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जैन, बौद्ध और गोता का साधना मार्ग
मुक्ति के लिए पाला गया शील मध्यम है और सभी प्राणियों की मुक्ति के लिए पाला गया पारमिता गील प्रणीत है ।
२. आत्माधिपत्य, लोकाधिपत्य और धर्माचिपत्य की दृष्टि से भी शील तीन प्रकार का है। आत्म गौरव या आत्म-सम्मान के लिए पाला गया शील आत्माधिपत्य है । लोक-निन्दा से बचने के लिए अथवा लोक में सम्मान अर्जित करने के लिए पाला गया शील लोकाधिपत्य है । धर्म के महत्त्व, धर्म के गौरव और धर्म के सम्मान के लिए पाला गया शील धर्माधिपत्य है ।
३. परामृष्ट, अपरामृष्ट और प्रतिप्रश्रब्धि के अनुसार शोल तीन प्रकार का है । मिथ्यादृष्टि लोगों का आचरण परामृष्ट शील है । मिथ्यादृष्टि लोगो मे भी जो कल्याणकर या शुभ कर्मों में लगे हुए है उनका शील अपरामृष्ट है, जब कि सम्यदष्टि के द्वारा पाला गया शील प्रतिप्रश्रव्धि शील है ।
४. विशुद्ध, अशुद्ध और वैमतिक के अनुसार शील तीन प्रकार का है। आपत्ति या दोष से रहित शील विशुद्ध शील है। आपत्ति या दापयुक्त शाल अविशुद्ध शील हे । दोप या उल्लघन सम्बन्धी बातों के बारे मे जो सदेह में पड़ गया है, उसका शोल वैमतिकगोल है ।
५. शैक्ष्य, अशैक्ष्य और न-शैक्ष्य-न- अशैक्ष्य के अनुसार गील तीन प्रकार का है । मिथ्या दृष्टि का शील न-शैक्ष्य-न अशैक्ष्य है । सम्यकदृष्टि का शील शैक्ष्य है और अर्हत् का शील अशैक्ष्य है |
विशुद्धिमग्ग मे शील का चतुविध और पचविध वर्गीकरण भी अनेक रूपों में वर्णित है । लेकिन विस्तार भय एवं पुनरावृत्ति के कारण यहाँ उनका उल्लेख करना आवश्यक नही है ।
शील का प्रत्युपस्थान — काया की पवित्रता, वाणी की पवित्रता और मन की पवित्रता ये तीन प्रकार की पवित्रताएँ शोल के जानने का आकार ( प्रत्युपस्थान ) है अर्थात् कोई व्यक्ति शीलवान् है या दुःशील है, यह उसके मन, वचन और कर्म की पवित्रता के आधार पर ही जाना जाता है ।
शील का पवस्थान-जिन आधारों पर शील ठहरता है, उन्हें शील का पदस्थान कहा जाता है । लज्जा और संकोच इसके पदस्थान है । लज्जा और सकोच के होने पर ही शील उत्पन्न होता है और स्थित रहता है, उनके न होने पर न तो उत्पन्न होता और न स्थिर रहता है ।
शील के गुण-शील के पाँच गुण हैं - १. शीलवान व्यक्ति अप्रमादी होता है और अप्रमादी होने से वह विपुल धन-सम्पत्ति प्राप्त करता है । २. शील के पालन से व्यक्ति की ख्याति या प्रतिष्ठा बढती है । ३. सचरित्र व्यक्ति को कहीं भी भय और संकोच १. विशुद्धि मार्ग (भूमिका), पृ० २१