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मिविय साधना-मार्ग
अर्थ लेते है तो उसका स्थान ज्ञान के पश्चात् ही होगा। क्योकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद ही उत्पन्न हो सकती है । उत्तगध्ययनगूत्र मे भी दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ करते समय उसे ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है। ग्रन्थकार कहते है कि ज्ञान से पदार्थ ( तत्व ) स्वरूप को जाने और दर्शन के द्वाग उस पर श्रद्धा करें।' व्यक्ति के स्वानुभव ( ज्ञान ) के पश्चात् ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, उममे जो स्थायित्व होता है वह ज्ञानाभाव मे प्राप्त हुई श्रद्धा मे नही हो गकता। ज्ञानाभाव म जो श्रद्धा होती है, उसमे सशय होने की सम्भावना हो सकती है । गी श्रद्धा यथार्थ श्रद्धा नही वरन् अन्ध श्रद्धा ही हो सकती है । जिन-प्रणीत तत्त्वो में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवं तार्किक परीक्षण के पश्चात् ही हो गकती है । यद्यपि माधना के लिए, आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्त्व है, लेकिन वह ज्ञान-प्रमूत होनी चाहिए। रत्नराध्यानमूत्र में स्पष्ट कहा है कि धर्म की गगीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करे, तकरी तत्व का विश्लेषण करें ।' ___ इस प्रकार यथार्थ दृष्टिपरक अर्थ में मम्यग्दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना चाहिए, जब कि श्रद्धापरक अर्थ मे उसे ज्ञान । पश्चात् ग्थान देना चाहिए ।
बौद्ध-विचारणा में ज्ञान और श्रद्धा का सम्बन्ध-बौद्ध-विचारणा न सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टि शब्द का यथार्थ दष्टिकोणपरक अर्थ स्वीकारा है और अष्टागिक माधनामार्ग में उमे प्रथम स्थान दिया है। यद्यपि आग गाधना-गार्ग में ज्ञान का कोई स्वतन्त्र स्थान नही है, तथापि वह मम्पष्टि में ही गमाहित है। आशिक रूप में उमे मभ्यक् स्मति के अधीन भी माना जा सकता .: । तथापि बाद्ध गाधना के विविध मार्ग शील, ममाधि, प्रज्ञा में ज्ञान को स्वतन्त्र स्थान भी प्रदान की है । चा.' बुद्ध न आत्मदीप एवं आत्मशरण के स्वर्णिम मुत्र का उद्याप कर श्रद्धा को अपना ग्वावलम्बन का पाठ पढ़ाया हो, फिर भी बौद्ध आचार-दर्शन में श्रद्धा का हावपूर्ण ग्थान गभी यगो मे रहा है। सुत्तनिपात में आलवक यक्ष के प्रति बुद्ध म्वय कहत है कि मनग्य का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है। मनुष्य श्रद्धा में इस मंमाग्रूप बाट को पार करता है। इतना ही नहीं, ज्ञान की उपलब्धि के साधन के रूप में श्रद्धा को स्वीकार करके बद्ध गीता की विचारणा के अत्यधिक निकट आ जाते है। गीता रे ममान ही बुद्ध मुनिपात में आलवक यक्ष से कहते है, "निर्वाण की ओर ले जानेवाले अहंतो के प्रम में श्रद्धा ग्यनवाला अप्रमत्त
और विचक्षण पुरुप प्रज्ञा प्राप्त करता ह ।'५ 'थद्धावाल्लभन ज्ञान' और 'महानो लभते पञ्च' का शब्द-माम्य दोनों आचार-दर्शनों मे निकटना दखनेवाले विद्वानों के लिए विशेषरूप से द्रष्टव्य है।
लेकिन यदि हम श्रद्धा को आस्था के अर्थ में ग्रहण कर है तो बुद्ध की दृष्टि में १. उत्तराध्ययन, २८१३५
२. वही, २३।२५ ३. सुत्तनिपात, १०२
४. वही, १०६४ ५. वही, १०६