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________________ समत्व-योग १५ रखकर, समत्व से युक्त हो; तू कर्मो का आचरण कर, क्योंकि यह समत्व ही योग है । ' समत्व - बुद्धियोग से सकाम कर्म अति तुच्छ है, इसलिए हे अर्जुन, समत्व - बुद्धियोग का आश्रय ले क्योंकि फल की वासना अर्थात् आमक्ति रखनेवाले अत्यन्त दीन है । समत्वबुद्धि से युक्त पुरुष पाप और पुण्य दोनों से अलिप्त रहता है ( अर्थात् समभाव होनेपर कर्म बन्धन कारक नही होते ) । इसलिए समत्व - बुद्धियोग के लिए ही चेष्टा कर, समत्व बुद्धिरूप योग ही कर्म - बन्धन से छूटने का उपाय है, पाप-पुण्य से बचकर अनासक्त एवं साम्यबुद्धि से कर्म करने को कुशलता ही योग है। 3 जो स्वाभाविक उपलब्धियों में सन्तुष्ट है, राग-द्वेष एव ईर्ष्या से रहित निर्द्वन्द्व एवं सिद्धि-असिद्धि मे समभाव मे युक्त है, वह जीवन के सामान्य व्यापारो को करते हुए भी बन्धन मे नही आता है ।" हे अर्जुन, अनेक प्रकार के सिद्धान्तों से विचलित तरी बुद्धि जब समाधि - युक्त हो निश्चल एवं स्थिर हो जायेगी, तब तू समत्वयोग को प्राप्त हो जायेगा ।" जो भी प्राणी अपनी वासनात्मक आत्मा को जीतकर शीत और उष्ण, मान और अपमान, सुख और दुःख जैसी विरोधी स्थितियो मे भी सदैव प्रशान्त रहता है अर्थात् समभाव रखता है वह परमात्मा मे स्थित है । जिसकी आत्मा तत्त्वज्ञान एव आत्मज्ञान से तृप्त है जो अनासक्त एवं संयमी है, जो लौह एवं काचन दोनो म समानभाव रखता है, वही योगी योग (समत्व-योग) से युक्त है, ऐसा कहा जाता है। जो व्यक्ति सुहृदय, मित्र, शत्रु, तटस्थ, मध्यस्थ, द्वेषी एवं बन्धु म तथा धर्मात्मा एवं पापियो मे समभाव रखता है, वही अति श्रेष्ठ है अथवा वही मुक्ति को प्राप्त करता है ।" जो मभी प्राणियों को अपनी आत्मा में एवं अपनी आत्मा को सभी प्राणियो में देखता है अर्थात् सभी को समभाव से देखता है वही युक्तात्मा है। जो सुम्बन्दु ग्वादि अवस्थाओं मे सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समभाव मे देखता है, वही परमयोगी है इन्द्रियो के समूह को भलीभाँति संयमित करके सर्वत्र ममत्वबुद्धि में सभी प्राणियों के कल्याण मे निरत है, वह परमात्मा को ही प्राप्त कर लेता है । १५ जो न कभी हपित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्यागो है, वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है । १२ जो पुरुष शत्रु-मित्र मे और मान-अपमान में मम है तथा गर्दी-गर्मी और सुख-दुःखादि द्वन्द्व मे मम है और सब समार मे आमक्ति में रहित है तथा जो निन्दास्तुति को ।° जो अपनी १. गीता २०४८ ४. वही, ४।२३ ७. वही, ६८ १०. वही, ६।३२ १३. वही ६।७ २. वही, २१४९ ५ वही, २१५३ ८. वही, ६।९ ( पाठान्तर - विमुच्यने) ११. वही, १२।४ ३. वही, २०५० ६. वही, ६।७ ९. वही, ६।२९ १२. वही, १२।१७
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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