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________________ समत्व-योग १३ इस समत्व रूप का प्रतिपादन है। नवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं कि मैं सभी प्राणियों में 'सम' के रूप मे स्थित हूँ' । तेरहवें अध्याय मे कहा है कि सम-रूप परमेश्वर सभी प्राणियों में स्थित है; प्राणियों के विनाश से भी उसका नाश नहीं होता है जो इस समत्व के रूप में उसको देखता है वही वास्तविक ज्ञानी है, स्थित परमेश्वर को समभाव से देखता हुआ वह अपने द्वारा अपना ही घात नही करता अर्थात् अपने ममत्वमय या वीतराग स्वभाव को नष्ट नही होने देता और मुक्ति प्राप्त कर लेता है । क्योंकि सभी में समरूप में ३. गीता के छठे अध्याय में परमयोगी के स्वम्प के वर्णन में यह धारणा और भी स्पष्ट हो जाती है । गीताकार जब कभी ज्ञान, कर्म या भक्तियोग मे तुलना करता है तो वह उनकी तुलनात्मक श्रेष्ठता या कनिष्ठता का प्रतिपादन करता है, जंगे कर्मसंन्याम मे कर्मयोग श्रेष्ठ है 3. भक्तों मे ज्ञानी भक्त मुझे प्रिय हैं । लेकिन वह न तो ज्ञानयोगी को परमयोगी कहता है, न कर्मयोगी को परमयोगी कहता है और न भक्त को ही परमयोगी कहना है, वरन् उसकी दृष्टि मे परमयोगी तो वह है जो सर्वत्र ममत्व का दर्शन करता है । गीताकार की दृष्टि में योगी की पहचान तो समत्व ही है । वह कहता है 'योग से युक्त आत्मा वही है जो समदर्शी है ।" गमत्व की साधना करनेवाला योगी ही सच्चा योगी है। चाहे साधन के रूप में ज्ञान, कर्म या भक्ति हो यदि उनमे ममत्व नहीं आता, तो वे योग नही है । ) रूप योग कहा है, मुझे मन की आधार दिखलाई नहीं देता है, ४. गीता का यथार्थ योग ममत्व-योग है, इस बात की सिद्धि का एक अन्य प्रमाण भी है। गीता के छठे अध्याय मे अर्जुन स्वयं ही यह कठिनाई उपस्थित करता है कि 'हे कृष्ण, आपने यह ममन्वभाव ( मन की ममता चंचलता के कारण इस समत्वयोग का कोई स्थिर अर्थात् मन की चंचलता के कारण इस ममत्व को पाना सम्भव नही है । इससे यही मिद्ध होता है कि गीताकार का मूल उपदेश तो इसी गमत्व-योग का है, लेकिन यह समत्व मन की चंचलता के कारण सह । नही होता है | अतः मन की चंचलता को ममाप्त करने के लिए ज्ञान, कर्म, तप, ध्यान और भक्ति के साधन बताये गये है । आगे श्रीकृष्ण जत्र यह कहते हैं कि हे अर्जुन, तपस्वी, ज्ञानी, कर्मकाण्डी सभी से योगी अधिक है अतः तू योगी हो जा, तो यह और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है कि गीताकार का उद्देश्य ज्ञान, कर्म, भक्ति अथवा तप की साधना का उपदेश देना मात्र नहीं १. गीता, ९।२९ ४. वही, ७।१७ ७. वही, ६।३२ २. वही, १३।२७ - २८ ५. वही, ६।३२ ८. वही, ६।४६ ३. वही, ५।२ ६. वही, ६।२९
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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