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जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग
प्रमाण उपस्थित किये हैं। बौद्ध-विचारणा में शील और प्रज्ञा दोनों का समान रूप से महत्व स्वीकार किया गया है। सुत्तपिटक के ग्रन्ध थेरगाथा में कहा गया है-"संसार में शील ही श्रेष्ठ है, प्रज्ञा ही उत्तम है । मनुष्यों और देवों में शील और प्रज्ञा से ही वास्तविक विजय होती है।
भगवान् बुद्ध ने शील और प्रज्ञा में एक सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है। दीघनिकाय में कहा है कि शील से प्रज्ञा प्रक्षालित होती है और प्रज्ञा ( शान ) से शील ( चारित्र) प्रक्षालित होता है । जहां शील है वहाँ प्रज्ञा है और जहाँ प्रज्ञा है वहाँ शील है। इस प्रकार बुद्ध की दृष्टि में शीलविहीन प्रज्ञा और प्रज्ञाविहीन शील दोनों ही असम्यक् हैं। जो ज्ञान और आचरण दोनों में ममन्वित हैं, वही सब देवताओं और मनुष्यों में श्रेष्ठ है। आचरण के द्वारा ही प्रज्ञा की शोभा बढ़ती है। इस प्रकार बुद्ध भी प्रज्ञा और शील के समन्वय में निर्वाण की उपलब्धि संभव मानते हैं। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन शील पर और परवर्ती बौद्ध दर्शन प्रज्ञा पर अधिक बल देता रहा है।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार-जैन परम्परा में माधन-त्रय के समवेत में ही मोक्ष की निष्पत्ति मानी गई है। वैदिक परम्परा में ज्ञान-निष्ठा, कर्मनिष्ठा और भक्तिमार्ग ये तीनों ही अलग-अलग मोक्ष के माधन माने जाते रहे हैं और इन आधारों पर वैदिक परम्परा में स्वतन्त्र सम्प्रदायों का उदय भी हुआ है। वैदिक परम्परा में प्रारम्भ से ही कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग की धाराएँ अलग अलग रूप में प्रवाहित होती रही है । भागवत सम्प्रदाय के उदय के साथ भक्तिमार्ग एक नई निष्ठा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। इस प्रकार वेदों का कर्ममार्ग, उपनिषदों का ज्ञानमार्ग और भागवत सम्प्रदाय का भक्तिमार्ग तथा इनके साथ साथ ही योगसम्प्रदाय का ध्यान-मार्ग सभी एक-दूसरे से स्वतन्त्र रूप में मोक्षमार्ग समझे जाते रहे हैं । सम्भवतः गीता एक ऐसी रचना अवश्य है जो इन सभी साधना विधियों को स्वीकार करती है। यद्यपि गीताकार ने इन विभिन्न धाराओं को समेटने का प्रयत्न तो किया, लेकिन वह उनको समन्वित नहीं कर पाया यही कारण था कि परवर्ती टोकाकारों ने अपने पूर्व-संस्कारों के कारण गीता को इनमें से किसी एक साधना-मार्ग का प्रतिपादक बताने का प्रयास किया और गीता में निर्देशित साधना के दूसरे मार्गों को गौण बताया। शंकर ने ज्ञान को, रामानुज ने भक्ति को, तिलक ने कर्म को गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय माना ।
लेकिन जैन-विचारकों ने इस विविध साधना-पथ को समवेत रूप में ही मोक्ष का १. दो सेन्ट्रल फिलासफी आफ बुद्धिज्म, पृ० ३०-३१ २. थेरगाथा, १७०३. दीघनिकाय, १।४।४ ४. मज्झिमनिकाय, २०३५ ५. अंगुत्तरनिकाय तीसरा निपात पृ० १०४