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जैन, बोड और गोता का साधना मार्ग प्रज्ञा प्रथम है और श्रद्धा द्वितीय स्थान पर । मंयुत्तनिकाय में बुद्ध कहते है कि श्रद्धा पुरुष की साथी है और प्रजा टम पर नियन्त्रण करती है।' इस प्रकार श्रद्धा पर विवेक का स्थान स्वीकार किया गया है। बुद्ध कहते है, श्रद्धा मे ज्ञान बड़ा है। इस प्रकार बुद्ध की दृष्टि में ज्ञान का महत्त्व अधिक मिद्ध होता है । यद्यपि बुद्ध श्रद्धा के महत्व को और ज्ञान-प्राप्ति के लिए उमको आवश्यकता को स्वीकार करते है, तथापि जहाँ श्रद्धा और ज्ञान में किमी की श्रेष्ठता का प्रश्न आता है वे ज्ञान (प्रज्ञा) की श्रेष्ठता को स्वीकार करते है। बौद्ध-माहित्य में बहुचर्चित कालाममुत्त भी इसका प्रमाण है । कालामों को उपदेश देते हुए बुद्ध स्वविवेक को महत्त्वपूर्ण स्थान देते है । वे कहते है 'हे कालामों, तुम किसी बात को इमलिए स्वीकार मत करो कि यह बात अनुश्रुत है, केवल इसलिए मत स्वीकार कगे कि यह बात परम्पगगत है, केवल इमलिा मत स्वीकार कगे कि यह बात इसी प्रकार कही गई है, केवल इगलिए मत स्वीकार करो कि यह हमारे धर्म-ग्रथ (पिटक) के अनुकूल है, केवल, इमलिा मत पीकार करो कि यह तर्क-मम्मत है, केवल इसलिए मत स्वीकार कगे कि यह न्याय (गास्त्र) मम्मन है, केवल इलिए मत स्वीकार करो कि मका आकार-प्रकार (कथन का ढग) मुन्दर है, केवल इमलिए मन स्वीकार कगे कि यह हमारे मत के अनुकूल है. केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि कहने वाले का व्यक्तित्व आकर्षक है, . प्रल इलिए मत स्वीकार कगे कि कहने वाला श्रमण हमार। पूज्य है । ह का लामा. (यदि) तुम जब आत्मानुभव मे अपन आप ही यह जानो कि ये बाते अकुशल है, ये बात दाप है य बाने विज्ञ पुरुषो द्वारा निदित है, इन बातो के अनुसार वलन ग जहित हाता है, दुग होता ह-तो हे कालामो, तुम उन बातो को छोड दो' । बुद्ध का उपर्युक्त कथन श्रद्धा के आर मानवीच विव। की श्रेष्ठता का प्रतिपादक है।
लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि बुद्ध मानवीय प्रज्ञा का श्रद्धा म पूर्णतया निर्मक्त कर देते है । बुद्ध की दृष्टि मे ज्ञान विहीन श्रद्धा मनुष्य के स्वविवेक रूपी चक्षु को ममाप्त कर उसे अन्धा बना देती ह और श्रद्धा-विहीन ज्ञान मनुष्य को सशय ओर तर्क के मरूस्थल मे भटका देता है। इस मानवीय प्रकृत्ति का विश्लेषण करत हुए विसुद्धिमग्ग में कहा है कि बलवान श्रद्धावाला किन्तु मन्द प्रज्ञा वाला व्यक्ति बिना सोचे-समझे हर कही विश्वास कर लेता है और बलवान् प्रज्ञावाला किन्तु मन्द श्रद्धावाला व्यक्ति कुताकिक (पूर्त) हो जाता है, वह औपवि से उत्पन्न होनेवाले रोग के ममान ही अमाध्य होता है। इस प्रकार बुद्ध अक्षा अ र विवेक के मध्य एक ममन्वयवादो दृष्टिकोण प्रस्तुत करते है। उनसरी दृष्टि में ज्ञान में युक्त श्रद्धा और श्रद्धा से युक्त ज्ञान ही माधना के क्षेत्र मे सच्चे दिशा-निर्देशक हो सकते है । १. संयुत्तनिकाय, ११११५९
२. वही, ४।४१२८ ३. अंगुत्तरनिकाय, ३६५
४. गीता, ४।३९