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त्रिविध साधना - मार्ग
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बाजार में वही मुद्रा ग्राह्य होती है जिसमे धातु भी शुद्ध होती है और मुद्रांकन भी ठीक होता है । इसी प्रकार मच्चा साधक वही होता है जो ज्ञान - सम्पन्न भी हो और चारित्र सम्पन्न भी हो। इस प्रकार जैन विचारणा यह बताती है कि ज्ञान और क्रिया दोनों ही नैतिक साधना के लिए आवश्यक है। ज्ञान और चारित्र दोनों की समवेतसाधना से ही दुःख का क्षय होता है । क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों ही एकान्त है और एकान्त होने के कारण जैन दर्शन की अनेकान्तवादी विचारणा के अनुकूल नही है ।
वैदिक परम्परा में ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मुक्ति - जैन- परम्परा के समान वैदिक परम्परा में भी ज्ञान और क्रिया दोनो के समन्वय मे ही मुक्ति की सम्भावना मानी गयी है । नृसिंहपुराण में भी आवश्यकनियुक्ति के समान सुन्दर रूपको के द्वारा इसे सिद्ध किया गया है। कहा गया है कि जैसे रथहीन अश्व और अश्वहीन रथ अनुपयोगी है वैसे ही विद्या - विहीन तप और तप-विहीन विद्या निरर्थक हैं । जैसे दो पंखों के कारण पक्षी की गति होती हे वैसे ही ज्ञान और कर्म दोनो के सहयोग से मुक्ति होती है ।' क्रियाविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन क्रिया दोनों निरर्थक है । यद्यपि गीता ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा दोनों को ही स्वतन्त्र रूप से मुक्ति का मार्ग बताती है । गीता के अनुसार व्यक्ति ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग तोनो में में किसी एक द्वारा भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है, जब कि जैन परम्परा में इनके गमवेत में ही मुक्ति मानी गयी है ।
बौद्ध-विचारणा में प्रज्ञा और शोल का सम्बन्ध - जैन-दर्शन के समान बौद्ध दर्शन भी न केवल ज्ञान (प्रज्ञा) की उपादेयता स्वीकार करता है और न केवल आचरण की । उसकी दृष्टि मे भी ज्ञानशून्य आचरण और क्रियाशून्य ज्ञान निर्वाण मार्ग मे सहायक नही है । उसने सम्यग्दृष्टि और सम्यक्स्मृति के साथ ही मम्यक् वाचा, सम्यक् - आजीव और सम्यक् कर्मान्त को स्वीकार कर इसी तथ्य की पुष्टि की है कि प्रज्ञा और शोल के समन्वय मे ही मुक्ति है । बुद्ध ने क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों को अपूर्ण माना है । जातक में कहा गया है कि आचरणरहित श्रुत से कोई अर्थ सिद्ध नही होता । दूसरी ओर बुद्ध की दृष्टि में नतिक आचरण अथवा कर्म चिन की एकाग्रता के लिए है । वे एक साधन है और इसलिए परमसाध्य नही हो सकने । मात्र शीलव्रत परामर्श अथवा ज्ञानशून्य क्रियाएँ बौद्ध साधना का लक्ष्य नहीं है, प्रज्ञा की प्राप्ति ही एक ऐसा तथ्य है, जिससे नैतिक आचरण बनता है। डा० टी० आर० व्ही० मूर्ति ने शान्तिदेव की बोधिचर्यावतार की पंजिका एवं अष्टमहस्रिका में भी इस कथन की पुष्टि के लिए
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१. नृसिंहपुराण, ६१।९. । ११ २. उद्धृत दी क्वेस्ट आफ्टर परफेकान, ६३ ३. जातक, ५।३७३।१२७
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