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________________ सम्यक तप तथा योगमार्ग ११५ तप, चाहे वह इन्द्रिय संयम हो, चित्त निरोध हो अथवा लोक-कल्याण या बहुजनहित हो, उसके महत्त्व से इनकार नहीं किया जा सकता । उसका वैयक्तिक जीवन के लिए एवं समाज के लिए महत्त्व है । डॉ० गफ आदि कुछ पाश्चात्त्य विचारकों ने तथा किसी सीमा तक स्वयं बुद्ध ने भी तपस्या को आत्म-निर्यातन (Self Torture ) या स्वपीडन के रूप में देखा और इसी आधार पर उसकी आलोचना भी की है । यदि तपस्या का अर्थ केवल आत्म-निर्यातन या स्वपीड़न ही है और यदि इस आधार पर उसकी आलोचना की गयी हैं तो समुचित कही जा सकती है। जैन विचारणा और गीता की धारणा भी इससे महमत ही होगी । लेकिन यदि हमारी सुखोपलब्धि के लिए परपीड़न अनिवार्य हो तो ऐसी सुखोपलब्धि समालोच्य भारतीय आचार-दर्शनों द्वारा त्याज्य ही होगी । इमी प्रकार यदि स्वपीड़न या परपीड़न दोनों में से किसी एक का चुनाव करना हो तो स्वपीड़न हो चुनना होगा । नैतिकता का यही तकाजा है । उपर्युक्त दोनों स्थितियों में स्वपीड़न या आत्म-निर्यातन को क्षम्य मानना ही पड़ेगा । भगवान् बुद्ध स्वयं ऐसी स्थिति में स्वपीड़न या आत्म-निर्यातन को स्वीकार करते हैं । यदि चित्तवृत्ति या वासनाओं के निरोध के लिए आत्म-निर्यातन आवश्यक हो तो इसे स्वीकार करना होगा । भारतीय आचार-परम्पराओं एवं विशेषकर जैन आचार-परम्परा में तप के माथ शारीरिक कष्ट सहने या आत्म-निर्यातन का जो अध्याय जुड़ा है उसके पीछे भी कुछ तर्कों का बल तो है ही । देह - दण्डन की प्रणाली के पीछे निम्नलिखित तर्क दिये जा मकते है १. सामान्य नियम है कि सुख की उपलब्धि के निमित्त कुछ न कुछ दुःख तो उठाना ही होता है, फिर आत्म-सुखोपलब्धि के लिए कोई कष्ट न उठाना पड़े, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? २. तप स्वयं को स्वेच्छापूर्वक कष्टप्रद स्थिति में डालकर अपने वैचारिक समत्व का परीक्षण करना एवं अभ्यास करना है । 'मुख दुःखे समं कृत्वा' कहना महज हो सकता है लेकिन ठोस अभ्यास के बिना यह आध्यात्मिक जीवन का अंग नहीं बन सकता और यदि वैयक्तिक जीवन में ऐसे महज अवसर उपलब्ध नहीं होने हैं तो स्वयं को कष्टप्रद स्थिति में डालकर अपने वैचारिक ममत्व का अभ्यास या परीक्षण करना होगा । लेकिन शरीर और आत्मा ३. यह कहना महज है कि 'मैं चैतन्य हूँ, देह जड़ है ।' के बीच, जड़ और चेतन के बीच, पुरुष और प्रकृति के बीच, सत् ब्रह्म और मिथ्या जगत् के बीच जिस अनुभवात्मक भेद-विज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता है, उसकी सच्ची कमौटी तो यही आत्म-निर्यातन की प्रक्रिया है । देह दण्डन या काय-क्लेश वह अग्नि
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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