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जैन, बौड और गीता का सापना मार्ग संन्यास मार्ग पर अधिक बल-जैन और बौद्ध परम्पराओं के अनुसार गृहीजीवन नैतिक परमश्रेय को उपलब्धि का एक ऐमा मार्ग है जो सरल होते हुए भी भय से पूर्ण है, जबकि संन्यास ऐसा मार्ग है जो कठोर होने पर भी भयपूर्ण नहीं है । गृहीजीवन में माधना के मूल तत्त्व अर्थात् मनःस्थिरता को प्राप्त करना दुष्कर है । संन्यासमार्ग माधना की व्यावहारिक दृष्टि से कठोर प्रतीत होते हुए भी वस्तुतः सुसाध्य है, जब कि गृहस्थ-मार्ग व्यावहारिक दृष्टि से सुमाध्य प्रतीत होते हुए भी दुःसाध्य है, क्योंकि नैतिक विकाम के लिए जिस मनो-मन्तुलन की आवश्यकता है वह संन्यास में सहज प्राप्त है, उममें चित विचलन के अवमर अति न्यून हैं, जबकि गृहस्थ जीवन में वन-खण्ड की तरह बाधाओं में भरा है। जैसे गिरिकन्दराओं में सुरक्षित रहने के लिए विशेष साहस एवं योग्यता अपेक्षित है, वैसे ही गृहस्थ-जीवन में नैतिक पूर्णता प्राप्त करना विशेष योग्यता का ही परिचायक है। __गृही-जीवन में माधना के मूल तत्त्व अर्थान् मनःस्थिरता को सुरक्षित रखते हुए लक्ष्य तक पहुंच पाना कठिन होता है । गगद्रेप के प्रसंगों की उपस्थिति की सम्भावना गृही-जीवन में अधिक होती हैं, अतः उन प्रसंगों में राग-द्वेप नही करना या अनासक्ति रखना एक दुःसाध्य स्थिति है, जबकि संन्यासमार्ग में इन प्रसंगों की उपस्थिति के अवसर अल्प होते हैं, अतः इसमे नैतिकता की समत्वरूपी साधना सरल होती है । गृहस्थजीवन में माधना की ओर जाने वाला रास्ता फिसलन भरा है, जिसमे कदम कदम पर सतर्कता की आवश्यकता है । यदि साधक एक क्षण के लिए भी आवेगों के प्रवाह में नहीं संभला तो फिर बच पाना कठिन होता है । वासनाओं के बवंडर के मध्य रहते हुए भी उनसे अप्रभावित रहना सहज कार्य नहीं है। महावीर और बुद्ध ने मानव की इन दुर्बलताओं को समझकर ही संन्यासमार्ग पर जोर दिया।
जैन और बौद्ध दर्शन में संन्यास निरापद मार्ग-महावीर या बुद्ध की दृष्टि में मंन्यास या गृहस्थ धर्म नैतिक जीवन के लक्ष्य नहीं है, वरन् साधन हैं । नैतिकता संन्यास धर्म या गृहस्थधर्म की प्रक्रिया में नहीं है, वरन् चित्त की समत्ववृत्ति में है, राग-देष के प्रहाण में है. माध्यस्थभाव में है । नैतिक मूल्य तो मानसिक समत्व या अनामक्ति का है । महावीर या बुद्ध का आग्रह कमी भी साधनों के लिए नहीं रहा। उनका आग्रह तो साध्य के लिए है। हां, वे यह अवश्य मानते हैं कि नैतिकता के इस आदर्श की उपलब्धि का निगपद मार्ग संन्यासधर्म है, जब कि गृहस्थधर्म बाधाओं से परिपूर्ण है, निगपद मार्ग नहीं है । जैन-दर्शन के अनुसार, जिसमे मरुदेवी जैसी निश्छलता और भरत जैसी जागरूकता एवं अनासक्ति हो, वही गृहस्थ जीवन में भी नैतिक परमलक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण को प्राप्त करनेवाले सौ पुत्रों में यह केवल भरत की ही विशेषता थी जिसने गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी पूर्णता को प्राप्त किया। शेष ९९ पुत्रों ने तो परमसाध्य को प्राप्ति के लिए संन्यास का सुकर मार्ग ही चुना ।