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सम्यकचारित्र (शोल)
८९ पालन करना 'चारित्र-शील' है। इसके विपरीत 'यह नही करना चाहिए' इस प्रकार निषिद्ध कर्म न करना 'वारित्र-शील' है। चारित्र-शील विधेयात्मक है, वारित्र-शील निषेधात्मक है।
२. निश्रित और अनिश्रित के अनुसार शील दो प्रकार का है। निश्रय दो प्रकार के होते है-तृष्णा-निश्रय और दृष्टि-निश्रय । भव-सपत्त को चाहते हुए फलाकाक्षा मे पाला गया शील तृष्णा-निश्रित है। मात्र शील से ही विशुद्धि होती है इस प्रकार की की दृष्टि में पाला गया शील दृष्टि-निधित है । तृष्णा-निश्रित और दृष्टि-निश्रित दोनों प्रकार के शील निम्न कोटि के है। तणा-निश्रय और दण्टि-निश्रय से रहित शील अनिश्रित-शील है । यही अनिश्रित-शील निर्वाण मार्ग का माधक हैं।
३. कालिक आधार पर शील दो प्रकार का है । किमी निश्चित समय त के लिए ग्रहण किया गया शील कालपर्यन्त-गील कहा जाता है जबकि जीवन-पर्यन्त के लिा ग्रहण किया गया शील आप्राणकोटिक गील कहा जाता है । जैन परम्पग में इन्हे क्रमशः इत्वरकालिक और यावत्कथित कहा गया है।
४. मपर्यन्त और अपर्यन्त के आधार पर शील दो प्रकार का है । लाभ, यश, जाति अथवा दारीर के किमी अग एव जीवन की रक्षा के लिए जिम शील का उल्लघन कर दिया जाता है वह मपर्यन्तशील है। उदाहरणार्थ, किमी विपशील नियम का पालन करने हा जाति-गरीर के किमी अग अथवा जीवन की हानि की गम्भावना को देखकर उम गील का त्याग कर देना । इसके विपरीत जिम गोल का उल्लघन किमी भी स्थिति मे नही किया जाता, वह अपर्यन्त शील है। तुलनात्मक दृष्टि में ये नैतिकता के गापेक्ष और निरपेक्ष पक्ष है । जैन परम्पग में इन्हें अपवाद और उन्गग मार्ग कहा गया है ।
५. लौकिक और अलौकिक के आधार पर शील दो प्रकार का है । जिम गील का पालन मामाजिक जीवन के लिए होता है और जो मायव है, वह लौकिक गील है । जिम मील का पालन निर्वेद विगग और विमक्ति के लिए होता है और जो अनास्रव है वह लोकोत्तर शील है। जैन-परम्पग मे उन्हें क्रमश. व्यवहार-चरित्र और निश्चयचारित्र कहा गया है। शील का विविध वर्गीकरण' __ शील का विविध वर्गीकरण पाँच त्रिकों में किया गया है
१. हीन, मध्यम और प्रणीत के अनुमार गील तीन प्रकार का है। दूमगे की निन्दा की दृष्टि में अथवा उन्हे हीन बताने के लिए पाला गया गील हीन है। लौकिक शील या मामाजिक नियम-मर्यादाओं का पालन मध्यम शील है और लोकोत्तर शील प्रणीत है। एक दूसरी अपेक्षा में फलाकाक्षा में पाला गया शील होन है । अपनी १. विशुद्धिमार्ग, पृ० १५-१६