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जैन, बौद्ध और गोता का साधना मागं
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से पृथक नहीं माना गया है । जैन परम्परा में धारणा, ध्यान और समाधि तीनों ध्यान में हो ममाविष्ठ हैं । शुक्लध्यान की अवस्थाएँ समाधि के तुल्य हैं । समाधि के दो विभाग किये गए हैं - १. संप्रज्ञात -समाधि और २ असंप्रज्ञात -समाधि । संप्रज्ञात समाधि का अन्तर्भाव शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकार पृथक्त्ववितर्क मविचार और एकत्व वितर्क अविचार मे और अमंप्रज्ञात-समाधि का अन्तर्भाव शुक्ल- ध्यान के अन्तिम दो प्रकार सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ओर समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति में हो जाता है ।
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इस प्रकार अष्टांग योग मे प्राणायाम को छोड़कर शेष सभी का विवेचन जैनआगमों में उपलब्ध है । यही नहीं, परवर्ती जैनाचार्यो ने प्राणायाम का विवेचन भी किया है । आचार्य हरिभद्र ने तो पचाग योग का विवेचन भी किया है, जिसमे योग के निम्न पाँच अंग बताये है: - १. अध्यात्म, २. भावना, ३. ध्यान, ४. समता और ५. वृत्तिसंक्षय | आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिममुच्चय, योग-बिन्दु और योगविशिका; आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव तथा आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र की रचना कर जैन परम्परा में योग-विद्या का विकाम किया है ।
तप का सामान्य स्वरूप एक मूल्याकन - तप शब्द अनेक अर्थो मे भारतीय आचार दर्शन में प्रयुक्त हुआ है और जब तक उसकी मीमाएँ निर्धारित नहीं कर लीजाती, उसका मूल्यांकन करना कठिन है । 'तप' शब्द एक अर्थ मे त्याग भावना को व्यक्त करता है। त्याग चाहे वह वैयक्तिक स्वार्थ एवं हितों का हो, चाहे वैयक्तिक मुखोपलब्धियों का हो, तप कहा जा सकता है । सम्भवतः यह तप की विस्तृत परिभाषा होगी, लेकिन यह तप के निषेधात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत करती है । यहाँ तप, संयम, इन्द्रिय-निग्रह और देह- दण्डन बन कर रह जाता है। तप मात्र त्यागना ही नहीं है, उपलब्ध करना भी है । तप का केवल विसर्जनात्मक मूल्य मानना भ्रम होगा । भारतीय आचार-दशनो ने जहाँ तप के विसर्जनात्मक मूल्यों की गुण गाथा गायी है, वही उसके सृजनात्मक मूल्य को भी स्वीकार किया है। वैदिक परम्परा में तप को लोक-कल्याण का विधान करने वाला कहा गया है। गीता की लोक-संग्रह की और जैन परम्परा की वैयावृत्य या संघसेवा की अवधारणाएँ तप के विधायक अर्थात् लोक-कल्याणकारी पक्ष को ही तो अभिव्यक्त करती है । बोद्ध परम्परा जब "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय " का उद्घोप देती है तब वह भी तप के विधायक मूल्य का ही विधान करती है ।
सृजनात्मक पक्ष में तप आत्मोपलब्धि ही है, लेकिन यहाँ स्व-आत्मन् इतना व्यापक होता है कि उसमे स्व या पर का भेद ही नही टिक पाता है और इसीलिए एक तपस्वी का आत्म-कल्याण और लोक कल्याण परस्पर विरोधी नहीं होकर एक रूप होते हैं । एक तपस्वी के आत्मकल्याण मे लोक-कल्याण समाविष्ट रहता है और उसका लोक-कल्याण आत्म-कल्याण ही होता है ।
१. विस्तृत एवं सप्रमाण तुलना के लिए देखिए — जैनागमों में अष्टांग योग ।