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________________ सम्यक्चारित्र (झील) पापों से विरति भी सामायिक चारित्र है । सामायिक चारित्र दो प्रकार का है-(अ) इत्वरकालिक - जो थोड़े समय के लिए ग्रहण किया जाता है और (ब) यावत्कथित - जो सम्पूर्ण जीवन के लिए ग्रहण किया जाता है । ८७ २. छेोपस्थापनीयचारित्र - जिम चारित्र के आधार पर श्रमण जीवन मे वगिठता और कनिष्ठता का निर्धारण होता है वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है । यह सदाचरण का बाह्य रूप है, इसमे आचार के प्रतिपादित नियमों का पालन करना होता है और नियम के प्रतिकूल आचरण पर दण्ड देने की व्यवस्था होती है । ३. परिहारविशुद्धिचारित्र - जिम आचरण के द्वारा कर्मो का अथवा दोषो का परिहार होकर निर्जंग के द्वारा विशद्धि हो वह परिहारविद्धिवारित्र है । ४. सूक्ष्मसम्पराय चारित्र - जिस अवस्था में कपाय-वत्तिया क्षीण होकर किचित् रूप में ही अवशिष्ट रही हों, वह सूक्ष्म सम्परायचारित्र हैं । ५. यथाख्यातचारित्र - कपाय आदि सभी प्रकार दोपों से रहित निर्मल एवं विशुद्ध चारित्र यथाख्यातचारित्र है । यथाख्यातचारित्र निश्चयचारित्र है । चारित्र का त्रिविध वर्गीकरण वामनाओं के क्षय, उपशम और क्षयोपशम के आधार पर चारित्र के तीन भेद है । १. क्षायिक, २. औपशमिक और ३ श्रापोपशमिक । क्षायिकचारिन हमारे आत्मस्वभाव मे प्रतिफलित होता है। उसका स्रोत हमारी आत्मा ही है, जब कि औपशमिकचारित्र में यद्यपि आचरण सम्यक् होता है, लेकिन आत्मस्वभाव मे प्रतिफलित नही होता । वह कर्मों के उपशम से प्रकट होता है । आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में क्षायिकचारित्र में वासनाओं का निग्मन हो जाता है, जब कि औपशमिक चारित्र मे मात्र वागनाओं का दमन होता है । वामनाओं का दमन और वामनाओं के निरगन में जो अन्तर है, वही अन्तर औपशमिक और क्षायिकचारित्र में है । नैतिक साधना का लक्ष्य वामनाओं का दमन नही वरन् उसका निरसन या परिकार है । अतः चारित्र का क्षायिक प्रकार ही नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि में महत्वपूर्ण सिद्ध होता है । चारित्र के उपर्युक्त सभी प्रकार आत्मशोधन की प्रक्रियाएँ है । जो प्रक्रिया जितनी अधिक मात्रा में आत्मा को राग, द्वेष और मोह से निर्मल बनाती है, वामनाओं की आग मे तप्त मानस को शीतल करती है और संकल्पों और विकल्पों के चंचल झंझावात मे बचा कर चित्त को शान्ति एवं स्थिरता प्रदान करती है और समाजिक एवं वैयक्तिक जीवन में समत्व की संस्थापना रखती है, वह उतनी ही अधिक मात्रा में चारित्र के उज्ज्वलतम पक्ष को प्रस्तुत करती है । बौद्ध दर्शन और सम्यक्चारित्र बौद्ध दर्शन में सम्यक्चारित्र के स्थान पर शील शब्द का प्रयोग हुआ है । बोद्ध
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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