रधान निवृत्ति का है। वह प्रवृनि के लिए निवृत्ति का विधान करती है। जहां तक सामान्य व्यावहारिक जीवन की बात है, हमे १. उत्तराध्ययन, ३११२ . उदान, ६८ ३. गीता (शा०), १६७ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को स्वीकार करना होगा। दोनों को अपनी-अपनी सीमाएं एवं क्षेत्र है, जिनका अतिक्रमण करने पर उनका लोकमंगलकारी स्वरूप नष्ट हो जाता है । निवृत्ति का क्षेत्र आन्तरिक एवं आध्यात्मिक जीवन है और प्रवृत्ति का क्षेत्र बाह्य एवं सामाजिक जीवन है। दोनों को एक-दूसरे के क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। निवृत्ति उमी स्थिति में उपादेय हो सकती है जबकि वह निम्न सीमाओं का ध्यान रखे:१. निवृत्ति को लोककल्याण की भावना से विमुख नहीं होना चाहिए । २. निवृत्ति का उद्देश्य मात्र अशुभ मे निवृत्ति होनी चाहिए । ३. निवृत्यात्मक जीवन में मात्रक को मतत जागरूकता होना चाहिए निवृत्ति मात्र आत्मपीड़न बनकर न रह जावे, वरन् व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास मे सहायक भी हो । इसी प्रकार प्रवृत्ति भी उसी स्थिति में उपादेय हैं जबकि वह निम्न सीमाओं का ध्यान रखें : १. यदि निवृत्ति और प्रवृत्ति अपनी-अपनी सीमाओं में रहते हुए परस्पर अविरोधी हों तो ऐसी स्थिति में प्रवृत्ति त्याज्य नहीं है । २. प्रवृत्ति का उद्देश्य हमेशा शुभ होना चाहिए । ३. प्रवृत्ति में क्रियाओं का सम्पादन विवेकपूर्वक होना चाहिए । ४. प्रवृत्ति राग-द्वेष अथवा मानसिक विकारों ( कषायो ) के वशीभूत होकर नही की जानी चाहिए । इस प्रकार निवृत्ति और प्रवृत्ति अपनी मर्यादाओं में रहती है तो वे जहाँ एक ओर सामाजिक विकास एवं लोकहित में सहायक हो सकती है, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति को आध्यात्मिक विकास की ओर भी ले जाती हैं । अशुभ से निवृत्ति और शुभ मे प्रवृत्ति ही नैतिक आचरण का सच्चा मार्ग है ।' - त्रिलोकशताब्दी अभिनन्दन ग्रंथ, लेख-खण्ड, १ उद्धृत पृ० ४३ Page #162 --------------------------------------------------------------------------  Page #163 --------------------------------------------------------------------------  Page #164 -------------------------------------------------------------------------- _