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जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग
परम्परा में निर्वाण की प्राप्ति के लिए शोल को आवश्यक माना गया है । शील और श्रत या आचरण और ज्ञान दोनों ही भिक्ष-जीवन के लिए आवश्यक हैं। उसमें भी शील अधिक महत्वपूर्ण माना गया है । विशुद्धिमार्ग में कहा गया है कि यदि भिक्षु अल्पश्रुत भी होता है, किन्तु गीलवान है तो गील ही उमकी प्रशंसा का कारण है। उसके लिए श्रुत अपने आप पूर्ण हो जाता है, इसके विपरीत यदि भिक्षु बहुश्रुत भी है किन्तु दुःशील है तो दु.शीलता उमको निन्दा का कारण है और उसके लिए श्रुत भी सुखदायक नही होता है। __शील का अर्थ-बौद्ध आचार्यों के अनुमार जिससे कुशल धर्मों का धारण होता है या जो कुगल धर्मों का आधार है, वह गील है। मद्गुणों के धारण या गीलन के कारण ही उमे मील कहते है । कुछ आचार्यों की दृष्टि से गिगर्थ गोलार्थ है, अर्थात् जिस प्रकार गिर के कट जाने पर मनुष्य मर जाता है वैमे ही शील के भंग हो जाने पर सारा गुण रूपी शरीर ही विनष्ट हो जाता है । इमलिा शील को गिरार्थ कहा जाता है।
विशुद्धिमार्ग मे शील के चार रूप वर्णित है।-१. चेतना गील २. चैत्तसिक गोल ३. मंवर शील और ४. अनुल्लंघन गोल ।
१. चेतना शोल-जीव हिमा आदि में विरत रहने वाले या व्रत-प्रतिपत्ति (व्रताचार) पूर्ण करनेवाली चेतना ही चेतना शील है । जीव-हिमा आदि छोड़नेवाले व्यक्ति का कुशल-कर्मों के करने का विचार चेतना गील है ।
२. चैतसिक शोल-जीव हिंमा आदि ने विरत रहने वाले की विरति चतमिक शील है, जैसे वह लोभ रहित चित्त में विहरता है। ___३. संवर शील-सवा गील पाँच प्रकार का है-१. प्रतिमोक्षसंवर, २. म्मृतिसंवर, ३. ज्ञानसंवर, ४. क्षातिमवर और ५. वीर्यमंवर । ___४. अनुल्लघन शोल-ग्रह्ण किये हए व्रत नियम आदि का उल्लंघन न करना यह अनुल्लंघन शील है। शोल के प्रकार
विमुद्धिमग्ग मे गोल का वर्गीकरण अनेक प्रकार में किया गया है । यहाँ उनमे से कुछ रूप प्रस्तुत है । शील का द्विविध वर्गीकरण
१. चारित्र-वारित्र के अनुसार गोल दो प्रकार का माना गया है। भगवान के द्वारा निर्दिष्ट 'यह करना चाहिए' इस प्रकार विधि रूप में कहे गये शिक्षा-पदों या नियमों का १. विगुद्धिमार्ग, भाग १, पृ० ४९
२. वही, पृ०९ ३. वही, पृ०८
४. वही, पृ० १३-१४