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________________ समस्व-योग परता, सुख-लोलुपता आदि दोषो की वृद्धि होती रहती है जो व्यक्ति, परिवार, समाज एव विश्व के लिए विषमताओ का कारण बनती है । मकीगंता, स्वार्थपरता एव सुखलोलुपता के कारण व्यक्ति अन्य व्यक्ति से येन केन प्रकारेण अपना स्वार्थ साधना चाहता है । उसके इन कृत्यो एव प्रवृत्तियो से परिजन, ममाज दश व विश्व का अहित होता है । प्रतिक्रियास्वरूप दोहरा संघर्ष पदा होता । एक ओर उसकी वासनाओ के मध्य आन्तरिक संघर्ष चलता रहता है, तो दूसरी ओर उसका बाह्य वातावरण से अर्थात् समाज, देश और विश्व से संघर्ष चलता रहता ह । ० इसी मघर्ष की समाप्ति के लिए और विषमताओ स ऊपर उठन के लिए समत्वयोग की साधना आवश्यक है । समत्व-योग राग-द्वेष-जन्य चेतना की सभी विकृतियो दूर कर आत्मा को अपनी स्वभाव-दशा मे अथवा उसके अपन स्व-स्वरूप मे प्रतिष्ठित करता ह 1 जैनधर्म में समत्व योग का महत्व समत्व-योग के महत्त्व का प्रतिपादन करत हुए जैनागमो में कहा गया है कि व्यक्ति चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर, बोद्ध हो अथवा अन्य किसी मत का, जो भी समभाव मे स्थित होगा वह निस्संदेह मोक्ष प्राप्त करगा ।" एक जादगी प्रतिदिन लाख स्व | मुद्राओ का दान करता है ओर दूसरा समन्वयाग की साधना करता है, किन्तु वह स्तमुद्राजा का दानी व्यक्ति समत्व याग सालक का समानता नही कर सकता।" कराडो जन्म तक निरन्तर उग्र तपश्चरण करनवाला मावक जिन कर्मा || ना नहीं कर सकता, उनको समभाव का साधक मात्र आधे हा क्षण म नष्ट कर अना 1 न कोई कितना ही तीव्र तप त जप जप अथवा मुनिवेश वाणस्य काण्डरूप चारि। का पालन करें, परन्तु समताभाव के विना न किमान हुआ और न होगा ।" जी भी मानक अतीतकाल मे माझ गए हैं, वर्तमान में जा रहे है, और यम जायेंगे, यह सब ममत्वयोग का प्रभाव ह । " आचार्य हमचन्द्र समभाव की साधना को रागविजय का मार्ग बतान हुए कहत है कि तीव्र आनन्द का उत्पन्न करने वाले समभाव रूपी जल में अवगाहन करने वाले पुम्पा का राग-द्व ेष रूपी मल सहज नष्ट हो जाता है । समताभाव के अवलम्बन में अन्नमुहूर्त में मनु जिन कर्मा का नाश कर डालता है, वे तीव्र तपश्चर्या में करोडो जन्मो मे भी नही नष्ट हो सका । जैम आपस मे १. सेयम्बरो वा आमम्बरो वा बुद्धो वा तहव अन्नो वा । समभावभावियप्पा लहड् मुक्ख न सदहा ।। - हरिभद्र २ - ५. सामायिक सूत्र ( अमरमुनि ) पृ० ६३ पर उद्धृत । ६-७. योगशास्त्र, ४।५०-५३ ।
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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