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________________ ११६ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग परीक्षा है जिसमें व्यक्ति अपने भेदज्ञान की निष्ठा का सच्चा परीक्षण कर सकता है । उपर्युक्त आधार पर हमने जिस देह-दण्डन या आत्म-निर्यातन रूप तपस्या का समर्थन किया है वह ज्ञान-ममन्वित तप है । जिस तप में समत्व की साधना नहीं भेदविज्ञान का ज्ञान नहीं, ऐमा देह दण्डनरूप तप जैन- माधना को बिलकुल मान्य नही है । भगवान् पार्श्वनाथ और तापस कमठ के बीच तप का यही स्वम्प तो विवाद का विषय था और जिसमें पार्श्वनाथ ने अज्ञानजनित देह-दण्डन को प्रणाली की निन्दा की थी । स्वाध्याय तप का ज्ञानात्मक स्वरूप है । भारतीय ऋषियों ने स्वाध्याय को तप के रूप में स्वीकार कर तप के ज्ञान समन्वित स्वरूप पर ही जोर दिया है । गीताकार ज्ञान और तप को साथ-साथ देखता है । भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर ने अज्ञानयुक्त तप की निन्दा समान रूप से की है । भगवान् महावीर कहते है कि जो अज्ञानीजन मास -माम की तपस्या करते हैं उसकी समाप्ति पर केवल कुशाग्र जितना अन्न ग्रहण करते हैं वे ज्ञानी की सोलहवीं कला के बराबर भी धर्म का आचरण नही करते । २ यही बात इन्ही शब्दों में बुद्ध ने भी कही है । 3 दोनों कथनों में शब्द साम्य विशेष द्रष्टव्य है । इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन अज्ञानयुक्त तप को हेय समझते हैं । देह-दण्डन को यदि कुछ ढीले अर्थ में लिया जाये तो उसकी व्यावहारिक उपादेयता भी सिद्ध हो जाती है । जैसे व्यायाम के रूप मे किया हुआ देह-दण्डन (शारीरिक कष्ट ) स्वास्थ्य रक्षा एवं शक्ति-संचय का कारण होकर जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में भी लाभप्रद होता है, वैसे ही तपस्या के रूप में देह- दण्डन का अभ्यास करने वाला अपने शरीर में कष्ट सहिष्णु शक्ति विकसित कर लेता है, जो वासनाओं के संघर्ष में ही नहीं, जीवन की सामान्य स्थितियों में भी सहायक होती है । एक उपवास का अभ्यासी व्यक्ति यदि किसी परिस्थिति में भोजन प्राप्त नहीं कर पाता, तो इतना व्याकुल नहीं होगा जितना अनभ्यस्त व्यक्ति । कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है । आध्यात्मिक दृष्टि के बिना शारीरिक यन्त्रणा अपने आप में कोई तप नहीं है, उसमें भी यदि इस शारीरिक यन्त्रणा के पीछे लौकिक या पारलौकिक स्वार्थ हैं तो फिर उसे तपस्या कहना महान् मूर्खता होगी। जैन- दार्शनिक भाषा में तपस्या में देह दण्डन किया नहीं जाता, हो जाता है । तपस्या का प्रयोजन आत्म १. देखिये - गीता १६।१, १७, १५, ४ १०, ४२८ २. मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसि ॥ - उत्तराध्ययन, ९।४४ ३. मासे मासे कुसग्गेन बालो भुंजेय भोजनं । न सो संखतधम्मानं कलं अग्धति सोलसि ॥ - धम्मपद, ७०
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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