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________________ २४ जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग मानते है तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनो का यौगपद्य ( ममानान्तरता ) स्वीकार किया है । यद्यपि आचार - मी मामा की दृष्टि में दर्शन की प्राथमिकता ही प्रबल रही है । उत्तराध्ययनसूत्र मे कहा है कि दर्शन के बिना ज्ञान नही हाता ।" इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा दर्शन को प्राथमिकता दी गयी है । तन्वार्थमूनकार उमास्वाति ने भी अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान और चारित्र के पहले स्थान दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड में कहते है कि धर्म ( साधनामार्ग ) दर्शन-प्रधान है । 3 लेकिन दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐगे भी है जिनमें ज्ञान को प्रथम माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में, उसी अध्याय में मोल मार्ग की विवेचना में जो क्रम है उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम ह । वस्तुतः साधनात्मक जीवन की दृष्टि से भी ज्ञान और दर्शन में किसे प्राथमिक माना जाय, यह निर्णय कन्ना गहज नहीं है । इस विवाद के मूल मे यह तथ्य है कि श्रद्धावादी दृष्टिकोण सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान देता है, जब कि ज्ञानवादी दृष्टिकोण श्रद्धा के सम्यक होने के 1 ए ज्ञान की प्राथमिकता को स्वीकार करता है । वस्तुतः इस विवाद मे कोई एकान्तिक निर्णय लेना अनुचित ही होगा । यहाँ समन्वयवादी दृष्टिकोण ही मंगत होगा । नवतत्त्वप्रकरण मे ऐसा ही समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया गया है जहां दोनो को एकदूसरे का पूर्वापर बताया है । कहा है कि जो जीवादि नत्र पदार्थो को यथार्थ रूप से जानता है उस सम्यक्त्व होता है। इस प्रकार ज्ञान को दर्शन के पूर्व बताया गया है, लेकिन अगली पक्ति में ही ज्ञानाभाव में केवल श्रद्धा से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति मान ली गयी है और कहा गया है कि जो वस्तुतत्त्व स्वतः नही जानता हुआ भी उसके पति भा. से श्रद्धा करता है उगे सम्यक्त्व हो K जाता - हम अपने दृष्टिकोण से इनमें से किसे प्रथम स्थान द इनका निर्णय करने के पूर्व दर्शन शब्द के अर्थ का निश्चय कर लेना जरूरी है । दनि शब्द के दो अर्थ है१. यथार्थ दृष्टिकोण और २ श्रद्धा । यदि हम दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ लेते है तो हमे साधना-मार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना चाहिए। क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही मिथ्या है, अथार्थ है तो न तो उसका ज्ञान सम्यक् (यथार्थ ) होगा और न चारित्र हो । यथार्थ दष्टि के अभाव मे यदि ज्ञान और चारित्र मन्यक् प्रतीत भी हो, तो भी वे सम्पर्क नही कहे जा सकने । वह तो मयोगिक प्रसंग मात्र है । ऐसा साधक दिग्भ्रात भी हो सकता है जिसकी दृष्टि ही दूषित है, वह क्या सत्य को जानेगा और उसका आचरण करेगा ? दूसरी ओर यदि हम सम्यग्दर्शन का श्रद्धापरक १. उत्तराध्ययन २८|३० २. तत्त्वार्थसूत्र १।१ 1 ३. दर्शनपाहुड, २ ४. ५. नवतत्त्व प्रकरण १ उद्धृत - आत्मसाधना संग्रह, पृ० १५१ , उत्तराध्ययन, २८ २
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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