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________________ जैन, बीर और गीता का साधना मार्ग है । यदि ज्ञान, कर्म, भक्ति या तप रूप साधना का प्रतिपादन करना ही गीताकार का अन्तिम लक्ष्य होता, तो अर्जुन को ज्ञानी, तपस्वी, कर्मयोगी या भक्त बनने का उपदेश दिया जाता, न कि योगी बनने का । दूसरे, यदि गीताकार का योग से तात्पर्य कर्मकौशल या कर्मयोग, ज्ञानयोग, तप (ध्यान) योग अथवा भक्तियोग ही होता तो इनमें पारस्परिक तुलना होनी चाहिए थी; लेकिन इन सबसे भिन्न एवं श्रेष्ठ यह योग कौनसा है जिमके श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन गीताकार करता है एवं जिसे अंगीकार करने का अर्जुन को उपदेश देता है ? वह योग समत्व-योग ही है, जिसके श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन किया गया है । ममत्व-योग मे योग शब्द का अर्थ 'जोड़ना' नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्था में समत्व-योग भी माधन-योग होगा, माध्य-योग नहीं। ध्यान या समाधि भी समत्वयोग का माधन है।' गीता में समत्व का अर्थ गीता के ममत्व-योग को समझने के लिए यह देखना होगा कि समत्व का मीता में क्या अर्थ है ? आचार्य शंकर लिखते हैं कि समत्व का अर्थ तुल्यता है, आत्मवत् दृष्टि है, जैसे मुझे सुख प्रिय एवं अनुकूल है और दुःख अप्रिय एवं प्रतिकूल है वैसे ही जगत् के समस्त प्राणियों को सुख अनुकूल है और दुःख अप्रिय एवं प्रतिकूल है। इस प्रकार जो सब प्राणियों में अपने ही समान सुम्ब एवं दुःख को तुल्यभाव से अनुकूल एवं प्रतिकूल रूप में देखता है, किमी के भी प्रतिकूल आचरण नही करता, वही समदर्शी है। सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखना समत्व है। लेकिन समत्व न केवल तुल्यदृष्टि या आत्मवत् दृष्टि है, वरन् मध्यस्थ दृष्टि, वीतराग दृष्टि एवं अनासक्त दृष्टि भी है । सुखदुःख आदि जीवन के सभी अनुकूल और प्रतिकुल संयोगों में समभाव रखना, मान और अपमान, सिद्धि और असिद्धि मे मन का विचलित नही होना, शत्रु और मित्र दोनों में माध्यस्थवृत्ति, आसक्ति और गग-द्वेष का अभाव हो समत्वयोग है। वैचारिक दृष्टि से पक्षाग्रह एवं संकल्प-विकल्पों से मानस का मुक्त होना ही समत्व है। गीता में समत्व-योग की शिक्षा ___ गीता में अनेक स्थलों पर समत्व-योग की शिक्षा दी गयी है। श्रीकृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, जो सुख-दुःख मे समभाव रस्वता है उस धीर (समभावी) व्यक्ति को इन्द्रियों के सुख-दुःखादि विषय व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष या अमृतत्व का अधिकारी होता है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि में समत्वभाव धारण कर, फिर यदि तू युद्ध करेगा तो पाप नहीं लगेगा, क्योंकि जो समत्व से यक्त होता है उससे कोई पाप ही नहीं होता है । हे अर्जुन, आसक्ति का त्याग कर, सिद्धि एवं असिद्धि में समभाव १. गीता २।४३ २. गीता (शां०), ६।३२ ३. गीता २०१५ ४. वही, २॥३८, तुलना कीजिए-आचारांग, १३३२
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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