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जैन, बौख और गोता का सामना मार्ग
इसका अर्थ यह भी है कि योग दो प्रकार का है-१ माधन-योग और २. साध्य-योग । गीता जब ज्ञानयोग, कर्मयोग या भक्तियोग का विवेचन करती है तो ये उमकी साधन योग की व्याख्याएँ है । माघन अनेक हो सकते है ज्ञान, कर्म और भक्ति सभी साधन-योग है, साध्य-योग नही। लेकिन ममत्वयोग माध्य-योग है। यह प्रश्न फिर भी उठाया जा सकता है कि ममत्व योग को ही माध्य योग क्यो माना जाये, वह भी माधन योग क्यों नही हो सकता है ? इसके लिए हमारे तक इस प्रकार है :
१. ज्ञान, कर्म भक्ति और ध्यान मभी 'ममत्व' के लिए होते है, क्योंकि यदि ज्ञान, कर्म, भक्ति या ध्यान ग्वयं माध्य होते तो इनकी यथार्थता या शुभत्व स्वय इनमे ही निहित होता। लेविन गीता यह बताती है कि बिना ममन्व के ज्ञान यथार्थ ज्ञान नही बनता, जो गमन्वष्टि ग्यता है वही ज्ञानी है'; विना ममत्व के कर्म अकर्म नही बनता। ममत्व के अभाव मे कर्म का बन्धकल्न बना रहता है, लेकिन जो मिद्धि और अमिद्धि में ममत्व गे यात होता है, उसके लिगा कर्म बन्धक नही बनते । इसी प्रकार वह भक्त भी मच्चा भक्त नही है, जिगमे ममत्व का अभाव है। ममत्वभाव से यथार्थ भक्ति की उपलब्धि होती है ।
ममत्व के आदर्श मे युक्त होने पर ही ज्ञान कर्म और भविन अपनी यथार्थता को पाते है । समत्व वह 'गार' है जिगकी उपस्थिति म ज्ञान, नर्म आर भनित का कोई मूल्य या अर्थ है। वग्नत ज्ञान में और भक्ति जबतक ममन्व गे युनत नही ति है, उनमे ममत्व की अवमारणा नही होती है, तबतक ज्ञान मात्र ज्ञान नहता है, वह ज्ञानयोग नही होता। कर्म मात्र कर्म रहता है, पर्मयोग नही जनता और भक्ति भी मात्र श्रद्धा या भक्ति ही रहती है, वह भक्तियोग नहीं बनती है क्योकि इन सवम हम मे निहित परमात्मा मे जोडने की माम" नही आती। 'ममन्व' है वह शक्ति ह जिममे ज्ञान ज्ञानयोग के रूप में, भक्ति भक्तियोग के रूप में और कर्म कर्मयोग के रूप में बदल जाता है । जैन परम्परा में भी ज्ञान, दर्शन (श्रद्धा) और चारित्र (कर्म) जबतक ममत्व मे युक्त नही होते, मम्यक् नही बनतं और जबतक ये मम्यक नही बनते, तबतक मोक्षमार्ग के अंग नही होते है।
२. गीता के अनुसार मानव का साध्य परमात्मा की प्राप्ति है, और गीता का परमात्मा या ब्रह्म सम' है। जिनका मन समभाव' में स्थित है वे तो समार में रहते हुए भी मुक्त है क्योकि ब्रह्म भी निर्दोष एव सम है। वे उसी समत्व मे स्थित है जो ब्रह्म है और इसलिए वे ब्रह्म मे ही है ।" इमे स्पष्ट रूप में यों कह सकते है कि जो 'समत्व' मे स्थित है वे ब्रह्म मे स्थित है, क्योंकि 'सम' ही ब्रह्म है । गीता मे ईश्वर के १. गीता, ५।१८ २. वही, ४।२२ ३. वही, ८१५४ ४. वही, ५।१९, गीता (शां) ५।१८
५. गीता, ५।१९